बात उन दिनों की है, जब मेरी नालायकी और कुसंग से मेरा परिवार आजिज आ चुका था. मां की नसीहत कानों से टकरा कर बैकफायर कर जाती. पिताजी के हस्त प्रहारों की धार कुंद हो गई थी. कई लाठी, डंडे, सोंटी मेरे बदन से टकरा कर स्वयं ही कालगति को प्राप्त हो चुके थे. थक हारकर पिताजी ने मुझे गांव भेज दिया और मेरा दाखिला डिम्मर गांव स्थित श्री बद्रीश संस्कृत विद्यापीठ में करवा दिया. उस जमाने में जिस बच्चे को इंटर कॉलेजों की आधुनिक शिक्षा रास नहीं आती थी उसे या तो फौज में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया जाता था या फिर संस्कृत विद्यालय का रास्ता दिखाकर उसमें स्थित छात्रावास में रख दिया जाता था. ब्राहमणों के बच्चों के लिए दूसरा वाला रास्ता ज्यादा मुफीद था. उसकी वजह यह थी कि अगर ठीक-ठाक पढ़कर आचार्य की उपाधि धारण कर गया तो कहीं न कहीं संस्कृत शिक्षक बन ही जाएगा और अगर वहां भी लड़खड़ा गया तो थोड़ा बहुत कर्मकांड सीखकर यजमान वृति से गुजर-बसर कर ही लेगा. मेरे पिताजी की भी हार्दिक इच्छा थी कि मैं कर्मकांडी ब्राहमण बनूं और शास्त्री करने के बाद सेना में लाइन पंडित भर्ती हो जाऊं. शायद पिताजी अपनी इस हार्दिक इच्छा से अपने दो लक्ष्यों का संधान कर लेना चाहते थे. वो फौज से रिटायर्ड थे तो मुझे लाइन पंडित बनाकर परिवार से एक व्यक्ति के फौज में होने का सपना भी पूरा कर लेना चाहते थे और परिवार की पुश्तैनी परंपरा के अनुसार एक बेटे के कर्मकांडी ब्राहमण होने का भी.
संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्ध इस विद्यालय में मेरे दो चचेरे भाई भी पढ़ रहे थे. उनमें से एक आजकल सरकारी शिक्षक है और दूसरा अपने ओजस्वी स्वर में श्लोकादि वाचन के कारण इलाके में प्रकांड पंडित के रूप में ख्यातिलब्ध हो चुका है और मैं नालायक तब भी कलमघिस्सू था और आज भी कलम घिस रहा हूं. अंतर सिर्फ ये है कि तब मन में आए गड्डमड विचारों को किसी सस्ती सी डायरी में या कॉपी के पीछे के पन्नों पर नोट कर लेता था और आज लैपटॉप में एमएस वर्ड के पन्नों पर. मैं न तो शिक्षक बन सका, न प्रकांड पंडित और न ही पिताजी की इच्छा के अनुरूप सेना में लाइन पंडित, पर दो साल इस विद्यालय की शिक्षा-दीक्षा से मैंने बहुत कुछ सीखा. संस्कृत व्याकरण की पुस्तकों लघु सिद्धांत कौमुदी, मध्य सिद्धांत कौमुदी से मेरा साक्षात्कार इसी विद्यालय में हुआ. कालिदास की विश्वविख्यात रचनाओं अभिज्ञान शाकुंतलम्, मेघदूत, कुमारसंभवम्, विक्रमोवर्शीय से मेरा शुरुआती परिचय यहीं हुआ. प्रताप विजय, शिवराज विजय जैसी संस्कृत रचनाएं मैंने यहीं पढ़ी. पतंजलि का महाभाष्य, शूद्रक का मृच्छकटिकम्, बाणभट्ट का हर्षचरितम् जैसी उत्कृष्ट शास्त्रीय रचनाएं भी मुझे यहीं देखने, निहारने और सरसरी तौर पर पढ़ने को मिलीं. इसी विद्यालय में पढ़ते समय एक रोचक-रोमांचक अनुभव भी मेरे खाते में दर्ज हो गया, जिसे मैं आज आपको सुनाने जा रहा हूं.
मेरे इस विद्यालय से मेरे गांव की दूरी दस किलोमीटर थी. इसमें सिमली से कर्णप्रयाग तक आधा रास्ता गाड़ी से और वहां से आगे झूला पुल पार करके बाकी रास्ता पैदल. विद्यालय में छुट्टी पड़ते ही मैं सीधा गांव भाग लेता. अब तो पहाड़ में ही शराब की डिस्टलरीज स्थापित की जा रही हैं, मगर उन दिनों पहाड़ के गांवों में सोमरस का बहुत चलन नहीं था. गिने-चुने शहरों में ही अंग्रेजी शराब के ठेके थे. शराब लेने के लिए इतनी दूर चलकर जाना न तो संभव था और न ही इसके महंगे दामों के लिए गरीब ग्रामीणों की जेब इजाजत देती थी. ग्रामीणों की शराब के लिए निर्भरता छुट्टी पर घर आए फौजी पर ही हुआ करती थी. कई सोमरस प्रेमी सुबह-शाम दोनों समय फौजी के घर पहुंचकर तब तक उसकी नित कुशलक्षेम पूछा करते थे, जब तक वो अपने बक्से में से हरक्यूलिस रम की बोतल निकाल कर उसमें से एक-दो पैग न मिला दे. ताड़ने वाले तो उसके बक्से के वजन से ही ताड़ जाया करते थे कि इस बार फौजी कितनी बोतलें लेकर आया है. सर्दियों में शराब का एक और स्रोत फूट पड़ता था, जब भोटिया समुदाय के लोग प्रवास पर निचले गांवों में आया करते थे. वे लोग अपने पीने के लिए अन्न व जड़ी-बूटियों की जो दारू तैयार करते थे, उसमें कुछ ग्रामीण अपने लिए गुंजाइश पैदा कर लेते थे. बदले में देना पड़ता था मंडुवा और झंगोरा.
अलबत्ता शराब की कमी के उस दौर में मेरे गांव में शिवभक्तों का एक विशाल समुदाय था, जिसमें आयु वर्ग व संबंधों के आधार पर कई उप समुदाय भी बने हुए थे. हालांकि इस समुदाय को शराब से भी कोई खास परहेज न था, लेकिन शराब की अनुपलब्धता के कारण वे नित्य नैमेतिक ध्यान योग के लिए शिवबूटी का सेवन करते थे. शिवबूटी भी दो प्रकार में उपलब्ध थी. पहली उत्कृष्ट किस्म की भांग पौधों के पत्तियों के अर्क से निकली हुई गहन श्याम वर्ण और धूपबत्ती जैसी संरचना वाली. जिसे अत्तर. चरस, सुल्फा, गट्टी आदि नामों से पुकारा जाता था. यह बेशकीमती शिवबूटी सभी को उपलब्ध न थी. कुछ आला दर्जे के शिवभक्त ही इस पर अधिकार रखते थे और उन्हें सत्संग के समय विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. इनमें से कुछ इसका स्थानीय स्तर पर ही प्रबंध कर लेते थे और कुछ के संपर्क सूत्र जोशीमठ, घाट, देवाल, कपकोट तक के हिमपात वाले गांवों में थे. ऐसी मान्यता थी कि जितनी ऊंचाई पर उत्पन्न शिवबूटी होगी, वो उतने ही उम्दा किस्म की होगी. ये विशिष्ट किस्म के शिवभक्त महफिल में अपनी जेब से बूटी निकालते हुए पूर्ण गर्वोक्ति के साथ कहते कि आज अमुक जगह का माल है. इतना कहते ही उनके सम्मान में पूरी महफिल कृतज्ञ हो जाती. माल की उपलब्धता के अनुसार बूटी की सेवन विधि तय होती. अगर मात्रा कम होती तो इसे पनामा ब्रांड की सिगरेटों में भरकर पीया जाता और अधिक हो तो चिलमें खींची जाती. अलख बम-बम के साथ चिलमें सुलगाई जाती. एक ने कश खींचा, दूसरे को सरकाई और दूसरे ने तीसरे को. इस दौरान जातीय वर्जनाएं टूट जातीं. ब्राह्मण, ठाकुर, शूद्र एक ही चिलम से सुट्टे मारते नजर आते. बस सिर्फ चिलम के नीचे लगने वाला कपड़ा यानी साफी बदल जाती. भरपूर सेवन के बाद सबकी आंखों में लाल डोरे तैर जाते. माल के गुण-दोषों का विवेचन होता. फिर एक-एक करके सब अपने घरों को खिसक लेते. चरसी यार किसके, दम लगाया खिसके…..
शिवबूटी का दूसरा प्रकार तुलनात्मक रूप से निम्न श्रेणी का माना जाता. नशे की मात्रा कम होने के कारण भी और इसे तैयार करने में लगने वाली मेहनत की मात्रा कम होने के कारण भी. अत्तर के लिए जहां बेहतरीन किस्म के भांग के पौधों का चयन किया जाता. उसकी पत्तियों को हाथ से रगड़ा जाता. इस रगड़ाई के दौरान भांग के अर्क की एक मोटी काले रंग की परत हथेलियों पर जमा हो जाती. इस परत को किसी कपड़े पर हाथ से छुड़ा लिया जाता. फिर इसे धूपबत्ती जैसा या फिर ऐसी गट्टी का आकार दे दिया जाता, जैसा आजकल दस रुपये का सिक्का होता है. वहीं दूसरी तरफ इस दोयम दर्जे वाली गांजा नामक बूटी के लिए किसी खास परिश्रम की जरूरत नहीं. भांग का जहां कोई ठीकठाक सा पौधा दिखा, उसकी टहनियों को तोड़कर छाया में सुखा लिया और गांजा तैयार. वैसे इसमें भी कई ज्ञानगुण सागर मौजूद थे, जो घर के पीछे के भांग के पौधे से तैयार गांजे को नेपाल से लाया होना बताकर महफिल की वाहवाही लूटने की कोशिश में रहते थे.
भोलेभक्तों का जमावड़ा गांव के ही चौबाट (चौरास्ते) पर स्थित बुटोला जी की चाय की दुकान पर होता. बुटोला जी खुद भी परम श्रेणी के शिवभक्त थे. दुकान के प्रांगण में सजने वाली हर महफिल में चौथ वसूली की तरह उनका हिस्सा निर्धारित था और चिलम उनकी तरफ भी घुमाई ही जाती. इस तरह उन्हें अपना कोटा स्थान उपलब्ध करवाने की एवज में मुफ्त में ही हासिल हो जाता. इस दुकान पर चार काम हुआ करते थे. चाय, बन, बिस्कुट की बिक्री, देश की राजनीति की समीक्षा, ताश की गड्डी लेकर स्वीप या रमी का खेल और शिवबूटी का सेवन. विद्यालय से छुट्टी के दिनों में मैं इसी दुकान पर ताश खेलने वालों के पीछे खड़ा होकर उनकी चालें देखा करता. उन्हीं दिनों में अपने समुदाय का विस्तार करने को आतुर शिवभक्तों की टोली की नजर गांव में आए मुझ नए नवेले शहरी लौंडे पर पड़ी. मुझे समुदाय में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाने लगा. मेरी ओर यदाकदा चिलम बढाई जाने लगी. मेरे इन्कार करने पर गांजा पीये राजा, सुरती खावे चोर… जैसे उद्धरण सुनाए जाने लगे. अतर पीने से होने वाले फायदे यथा बुद्धि की एकाग्रता, पढ़ाई में मन लगना, इंद्रियों का संयम, मुंह से बदबू आने का खतरा न होना आदि-आदि गिनाए गए. हालांकि कोटद्वार इंटर कॉलेज में पढ़ते हुए मैं अपने वरिष्ठों के सौजन्य से एक-दो बार इसका सेवन कर चुका था, पर इसका अभ्यस्त न था और गांव में घर तक बात पहुंच जाने की झिझक भी बनी हुई थी.
अंततः एक दिन महफिल के ही एक सदस्य इंद्र सिंह ने मेरी झिझक तोड़ दी. भरपूर पम्प मारा और मेरे हाथ में चिलम थमा कर कहा-लगा सुट्टा. सुट्टा लगा, मुंह और नथुनों से धुआं बाहर छूटा और इस प्रकार शिवभक्तों के इस ग्रामीण समुदाय में मुझे भी दीक्षा प्राप्त हो गई. दरअसल मुझे समुदाय में प्रवेश देने के पीछे इन शिवभक्तों का उद्देश्य मात्र समुदाय की नफरी बढ़ाना ही नहीं था. वे मेरे जरिये मेरे ताऊ के अत्तर के अनमोल खजाने तक पहुंचना चाहते थे. मेरे ताऊ जी अतरी समुदाय में महंत, महामंडलेश्वर जैसा दर्जा हासिल रखते थे. गांव की साठोत्तर पीढ़ी के बुजुर्ग उनकी अत्तर मंडली के सदस्य होते थे. उनके पास उम्दा किस्म के अत्तर का भरपूर स्टॉक सदैव मौजूद रहता था, लेकिन किसी ऐरे-गैरे की उनसे मांगने की हिम्मत नहीं होती थी. मेरी मंडली के चतुर सुजान सदैव मुझे मानसिक रूप से तैयार करते रहते कि मैं अपने ताऊ जी के इस खजाने के रखने के स्थान का पता लगाऊं. आखिरकार एक दिन इस अलीबाबा की खुल जा सिम-सिम हो ही गई. हुआ यूं कि एक दिन मैं कुछ सामान निकालने ढेपरे ( पटाल वाले मकानों में पटाल और सीलिंग के बीच रिक्त स्थान) पर चढ़ा. सामान की तलाश के दौरान एक थैले पर नजर पड़ी. उसे टटोला तो उसमें ही वो अनमोल खजाना मौजूद था. गट्टियों की शक्ल में कम से कम एक-डेढ़ किलो तो रहा ही होगा. मैंने विस्फारित नेत्रों से कई मिनटों तक उस थैले को सुखद आश्चर्य के साथ निहारा, टटोला और फिर उसमें से एक मुट्ठी भर के जेब में डाल ली. पूरे उत्साह और ऊर्जा के साथ मैं उस दिन की महफिल में हाजरी लगाने पहुंचा. उस दिन मेरा सीना गर्व से चौड़ा था, क्योंकि उस दिन मैं रोज की तरह याचक नही दाता की भूमिका में था. जेब से माल निकलता गया, चिलमें सुलगती रहीं. धुआं बरास्ता मुंह और नथुने निकल कर आसमान में लोप होता गया. मंडली का चिरवांछित मनोरथ पूरा हो गया. जिस खजाने पर डाका डालने के लिए वो मुद्दत से हसरत पाले हुए थे, उसके अनमोल मोती आज उनके सामने बिखरे हुए थे. घर के भेदी ने ही लंका ढहा दी….
अब इस अत्तर अध्याय का क्लाइमेक्स. ऐसी ही किसी एक छुट्टी पर गर्मी के मौसम में मैं गांव आया हुआ था. अगली सुबह से विद्यालय खुलना था, इसलिए आज शाम तक मेरा छात्रावास में पहुंचना जरूरी था. मैंने दिन का भोजन किया और घर से विद्यालय के लिए निकल पड़ा. गांव के चौबाट पर पहुंचकर अपनी दुकान में अकेले सुस्ताते बुटोला जी मिल गए. सुबह-शाम महफिल में रमने वाले बुटोला जी को उस दोपहरी का अकेलापन काटने को दौड़ रहा था. मुझे आया देखकर उनके चेहरे पर चमक आ गई और मुझे रास्ता काटने के लिए एक चिलम गांजा पीकर जाने की सलाह दी. मैंने भी टेक लगा दी. चिलम बनी, सुट्टे लगे और मैं अपना झोला उठाकर गांव से पैदल कर्णप्रयाग की ओर चल पड़ा. चिलम की झोंक में कब चार किलोमीटर का रास्ता कट गया मुझे पता ही नहीं चला और मैं अलकनंदा नदी पर भाभड़ घास से बने दो-ढाई फीट चौड़ाई वाले झूला पुल पर पहुंच गया. यह झूला पुल हमारे गांव को कर्णप्रयाग से जोड़ता था. इसे पार कर के ही कर्णप्रयाग-बद्रीनाथ मार्ग वाली सड़क पर पहुंचा जाता था और फिर वहां से थोड़ा पैदल चल कर कर्णप्रयाग बस स्टैंड पर. झूला पुल वर्षों से वक्त के थपेड़े खाता हुआ अपनी जर्जर अवस्था की ओर बढ़ चला था. इसे पार करने के लिए एक खास किस्म की संतुलन कला की जरूरत होती थी. पैर धरते ही इधर से उधर ऐसे झूलता था कि बड़े-बड़े जिगरे वाले की रूह कांप जाए. यूं लगे कि अब गिरा, तब गिरा और गंगा मइया की गोद में इस जीवन का बेड़ा पार. झोंक में मैंने पुल पर पैर रखा. आगे बढ़ता गया और पुल के लगभग बीच तक पहुंच गया. तभी मेरी नजर नीचे कल-कल, छल-छल कर बह रही वेगवती अलकनंदा के प्रवाह पर पड़ी. गर्मी के दिन थे. ग्लेशियरों के पिघलने के कारण अलकनंदा में पानी की मात्रा अपेक्षाकृत ज्यादा थी, जो पूरे उफान के साथ ठाठे मारता हुआ आगे को बढ़ रहा था. नदी के उफान के साथ उसका सांय-सांय करता स्वर भी डरा रहा था. नीचे नजर पड़ते ही मेरा पूरा बदन सिहर गया और यूं लगा कि मैं अभी गश खाकर नीचे गिर जाऊंगा और अलकनंदा की गोद में समा जाऊंगा. न एक कदम आगे बढ़े और न एक कदम पीछे को हटे. जैसे मैं जड़ हो गया होऊं. ऊंचाई वाले मेरे ठंडे गांव और बीच के जंगल के छायादार रास्ते में जो गांजा अपना असर नहीं दिखा सका था, वो अब कर्णप्रयाग की घाटी वाली गर्मी में अपना चरम प्रभाव दिखाने की स्थिति में आ गया था. दिमाग बिल्कुल सुन्न हो चला. कुछ न सूझा तो दोनों ओर की रस्सियों को पकड़ कर वहीं बीच में बैठ गया. एक-दो कदम बैठे-बैठे आगे बढ़ने की कोशिश की, लेकिन पुल इतनी जोर से हिला कि रीढ़ की हड्डी तक में झुरझुरी पैदा हो गई. बची-खुची उम्मीद भी खत्म. अब यूं ही बैठे रहने के अलावा कोई चारा नहीं था. ऐसा लगने लगा कि आज जीवन का अंतिम दिन है और यहीं पर जल समाधि हो जानी है. ऊपर से गर्मी का घाम पूरी प्रखरता से अपनी तपिश बिखेर रहा था. दोपहर में उस रास्ते से गुजरने वाला कोई नहीं और मैं लगभग चालीस मिनट पसीने में तरबतर जड़मुद्रा में वहीं बैठा रहा. इन चालीस मिनट में मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ किया. अपने ईष्ट देवता नृसिंह का ध्यान किया. जिलासू की चंडिका देवी का स्मरण किया. क्षेत्रपाल, भूम्याल से अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगी. चालीस मिनट बाद मेरे ही गांव के कर्णप्रयाग से लौट रहे दो लोग वहां पहुंचे. मेरे बैठे होने का कारण पूछा तो मैंने गांजे वाली बात छिपा दी और ये कह दिया कि मुझे चलने में रींग लग रही है (चक्कर आ रहे हैं). दोनों मेरी बात पर हंसे, मेरा हाथ पकड़ा और खास संतुलन के साथ मुझे पुल पार करवा दिया. साथ में सलाह दी कि कभी भी इसे पार करते हुए नीचे नहीं देखना चाहिए. नजर सीधे सामने रखो.
वो दिन था और मैंने गांजे से हमेशा के लिए तौबा कर ली. अत्तर तो खैर अगले कुछ वर्षों तक पीता रहा, लेकिन वक्त के साथ वो भी छूट गया. ये घटना मेरे जेहन में इतनी गहरी पैबस्त हुई कि मैं गांजा पीने वालों को सलाह देता हूं कि इसे पीना छोड़ दो. अगर नहीं छोड़ सकते हो तो कम से कम इसे पीकर झूला पुल तो हरगिज पार मत करना.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.
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