रामनगर, भाभर के जंगलों में जड़ी बूटी खोजते हुए मेरी माकोट की आमा मालू की उझली हुई बेलों से कभी-कभी उसके फल भी तोड़ती थी. कहती थी मालू की झाल में बंदर और भालू रहते हैं क्योंकि इसके अंदर धूप, सर्दी, पानी का असर कम होता है. मालू का फल जो कि थोड़ा लंबे आकार की फली के रूप में होता है जिसको हम टाटा कहते थे. वे इसे घर ले आती थी, कहती थी इसके बीज को भूनकर खाने से, ये शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बहुत बढ़ाते हैं. (Migration and Jungle of Uttarakhand)
घर आकर आमा उन लंबी आकार की फलियों को आग में खूब अच्छे से भूनती, भून जाने से फली दो फ़ाड़ में बंट जाती तो उसमें से जो बीज निकलते थे, वे बीज थोड़े आकार में बड़े और खाने में बहुत स्वादिष्ट होते थे.
आमा बताती थी कि पहले के समय के लोग जब चप्पल नहीं होती थी तो पैरों में इन्हीं फलियों के दो फाड़ को मालू की टहनियों के कच्चे रेशे को रस्सी की तरह बटकर फलियों के दोनों फाड़ो में चप्पल की तरह तीन छेद करके उसमें उस बटे हुए रेशे को फंसाकर चप्पल का शौक पूरा कर लेते थे. ये वे लोग थे जिन्होंने किसी को चप्पल पहने देखा था वरना अधिकतर लोग चप्पल पहनना जरूरी नहीं समझते थे. चप्पल उनकी प्राथमिकता में भी नहीं थी.
कहने का अभिप्राय यह है कि मुझे याद है और मेरी उम्र या उससे बड़े लोगों को अच्छे से याद होगा कि पहले लोगों की जंगल पर निर्भरता केवल लकड़ी या घास पात के लिए ही नहीं थी अपितु कई फलों कि जंगली प्रजातियां भी यहां से उन्हें खाने को मिलती थी. इनमें आंवला, काफल, जंगली आम, जंगली केले, बेर, मालू, स्योंत (चीड़ के फल का बीज), गलगल, तेडू, बुरांश, सेमल का फूल-फल आदि जंगली फल थे. तेडू थोड़े गर्म पहाड़ और भाभर के जंगलों में बहुतायत से पाया जाता था, जिसका बोटैनिकल नाम तो पता नहीं किंतु लोकल भाषा में उसे टेडू कहते थे. अगर उसे कच्चा खा लो तो मुंह कसैला हो जाता था और पका हुआ खाने से वह बेहद मीठा होता था. ठीक से तो मुझे याद नहीं किन्तु जितना याद है उस हिसाब से वह चीकू से मिलता-जुलता फल था. खैर, ऐसे असंख्य फल जंगलों से विलुप्त हो गए या बेहद कम रह गए हैं.
जंगलों में भरपूर कंदमूल हो तो बंदरों को बस्तियों में आने की जरूरत नहीं पड़ती है. उस वक़्त कोई एकाध बानर गांव में आता था तो बानर गीज गो (किसी विशेष वस्तु पर ललचा गया) कहते थे. आज हमने जंगली फल-फूल सब नष्ट कर दिए हैं. कई नई कंपनियां मार्केटिंग एवं बाज़ार मांग संभावना को देखते हुए नवीनीकरण की पहल पर वाइल्ड इडिबल फूड को भी प्रोसेसिंग के जरिए बाज़ार में उतारने की कोशिश कर रही हैं ताकि लोगों को जमीनी एवम् प्राकृतिक स्वाद मिले. इससे जंगलों में फलों की संख्या बंदरों के लिए घट रही है या घट जाएगी. मनुष्य चाहे तो फल खा सकता है किन्तु प्रोसेसिंग के लिए बहुत ज्यादा कच्चे माल की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति के लिए अभी हमारे जंगल बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं. इसी वजह से जंगली जीव भुखमरी के कगार पर बस्तियों का रुख कर रहे हैं.
हम बहुत से जूस आदि खरीदते हैं – जैसे बुरांश का जूस – जो सीधे जंगलों के फूलों-फलों से बनाए जाते हैं, जिनमें हमारा हक नहीं है. ये जूस या अन्य खाद्य वस्तु किसी किसान के घर की नहीं बल्कि बंदरों या अन्य जंगली जानवरों के हिस्से से चुराई हुई होती है. यदि बंदर बुरांश भी चखते होंगे तो उनका तो नुकसान हुआ और हमारा रोजगार बन गया है.
हमको जंगलों में, खासकर घने जंगलों में फूलों, फलों के खूब पेड़ लगाने की जरूरत है. जो बंदरों को गांव तथा बस्तियों को छोड़ जंगल प्रस्थान की ओर आकर्षित करेगी. बंदर ही क्यों कई पक्षी भी अब जंगलों में खुद के खाने की चीजों के लिए तरस रहे हैं. आज उत्तराखंड में बंदरों द्वारा फसल नष्ट करने की समस्या भी पलायन का एक कारण है. फॉरेस्ट विभाग को चाहिए कि नर्सरी में कई किस्में कांठी फलों की भी पैदा की जानी चाहिए जिसको ज्यादा देखरेख की जरूरत नहीं होती है. ऐसे वृक्षों का जंगलों के अंदर यानि गांव से काफी दूर के जंगलों में वृक्षारोपण किया जाय, भले ही वहां पहले से पेड़ हो तब भी अधिक से अधिक फलों को लगाने का प्रयास बंदरों को आबादी से बहुत दूर ले जाएगा. बंदरों और अन्य शाकाहारी जानवरों के अंदर रहने से बाघ आदि मांसभक्षी भी बाहर आना छोड़ देंगे क्योंकि उनको भी अपना आहार वहीं मिलेगा. वाइल्ड फूड प्रोसेसिंग को बंद या नियंत्रित किया जाना चाहिए ताकि जो खाद्य वस्तु शाकाहारी जानवरों के लिए है उससे छेड़छाड़ न हो.
इसके अलावा घने जंगलों में वर्षा आधारित पोखर (चाल-खाल की रूपरेखा आधारित) निर्माण के साथ साथ उसके किनारों में भी फल तथा झाड़ी वाले बेर आदि लगाने से शाकाहारी जंगली पशुओं के रहने के सभी साधन उपलब्ध करवाए जाने पर बस्तियों से उनका लगाव कम होता रहेगा और जंगली मांसाहारी पशुओं द्वारा उनका भक्षण भी होता रहेगा जिससे एक बैलेंस बना रहेगा. अतः वन विभाग को फल, फॉडर, फर्नीचर आधारित वृक्षों को क्रमवार लगाने की जरूरत है जैसे घने जंगलों में फल उसके बाद के जंगल में फर्नीचर के वृक्ष तथा नजदीकी एरिया में पशु चारे यानी फोडर के वृक्ष रोपे जाएं, इस मुहिम को अधिक से अधिक बढ़ावा देने की जरूरत है. यह नहीं कि सड़क के किनारे चंद पौंधे रोप दिए जाएं जिसको जानवर बुगा जाए. 1000 बंदरों की संख्या वाले भाग के लिए उस स्थान के घने जंगलों में कम से कम तीन हजार मीठे फल तथा बेरों की असंख्य घनी झाड़ियों के साथ (साल में दो बार फल देने की क्षमता वाले तथा हर मौसम के अलग-अलग फलों के चयन पर आधारित) तथा 20 से 25 बरसाती पोखर की आवश्यकता है जो उनकी पीने के पानी की समस्या का हल करे. उम्मीद है इस प्रकार के प्रयास बहुत जल्दी बंदरों को वापस जंगल जाने को प्रेरित करेंगे. जैसे हम रोजगार खोजते हुए पलायन कर रहे हैं वे भोजन खोज रहे हैं, पलायन जारी है इंसान का और जीवों का.
एक मनखी जो पहाड़ से कई साल पहले पलायन कर गया तुम कहते हो वापस आओ, एक कविता जो पलायन किए हुए व्यक्ति पर है.
बताओ धै
पलायन नी करछी,
तो क्ये करछी…
न नौकरी चाकरी
न रोजगार, न बिजली, पाणी
न गोर- डांगर
ना स्कूल,ना आखर
ना कोई चाणी चिताणी
ना कोई नेता, ना सरकार
ना मनखी, ना कोई बलाणी
बताओ ध
पलायन नी करछी,
तो क्ये करछी…
अनाजा नाम पर बजर लै नी हुछी
मडूवा बलाड़ कब तलक बुगाछी
घुना में टाल लगै बेर
कब तलक दोहरक उतारी पैरछी
ब्याउ कबेर स्याउ कुकराक
कड़कड़ाट निसास लगै दिछी
बीमार होते ही डोली लगै बेर
हस्पताल लिजाण ताक
आमाक पराण टांकी ग्याय
बताओ धै
पलायन नी करछी,
तो क्ये करछी…
ढिनायी नाम पर दूदौक त्वप लै नी होय
पहाड़ी गोर लोटी भर दूध दिनी
जल्दी बांखड़ है जांछी
घा पाणी सारने, सारने
कमर लै सरग हूं लागि गेछी
बाघा डरिल अन्यार होते ही
पखा भीतेर मुनौव लुकै दिछी
कोई पढ़ी लिखी शहरी मैस, मनख
मिल गोई जब
तब स को श और श को स और
ठैरा को …होता है बलाणौक
अलगै रगरियाट…
बताओ धै
पलायन नी करछी,
क्ये करछी
छी भयी …क्ये क्ये जै बतूं
गंवाड़ी – गंवाड़ी सुन बेर,
कान पक गिए थे यार
जो मनखी लमख्याउ लगै बेर
शहरों हौं टोकी गयीं
कथैं कथैं मुनौव लगै बेर
नान पावण रयीं, तुम कछा वापस आओ
किलै को सैतल उनू कैं
जब बानर भितेर बै रौट लै लिजा राईं अब
तब उन्हूणी पूछो कि
किलै भाजि गया तुम, जबकि
हवा, पाणी, देखण चाणम
हमर पहाड़ शानदार भाय
हरी भरी डानो में बर्फ दिखने वाली ठैरी
बताओ धैं पलायनौक कारण
पत्त छू क्या कहते हैं वो
भुल्ला…
ओ भुल्ला
पर तु ही बता रे… क्या करता?
पलायन नी करछि,
तो क्ये करछि…
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नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपती रहती हैं
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वन सम्पदा के संरक्षण की जरूरत बताता लेख , बहुत ही सुन्दर!!
Bhote bhal lekh
पलायन का एक कारण यह भी है कि नीति निर्माता देहरादून की समस्याओ को ही पहाड की समस्या समझते है, उचित हो राजधानी पहाडी कस्बे मे बनाई जाए
विचारणीय बिषय वस्तु । बहुत सुन्दर विष्लेषण मैडम ।