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मां आज भी सभी सिक्कों को डॉलर ही कहती है

ब्रह्म ने पृथ्वी के कान में एक बीज मंत्र दे दिया है
उसी क्रिया की प्रतिक्रिया में
जब बादल बरसते हैं,
तो स्नेह की वर्षा होने लगती है
और पृथ्वी निश्चल भीग उठती है.
आज भी बादलों के गरजने और
धरती पर फ्यूंली के फूलने से,
यूं लग रहा है  कि
पृथ्वी मंत्र बुदबुदा रही है. (Memoir By Neelam Pandey Neel)

चीड़ के वृक्षों की झूमती कतारों से निकलने वाली सांय सांय की आवाज दूर तक जैसे किसी की याद दिलाने लगती है. वृक्षों से निकल कर  पीला फाग उड़-उड़ कर फैलने लगता है और पूरे वातावरण को अपनी आगोश में ले लेता है. एक लम्बी सुसुप्ति और नीरवता के बाद पेड़ पौधों पर नवांकुरो और नवपल्लवों को आते हुए देखना बहुत सुंदर लगता है… आज सृजन के ऋतु यानि ऋतुराज वसंत के आगमन की शुरुआत है. नव पल्लव की सुगंध में रचे बसे से लोग, लोक जीवन के भाव लिए हुए नए कोंपलों के स्वागत की तैयारी में गीत गाने लगते हैं, झूमने लगते हैं. रानीखेत दुर्गा भवन के उस बगीचे में बसंत बहुत सुंदर लगता था, असंख्य फूलों का खिलना अपने आप में एक अद्भुत घटना होती थी. रानीखेत में वसन्त हर्षोल्लास और त्यौहार समारोह लेकर आता था. सरसों के पीले फूलों का फूलना, पादपों में नये कोंपल आना, रंगों की चादर से असंख्य फूलों का खिलना, असंख्य पक्षियों चकोर, पपीहे, सिटोल, घिनौड़ का कूजन करना पूरे माहौल को हर्ष में, आनंद में बदलता रहा है. पहाड़ में अक्सर इन पक्षियों पर बहुत कहानियां है तो इनके कुंजन उन कहानियों के  संबद्ध बोल लिए होते हैं जैसे काफल पाको मैल नी चाखो गाने वाली चिड़िया के स्वर जैसे अनेक स्वर सुनाई देते हैं. एक मीठी याद,बसंत, फूल देई से होली तक के समय की है. मन बरबस कह रहा है…

द्वार फूल फूला,
धेई फूल फूला,
फूल फूला आंगना,
फूल फूल पटांगणा.
नानातीना फूल जसा,
फूलौ फूल दगड़ीया,
खाजा, च्यूड़ा, गुड़, घिनोड़ी,
खिर्ची लै मस्त जेब भरी.

हम बच्चों को बसंत पंचमी के दिन नहलाया धुलाया जाता था और संभव हुआ तो पहनने को नये कपड़े भी मिलते थे. अन्यथा बसंती रंग में रंगाया गया नया रुमाल अवश्य ही मिलता था. हम बच्चे खूब घेरे वाली, नयी नयी सी जेबों वाली फूलदार या पीली फ्राक पहनकर और भी नये-नये कपड़े पहनकर सज जाते थे.बालों में तेल चुपोड़ कर बनायी हुयी बारीक चोटियों में फूल सजाकर अपनी फूलों से सजी हुयी टोकरियों को लेकर चलते थे और फिर घर-घर जाकर फूल बरसाने वाला सबसे सुंदर त्यौहार हमारे अनंत उत्साह का कारण बनता था.  एक रुपए का सिक्का हमारे लिए डॉलर होता था. मां तो आज भी एक रुपए तथा उससे बड़े सभी सिक्कों को डॉलर ही कहती है. एक रुपए का डॉलर मिलना बहुत बड़ी बात होती थी वरना सभी घरों में फूल बिखेरने पर पांच पैसे से लेकर एक रुपए तक के सिक्के मिलना हमको अमीर बना देता था.

बरबस याद आता है. चैत के महीने की यह संक्रांति आमतौर पर किशोर लड़कियों, लड़कों और छोटे बच्चों का पर्व है. बचपन में आज से एक दिन पहले स्कूल जाने में बच्चे बहुत आनाकानी करते थे. वैसे स्कूल में भी तब हाफ डे के बाद छुटटी हो जाती थी ताकि बच्चे एक दिन पहले ही आज के लिऐ फूलों को इकट्ठा करने जंगल या बगीचों में  जा सकें. तब सब छोटे बच्चे इकट्ठा होकर पास के जंगल से जाकर फूल तोड़कर ले आते हैं. इन फूलों में बसंत के मौके पर घर के आंगन से कोई तोड़ने ही नही देता तो जंगली और बगीचे के फूल ही होते थे जिन्हें हम तोड़ सकें. जिनमें प्योंली, बुरांस, पय्याँ, आडू, खुमानी, पुलम आदि  फूल हुआ करते हैं. फिर  सब अपनी टोकरी सजाते उनको  खूब सारे फूल और थोड़े  से चावल से भरकर अड़ोस पड़ोस तथा रिश्तेदारों के घरों में जाकर, उनकी गेरू; ऐपण से सजी-सजायी देहरी पर फूलों की बरसात करते और मिलकर इस गीत को गाते.

फूल देई, छम्मा देई,
तेरी धेई मेरी धेई नमस्कार
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार… फूल देई-छ्म्मा देई.
फूल देई माता फ्यूला फूल
दे दे माई दाल-चौल.
जतुकै देला उतुकै सही
फूल देई छम्मा देई.

लोग फूल डालने के बदले गुड़, चावल और पैसे देते है. फिर बच्चे दिन में इकटठे हुऐ पैसे देखकर खूब खुश होते उस दिन लड़कियों की फ्राक और लड़को की पैंटों में बनी लंबी जेबें अच्छी लगती थी, चाहे उसमें चंद सिक्के होते थे. अपनी टोकरी से निकाल कर अपनी लंबी जेबों में पैसे संभालना अच्छा लगता था और इकटठे हुऐ चावल और गुड़ को घर के लोग किसी मीठे पकवान में मिश्रित कर त्यौहार के भोजन में शामिल कर लेते थे और तब पका हुआ मीठा भोजन पड़ोस को दिये जाने वाले कलेवे में भी बँटता है. 

बसंत से होली तक खूब रौनक बनी रहती थी

रानीखेत से थोड़ी दूरी पर हमारा गांव डिंगा से लोगों का आना जाना बदस्तूर जारी रहता था. लोग जो बसंत पंचमी के मेले, मंदिर तथा बाजार की रौनक देखने आते थे वे चाय पानी तथा मिलने के बहाने नीचे बगीचे में उतर आते थे.  चूंकि पिता जी का कामकाज सब बाजार में था. अतः पिताजी किसी एक दिन झोड़े, गीत-बात का आयोजन भी रख लेते थे. उस दिन हम सब सांझ होते ही एक-दो दिन बाजार के घर में रहने चले जाते, जहां सांझ ढलते ही गीत बात ऋतुरैंण की महफिल दुकान के आगे सड़क पर ही लगने लग जाती थी. सभी महिलाएं दुछत्ती से ही कार्यक्रम का आनंद लेती थी और हम बच्चे नीचे पुरुषों द्वारा गाए जाने गीतों, झोड़ों की गोलाई के बीच में उछलकूद करने का मौका देखते रहते थे. ठीक से याद नहीं किन्तु एक महिला और पुरुष सबका आकर्षण का केंद्र रहते थे जिन्हें हुड़किया अपनी हुड़क्याणी कहा जाता था. हुड़किया खूब रंगीले पारंपरिक वस्त्रों में सजा हुआ रहता था. और हुड़क्याणी कई तरह का श्रृंगार करके स्वयं को ही निहारती रहती थी. वह इतना श्रृंगार करती थी जितना उस समय महिलाएं सोच भी नहीं सकती थी. उस समय पहाड़ की महिलाएं लिपस्टिक तथा नेलपॉलिश नहीं के बराबर प्रयोग करती थी लेकिन  हुड़क्याणी खूब लाल रंग का प्रयोग करते हुए विभिन्न श्रृंगार कर लोगों को अनोखी नजर आती थी. मेकअप से पुते हुए चेहरे में मुस्कराहट के साथ एक अजीब सा दर्द होता था शायद. तब उनका व्यवसाय जो उन दिनों किसी कला का पर्याय नहीं था सिवाय मनोरंजन के जिसमे उनकी आजीविका तो थी ही लेकिन उनके लिए एक उपेक्षा का भाव भी लोगों के व्यवहार में दिखता था. खाना, चाय और इनाम में दी जाने वाली सभी वस्तुएं दूर से प्रदान की जाती थी.

मला सारा बसंती तू हिट दे चटाचट
किलै रैछै पछीना तू हिट दे पटापट
मै हूणी तू साड़ी बिलौज बनै दे
किलै रूलौ पछाणी मैं हिटुलौ पटापट.

हुड़किया अपनी हुड़क्याणी के साथ गाना शुरू करता था और धीरे धीरे हुणक्याणी गाने के बोल पकड़ते हुए अपना खूब घेर वाला घाघरा फैला कर नाचना शुरू कर देती थी.

बसंत पंचमी के लगभग एक माह बाद आती शिवरात्रि. शिवरात्रि के आने पर जहाँ शिवजी की पूजा का पर्व मनाया जाता, वहीं होली के गीत भी शुरू हो जाते हैं.

सन्यासी, शिव के मन
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी, शिव के मन…
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी, शिव के मन…
जैसे असंख्य गीत घर- घर में गाए जाने लगते हैं.
होली के साथ भक्ति भरी होलियाँ भी गाई जातीं रही हैं

फागुन की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होली का परम्परागत आरम्भ होता. होली का ये त्यौहार लगभग दो महीने चलता रहा है. हम सभी के लिए होली बहुत महत्वपूर्ण रही है और यहाँ रंगों के इस त्यौहार का एक अलग ही रंग देखने को मिलता था. यहाँ होली ‘बैठकी होली’ और ‘खड़ी होली’ के रूप में मनाई जाती रही है| दोनों ही होली में लोक गीत वाद्ययंत्रों (ढोलक, हारमोनियम, ढोल) के साथ गाये जाते हैं|

हमारे घर इस दौरान एक चाचा जी आते थे उनका नाम हरीश डोरबी था. वे रात तक गीतों की मंडली जमा कर रखते थे. वे सुंदर गीत गाते थे और हारमोनियम भी स्वयं बजाते थे. हम बच्चों के साथ वे हनुमान चालीसा के साथ शुरुवात करते थे फिर होली के कई गीत गाते थे. एक गीत जो वह हम बच्चों के लिए  गाते थे,मैंने उन्ही से सुना उसके बाद फिर नहीं सुना.

चंदा भी नाचे, तारे भी नाचे
नांचू भला कैसे सितारों के संग.

होली के गीतों की भाषा ब्रज भाषा, खडी बोली और कुमाऊनी भाषा का मिश्रण है. हर गीत का अपना समय और राग- ताल है. होली गाने वालों को ‘होल्यार’ कहते हैं. हम सभी उन दिनों स्वेत वस्त्रों में ही होली खेलते थे और आज भी खेलते हैं. आलू के सूखे गुटके, गुजिया, गुड़, सौफ, लौंग, इलायची और पापड़, चिप्स लगभग सभी घरों में खाने को मिलते थे. हमारा मुख्य आकर्षण स्वांग करने वाली महिला होती थी जो पुरुषों के वस्त्रों को अजीब तथा मजाकिया अंदाज में पहनकर कई तरह के स्वांग करके होली मंडली के बीच में आकर सबको हंसाया करती थी. बसंत से होली तक का समय सब कुछ भूल कर आनंद में रहने का समय है. इस समय  मनुष्य, खग, मृग, पक्षी तथा असंख्य जीव जंतु एवं प्रकृति भी सानंद हर्षित होती है. यह समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए आनंद के अतिरेक का समय है. (Memoir By Neelam Pandey Neel)

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नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपती रहती हैं. 

काफल ट्री में प्रकाशित नीलम पांडेय ‘नील’ के अन्य लेख:
कुमाऊनी झोई का स्वाद लाजवाब है
पहाड़ और चीटियों वाली बारात

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Sudhir Kumar

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