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यह उन्हीं दिनों की बात है – पंतनगर में दुष्यंत कुमार और वीरेन डंगवाल

कहो देबी, कथा कहो – 24

पिछली कड़ी:कहो देबी, कथा कहो – 23, कब्बू और शेरा

हां, उन्हीं दिनों की बात है.

एक दिन एक साथी ने कहा, “सुना है, कोई मिस्टर त्यागी आए हैं. कुलपति से मिल कर यहां किए जा रहे किताबों और ‘किसान भारती’ के काम को देख रहे हैं. फिर अपनी रिपोर्ट कुलपति को देंगे. आपने सुना?”

“नहीं, मैंने तो नहीं सुना. कौन मिस्टर त्यागी हैं, कहां से आए हैं?”

“भोपाल से आए हैं सुना. लेखक हैं.”

“कहीं वे दुष्यंत कुमार त्यागी तो नहीं हैं?”

“कुछ ऐसा ही नाम कहा किसी ने. क्यों तुम जानते हो उन्हें?”

“उनसे कभी मिला तो नहीं लेकिन उन्हें कौन नहीं जानता. वे तो प्रसिद्ध हिंदी कवि और गजलकार हैं, अगर वहीं हैं तो.”

“कल-परसों ही आए हैं शायद. कोई कह रहा था, शायद अपने लिए भी कोई जगह देख रहे हैं. बाकी पता नहीं.”

मैंने सोचा, अगर वहीं हैं तो उनसे मिलना मेरा सौभाग्य होगा. इसलिए थोड़ा पूछताछ की तो पता लगा, वे इंटरनेशनल गेस्ट हाउस में रह रहे हैं.

दुष्यंत कुमार

मैंने इंटरनेशनल गेस्ट हाउस में जाकर पता किया तो मालूम हुआ, वे दुष्यंत कुमार त्यागी ही हैं. मैं उनकी ‘साए में धूप’ का दीवाना था और अक्सर ‘कहां तो तय था चरागां हरेक घर के लिए’ गुनगुनाता रहता था. उनके बिंब मुझे सम्मोहित करते थे और संदेश दिल को छू लेता था. लिहाजा, उनके कमरे में गया, मिला. बंगलौर के कोई उद्यमी मियां जी उनके पास बैठे थे. दोनों लोग ट्रैक्टर के ब्रांडों और बारीकियों पर बात कर रहे थे. ट्रैक्टर के बारे में दुष्यंत जी की बातें सुन कर मैं हैरान हुआ. कवि को ट्रैक्टर के बारे में इतना ज्ञान!

खैर, दुष्यंत जी ने मियां जी से मेरा परिचय कराया और बोले, “यहां मेरी इनसे भेंट हो गई. इन्हीं की जीप में घूम रहा हूं. अच्छा, यह बताओ, यहां आसपास कोई घूमने लायक जगह है?”

मैंने कहा, “दस-बारह किलोमीटर दूर रुद्रपुर बाज़ार है और तीस-पैंतीस किलोमीटर दूर हल्द्धानी का बाज़ार है. और, अगर आप थोड़ा दूर जाना चाहें तो नैनीताल जा सकते हैं.”

“नैनीताल तो फिर कभी हो आएंगे. अभी रुद्रपुर नज़दीक लग रहा है. वहां की कोई खास चीज?”

मैंने कहा, “गुड़ और चावल. एक चीज और है…”

“क्या चीज?” उन्होंने पूछा.

मैंने कहा, “कोंटेसा रम जिसे रम की श्रेणी में सुना है विश्व में प्रथम स्थान मिल चुका है. उसमें शीरे की खुशबू आती है.”

“यहां पंतनगर में मिल सकती है?”

“नहीं, विश्वविद्यालय कैम्पस में ऐसी कोई दूकान नहीं है.”

“तो फिर चलें रुद्रपुर? क्यों मियां जी?”

“आप लोग हो आइए. मैं तब तक अपना दूसरा काम निबटा लूंगा. जीप ले जाइए,” मियां जी ने कहा.

मैं दुष्यंत जी के साथ रुद्रपुर की ओर चल पड़ा. वहां से उन्होंने कोंटेसा रम की एक बोतल और एक हाफ खरीदा. रास्ते में बोले, “यह बोतल अपने दोस्त कमलेश्वर को भेंट करूंगा. उसी के साथ ली जाएगी यह.”

मैंने उन्हें शाम के खाने पर आमंत्रित किया. मुझे खुशी हुई कि वे सहर्ष तैयार हो गए. बातचीत में पता लग चुका था कि वे मांसाहारी हैं. शाम को वे आए. साहित्य और लेखकों के बारे में खूब बातें हुईं. उनसे मैंने सस्वर ‘साए में धूप’ या कोई दूसरी गजल सुनाने का अनुरोध किया लेकिन उन्होंने गाने के बजाय बस कुछ अंश सुना दिए. उनसे न मैंने उनके पंतनगर आने का कारण पूछा, न उन्होंने इसका कोई जिक्र किया. मैं कवि-गजलकार दुष्यंत जी से चाहता था और यह मेरी खुशनसीबी थी कि वे न केवल मिले बल्कि साथ घूमे और घर भी आए. यों भी, पंतनगर आने का उनका अपना मकसद रहा होगा, उसके बारे में मैं क्यों पूछता? घर में बातें करते समय उन्होंने बताया कि अगले दिन उन्हें लौट जाना है. वे पास के नगला स्टेशन से ट्रेन पकड़ेंगे. वहां तक मियां जी की जीप से चले जाएंगे.

दूसरे दिन उनकी ट्रेन के समय पर मैं नगला स्टेशन पर पहुंचा. मुझे देख कर वे खुश हुए और बोले, “अरे, यहां आने की क्यों तकलीफ की?”

“तकलीफ क्यों, यह तो मेरे लिए खुशी की बात है दुष्यंत जी. यहां आपका कोई परिचित नहीं है. मैंने सोचा, मैं आपको ट्रेन से विदा करूंगा.”

ट्रेन आई. उन्होंने हाथ मिला कर विदा ली. ट्रेन के ओझल होने तक मैं उनकी ओर विदा का हाथ हिलाता रहा. फिर लौट आया.

दो-चार दिन बाद कुलपति कार्यालय से एक फाइल मेरे पास आई. उसे खोला तो देखा ‘किसान भारती’ के बारे में दुष्यंत जी की टिप्पणी थी. टिप्पणी के नीचे कुलपति ने लिखा था, पढ़ कर अपने कमेंट दें.

दुष्यंत जी ने सुझाव दिए थे कि ‘किसान भारती’ को कैसे अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है. और, अंत में कुछ इस तरह लिखा था- ‘किसान भारती’ के संपादक आभिजात्य लगते हैं. कृषि की पत्रिका के लिए ग्रामीण सहजता होनी चाहिए.’ मेरी पत्रिका ‘किसान भारती’ तब किसानों में लगातार लोकप्रिय हो रही थी और पत्रों से मेरा उनके साथ सीधा संवाद बन चुका था. खैर, मैंने भी अपनी टिप्पणी लिख कर फाइल कुलपति को भेज दी. फिर न जाने क्या हुआ.

यानी कि एक बार फिर मेरी पोशाक आड़े आ गई थी. उससे पहले मैं एम.एससी. की फाइनल परीक्षा देते समय भी वेशभूषा पर टिप्पणी सुन चुका था और अंक खो चुका था. तब मैंने निश्चय किया था कि मुझे जो वेशभूषा पसंद होगी, सदा वही पहनूंगा. किसी व्यक्ति को उसकी वेशभूषा से नहीं बल्कि उस व्यक्ति के भीतर झांक कर उसे पहचानना चाहिए.

यह भी उन्हीं दिनों की बात है. एक दिन इलाहाबाद से वाया बरेली, बरास्ता नैनीताल मेरा दोस्त वीरेन डंगवाल मिलने चला आया. उसे देख कर मैं चौंका. पूछा, “अरे, इस तरह अचानक कहां से?”

“बरेली घर आया था, तुम्हारी याद आई तो चला आया देबदा,” वीरेन बोला. तभी लक्ष्मी आई तो मैंने कहा, “यह लक्ष्मी है. मेरी पत्नी और तुम्हारी क्लासफेलो.”

“क्या हाल हैं लछिम बौ? अब तो मेरी भाभी हुईं आप!”

लक्ष्मी से चाय बनाने को कहा तो वह मुझे डांटने की मुद्रा में बोला, “अबे, इतने दिनों बाद मिला हूं. चाय-वाय क्या, दारू या बीयर पिलाओ?”

मैंने कहा, “बीयर? प्यारे लाल, यह यूनिवर्सिटी कैम्पस है. यहां बीयर-हीयर नहीं मिलती.”

“कहीं तो मिलती होगी?” वह बोला.

“रुद्रपुर और हल्द्धानी में मिलती है. बहुत दूर है वह.”

“रुद्रपुर कितनी दूर है?”

“दस-बारह किलोमीटर.”

“जाना कैसे है?”

“ट्रक या बस, जो भी मिले, उससे.”

“मैं लाता हूं जाकर. तुम अपना दफ्तर देखो, शाम को मिलते हैं.”

“ठीक है.”

मैं दफ्तर को चला और वह फूलबाग की ओर, ट्रक या बस की तलाश में.

शाम हो गई. अंधेरा घिरने लगा. हमें फिक्र हुई कि वीरेन कहां गया? इतनी दूर भी नहीं है रुद्रपुर कि तीन-चार घंटे लग जाएं. तो कहां गया वह?

वह आया अंधेरा घिर जाने के बाद. घंटी बजी तो मैंने भाग कर दरवाजा खोला. दरवाज़ा खुलते ही वह भीतर. मैंने उसका हुलिया देखा तो जोर से हंस पड़ा.

“साले हंस रहे हो? कहां से कैसे बीयर ला रहा हूं…तुम्हें पता भी है?” वह बोला.

मैंने पूछा, “क्या हल्द्वानी चले गए थे?”

“सब बताता हूं. पहले बीयर संभाल कर रख दूं. बेशकीमती है यह,” उसने कहा और कमीज़-पैंट झाड़ने लगा. उन पर कोयले के काले दाग लगे थे. उसके चेहरे और हाथों पर भी कालिख लगी थी.

मैंने कहा, “ये दाग कहां लगा लाए? पहले कपड़े बदल लो. ये धोने पड़ेंगे. मेरी कमीज-पैंट पहन लो.”

उस जमाने के वीरेन डंगवाल

उसने हाथ-मुंह धोकर, पांयचे और आस्तीन मोड़ कर मेरी पैंट-कमीज पहन ली. मैंने फटाफट उसके कपड़े धोकर आंगन में सूखने के लिए डाल दिए. फिर बातचीत में वह बोला, “यार क्या जगह है यह? रुद्रपुर जाने के लिए कुछ नहीं मिलता. घंटे भर इंतजार के बाद एक ट्रक मिला. भय्ये ने बैठा लिया. रुद्रपुर उतरा और पूछ-ताछ कर दूकान ढूंढी. तीन बीयर लीं, सोचा एक-एक से कुछ नहीं होगा. जब बीयर खरीद ली तो ध्यान आया कि अबे झोला तो लाया ही नहीं! बस, एक-एक बोतल अगल-बगल में दबाई और एक बोतल दोनों हाथों से सामने पकड़ ली, इस तरह.”

“अरे, बड़ी मुश्किल हुई होगी?”

“मुश्किल तो उसके बाद हुई यार. सड़क किनारे खड़े-खड़े हर ट्रक वाले से पूछता रहा- पंतनगर जावोगे? साला सब मना करते रहे. फिर एक कोयले का ट्रक मिला. ड्राइवर बोला, ‘पीछे बैठ जाओ, आगे जगह नहीं है.’ पीछे गया, लेकिन बैठता कैसे? अगल-बगल और हाथों में बीयर. भीतर कुछ लोग खड़े थे. सोच रहे होंगे, कोई शराबी आ गया है. मैंने बीयर की बोतलें लिटा कर ऊपर रखीं और चढ़ने की कोशिश की. किसी ने हाथ पकड़ कर मुझे ऊपर खींचा. भीतर पहुंचते ही मैं फिर पहले की तरह बीयर की बोतलें पकड़ कर खड़ा हो गया.”

“फिर?”

“फिर क्या, ट्रक खड़खड़ाता, हिलता-डुलता, उछलता चल पड़ा. अबे सोचो, हाथ में बीयर की तीन बोतलें, बैलेंस खराब हो रहा था. ट्रक की दीवार से सट कर खड़ा हो गया लेकिन धक्के से इधर-उधर होता रहा. और, साला अंधेरे में दो-एक आदमी मेरे साथ सट कर खड़े हो गए. मुझे अपनी पीछे की जेब पर हाथ लगता हुआ महसूस हुआ तो ट्रक के धक्कों के साथ अंधेरे में मैं भी जानबूझ कर उन्हें धक्का देने लगा, ऐसे कि जैसे ट्रक के कारण ही धक्के लग रहे हों. किसी तरह जेब का बटुआ बचा कर ला रहा हूं. तुम साले घर में बैठे ऐश कर रहे हो.”

उसने पूरा सीन समझा दिया. उसके बाद मैंने गिलास निकालते हुए कहा, “इस गिलास को पहचानते हो? गंगानाथ झा हास्टल, इलाहाबाद में दिया था तुमने मुझे? कहा था, कभी बीयर पीना इसमें. मैं और बटरोही तुमसे मिलने आए थे.”

“क्यों नहीं याद है? दिया ही इसलिए था कि कभी बीयर पीयोगे इसमें. लेकिन, यार यह छोटा है थोड़ा.”

“तुम्हें याद करने के लिए तो बहुत बड़ा है. है ना?”

मैंने उस गिलास को फिर संभाल कर रख दिया.

हम सीमेंट के फर्श पर बैठ गए. बीयर की बोतलें सामने रख लीं. एक बोतल खोली और उसे सिप करते-करते नैनीताल में बिताए कालेज के दिनों को, दोस्तों को याद करते रहे. बटरोही, सईद, ओम प्रकाश, रमेश थपलियाल सभी को. अपनी संस्था ‘द क्रैंक्स’ को भी याद किया. उसने बताया कि सईद विदेश चला गया है.

मैंने मुस्कराते हुए पूछा, “अच्छा, जो दो लड़कियां आल सेंट्स स्कूल की तरफ से स्केटिंग करने कैपीटल में आती थीं और घोड़ों पर सवार होकर लौटती थीं, उनके बारे में तुम चुपचाप मुझे जो किस्से तुम सुनाते थे, क्या वह सब सच था?”

“अबे तुम्हें अब तक याद है वह बात? तुम्हें बनाता था मैं. मनगढ़ंत किस्से थे वे. हां, एकाध बार हाय-वाय कहा था हमने,” कह कर वह हंसने लगा.

“कुछ पता नहीं तुम्हारा. याद है, एक बार तो शाम के अंधेरे में हमें भी ले गए तुम डीएसबी कालेज के पीछे, पेड़ों-झाड़ियों के बीच?”

“अरे देवेन, यार वह आदमी आज भी गालियां देता होगा हमें! दूसरे दिन पता लगा रहा था सुना वहां कि यहां अंधेरे में कौन आते हैं. लेकिन, एक बात है, वह हिम्मती बहुत था, नहीं तो रोने, कराहने, हंसने की हमारी अजीब आवाजें सुन कर कोई दूसरा होता तो बेहोश हो जाता….यार, बहुत बदमाश थे हम.”

“हम नहीं तुम. हमें तो तुम बहका कर वहां सड़क पर ले गए. अंधेरे में पेड़ों के नीचे बैठा दिया और खुद किनारे बैठ कर, आदमी दिखा तो रोने, हंसने, चीखने लग गए. और फिर, यह कह कर, दौड़ लगा दी कि ‘अबे भागो, कोई आ जाएगा! पकड़े जाओगे.’ मैं तो बहुत डर गया था उस दिन. याद है, बाद में मैंने तुम्हारी और तुम्हारे दोस्तों की हरकतों पर एक कहानी लिखी थी- चौपाए. ‘उत्कर्ष’ में छपी थी, पढ़ी थी तुमने? जरूर पढ़ी होगी. तुम कहते थे, मेरी कहानियां तुम्हें बहुत अच्छी लगती हैं.”

हम बीयर पीते हुए बीते दिनों को याद करते रहे. मैं बीच-बीच में कहता, “असली मज़ा तो तीसरी बोतल में आएगा प्यारे.”

“यार वैसे तो हम सीधे-सादे ही थे, फिर भी खुराफातें भी कम नहीं कीं. एक बार नाव में गए थे, याद है?”

“खूब याद है. तुम्हीं ने नाव तय की थी और नाव वाले से कह दिया- एक घंटे के लिए ले रहे हैं, चक्कर लगा कर यहीं पर आ जाएंगे. हमीं चला लेंगे. तुमने किनारे से नाव को धक्का दिया और कूद कर नाव में आने के बजाय हड़बड़ी में ताल में गिर गए. हमने खींचकर तुम्हें निकाला. तुम्हारी पैंट, कमीज, ट्वीड का मोटा कोट सब भीग गए थे. उन्हीं भीगे कपड़ों में आधे ताल का चक्कर लगा कर, तुमने नाव तल्लीताल वाटर पंप के पास किनारे लगा दी और बोले, ‘अबे भागो, मेरे पास पैसे नहीं हैं. नाव वाला आ जाएगा.’ यह कह कर तुम सड़क के ऊपर रॉकहाउस के मेरे कमरे में आए और बोले, “यार घर ऐसे कैसे जावूंगा. मार पड़ेगी. पहले मेरे कपड़े सुखाते हैं. तुमने मेरे कपड़े पहने और याद है, चाय बनाने वाले हीटर पर तुम्हारे कपड़े सुखाए थे?”

“तभी तो नैनीताल को कभी भूल ही नहीं सकता देवेन.”

“अच्छा, अपनी बीयर खतम करो. असली मजा तो तीसरी बोतल में आएगा,” आगे रखी बीयर को देख कर मैंने कहा.
तभी न जाने क्या हुआ, कैसे हाथ लगा, अचानक भट् की आवाज हुई और हमने देखा, तीसरी बोतल का मजा बुलबुलों और झाग की शक्ल में हमारी आंखों के सामने फर्श पर फैल गया. हमारा सुरूर काफूर और हम दोनों घुटने टेक कर फर्श पर होंठ लगाने को झुके ही थे कि पत्नी ने किचन से आकर पूछा- क्या है? और, वहां का दृश्य देख कर बोलीं, रुको, रुको! जब तक हम बीयर चूसने को होंठ नीचे लगाते, वे झाड़ू लेकर आ गईं और तीसरी बोतल के फर्श पर फैले मज़े पर झाड़ू फेर दिया. डांट कर बोलीं, “क्या कर रहे हो तुम लोग? उसमें कांच के टुकड़े भी हैं.”

हम पीछे हट गए. दो बोतलों को तो तब तक हम गिन ही नहीं रहे थे. बस, पूरा ध्यान तीसरी पर ही था और वह ऐन हमारी आंखों के सामने तबाह हो गई. क्या करते?

खाना खाते समय उसने अपने नटखट अंदाज में लक्ष्मी से पूछा, “लछिम बौ, एक बात बताओ. हमारी क्लास की लड़कियां क्या कहती थीं मेरे बारे में?”

“गुंडा-बदमाश और क्या! सब तुम्हें तेज समझती थीं,” लक्ष्मी ने कहा तो जोर से हंसा और मेरी ओर मुखातिब हुआ,

“अब देखो यार देबदा, मुझ जैसे शरीफ लड़के के लिए क्या कहती थीं लड़कियां! तुम बताओ, मैं सीधा-सादा था कि नहीं?”

मैंने कहा, “थे, हमारे दोस्त तो सीधे-सादे ही होने वाले हुए.”

उस रात वह हमारे पास रूका. रात में कपड़े सूख गए थे. उसने सुबह वे पहन लिए और नाश्ते के बाद बोला, “जावूंगा अब. नैनीताल के हाल भी तो देखने हैं.”

एक बार अचानक फिर आया वह, शादी के बाद पत्नी रीता के साथ. आते ही उनसे बोला, “देख लो राजा, कैसे हैं हमारे दोस्त. इनसे मिलो, ये लछिम बौ हमारी क्लास फैलो हैं और यह देबदा!” उस बार भी एक रात रुके थे वे दोनों.

“अच्छा तो, दोस्त लोग मिलने आते रहते थे वहां?”

“दोस्त ही नहीं वहां तो पिताजी भी आए गांव से. बहुत लोगों से मिलते थे वे. बताऊं, उनके बारे में?”

“ओं”

(जारी है)

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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