मिलम, कहते हैं किसी समय अल्मोड़ा जिले के सबसे बड़े गांवों में एक गिना जाता था. यह इतना बड़ा था कि यहाँ के बारे में एक किस्सा ही चल पड़ा. जब कोई नई दुल्हन ब्याह कर यहाँ आती थी तो जब सुबह पानी भर के आती तो अपना घर नहीं ढूंढ पाती और गाँव की एक सी लगने वाली गलियों में भटक जाती थी. यह मेरे लिए तब तक महज एक किस्सा था, जब तक मैंने मिलम गाँव को देख नहीं लिया.
(Milam Glacier Trek Travelogue)
मेरे लिए मिलम महान सर्वेयर पंडित नैन सिंह का गाँव था. मेरे लिए वह हिलौरे मारती गोरी गंगा का मायका था. मेरे लिए वह उन महान शौका व्यापारियों का गाँव था जिन्होंने हिमालय पार और गंगा के मैदान के बीच एक जीवंत रिश्ता बनाया. यह गाँव जो कभी इतना बड़ा और फलाफूला था कि इसके समृद्ध व्यापारियों पर हमेशा गोरखा लुटेरों की बुरी नजर रहती.
कहते हैं कि दुस्साहसी गोरखा लुटेरे डोटी से व्यास- दारमा- रालम को ऊपर ही ऊपर के कठिन दर्रों से पार कर यहाँ लूट मचाने आते थे. निस्संदेह व्यापार की इस नगरी में समृद्धि तो थी ही वरना इतने कठिन अभियान लेकर यहाँ कोई अनाड़ी ही आता. आज जब मिलम लगभग खंडहर बन चुका है तब भी इसकी गलियों में हम अनेक बार भटक गए. किसी नयी दुल्हन के लिए उस भरपूर मिलम में भटकना कोई असंभव बात नहीं रही होगी.
आज भी मिलम के बीचों-चीच एक बहुत बड़े भवन के अवशेष हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि यह गोरखा लुटेरों के हमले के समय आत्मरक्षा के लिए इस्तेमाल होता था. इसको लोग गोरखा जेल के नाम से पहचानते हैं. सारा गाँव खुद को इसके अन्दर बंद कर लेता और दीवार में बने छोटे-छोटे छेदों से भरवा बंदूकें बाहर कर लुटेरों को डराया जाता. आज इस भवन के कुछ ही अवशेष बचे हैं लेकिन एक खंडहर की दीवार में दस फिट का पत्थर आज भी देखा जा सकता है. दीवार पर छोटे- छोटे छेद भी दिख जाते हैं.
मिलम गोरी गंगा के उद्गम यानी मिलम ग्लेशियर से ठीक पहले गोरी के बांये किनारे की ओर बसा है. इसका विस्तार दो स्तरों में दिखता है. एक बहुत बड़ा मैदान गोरी के पाट से लगा हुआ है जिसमें अब खेतों के अवशेष भर हैं. इन बंजर खेतों से लगभग पचास मीटर ऊपर एक और मैदान फैला है जिसमें बसा है मिलम का गाँव.
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गाँव के अंतिम छोर पर ग्वन्खा गाड़ आकर गोरी में मिलती है. मिलम असल में ग्वन्खा और गोरी के बीच में फैला विशाल मैदान है. ग्वन्खा के किनारे किनारे एक पुराना रास्ता दुंग होते हुए ऊंटाधुरा और किंगरी बिन्ग्री के लिए जाता है.
फिलहाल मिलम लगभग उजड़ चुका एक गाँव है. कुछ लोग बताते हैं कि चीन से जंग के बाद जब व्यापार बंद हुआ और आबादी ने बड़ी संख्या में पलायन किया तो यह गाँव लगभग अनाथ सा हो गया. यहाँ पर जब सीमा पुलिस की छावनी बसी तो गाँव के मकानों की बल्लियाँ, द्ववार-संगाड सब छावनी का ईधन बन गए. चूँकि यहाँ नजदीक में कोई जंगल न था इसलिए खाली पड़े गाँव की बल्लियाँ और भीत भी धीरे-धीरे जला दी गयी.
सन साठ के आसपास यहाँ चार सौ परिवार मौसमी प्रवास में आकर खेती, पशुपालन और व्यापार की गतिविधियों में लगे थे जो चालीस साल बाद घट कर चार परिवार ही रह गए. कुछ परिवार घोड़े खच्चरों में सीमा बल का सामान ढोने के काम से जुड़े तो कुछ ने जड़ी बूटी उगाने और पर्यटन में कुछ आय खोज ली लेकिन यह सब खोये हुए वैभव के सम्मुख शून्यप्राय था.
मिलम घाटी में मेरी यह तीसरी यात्रा थी और हर बार की कहानियां कुछ अलग ही थी. इस बार हमने मिलम ग्लेशियर को पार कर नित्वाल थौड़ और सूरज कुंड तक जाना था जहाँ हम पहले कभी नहीं गए. मिलम में आने के दिन ही हमें इस तरफ जाने के लिए सीमा पुलिस ने मना कर दिया. जब तक हमने पुख्ता पत्र वगैरा नहीं दिखा लिए. फिर भी हमसे कैमरे वगैरा जमा करने को कह दिया गया. गनीमत थी कि हमारे पास एक से ज्यादा कैमरे थे और हम एक कैमरा यहाँ छोड़ सकते थे. हमने यही किया और एक कैमरा यहाँ छोड़ अगली सुबह ग्लेशियर की ओर निकल पड़े. हमारे साथ एक अनुभवी पर्वतारोही गोकरण थे जिनको मिलम ग्लेशियर को पार करने का ख़ासा तजुर्बा था. यह बात बहुत जरूरी है कि ग्लेशियरों और सिनला जैसे दर्रों को बिना किसी अनुभवी मार्गदर्शक के कभी पार नहीं करना चाहिए.
(Milam Glacier Trek Travelogue)
हम सुबह मुंह अँधेरे ही सफ़र पर निकल गए. गोकरण ने बताया कि हमें नित्वाल थौड़ तक पंहुचने के लिए मिलम ग्लेशियर के एक किनारे किनारे लगभग बारह किलोमीटर से ज्यादा चलना पड़ेगा. गाँव से ग्लेशियर के चार किलोमीटर अलग से. कुल मिलाकर आज बहुत लम्बा और अतिं सफ़र होना था. हमने रास्ते के लिए पहली रात ही रोटियां रखवा की ली थी. साथ में तिमूर मिर्च का द्वंचा और कोयले में भुने आलू. सुबह हम खाली पेट ही निकल पड़े. मिलम ग्लेशियर के मुहाने तक आते-आते एक घंटा बीत गया था. रास्ते भर पत्थरों पर काफी पाला पडा था और पैर फिसले ही जा रहे थे. जैसा मैंने इसे दो साल पहले देखा था इस बार यह वैसा नहीं रह गया था. ऐसा लग रहा था कि कुछ पीछे चला गया.
मिलम ग्लेशियर की मोरेंस में तुरु चूख (हिप्पोफी तिबेताना) की झाड़ियाँ उगती हैं, जिसके फलों का यहाँ के लोग बहुत लजीज अचार और चटनी बनाते हैं. इसके रस को पकाकर गाढ़ा करके चटनी के लिए खटास भी बनायी जाती है. थोड़ा ऊपर बहुत सारी जंगली गुलाब और कुछ-कुछ बिल्ल की झाड़ियाँ भी दिख जाती हैं. जब मैंने पिछली बार इसे देखा था तो गोरी एक छोटी से गुफानुमा मुहाने निकलती थी लेकिन इस बार यह मुहाना बहुत बड़ा लग रहा था. हम यहाँ से ग्लेशियर के दांये किनारे पर चढ़ने लगे. अब हमने कभी ग्लेशियर में तो कभी उसकी मोरें में और कहीं कहीं ठोस जमीन पर होते हुए बढ़ना था.
हमारे सबसे आगे गोकरण थे फिर खग्गी दा, रतन दा, मेहरा जी, मोहन और सबसे पीछे मैं चल रहा था. मुझे ऐसे चलते हुए नेहरु जी का लिखा कोई पाठ याद आ रहा था जिसमें वह कहीं बर्फ में चल रहे थे और सबलोग एक रस्सी से आपस में जुड़े थे. लेकिन हमारे पास न कोई रस्सी थी न आइस एक्स. एक खेत गोड़ने वाला छोटा कुदाल गोकरण के पास था. हमारे पास एक- एक डंडा जो लाठी की तरह इस्तेमाल हो रही थी. पैरों में कोई स्पेशल जूते नहीं थे जिनसे हम जमी हुई बर्फ पर चलते. बहुत सामान्य दौड़ने वाले जूते थे जिनमें से मेरा दांयाँ जूता तलवे के जोड़ में फट गया था और मोजा बाहर झाँक रहा था. हम केवल अपने पैरों और फेफड़ों के भरोसे इस विकट ट्रेक में निकले थे. हमारी पीठों में भार भी अच्छा ही था. सबके कपडे, स्लीपिंग बैग और चटाई के अलावा दो टेंट, कुकर, पानी का बर्तन और खाने का सामान. यह सब लेकर हम मिलम ग्लेशियर को पार कर रहे थे.
(Milam Glacier Trek Travelogue)
लगभग एक किलोमीटर चले थे कि नीचे गोरी के नज़ारे दिखने बंद हो गए. चारों तरफ पुरानी बरफ और मिट्टी-कंकडों के मिले जुले टीले ही नजर आते. जहाँ तहां काली गहरी दरारें और गड्ढे नजर आ रहे थे. न कहीं रास्ते के निशाँ थे न मंजिल के. दांयी ओर नंदा पाल की बर्फीली रिज दिख रही थी जिसमें नीचे भूरे नंगे पहाड़. एकदम सीधी ढलान वाले अनगिनत पहाड़ जिनके सिर्फ सिरों पर बर्फ दिखती. न जाने कितने ही झरने ,छोटे- छोटे धारे और हिमनद मिलम ग्लेशियर में समा रहे थे. सामने एक बड़े से टीले की एक तरफ से रास्ता घूम कर होता था जहाँ से सभी लोग आगे निकल कर दूसरी और चले गए थे. मुझे जमीन पर कुछ नर्म मिट्टी नजर आई. बिलकुल चिकनी और सूखी, दरारों से भरी. जैसे रोपाई का खेत सूखने के बाद नजर आता है. मैं यहाँ पर कुछ पल रुका और जमीन पर दो तीन बार उछला. यह नर्म मिट्टी बहुत सुकून देने वाली थी. कोई नजर नहीं आ रहा था, मुझे लगा मैं पीछे छूट रहा हूँ इसलिए तेज क़दमों से साथियों को पकड़ने के लिए भागा.
सभी लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे. कुछ आगे जाकर हमारे सामने एक बड़ी बाधा आई एक और छोटे ग्लेशियर के रूप में. यह मिलम ग्लेशियर के बांयें किनारे पर था जिसमें हम चल रहे थे. ग्लेशियर तो छोटा था लेकिन इसने अपने किनारों को काट कर बहुत गहरी खायी बना दी थी. इतनी ऊंची और खड़ी की कहीं से इसको पार करने का रास्ता नहीं सूझता था. गोकरण ने मोरेन में कुदाल से काट-काट कर पैर जमाने की जगह बनायी और हम जैसे-जैसे यहाँ से पार हो सके. रास्ते के अद्भुत सुनहरी नारंगी रंग की एल्गी से भरा एक कुंड था जिसे जोहार के लोग बहुत पवित्र मानते हैं और पुरखों का तर्पण करने यहाँ आते हैं. यहाँ पर हमने कुछ देर आराम किया और अपने साथ लाया रोटी-द्वंचा और भुने आलू इस उम्मीद में खाए कि हमारी भूख मिट जाए लेकिन वह सब हमारे दांतों में फंस कर रह गया.
पिछले महीने हमने ऐसी ही भूख में ज्योलिंकोंग में सात थाली भात खाया था. अभी दो रोटियां और दो आलू कहाँ समाते. खैर इस नाकाफी भोजन के बाद हमने आगे बढ़ना शुरू किया. ऊपर पहाड़ की रिज में भरल के झुण्ड बिलकुल कतार में चल रहे सिपाहियों की याद दिला रहे थे. इन चट्टानों में ये नमक चाटने के लिए चढ़े थे. दिन की बहुत तेज धूप में गर्म चट्टानें जब रात को अचानक बहुत ठंडी हो जाती हैं तो इस तेज तापान्तर के कारण ये टूट कर गिरने लगती हैं और इनके नीचे छिपे खनिज लवण इस बाहर निकल आते हैं और माहिर पर्वतारोही ये जंगली बकरियां इन चट्टानों की और खिंची चली आती हैं.
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इस रास्ते ने हमारी ताकत और हिम्मत का भरपूर इम्तिहान लिया लेकिन हम इसमें पास हुए. बहुत कठिनाई के बावजूद हम नित्वालथौड़ के बुग्याल में पंहुच गए जहाँ आज हमने कैम्प डालना था. एक सपाट और ओट वाली जगह पर हमें अपने टेंट डाले. पानी पास ही था और एक चट्टान की ओट में हमें सूखी लकड़ियाँ और घोड़ों की सूखी लीद से चूल्हा जलाया. शाम ढलने तक हम खाकर टेंटों में सिमट गए.
दिन भर के कठिन सफ़र के बाद हम वहां थे जहाँ होना बहुत आम नहीं होता. चारों और ऊंची बर्फीली पहाड़ियां थीं जिनके छोरों किसी उड्यार में गरजू, भरल और कस्तूरी छिपे होंगे. बिल्ल और रातपा की झाड़ियों से मुनाल की तेज आवाज बीच-बीच में सन्नाटे को तोड़ रही थी. सितम्बर का आसमान बिलकुल साफ़ था तारों के बीच आकाश गंगा बादल की लहर जैसी चमक रही थी.
सुबह अँधेरे में ही नींद खुली तो आसमान में हंसिये जैसा चाँद पूर्व में अभी-अभी उगा था. बर्फीले पहाड़ों के उपर चार बादल ऐसे उड़ रहे थे जैसे केतली से भाप निकलती हो. पश्चिम में विराट हरदेवल पर्वत की निचली ढालों में ताजा बर्फ की परत नजर आती थी. हवा इतनी ठंडी कि कपड़ों की परतों को चीर शरीर में सिरहन पैदा कर रही थी. आज हमने इस भव्य और विशाल ग्लेशियर को पार कर सूरज कुंड तक जाकर वापस आना था और फिर नीचे उतर कर पांचू-गनघर तक का सफ़र करना था. हम जल्दी से चाय पीकर सूरज कुंड के लिए निकल पड़े. आज रतन दा खाना बनाने के लिए रुक गए थे. गोकरण सबसे आगे थे और कुदाल से रास्ता बनाकर चल रहे थे. हम उनके पीछे पीछे चल रहे थे. हमने किलोमीटर भर से ज्यादा चौड़े महान मिलम ग्लेशियर को पार करना था जो बर्फ और चट्टानों के मिश्रण का विशाल मरुस्थल जैसा था. कल हम इसके किनारे-किनारे चले थे लेकिन आज इसे पार करना एक अलग चुनौती था.
कदम-कदम पर दरारें और गड्डे नजर आते. इसके बीचों-बीच काली सी बरफ के ऊपर एक सफ़ेद साफ़ बरफ की धारा भी थी. जिसे हमने धीरे-धीरे पार किया क्योंकि यह बहुत ही ज्यादा फिसलन भरा हिस्सा था. हमने इसे पार किया और एक कठिन चढ़ाई में रास्ता बनाते हुए सूरज कुंड और दूध कुंड नाम के जुड़वाँ तालों के पास पंहुचे जो बहुत बड़े तो नहीं थे लेकिन यहाँ पर होना एक अलग अध्यात्मिक अनुभव था. हम यहाँ बहुत देर तक बिना बोले शांत बैठकर अपनी ही धडकनें सुनते रहे. सामने हर्देवल पर बादल घिर रहे थे और दूर पार नित्वाल थौड़ में हमारे टेंट नजर आ रहे थे. रतन दा चूल्हा जला चुके थे. अब समय था लौटने का.
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घंटे भर बाद हम अपने कैम्प के पास थे. हमने टेंट समेटते हुए खाना खाया, बर्तन धोये और निकल पड़े वापसी के सफ़र पर. बुग्याल, झरने, ग्लेशियर और धारे पार कर हम मिलम के मुहाने से कुछ ऊपर पंहुचे तो रास्ते में एक बहुत बड़ा गड्ढा बना हुआ था. लगभग बीस फिट गहरा और दस फिट की गोलाई वाला. हमने अन्दर झाँक कर देखा तो अन्दर बर्फ की गहरी दरारें और अन्धेरा ही नजर आया. एक पल को रुक कर चारों और देखा तो मेरे पूरे शरीर में बिजली सी लहर दौड़ पड़ी और पूरा शरीर पसीने से तर हो गया.
यह ठीक वही जगह थी जहाँ पर नर्म सूखे कीचड पर मैंने उछल कर कुछ देर मौज की थी. बस एक और जोर की जम्प कर लेता तो आप शायद इस कहानी से वंचित रह जाते.
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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