समाज

यादों में हमेशा जिंदा रहेगा अमरिया

पड़ोस के गांव गंगनौला की चाची का परिवार टनकपुर के लिए पलायन कर गया तो उन्होंने अपनी दुधारू गाय सस्ते दामों पर बेच दी, जबकि दो-ढाई साल का बछड़ा हमें मुफ्त में दे दिया. ईजा ने भी उसे ले लिया कि घर का बैल लल्या अब बूढा हो रहा था. वो लात बहुत मारता था, इसलिए उसके प्रति सहानुभूति कम होती गई. अमरिया काले रंग का था. सींग उसके छोटे, मगर जड़ में मोटे थे. गले की माला शानदार. पीठ पर लाल था. व्यवहार से इतना सीधा कि, गले व जुडें, पीठ में मसारने पर हरी घास रखे होने के बाद भी इत्मीनान से खड़ा हो जाता था. इसी वजह से उसके साथ आत्मीयता बढ़ती गई. (Memoir by Kishore Joshi)

अब वह बड़ा होने लगा तो जंगल चराने को भी भेजना था. एक-दो दिन उसने परेशान किया फिर वह खुशी- खुशी जंगल जाने लगा. ठुल बाबा (बड़े पिताजी) की इलाके में पत्थर निकालने की विशेषज्ञता की वजह से ख्याति थी, मगर जब काम नहीं रहता तो अक्सर ग्वाला वे ही जाते थे. मैं भी शौकीन था ग्वाला जाने का. सबसे छोटा था, ठुल बाज्यू बहुत लाड़ करते थे. ग्वाला जाने में मेरी शर्त होती थी कि रेडियो मुझे मिलेगा. अब गाय चराने मल्लबन, कभी तल्लबन तो कभी सुनारगैर, तोलान, तो चौमास में कभी भद्राखोला, मरोड़ा, रिंदवाड़ी खोला. बांज पलीते समय तड़के तप्पड़,  आदि जंगलों तक पहुंच जाते. 

अमरिया इतना होशियार था कि हृष्ट-पुष्ट होने के बावजूद घास के लिए बेहद खतरनाक रास्तों से पहाड़ी में चढ़ जाता था. ऐसी पहाड़ी जिसमें संतुलन बिगड़ता तो मौत तय होती. ग्वाला जाने के लिए कभी-कभार ईजा भट्ट भुटकर दे देती थी. चटख धूप पड़ती तो हम पेड़ की छांव में सो जाते, अमरिया भी आ जाता. उसे पास आने पर कोई बढ़िया हरी घास या अन्य बांज या अन्य पेड़-पौधों की हरी पत्तियां देनी होती थी,  तभी वह मानता था, अन्यथा नाराज होकर सींग मारता या कंधे से चिपटने लगता. वह इतना होशियार व आज्ञाकारी था कि थोड़ी देर मसारने के बाद बैठ कहने पर बैठ जाता. उसके बैठ जाने की वजह से हमारी अन्य गायें, बछड़े कहीं नहीं जाते थे. कभी-कभार यदि जेब में घर से लाये गए सोयाबीन (भट्ट) होते तो उसकी खुशबू सूंघकर अमरिया आ जाता और जबरन जेब में मुंह डालकर खा देता था. इस वजह से कई बार टल्ली लगी पेंट की जेब फट गई और घर में मुझे फटकार लगी. जब वह बड़ा हो गया तो खेतों में जुताई करने लगा. जुताई में दूसरे बैल से तेज चलने की मानो उसे धुन सवार थी. कितना ही सख्त मिट्टी के खेत की जुताई हो, वह कभी थकता नहीं था. लगातार पांच दिन जुताई के बाद भी. अषाढ़ी कौतिक मेले की दुकानदारी मतलब मुनाफे में घाटा

लड़ाई में भी सबसे आगे. गांव में एक दूसरा बैल था, जो कभी किसी से नहीं हारा था, मगर एक दिन अमरिया ने घंटों उसके साथ लड़कर उसे हराने के साथ उसका सींग भी तोड़ दिया. लड़ाका इतना कि थोड़े ही अंतराल में उसके भी दोनों सींग टूट गए. सींग टूटे दिन जब खून बिखरा तो दर्द कम करने व रक्त प्रवाह रोकने के लिए लाल या मटियाल मिट्टी का लेप लगाया गया. खेत जुताई व लड़ाई के मैदान में उसने कभी हार नहीं मानी. वह बैल नहीं, घर का चहेता था. बड़े भाइयों की तैनातियां बदलती रहती थी. हरियाणा के रोहतक तथा पाकिस्तान के बॉर्डर बारामुला या जम्मू के ऊधमपुर से या बंगाल के 24 परगना, मुर्शिदाबाद से उनका पत्र आता तो उसमें भी अमरिया कैसा है, यह जिक्र जरूर होता था.  दीपावली के 11 दिन बाद होने वाली बूढ़ी दीवाली को बैल का त्योहार होता है. बूढ़ी दिवाली या एकादशी को सुबह से ही अमरिया को सजाने संवारने की तैयारी में जुट जाते थे. बाजार से उसके लिए नई घंटी आई तो फिर पुरानी होने पर उसे चमकाया जाता था. डोरी को रंग में रंगा जाता जबकि सींग सजाने के लिए भांग के रेशे से मुझयाड़ बनाया जाता. मुहूर्त के अनुसार रात में या सुबह उसके लिए डेग में विशेष खिचड़ी पकाई जाती थी. सुबह उसे जंगल  चराने ले जाने की आतुरता रहती. उस दिन बैलों में खास तरह की उमंग आती तो वह खूब लड़ते थे. अमरिया तो उस दिन खुश रहता. हमारे घर में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक, किसी के लिए उसने कभी गुस्सा नहीं किया.

अब मैं भी सामाजिक कार्य में जुट गया तो धीरे-धीरे पशुपालन कम होता गया. एक दिन नौबत आ गई कि उसे बेचना पड़ा. उन दिनों एक बैल की कीमत 1600 रूपए तक थी मगर मजबूरी में हमने उसे आठ सौ में मनिहार को बेच दिया. अब जब उसे आधे रास्ते तक छोड़ने गए तो  उसे एहसास हो गया था जुदाई का. गांव से करीब तीन किमी दूर चंपावत जाने वाले पैदल रास्ते पर खेतगाड़ नदी पार कराई तो वह तेज बहाव में भी आराम से नदी पार चला गया. अब जब मैं घर को लौटने लगा तो उसकी आंखों में आंसू थे. मगर फिर भी वह उसने हमारी जुदाई के बाद भी जाने में किसी तरह की न-नूकुर नहीं की. उस रात मैं ही नहीं, घर का हर सदस्य रोया. वो था ही सबका लाडला. आज भी घर का हर सदस्य उसे याद करता है. उसके जोते गए खेत बंजर हो गए, मगर उसकी यादों की फसल आज भी लहलहा रही है. (Memoir by Kishore Joshi)

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

किशोर जोशी दैनिक जागरण में ब्यूरो प्रभारी हैं. पहाड़ की परंपरा, लोकसंस्कृति, लोकजीवन को जीने और ग्रामीण प्रतिभाओं को उभारने का शौक रखते हैं. पलायन जैसी समस्या के समाधान के प्रयास को गति देने की चाह रखते हैं. मूल निवासी लोहाघाट, जिला चम्पावत. काली कुमाऊं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago