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चंडी प्रसाद भट्ट का इंटरव्यू

चिपको आंदोलन से सम्बद्ध चंडी प्रसाद भट्ट एक जाने माने पर्यावरणविद् व सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उन्हें 1982 में रेमन मैग्सेसे पुरुस्कार,1986 में पद्मश्री, 2005 में पद्मविभूषण, 2014 में गांधी शांति पुरुस्कार, 2016 में मानवीय उत्कृष्टता के लिए श्री सत्य सांई सम्मान से सम्मानित किया गया.

चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म 1934 में चमोली जिले के गोपेश्वर में हुआ. उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा रुद्रप्रयाग व पौड़ी से प्राप्त की. परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने की वजह से स्नातक की पढ़ाई छोड़ दी और परिवार की आवश्यकता के अनुरूप जी.एम.ओ.यू में क्लर्क की नौकरी करने लगे. 1956 में भट्ट गांधीवादी विचारक जयप्रकाश नारायण के प्रभाव में आए और कुछ युवा लोगों के साथ मिलकर गांवों के आर्थिक विकास व शराब के खिलाफ उत्तराखण्ड (तब के उत्तरप्रदेश) में सर्वोदय आंदोलन प्रारम्भ किया.

1960 में चंडी प्रसाद भट्ट ने अपनी क्लर्क की नौकरी छोड़कर पूरा समय सर्वोदय आंदोलन के कार्यों में देने का निर्णय लिया. 1964 में गोपेश्वर के ग्रामीण लोगों को एकजुट कर “दसौली ग्राम स्वराज मंडल” की नींव चंडी प्रसाद भट्ट ने रखी, जिसका कार्य गांव के लोगों को जंगल पर आधारित फैक्ट्रियों में नौकरी दिलवाना व शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना था.

1973 में चंडी प्रसाद भट्ट ने गांवों के लोगों को इकट्ठा कर चिपको आंदोलन के लिए प्रेरित किया, जिसकी मुख्य मांग 1917 से चली आ रही जंगल नीतियों का संशोधन करना था. जंगल के पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने व गांव के लोगों को एकजुट कर उनकी जरूरतों पर विचार विमर्श के लिए पर्यावरण-विकास कैंपों की स्थापना की गई. यह आंदोलन जंगल में मानवीय जरूरतों के संरक्षण का अहम साधन बना तथा इस आंदोलन ने न केवल सबको शिक्षित किया बल्कि एक मजबूत नीति के क्रियान्वयन का भी रूप प्रेषित किया. चंडी प्रसाद भट्ट को 2003 में “नेशनल फारेस्ट कमीशन” का सदस्य नियुक्त किया गया, जिसने जंगल प्रबन्धन के सभी नियमों, नीतियों व कानूनों की समीक्षा की व अपनी विस्तृत रिपोर्ट 2005 में सरकार को सौंप दी.

चंडी प्रसाद भट्ट ने बहुत सी किताबें लिखी जिनमें कुछ प्रमुख रही-“पर्वत-पर्वत,बस्ती-बस्ती”, “प्रतिकार के अंकुर”, “फ्यूचर आफ लार्ज प्रोजेक्ट इन हिमालया”, “ईको सिस्टम आफ सेंट्रल हिमालया”, “चिपको अनुभव” आदि.

ऋषिकेश में एक मुलाकात के दौरान भट्ट जी का अमूल्य समय मुझे प्राप्त हुआ. जिसमें साक्षत्कार के समय उन्होंने पर्यावरण, सतत् विकास, संस्कृति, सरकार की नीतियों आदि पर अपने विचार व्यक्त किये. पढ़िये श्री चंडी प्रसाद भट्ट के साथ साक्षात्कार:

सर, क्या आप अभी भी लिखते हैं?

पहले की तरह बहुत ज्यादा तो नहीं पर हां आज भी महत्वपूर्ण विषयों पर लिखता हूं.

चिपको आंदोलन ने राज्य में क्या भूमिका अदा की?

पिछले 50 सालों में चिपको आंदोलन के बाद जंगल व हरियाली कई गुना बढी और इस आंदोलन की वजह से लोगों को जंगलों का महत्त्व समझ में आया. चिपको के बाद कानून में बदलाव आया और “वन संरक्षण अधिनियम” लागू हुआ. लेकिन विकास की अभूतपूर्व दौड़ ने जंगलों को सिर्फ बर्बाद ही किया है. आज भी हम अवैज्ञानिक विकास की तरफ ही भागे जा रहे हैं. हमारे जंगलों को बचाने में गौरा देवी जैसी महिलाओं ने एक वांछनीय भूमिका निभाई थी जिसकी जरूरत आज पुनः आन पडी है अतः आज की युवा पीढी को आगे आना चाहिए ताकि हम हिमालय को बचा सकें.

सतत विकास क्यों जरूरी है उत्तराखंड के लिए?

अंधा-धुंध विकास हिमालय के लिए कभी भी फलदायी नहीं हो सकता. हमें सतत विकास की लाइन पर ही काम करना होगा, ताकि हम अपने जंगल व पारिस्थितिकी तंन्त्र को बचा सकें. उत्तराखंड का हिमालयी क्षेत्र बहुत ही संवेदनशील व भूकंपप्रभावी है इसलिए सरकार व लोगों को ऐसे विकास के लिए काम करना चाहिये जो आने वाले कल के लिए बेहतर हो. सड़क चौडीकरण के लिए पेड़ काटना, अवैधानिक खनन करना, जंगलों में आग लगाना आदि महत्त्वपूर्ण विषय हैं. हम भविष्य की पीढियों को बिना ध्यान में रखे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किये जा रहे हैं इसलिए हमें संसाधनों के सीमित दोहन व सतत विकास पर जोर देना होगा ताकि हम अपनी आने वाली पीढी के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़कर जा सकें.

2013 की त्रासदी के विषय में आपके क्या विचार हैं? आज आप केदारनाथ के पुनर्विकास को कैसे देखते हैं?

केदारनाथ आपदा कोई नई नहीं थी. इससे पहले भी बहुत सी आपदाएं उत्तराखंड में आ चुकी हैं लेकिन तब मीडिया की पहुंच इतनी ज्यादा नहीं थी जितनी आज है. पर्यावरणविदों व भूगर्भशास्त्रियों ने केदारनाथ आपदा की चेतावनी पहले ही राज्य सरकार को दे दी थी लेकिन राज्य सरकार की अनसुनी का खामियाजा लोगों को भुगतना पडा. हजारों लोग मारे गये और हजारों ने अपनी रोजी-रोटी खो दी.

अगर हम केदारनाथ मंदिर की बात करें तो वह वैज्ञानिक रूप से स्थापित किया गया था जिस वजह से इतनी भयावह आपदा के बावजूद वह टिका रहा. लेकिन केदारनाथ का पुनर्विकास उतना वैज्ञानिक नहीं है और यह भविष्य में खतरनाक स्थिति पैदा कर सकता है. हम फिर से हिमालय की इतनी ऊंचाई में सीमेंट व कंक्रीट के बनाए ढांचों पर विश्वास कर रहे हैं जो कि वहां के पर्यावरण के लिए खतरा है. सारा पुनर्निर्माण हिमोढ (पहाडों से ढह के आयी मिट्टी) पर किया जा रहा है जो बहुत ही नाजुक है और भविष्य में कभी भी खतरे को जन्म दे सकता है. मैं इसके लिए प्रधानमंत्री, मुख्यसचिव व जिलाधीश को पत्र लिख चुका हूं कि केदारनाथ के पुनर्निमाण में वैज्ञानिक समझ का इस्तेमाल किया जाए. केदारनाथ में पर्यटकों की संख्या को सीमित किया जाना चाहिए और केदारनाथ के साथ साथ अन्य तीन धामों को भी उतना ही महत्त्व दिया जाना चाहिए व प्रचारित प्रसारित किया जाना चाहिए.

क्या आपको लगता है “ आल वैदर रोड” केन्द्र व राज्य सरकार का एक योग्य कदम है?

राज्य के आंतरिक हिस्सों तक पहुंच के लिए सड़क आवश्यक है लेकिन आल वैदर रोड ही इसका समाधान नहीं है. सरकार को वैकल्पिक सड़कों के बारे में सोचना चाहिए. चार धाम महामार्ग पहले ही दो तरफा यातायात के लिए सक्षम था बस जरूरत थी तो उस सड़क की अच्छे से मरम्मत की. यह आल वैदर रोड तत्कालिक समाधान के तौर पर तो अच्छी लगती है लेकिन भविष्य में इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं और यह राज्य में समस्यायें पैदा कर सकती है. यद्यपि मलबे के निस्तारण के लिए डंपिंग जोन बनाए गये हैं लेकिन मलबे का निस्तारण सही तरीके से न होने के कारण वह गंगा में जा रहा है जिस कारण गंगा का तल ऊंचा उठ रहा है जो भविष्य की आपदाओं में परिस्थितियों को गम्भीर कर सकता है.

राज्य में बांधो के निर्माण पर आपकी राय क्या है?

राज्य में बांधो का निर्माण तात्कालिक मुनाफा कमाने के लिए किया गया. बड़े बांध उत्तराखंड जैसे संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के लिए खतरा है. हम बहुत ही पहले से बड़े बांधों के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं. अब समय आ गया है जब हमें वैकल्पिक ऊर्जा पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये. ये बड़े बांध पहाडों पर दबाब बढा रहे हैं. जिसके भयानक परिणाम भविष्य में देखने को मिल सकते हैं.

पलायन राज्य की बड़ी समस्या है. 750 से ज्यादा “घोस्ट विलेज” सरकार घोषित कर चुकी है. आप इसे कैसे देखते हैं?

पलायन के बारे में सिर्फ वो लोग बात कर रहे हैं जो अपनी जमीनें छोड़ चुके हैं. देहरादून जैसे शहरों में बैठकर हम पलायन की समस्या के निदान की बातें कर रहे हैं. खाली गांवों के पुनर्वास के लिए जरूरत है सड़क की, रोजगार की, स्वास्थ्य सुविधाओं की और शिक्षण संस्थानों की. पुनर्वास में समय जरूर लगेगा पर यह असंभव नहीं है. जिन लोगों ने अपनी जमीनें और अपने घरों को छोड़ दिया हैं उन्हें वापस आना चाहिए और अपने घरों को “होम स्टे” के रूप में शैलानियों को देना चाहिए. इससे न केवल पुनर्वास होगा बल्कि आय का एक साधन भी जुडेगा.

हम कुमाऊंनी और गढवाली भाषा को कैसे पुनर्जीवित कर सकते हैं?

यह जिम्मेदारी परिवारों को लेनी होगी कि वो अपने बच्चों को उनकी मातृभाषा सिखायें. आप कभी भी दो बंगाली या पंजाबी लोगों को देखोगे तो वो हमेशा अपनी मातृभाषा में बात करते हुये नजर आएंगें लेकिन हमारी उत्तराखंड की नई पीढी अपनी भाषा व संस्कृति भूलती जा रही है. अपनी संस्कृति व भाषा को पुनर्जीवित करने की नितान्त आवश्यकता है. कुमाऊं विश्वविद्यालय की तरह अन्य विश्वविद्यालयों व स्कूलों को स्थानीय मातृभाषा पर पाठ्यक्रम प्रारम्भ करने चाहिये. दूसरी भाषाओं को जानने में बुराई नहीं है लेकिन अपनी भाषा भूलना चिंता का विषय है.

अस्कोट से आराकोट की यात्रा का मुख्य उद्देश्य क्या था?

यह यात्रा डा. शेखर पाठक ने 1974 में सुंदरलाल बहुगुणा, शमशेर सिंह बिष्ट व कुंवर प्रसून के साथ प्रारम्भ की. 10 साल में होने वाली इस यात्रा में सन् 1994 में मैंने भी भाग लिया. इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य अपने गांवों, लोगों, उनकी संस्कृति, खान-पान, पहनावा व कृषि के बारे में जानना था. कुल मिलाकर इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य अपने पहाड़ी क्षेत्रों को पहचानना था. यदि आपको इसकी विस्तृत जानकारी चाहिए तो आप डा. शेखर पाठक से सम्पर्क साध सकते हैं.

बहुत बहुत धन्यवाद सर. आपने अपनी व्यस्ततम दिनचर्या से समय निकालकर राज्य की समस्याओं व उनके निवारण पर हमसे बात की और अपने विचारों को हमारे साथ साझा किया.

 

नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं

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Girish Lohani

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