सुधीर कुमार

मेरे बुबू के क़िस्से

अपने पैरों को बड़ों के जूतों में डालते हुए मैं रेजर पर हाथ आजमाने के बारे में सोचता. मै समझने लगा था कि चाचा चौधरी और विक्रम-बेताल की कॉमिक्स बस दिल बच्चों का दिल बहलाने के लिए हैं. यह भी कि क्रिसमस के तोहफ़े सांता क्लाज नहीं बल्कि घर के बड़े देर रात चुपके से रख दिया करते हैं. कुछ दिन राजन-इकबाल के सर्वथा वर्जित, चित्रविहीन बाल उपन्यासों में भी मैंने अपनी कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाये, लेकिन बात न बनी.
(Memoir by Sudhir Kumar)

मुझे अब सचमुच के हीरो की तलाश थी. जिसका वजूद मैं अपने आसपास देख सकूँ. मेरी तलाश जल्द ही ख़त्म हुई. उन गर्मियों की छुट्टियों में जब मैं अपने गाँव गया हुआ था तो वहाँ मुझे मेरा हीरो मिल गया था— मेरे बुबू.

लगभग छह फीट के इकहरे बदन वाले बुबू में वो सब था जो उन्हें मेरा हीरो बनने की काबिलियत देता था. अलसुबह जब मैं उठने के बाद अपनी आँखों के जाले साफ कर ही रहा होता कि वे मिश्री, गट्टे, संतरे की गोलियाँ, बेकरी के महकते बिस्किट या फिर ऐसी ही किसी चीज से मेरी हथेली गरमा देते. जब मैं दुनिया से थोड़ा सा राब्ता बिठा चुका होता तो उन्हें कांसे की थाली में दाल-भात और टपकिया खाते पाता. अंत में वे थाली उठाते और उस में बचा आख़िरी कौर बाहर पटाल पर अपने प्रिय कुत्ते के लिए रखते, जो वहाँ अपने मालिक का इन्तजार करते हुए पहले से ही झबरीली पूँछ हिलाकर अपनी ख़ुशी और कृतज्ञता जाहिर कर रहा होता. हाथ धोने के बाद बुबू अपना झोला और छाता उठाते, और देहरी पर पड़े जूते पहनकर पगडण्डी चढ़ते हुए उस धार से दिखाई देना बंद हो जाते, जिसके आगे नैनीताल था. स्लेटी रंग का कुर्ता-पायजामा, सर पर टोपी, कंधे पर झोला और हाथ में छाता, ये सब उनके वजूद का हिस्सा थे.

देर शाम जब सूरज डूबने की तैयारी कर रहा होता तो वे लौटते. अक्सर उनके हाथ में कोई पौधा या फिर पौधों का गुच्छा होता. झोले से कई सौगाते निकाल कर बच्चों में बांटने के बाद वे उस पौधे को घर के आंगन में लगा देते या फिर गुच्छा लेकर क्यारियों में रोप देते. कुछ दिनों बाद उस पौधे पर खिले टोकरी जैसे बड़े फूल को देखकर मैं सोचता जादूगर है ये आदमी.

“डलिया का फूल है नाती अभी और बड़ा होगा” वे कहते.

रात में वे सब बच्चों के दूध में एक-एक ढक्कन उस रहस्यमयी द्रव्य के मिला देते जिसे पीने के बाद हमारे सपनों की दुनिया और तिलस्मी हो जाती.

छुट्टी के दिन वे सीमेंट और बजरी का मिश्रण मिलाकर कंक्रीट के ब्लॉक बनाते या फिर घर के खिड़की, दरवाजों, छाते, या फिर अन्य चीजों की मरम्मत के काम जुटे होते. मैंने उन्हें कभी पसरे हुए नहीं देखा, छुट्टी के दिन भी नहीं.
(Memoir by Sudhir Kumar)

कभी-कभी वे अपने कुत्ते को लेकर शिकार पर निकल जाते. यही एक दिन होता जब उसे पट्टा डालकर जंजीर से बाँधा जाता. उनके नायकत्व को मेरी नजर में कई गुना बढ़ा देता ये नजारा. वे एक कुशल शिकारी थे, इस बात की तस्दीक उनके हाथों से बनी लकड़ी की कुर्सियों में बिछाकर ठोकी गयी घुरड़, कांकड़ की खालें या फिर दीवारों पर टंगे सींग किया करते थे. कभी-कभार आमा के लकड़ी वाले मोटे संदूक का ताला खुलने पर हमें उसमें रखा बाघ का नाखून भी देखने को मिलता. उनके पास खुद की बंदूक नहीं थी. वे उसे खुर्पाताल में रहने वाले अपने किसी जिगरी दोस्त से लाया करते थे. बस, एक बार उनके साथ शिकार खेलने जाने का मौका मिले यही मेरे भीतर पल रहे जिम कॉर्बेट का सपना था.

“अभी तू बच्चा है” मायूस कर देने वाले उनका जवाब मेरा दिल तोड़ देता. उनके मोटे-मोटे जासूसी उपन्यास पढ़ना भी मेरा सपना हुआ करता लेकिन उतना बड़ा नहीं जितना कि शिकार खेलने जाना.

खैर, वक्त बदला. किसी साल बड़े चाचा ने खुद की दुनाली बंदूक खरीद ली, जो इस तस्वीर में दिखाई दे रही है. इसे कभी-कभार हम बच्चों को पकड़ने भी दिया जाता.

“शिकार पर चलेगा?” एक दिन चाचा बोले.

उस रात में करवटें बदलता रहा और अगली सुबह पौ फटने से पहले हम गधेरा पार कर घिंघारी धार के जंगलों में अलोप हो गए. गाँव से निकलते हुए चाचा ने मुझे बंदूक कंधे पर रखने का सलीका सिखाया. उसे कंधे पर रखकर चलते हुए मेरे भीतर कई तरह के भाव पैदा करने वाले असंख्य रसायनों का सोता फूट पड़ा.
(Memoir by Sudhir Kumar)

जंगल के भीतर दाखिल होते हुए चाचा ने बंदूक थाम ली और हम भटकने लगे. कई जानवर दिखे लेकिन पलक तक झपकाने की मोहलत दिए बिना गायब हो गए. जंगल में ही बैठकर हम लोगों ने नाश्ता और दिन का खाना भी खाया. आराम करते और भटके हुए आखिर रात घिर आई. इस समय हम गांव की वापसी के रास्ते पर थे.

गाँव पहुँचने से कुछ पहले अचानक चाचा पगडण्डी छोड़कर बायीं ओर की चढ़ाई चढ़ने लगे, मैं उनके पीछे. पेड़ों के घने झुरमुट के पास पहुँचकर उन्होंने मुझे लेटने का इशारा किया. मैं लेट गया. नाकामयाबी के दौरे की वजह से हम लोगों के बीच काफी समय से कोई बातचीत नहीं हुई थी. अब दोबारा रोमांच चरम पर था.

सूरज की मरियल रौशनी में चाचा ने बंदूक की नाल तोड़ी लाल कारतूस निकाल कर सफेद उसके हवाले किया. कोई एक उपकरण निकाल कर बंदूक की नाली पर फिट किया और उस पर निप्पो की चार सैल वाली टॉर्च फंसा दी. स्याह अँधेरा घिरने से पहले कार्रवाई निपट गयी और हम दोनों लेटे रहे. मुझे नहीं पता था कि क्या होने वाला है. कौतूहल, डर और रोमांच के मिले-जुले भाव मुझे झकझोर रहे थे लेकिन मैं शांत पड़ा हुआ था. अजीब-अजीब आवाजें मेरे डर को और ज्यादा बढ़ा रही थीं.
(Memoir by Sudhir Kumar)

अँधेरा घिरने के पंद्रह मिनट बाद अचानक टॉर्च की रौशनी चमकी और तेज धमाका हुआ, फिर पंख फड़फड़ाने की तेज आवाजें. मैंने उखड़ती साँसों को काबू में किया और चाचा के पीछे रौशनी की दिशा में चल पड़ा. उन्होंने जमीन पर बिछी दोनों जंगली मुर्गियां बटोरीं और हम घर की दिशा में चल पड़े.

“घर जाकर बुबू को कुछ मत बताना हाँ!” गधेरा पार करते हुए चाचा के इन शब्दों ने हमारे बीच पसरी चुप्पी को तोड़ा. मैंने हामी भरी.

घर पहुंचकर चाचा गोठ की तरफ बढ़ चले और मैं अंदर. बाहर के कमरे में ही बुबू मोटा चश्मा चढ़ाकर किसी जासूसी उपन्यास को पढ़ने में व्यस्त दिखे.

“क्यों रे! क्या लाया तेरा चाचा?” सर झुका कर चश्मे और भौहों के बीच से आँखें निकालते, व्यंग्यात्मक मुस्कान फेंकते हुए उन्होंने पूछा, मैं कन्नी काटकर रसोई की तरफ बढ़ने लगा. मुझ पर कामयाबी का नशा चढ़ा हुआ था.

“सौ रुपे का कारतूस बर्बाद करके पचास रुपे की मुर्गी लाया होगा” पीछे से आवाज आई.

मैं इस जादू के बारे में सोच ही रहा था कि उन्होंने कहा.

“अरे! मैं जब शिकार पर निकलता था तो घर की औरतें मसाला पीसना शुरू कर देती थीं.”

घर की औरतों का मसाला पीसते हुए वह दृश्य मेरी यादों से निकल कर प्रकट हो गया जिसमें पृष्ठभूमि में गोठ की छत पर पर एक जानवर उल्टा टंगा हुआ करता था. मैंने दोबारा बुबू को हीरो के उसी तख़्त पर विराजमान कर दिया जहां से मैं उन्हें उतारने के बारे में सोच ही रहा था.
(Memoir by Sudhir Kumar)

-सुधीर कुमार

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Sudhir Kumar

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