मुझको पहाड़ ही प्यारे हैं – जयन्ती पर चंद्रकुंवर बर्त्वाल की स्मृति

आज चंद्रकुंवर बर्त्वाल का जन्मदिन है. कुल 28 साल की आयु में क्षयरोग से दिवंगत हो गए चंद्रकुंवर अपने समय की हिन्दी कविता के बहुत बड़े हस्ताक्षर थे.

चंद्रकुंवर बर्त्वाल के भीतर तत्कालीन आंदोलित समाज, पृथ्वी औरआसमान के बीच फैला हिमालयी सौन्दर्य तथा अपने फेफड़ों का रोग साथ-साथ उथल-पुथल मचाये रखता था. उनका कवि इन तीन परिधि बिन्दुओं के मध्य में था. इसीलिये उनकी कविताओं में अतिशय प्यार और उम्मीदों के साथ असाधारण चुप्पी और उदासी का रंग है.

 

उनकी कविताओं में प्रकृति के अत्यंत प्रत्यक्ष चित्र हैं. मेघ हैं, वर्षा है. पावस, पतझड़, वसंत हैं. हिमालय के बदलते चेहरे हैं. फूल, चांदनी, झरने, नदी, खुला आकाश, घिरा आकाश, भोटिया कुत्ता, घराट, कफ्फू, जीतू, हिमालय के देवदार और भाबर के वनों से यम-यमी और मृत्युदेव तक उनका विराट काव्य वैभव फैला है. इन विषयों और शीर्षकों के भीतर तमाम-तमाम और विषय, दृश्य, घटनाएँ, वृत्तियाँ, स्मृतियाँ और अपने अवचेतन से छलक आये फूल हैं, रचनाएं हैं, कल्पनाएँ हैं, प्रतीक अहिं और मिथक हैं. उल्लास है, उदासी है, कोमलता है और कठोरता भी. उजाला है और अन्धकार भी. एक चीज़ में रमने की तन्मयता है और एकाएक विषयांतर भी. कवि अनेक बार अपने ही नहीं प्रकृति के भी अवचेतन में विचरता है. उसके मन में इश्क हकीकी और इश्क मजाजी दोनों में जीने की लालसा है.

अत्यंत मनोहारी मंदाकिनी घाटी के मालकोटी गांव के भूपाल सिहं तथा जानकी देवी के बेटे चंद्रकुंवर का जन्म 20 अगस्त 1919 को हुआ था. मालकोटी, तल्लानागपुर पट्टी तथा मंदाकिनी घाटी का प्राकृतिक सौन्दर्य चंद्रकुंवर की कविताओं में स्वाभाविक रूप से रचा बसा है. इस घाटी का सौन्दर्य कालिदास के काव्य में भी अमर हुआ है. प्राथमिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में, मिडिल नागनाथ पोखरी में, हाईस्कूल मैसमोर हाईस्कूल पौड़ी इंटर डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून और बीए 1939 में प्रयाग विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण कर चन्द्रकुंवर ने उसी प्रवाह और परिस्थिति में अपने को पाया जिसमें आम पहाड़ी युवा आज भी अपने को पाता है. इसके बाद वे भारतीय इतिहास में एमए करना चाहते थे पर स्वास्थ्य ने मनाही कर दी. इन दिनों राजयक्ष्मा असाध्य बीमारी थी और उसी ग्रहण ने चंद्रकुंवर को घेर लिया था.

लौटकर उन्होंने अगस्त्यमुनि हाईस्कूल की स्थापना में सहयोग किया और स्वयं इसमें अध्यापक हो गए, फिर प्रधानाध्यापक भी हुए. पर पहाड़ों में अति क्षेत्रीयता का रोग, जो उन दिनों असाध्य बना हुआ था, कवि को अतिरिक्त मानसिक संकट दे गया. 1941 में स्कूल से त्यागपत्र देकर वे अपने दूसरे गांव पंवालिया आ गए. पिता ने उनके लिए यहाँ नया मकान बनवाया. बिगड़ते स्वास्थ्य के बीच कविताएँ लिखी जाती रहीं. पंवालिया के एकान्तिक सौन्दर्य ने उनके फेफड़ों और देह को पुनर्जीवन तो नहीं दिया पर उन्हें तेजी से कवितायेँ लिखने की ऊर्जा अवश्य दी. इस तरह लगभग एक दशक से कम के रचनाकाल में उन्होंने मृत्यु से निरंतर संवाद करते हुए बहुस्तरीय कवितायेँ रचीं. देश के विभाजन और आज़ाद वतन बनने के ठीक एक माह बाद 14 सितम्बर 1997 को उनका देहांत हुआ.

आज उनके जन्मदिन के अवसर पर पढ़िए उनकी एक प्रसिद्ध कविता:

मुझको पहाड़ ही प्यारे हैं

प्यारे समुद्र मैदान जिन्हें
नित रहे उन्हें वही प्यारे
मुझ को हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे हैं

पांवों पर बहती है नदिया
करती सुतीक्ष्ण गर्जन ध्वनियां
माथे के ऊपर चमक रहे
नभ के चमकीले तारे हैं

आते जब प्रिय मधु ऋतु के दिन
गलने लगता सब और तुहिन
उज्ज्वल आशा से भर आते
तब क्रशतन झरने सारे हैं

छहों में होता है कुंजन
शाखाओ में मधुरिम गुंजन
आँखों में आगे वनश्री के
खुलते पट न्यारे न्यारे हैं

छोटे छोटे खेत और
आडू -सेबों के बागीचे
देवदार-वन जो नभ तक
अपना छवि जाल पसारे हैं

मुझको तो हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे हैं

(‘पहाड़’ द्वारा प्रकाशित चंद्रकुंवर बर्त्वाल की रचनाओं की पुस्तक ‘इतने फूल खिले’ में शेखर पाठक की भूमिका से साभार.)

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