अशोक पाण्डे

दुनियाभर के भूत-मसाणों को साध देने वाले हुए मेरे बड़बाज्यू

मेरे दादाजी बलशाली व्यक्ति रहे होंगे. हम छुट्टियों में गाँव जाते थे. दादाजी रात को किस्से सुनाते. हर पिछली शाम को घर लौटते समय उनका सामना गाँव की सरहद पर स्थित गुजरौ गधेरे में स्थाई रूप से रहने वाले किसी न किसी प्रेत-मसाण से हुआ होता. भटकी हुई ये आत्माएं कभी बीड़ी-माचिस तो कभी उनकी लाठी-टोपी-चप्पल माँगा करती थीं. दादाजी भूतों से ज़रा भी नहीं डरते थे अलबत्ता उनसे डांट-डपट-जिरह भी नहीं करते थे.
(Memoir Ashok Pande)

“मसाणों का इलाका हुआ नाती. क्या पता एक के पीछे कितने आ रहे हैं. कोई गिनती थोड़ी हुई. सावधान रहने का काम ठहरा. एक-दो-चार हों तो उनको तो मैं ऐसे ही निबटा सकने वाला हुआ.” वे दोहराते, “अब क्या पता एक के पीछे कितने आ रहे हैं.”

फिर यूं होता कि कोई न कोई जिद्दी भूत उनके पीछे-पीछे चलता घर की देहरी के नजदीक तक पहुँच जाता. दादाजी को गुस्सा आ जाता और वे अपनी फ़ौजी कमीज की आस्तीनों को कलाई से ऊपर ज़रा सा मोड़ते और फिर घड़ी उतार कर पाजामे की जेब में रखते.

उनकी घड़ी के बारे में हमारे खानदान के सबसे बड़े भाई बहुत बाद-बाद तक बताते थे कि उनकी कलाई पर बंधी एचएमटी जनता इतनी छोटी दिखाई देती थी जैसे कोई चवन्नी धरी हुई हो.

घड़ी उतार कर दादाजी भूत को ललकारते, “छुट्टी में बच्चा घर आया हुआ है तो उसी बिचारे को डराने यहाँ तक आ गया तू. ठहर खबीस. जरा नीचे नौघर-बड़ेत वाले खेत में चल. हो जाएं दो-दो हाथ.”

फिर दादाजी और भूत में कुश्ती होती. दादाजी के लात-घूंसों के आगे भूत पस्त पड़ जाता. उनके आख़िरी मुक्के का जोर तो ऐसा होता था कि अपने जन्मदाताओं को याद करता काइयां भूत “ओ ईजा ओ बाबू” की पुकार लगाता, ढिणमिण-ढिणमिण आठ-दस खेत नीचे लुढ़कता चला जाता.
(Memoir Ashok Pande)

दादाजी की जेब में घोड़े की नाल के आकार वाली संतरा-टाफियां होती थीं. उन्हें विलायती मिठाई कहा जाता.

उनकी गोद में बैठा मैं उनसे पूछता – “आप कित्ते में पढ़ते हो?”

“मैं …” वे गहरी साँस लेते. “पहले ये बता तू कितने में पढ़ने वाला हुआ नतिया?”

“मैं तो सेकेण्ड में पढ़ता हूँ” फिर याद आता उन्हें अंगरेजी तो आती ही नहीं. “दो में” मैं तुरंत जोड़ता.

“अच्छा दो में पढने वाला हुआ मेरा नतिया.” उनकी खुरदरी हथेली मेरे सर को सहला रही होती. “मैं पढ़ने वाला हुआ छियत्तर क्लास में और तेरा बाबू पढ़ने वाला हुआ पैंतालीस में.”

मेरा दिमाग तब तक दो से छियत्तर तक की गिनती गिन चुका होता और हैरत करता कि कोई इतनी बड़ी क्लास तक कैसे पढ़ता रह सकता है.
(Memoir Ashok Pande)

“अच्छा ये बताओ बड़बाजू, सबसे बड़ी क्लास कौन सी होती है?”

“सौ” दादाजी की गोद की मुलायम गर्मी में निमैला अहसास तारीं होना शुरू हो चुका होता था. “सबको सौ क्लास तक पढ़ना पड़ने वाला हुआ नतिया … सौ क्लास तक”

मैं सो चुका होता था.

अशोक पाण्डे

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Girish Lohani

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