कहो देबी, कथा कहो – 36
पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 35
“कहो देबी, कहां चले गए थे? हम तो कान लगाए हुए थे, कथा सुनने के लिए.”
“क्या बताऊं, जाना पड़ा कहीं और कथा सुनाने के लिए. दिल्ली से मुंबई, फिर दिल्ली, फिर हैदराबाद, वहां से मुंबई और फिर दिल्ली.”
“इस चक्कर में जो कथा हमें सुना रहे थे, उसे भूले तो नहीं?”
“नहीं, नहीं, उसे कैसे भूल सकता हूं. वह तो मेरी जिंदगी की किताब की कथा हुई इजू.”
“तो सुनाओ फिर. पिछली बार कह रहे थे ना कि उस दौर में कितने जो अनजाने लोग मिले.”
“सुनाऊं, उनके किस्से?”
“ओं”
इजू, पहले मैं कहां जानता था उन्हें. मेरे लिए तो वे बिल्कुल अपरिचित, अनजान लोग हुए. लेकिन, एक बार जो उनसे मिला तो वे मेरे हो गए. आज तक नहीं भूला हूं उन्हें. अब बद्रीनाथ संपेरे को ही ले लो. एक दिन लखनऊ में दफ्तर के आसपास ही मिल गया था. बातें हुईं, पहचान हो गई. एक बार मैं छुट्टी के दिन अपनी मोटरसाइकिल में बैठा और उनकी बस्ती में पहुंच गया. लखनऊ के सरोजनी नगर ब्लाक की बरौली ग्राम सभा के गांधी ग्राम में है उनकी बस्ती. उस बस्ती में तब सपेरों के 60 और नटों के 35 परिवार रह रहे थे.
जब मैं वहां गया तो धूल भरी सड़क में गांव के बच्चे खेल रहे थे. बस्ती में पहले पैंसठ वर्षीय बुजुर्ग संपेरे फौजीनाथ मिले. उन्होंने बताया, “हम मथुरा की ओर से बीन बजा कर सांप नचाते-नचाते रोजी-रोटी की तलाश में यहां तक पहुंच गए. वैसे तो हम पेट पालने के लिए कहां-कहां नहीं भटके- गुजरात, बिहार, आसाम, ढाका और नेपाल तक भी गए. गुरू गोरखनाथ के वंशज हैं हम. हमारे पास रोटी कमाने का जरिया केवल सांप हुए. उन्हें पकड़ने में बड़ा खतरा रहता है. किस्मत साथ न रहे तो जान से हाथ धोना पड़ सकता है.”
वहीं बद्रीनाथ मिले. वे बोले, “दर-दर भटकने के बजाय हमने भी सोचा कि आमदनी का कोई नया जरिया भी ढूंढा जाए. तो, गधे और खच्चर पालन शुरू कर दिया. इसके लिए बैंक से कर्जा लिया.”
उन लोगों ने मुझे पेड़ की छांव में खटिया पर बैठाया था. आसपास सांपों की टोकरियां थीं. टोकरियों से बीच-बीच में सिर बाहर निकाल कर सांप झांक लेते. छोटे-छोटे बच्चे उन्हें हाथ से पकड़ कर फिर टोकरी के भीतर डाल देते. एक बच्चे ने तो एक जिज्ञासु सांप को बाहर निकाल कर गले में माला की तरह डाल लिया. ज्ञाननाथ मुखिया भी वहां मौजूद थे. मौका पाकर गुलाबनाथ ने एक भजन सुना दिया.
मैंने बद्रीनाथ से पूछा, “खिलाते क्या हो इन्हें?”
“कीड़े-मकोड़े, चूहे और मेंढक. यही है इनका भोजन.”
बद्रीनाथ ने ही बताया कि कुछ दूर सामने की बस्ती में नट रहते हैं. मैं उनसे मिलने गया तो वहां मिले छबीले. छबीले ने बताया, “हम गोंड आदिवासी हैं. कभी मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले से खानाबदोशों की तरह आए थे. हमारा पुश्तैनी धंधा तो जंगलों में जाकर शिकारबाड़ी करना था. जानवर मार कर मांस खा लेते और खाल बेच देते. बाकी समय सड़कों के किनारे पत्थर तोड़ते, सिलबट्टे और चक्कियां बनाते. हमारी नटनियां मिट्टी के खिलौने बनातीं और टोकरी में सिर पर रख कर गांव-गांव जाकर बेचतीं. वे अब भी ऐसे खिलौने बनाती हैं, ये देखिए” कह कर उसने सामने बैठी नटनी को इशारा करके मिट्टी के खिलौने मंगा कर दिखाए. फिर निराश होकर बोला, “अब तो साब, न तो जंगल रहे, न जानवर मार सकते हैं, न मिट्टी के इन खिलौनों के खरीददार रहे.”
“तो अब क्या करते हो?” मैंने पूछा.
“सिरकी और पाल बनाने का काम कर लेते हैं. खस का काम भी आता है हमें. बैंक से कर्जा लेकर सुअर भी पाल रहे हैं हम.”
छबीले से मिल कर लौट ही रहा था तो बद्रीनाथ ने रोक कर कहा, “आवूंगा किसी दिन आपसे मिलने आपके दफ्तर में. पता लिख दो.”
मैंने पता लिख दिया. वे दो-तीन संपेरे पेड़ के नीचे बैठ कर चेहरा और जटा-जूट रंग रहे थे. उनसे विदा लेकर मैं लौट आया. बद्रीनाथ का असली किस्सा तो उसके कुछ समय बाद सुनने में आया.
हुआ यह कि एक दिन बद्रीनाथ अपना चेहरा और जटा-जूट रंग कर, एक मोटा-लंबा अजगर गले में डाले बैंक में मेरे दफ्तर पहुंच गया. मैं उस समय दफ्तर में नहीं था. वह दरवाजे से हाल में घुसा तो दो-एक लोगों ने कहा उससे, “अरे, अरे कहां चले आ रहे हो? यह दफ्तर है.”
वह बोला, “जानता हूं बाबू यह दफ्तर है. मैं मिलने आया हूं.”
“किससे मिलने?” चतुर और चपल दफ्तरी कन्हैया ने पूछा.
“मेवाड़ी मनीजर साब से,” उसने कहा.
कन्हैया की आंखों में चमक आ गई. बोला, “वे तो अभी बाहर गए हैं, पता नहीं कितनी देर में आएंगे. तुम ऐसा करो, भीतर बड़े साहब से मिल लो. काम बन जाएगा.”
यह किस्सा मुझे बाद में कन्हैया ने ही सुनाया. कहने लगा, “हमने सोचा, साहब जरा ज्यादा कड़क हैं, थोड़ा इलाज हो जाएगा. तो हम भेज दिए उसे भीतर. वह दरवाजा खोल कर भीतर कड़क साहेब के कमरे में घुसा, उसके पीछे दरवाजा खुदै बंद हुई गवा और हम जानबूझ कर सटक लिए बाहर कैंटीन की तरफ कि चलो कुछ देर मजमा हो जाई. तो, संपेरा अंदर और हम बाहर! उसे देख कर कड़क साहेब घबराए. पूछा- कौन हो? संपेरे ने नाम और काम बताया और कर्जे के बारे में अपनी बात समझाने लगा. अजगर भी मूड़ी उठा कर साहेब की बातन को सुनत रही. साहेब मेज के नीचे बटन दबा कर घंटी पर घंटी बजाते रहे. थोड़ी देर बाद मैं भीतर आया और साहेब के कमरे में गया. वे बोले, “कहां थे? कब से घंटी बजा रहा हूं. इस आदमी को बाहर ले जाओ. तो, मैं उसे बाहर लाया और उससे कहा, अभी जाओ, फिर किसी दिन आकर मेवाड़ी साहब से मिल लेना.”
लोग जानते थे, शिवजी की बारात के ऐसे गण मेवाड़ी जी के पास आते रहते हैं. संपेरा बद्रीनाथ पहली बार आया था. कई बार मैं भी सोचता कि ये भांति-भांति के लोग मेरे पास ही मिलने को कैसे आ जाते हैं? कौन भेजता होगा इन्हें मेरे पास? या वे यों ही आ जाते हैं?
बहरहाल, एक दिन एक और सज्जन आए. बोले, “जादूगर पीटर पैन हूं, कलकत्ता (अब कोलकाता) से आया हूं. मैंने उन्हें बैठाया, चाय पिलाई और पूछा, “मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?”
वे बोले, “जादूगर हूं. यहां आया हूं तो मन करता है, कोई जादू का करतब दिखाऊं. क्या आपके इस आफिस में भी जादू दिखा सकता हूं?”
मैंने कहा, “अभी तो काम का समय है. चार-पांच बजे बाद अगर हो सकेगा तो भीतर सीनियर आफिसरों से पूछ लेता हूं.”
मैंने एक नोट लिखा और फाइल भीतर भेज दी. मकसद था, दिन भर के काम के बाद थके साथियों का मनोरंजन. भीतर से बुलावा आया, बातचीत की और ठीक पांच बजे के लिए ‘हां’ हो गई. मैंने जादूगर को पांच बजे आने के लिए कह दिया. फिर हाल में बैठे सभी साथियों के लिए नया नोट बनाया कि जादू देखेंगे तो जादूगर को सम्मान जनक पारिश्रमिक भी भेंट करना चाहिए. सभी साथियों ने सहयोग दिया और सम्मानजनक राशि जमा हो गई.
ठीक पांच बजे जादूगर पीटर पैन आया और उसने हाल में ‘अब्रा का डब्रा! गिली गिली गे!’ कहते हुए हाथ नचा कर ताश और हाथ की सफाई के तरह-तरह के चकित कर देने वाले करतब दिखाए. जादू दिखाने के बाद जादूगर ने मुझे बताया कि उसका बेटा पीटर पैन जूनियर के नाम से जादू के बहुत अच्छे करतब दिखा रहा है. फिर उसने कहा, “मैं हिप्नोसिस से इलाज भी करता हूं. अगर आपको मेरा वह काम देखना है तो कल शाम को ठीक सात बजे चारबाग के अमुक होटल में आइए. अगले दिन मैं गया वहां. धीरे से दरवाजे पर थपकी दी. दरवाजा खुला. इशारे से मुझे एक ओर बैठाया गया. आमने-सामने कुछ दूरी पर रखी दो कुर्सियों पर एक युवक सीधे डंडे की तरह पेट के बल लेटा हुआ था. पूरी पीठ हवा में थी. जादूगर पीटरपैन चुटकी बजा कर उससे बातें कर रहा था. सब खामोशी से बैठे थे.
कुछ देर बाद जादूगर ने फिर चुटकी बजाई और उससे कहा, “तुम गहरी नींद में हो लेकिन सुन रहे हो. मैं तीन बार चुटकी बजाऊंगा. सुन कर तुम नींद से जाग जाओगे. तुम्हारा शरीर ढीला पड़ेगा. तुम्हें गहरा आराम अनुभव होगा. मन से चिंता दूर हो जाएगी और तुम आंखें खोल दोगे. उसने तीन चुटकियां बजाईं और युवक का शरीर ढीला पड़ने लगा. दो-तीन साथियों ने युवक के शरीर को संभाला और कुर्सी से सहारा देकर उतारा. उसने जाग कर आंखें खोल दीं और अंगड़ाई लेकर बिस्तर पर बैठ गया.
जादूगर ने पूछा, “कैसा लग रहा है?”
उसने कहा, “बहुत हल्का महसूस कर रहा हूं. मन भी काफी हल्का हो गया है.”
बहुत गंभीर और रहस्यमय माहौल था वहां. कुछ देर बातें करने के बाद मैं चला आया. मैंने हिप्नोसिस का वह पहला प्रैक्टिकल केस देखा था.
जिस तरह पीटर पैन आए थे, उसी तरह एक दिन उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र से युवा जादूगर चौधुरी मिलने आ गए. झब्बर बाल और अस्त-व्यस्त कपड़े. वे भी बंगाली थे. बातें हुईं तो बोले, “तराई में आकर बसा था. झोपड़ी बनाई थी, लेकिन पिछले दिनों आग से जल गई. बच्चे वहीं रह रहे हैं. कुछ मदद हो सकें तो कर दीजिए. मैंने मुख्य प्रबंधक से बात की. वे कवि हृदय थे. जादूगर का दर्द समझ गए. मैंने सहयोग के लिए नोट लिखा. सभी साथियों ने इस बार भी मदद का हाथ बढ़ाया. शाम को दफ्तर के समय के बाद हम फिर हॉल में जमा हुए और हमारे बीच खड़े जादूगर चौधुरी ने सिक्के और नोट गायब करने का करिश्मा कर दिखाया. मुख्य प्रबंधक से एक सौ रूपए का नोट मांगा और हमारी आंखों के ही सामने मुट्ठी में यहां-वहां करते गायब कर दिया. सभी हैरान कि नोट कहां गया? कहां गया?
जादूगर चौधुरी ने ‘इनकी जेब में तो नहीं’, ‘इनकी कैप के भीतर तो नहीं’ कह कर कुछ और नोट दिखा दिए लेकिन उनमें मुख्य प्रबंधक का सौ का नोट नहीं था. तब जादूगर ने उनसे क्षमा मांगते हुए कहा, “सॉरी सर, इस करतब में कभी-कभी ऐसी गलती हो जाती है. नोट गायब हो जाता है और वापस नहीं आता. माफ कर दीजिए.”
हम सभी हैरान. मुख्य प्रबंधक के चेहरे पर देखते ही देखते सौ रूपए का नोट खो जाने की फिक्र झलकने लगी. जादूगर ने फिर हाथ घुमा कर खोजने की कोशिश की. कुछ और जेबों में देखा लेकिन नोट नहीं मिला. वह भी निराश हो गया और एक बार फिर माफी मांगी. उसकी मदद के लिए तो चंदा भी किया था. सभी चलने लगे तो जादूगर ने अचानक मुख्य प्रबंधक से कहा, “सर, सर, जरा पैर उठा कर तो देखिए, कहीं जूते के नीचे तो नहीं आ गया आपका नोट?”
उन्होंने पैर उठाया. और यह क्या? उनके जूते के नीचे था वह सौ रूपए का नोट! वहां कब, कैसे पहुंचा, वह भी हम सभी की आंखों के ऐन सामने- यह कोई नहीं जानता था. नोट देख कर सभी के चेहरे खिल उठे.
लेकिन, लखनऊ की जान तो ये जादूगर मदन कुंडू. एक दिन वे भी मिलने आ गए. छोटा कद और दुबले-पतले. काले रंग की पोशाक पर, गले में झूलती छोटी-सी मानव खोपड़ी, जिसकी लाल आंखें चमकती रहती थीं. मेरे सामने बैठे ही थे कि रीजनल मैनेजर कृष्ण लाल शर्मा जी की नज़र पड़ी. उन्होंने मुझे भीतर बुला कर पूछा, “आपके पास जो बैठे हुए हैं, वे क्या जादूगर मदन कुंडू हैं?”
मैंने कहा, “जी हां, वहीं हैं.”
वे बोले, “उन्हें बुला लो. यहीं चाय पिएंगे.”
मैं उन्हें भीतर ले गया. दुआ-सलाम हुई. शर्मा जी ने उनसे पूछा, “आप लोग जो जादू दिखाते हैं, वह क्या हाथ की सफाई होती है या हिप्नोसिस?”
“दोनों, जहां जैसी जरूरत होती है, वैसे इनका इस्तेमाल करते हैं.”
“मंच पर जादू दिखाने के लिए तो आप लोगों को पहले से ही कई इंतजाम करने पड़ते होंगे?”
“जी हां, जितना बड़ा शो, उतने बड़े इंतजाम.”
शर्मा जी ने मुस्करा कर पूछा, “अचानक जादू दिखाना पड़े तो? आप खाली हाथ आए हैं, मैजिक ट्रिक की कोई चीज आपके पास नहीं है. आपको पता भी नहीं था कि यहां जादू दिखाना पड़ेगा. अब अगर मैं कहूं कि जादू दिखा दो तो आप कैसे दिखाएंगे? कठिन होता होगा यह?”
“जी हां, बहुत कठिन होता है ऐसे अचानक जादू दिखाना. लेकिन, आप कह रहे हैं तो बस कोशिश कर सकता हूं. पता नहीं, हो भी पाएगा या नहीं,” कुंडू बोले.
“कोशिश कर लीजिए,” शर्मा जी ने कहा.
मदन कुंडू ने कहा, “जरा, वह पानी का गिलास तो दीजिए.” शर्मा जी ने मेज पर रखा, कोस्टर से ढका कांच का पानी भरा गिलास मदन कुंडू के सामने रख दिया.
फिर जादूगर कुंडू ने कहा, “थोड़ी देर के लिए क्या आप अपनी अंगूठी दे सकते हैं?”
“जरूर, यह लीजिए,” शर्मा जी ने अंगूठी उतार कर दे दी.
जादूगर कुंडू ने अंगूठी को हथेली में रखा, फिर मुट्ठी बंद की और हाथ घुमा कर ‘गिलि, गिलि, गिलि, गिलि’ जैसा कुछ बुदबुदा कर अंगूठी गिलास के पानी में डाल दी. फिर पंजा गिलास के ऊपर फैला कर बोले, “मान लीजिए, कभी आप गोमती नदी के पुल पर खड़े हैं और आपकी अंगूठी गोमती में गिर जाए तो आप मुझे याद करना. हाथ उठाते हुए आपको मेरा नाम बोलना होगा, इस तरह- ‘मदन कुंडू, मदन कुंडू, मदन कुंडू!” और, देखिए आपकी अंगूठी इस तरह गोमती नदी के पानी में से उठ कर ऊपर और ऊपर आती जाएगी.”
शर्मा जी और मैं हैरान होकर देखते ही रह गए- अंगूठी गिलास की पेंदी में से उठ कर ऊपर आती जा रही थी. फिर वह पानी में से उठ कर हवा में जादूगर कुंडू के पंजे की ओर बढ़ने लगी. कुंडू खड़े हो गए थे. अंगूठी ऊपर तक उठ कर उनके हाथ में आ गई. उन्होंने हंसते हुए अंगूठी शर्मा जी को दे दी और कहा, “मेरा नाम याद रखिएगा, हां?”
जादूगर ने हमारी आंखों के सामने जादू दिखा दिया था. हम बिल्कुल नहीं समझे कि जादूगर कुंडू ने वह सब कैसे किया. खैर, चाय पीकर बाहर आए तो मैंने मदन कुंडू से कहा, “क्या आप हमारे बैंक की योजनाएं अपने जादू से लोगों को समझा सकते हैं?”
वे बोले, “समझा सकता हूं लेकिन मैं तो बैंक योजनाओं के बारे में कुछ जानता नहीं.”
“वह सब तो मैं बताऊंगा आपको. जैसे, अगर आप बैंक में साल भर के लिए इतना पैसा जमा कर देंगे तो साल भर बाद वह बढ़ कर इतना हो जाएगा. दो साल में इतना, तीन साल में इतना और पांच साल में इतना.” मैंने कहा, “ऐसे ही अलग-अलग योजनाओं की बात बताऊंगा. आप कहेंगे ‘से इट विद फ्लावर्स!’ या ‘फूलों की सौगात के साथ!’ तो आपके हाथ में जो फूलों का बुके होगा, वह आपके ‘छूमंतर’ कहते ही गिफ्ट चैक में बदल जाएगा.”
उनकी आंखों में चमक आ गई. बोले, “आप ये सब आइडिया डेवलप कर दीजिए. मैं उसे मैजिक में बदल दूंगा.”
मैंने आइडिया डेवेलप किए. उन्होंने उन्हें मैजिक में बदल दिया. तब मैंने जादू प्रदर्शन के जरिए बैंक की योजनाओं के प्रचार का प्रस्ताव स्वीकृति के लिए आगे भेजा. प्रस्ताव कई दिनों तक पड़ा रहा. समझाने की कोशिश भी की कि जैसे हम कठपुतली प्रदर्शन के लोक माध्यम से बैंक की योजनाओं का प्रचार करते हैं, वैसे ही जादू प्रदर्शन से लोगों का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं.
लेकिन, सभी तो इस तरह नहीं सोचते. परंपरागत बैंकिंग में तो ऐसा कुछ होता नहीं था. ‘इसके बिना भी बैंक तो चल ही रहा है’ का परंपरागत सोच हावी रहता है. इसी सोच ने प्रस्ताव को रोक दिया. बाद में दादा मदन कुंडू आए तो मैंने उन्हें बताया कि चाहते हुए भी मेरे बैंक में यह नहीं हो पाएगा. लेकिन, आप इसे दूसरे बैंक में ले जा सकते हैं.
वे बोले, “यह तो आपका आइडिया है?”
मैंने कहा, “क्या कर सकता हूं? लेकिन, आइडिया काम आना चाहिए.” मैंने उन्हें एक बड़े बैंक का सुझाव दिया और कहा, उन्हें यह मत बताइएगा कि यह मेरा आइडिया है. आप अपने प्रस्ताव के रूप में उन्हें दीजिए. उन्होंने उस बैंक के जनसंपर्क तथा प्रचार विभाग में प्रस्ताव दिया और वह सहर्ष स्वीकार हो गया. उन्हें लखनऊ से लेकर लखीमपुर-खीरी तक कई जगहों पर जादू प्रदर्शन से बैंक की योजनाओं के प्रचार का काम मिल गया. वे धन्यवाद देने आए और बोले, आपके कारण यह काम मिल गया है.
मैंने कहा, “नहीं दादा, यह तो आपकी कला है.”
उस साल 31 दिसंबर को हमने लखनऊ विश्वविद्यालय के एक हाल में सांस्कृतिक संध्या के रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया था. तब उच्चाधिकारियों को मदन कुंडू याद आए. मुझसे कहा गया, बात तो तब है जब जादूगर मदन कुंडू का मैजिक शो हो जाए. कैन यू डू इट? (क्या यह काम कर सकते हो.)
मैंने फोन मिलाया. जादूगर कुंडू लखीमपुर में कहीं उस दूसरे बैंक का शो कर रहे थे. मेरी बात सुन कर बोले, “आप फिक्र न करें. मैं शाम तक पहुंच जाऊंगा.”
और, वे अपनी टीम और मैजिक शो के साजो-समान के साथ शाम को हॉल में पहुंच गए. उन्होंने देर रात तक जादू के तरह-तरह के शानदार करतब दिखाए. कार्यक्रम के बाद मैंने तहेदिल से उनका शुक्रिया अदा किया. पारिश्रमिक की कोई व्यवस्था नहीं थी. उनसे कहा तो हंस कर बोले, “कोई बात नहीं दादा, आपके कारण मुझे दूसरी जगह काफी काम मिला है. नोमोश्कार!”
“नोमोश्कार दादा,” कह कर मैंने उन्हें विदा किया. दिल में कहीं दर्द उठा कि काश हम अपने बैंक में योजनाओं के प्रचार के लिए जादू प्रदर्शन की पहल करते! फिर सोचा, कोई बात नहीं प्यारे, नौकरी में ऐसा होता रहता है.
“अच्छा, तो आप संपेरे, नटों और जादूगरों से मिले? यह तो बढ़िया मुलाकात रही.”
“मिले तो और भी लोग, सुनेंगे उनके बारे में?”
“ओं”
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…
तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…
चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…