साधो हम बासी उस देस के – 2
-ब्रजभूषण पाण्डेय
मेला गाँव का पहले से लेकर तीसरे तक सबसे प्रमुख त्योहार था. होली दशहरा चौथे पाँचवे पर आते. त्योहार के साथ साथ सिंगार पटार उखल मूसल और पटरे वाली चौकियों की ख़रीद बिक्री होती. बच्चों की दिलचस्पी पिपहरीयों और सस्ते खिलौनों और काठगाडियों में होती. किंतु सबसे बढ़ कर तो यह महा मिलन का त्योहार था. सबके दुआर दालान में चार छै ठो हित-गन(रिश्तेदार) पुआल के गद्दों पर गिरे रहते. गाँव से बाहर रह कर कमाने वाले और पढ़गीत (पढ़ाकू) लोग भी मेला में गाँव चलने का प्रोग्राम बनाते. बियाही लड़कियाँ अपने पुराने प्रेमियों से मिलने की साध लिए नैहर का रास्ता लेंती. फ़ोन फाटा अभी पहुँच से बाहर थे. फ़ेसबुक और व्हाटसएप महाराज के कलियुग अवतार में अभी कुछ वर्षों का समय शेष था.
ऐसे में जब हम भुआली के नेतृत्व में पहुँचे तब माहौल गहगहाया हुआ था. कोआथ वालों की दुकान पर जलेबियाँ छन रही थीं. हलिवंता का ठगुआ मुन्ना नदी का पानी ढकेल कर छोले बना रहा था. परचून गली में सस्ते पाउडरों में लिपी पुती गोरियों का झुंड घूम रहा था. छोटे छौनों जैसे निर्दोष बच्चे कठघोडवा वाली चर्खियों पर बैठे चकरी काट रहे थे. तब उनकी सपनीली अधमुंदी आँखों मे भी तीन सुफेद सुफेद घोड़े भागते थे भाई. सच्ची? अरे भैया मुच्ची.
किंतु हमें तो सबसे ज्यादा दिलचस्पी उन तनी कनातों के भीतर था जिनके बाहर घोड़े पर बंदूक़ लिए बैठी नायिका का पोस्टर लगा था. थोड़ी थोड़ी देर में बाहर कुर्सी पर बैठा लड़का एक ख़ास स्टाइल में लाउडस्पीकर पर चिल्ला रहा था – ” आइए आइए आइए. . . देखिए मार धाड़ और एक्शन से भरपूर पुतली बाई. . . जी हाँ भाइयों और बहनों. . . देखना ना भूलें. . . ”
“अरे देख तऽ रे पीछवा से कउन घुसत हौ सारे. “बीच में वह माइक भूल कर चिल्लाता.
हम जैसे लोग शराफ़त और लडीफी की सीमा रेखा पर खड़े वहाँ घुसने से पहले सौ बार सोचते क्योंकि सनीमा देखना तब तक निषिद्ध कर्म ही माना जाता था. पूरे दिन शो फ़्री मारने वाले भी पढ़ने वालों को देख कर शातिर एक्सप्रेशन देते जिसका अर्थ होता- ‘गेले बेटा. ‘ अर्थात गये काम से. ‘बाप बहुत उड़ रहे हैं अब उखाड़ के दिखायें. ‘
किंतु भुआली प्रताड़ना की सभी सीमाओं के परे था. टिकट काटने वालों से लेकर फ़्री घुसने वालों को रोकने वाले अवैतनिक लठैत तक उसके यार थे और हमें इसका लाभ बहुधा मिल जाता. सो आज भी हमने सोचा कि झट एक शो मार लिया जाए किंतु ग्रू तैयार ना हुआ.
“अबे एक राउंड देख त ले मेलवा में. का पता हमार वाली भी आइल हौ. ”
भुआली हमसे उम्र मे 3-4 साल बड़ा था सो ज़ाहिर था उसकी भावनाएँ हमसे ज़्यादा ज्वलनशील थीं. बग़ल के गाँव की एक क्लासमेट कन्या को उसने एकतरफ़ा अपनी वाली और हमारी भाभी घोषित कर रखा था.
“भाभी जो है मां होती है हरामियों माँ. माल नहीं. ”
उसने रविरंजन उर्फ़ रब्बी छोटू को बेतरह झिड़का था.
मां तो ख़ैर काली किरिया किसी माई के लाल ने नहीं माना लेकिन दूसरे दोस्तों ने ट्राइकरण अनुष्ठान अवश्य बंद कर दिया था.
भुआली के पीछे पीछे हम परचून गली की ओर चले जहाँ पाउडर, चोली और खिलौने की दुकानों पर महिलाएँ लड़कियाँ झुकी झुकी जा रही थीं. दोपहर का वक़्त था. गली को छेंका गया था अर्थात पुरूषों के लिए बंद किया गया था. वैसे तो पहरे पर वही लोग खड़े थे जो फब्तियों की फ़ैक्टरी के बेरजिस्टर्ड डायरेक्टर थे और भीड़ मे सफ़ाई से धक्का रगड़ खेलने के ओलम्पियन.
“का रे भुअलिया. इहाँ का लेबे? लोटा?”
भुआली के ही क़द और रुतबे के दूसरे ग्रू और उनके इयार ने बेहद लफंगई वाले भाव से पूछा.
“नाहीं रे. तनी देखे आइल हईं तोरा भौजाई के. ” भूआली ने भाईचारे की चाशनी में उसे भी लपेटना चाहा.
“आपन मुँह देख सारे नाहीं तो. तोरा से कबो पटी?” उसे भी भुआली की प्रेमकहानी का इल्म था लेकिन भुआली का लोड वो तनिक नहीं ले रहा था.
“चोप्प सारे हरेंदवा के दामाद. जब देख सारे मुंह से बिख उगिलत हौ. हट जाए दे. ” अब भुआली ग्रु भड़के उस मित्र पर. हरेंदर उस दोस्त के पिता का नाम था किंतु इस गाली गुलपाडे का उस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा. वह खी खी निपोरता पास आ गया और करप्शन पार्टनर वाले अंदाज में फुसफुसाया .
“धीरे से घुस जो ना तऽ अहीर टोलिया वाले हल्ला करिह सन. ”
उसने उपाय बताया और खपच्ची के बग़ल से पतला रास्ता छोड़ा.
एक एक करके हम सब घुस तो गए किंतु इतनी महिलाओं के बीच हम तीन लड़के अजीब ही लग रहे थे. हमें और टुच्ची को तो कोई ख़ास दिलचस्पी थी भी नहीं. हमारा मन तो गुंडाराज और विजयपथ की ओर लगा था. किंतु भुआली अपनी वाली को ढूँढता हुआ वहाँ जमा तमाम अनड्युलेटिंग जुगराफियों को प्यासी निगाहों से ताड़ रहा था. उसे बेसब्र मोहब्बत में फ़ना हो जाने की तात्कालिक तमन्ना थी. गोस्वामी जी आख़िर कहिन हैं कि नहीं-कि अरे तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा.
लड़कियाँ हंस बोल रही थीं और गली के बाहर सहमे खड़े इस्कुली आसिक या जीजा के छोटे भाई को आश्वासन देने वाले भाव से मुस्कुरा मुस्कुरा कर ताक रही थीं. जिसका मतलब होता कि नज्रे क्रम होगा ग्रू. इंतेजार करो इंतेजार. दुआ क़ुबूल हो गयी है.
कुछ निगाहें हमारी ओर भी उठीं. लड़कियों ने कमेंट पास करने शुरू किये.
“देखऽ ना सखी. हीरो ह इ लोग. ”
अब हमारी हालत तो बकरियों के झुंड में फँसे भेड़ा जैसी हो गयी थी. तिस पर तुर्रा यह कि गाँव की बुआएं,चचेरी फुफेरी बहनें भी थोक में दिखने लगी थीं. डर ये लगे कि घर जा कर बता न दें कि मेला में लफुअई करते घूम रहे थे या कोई सामान तामान ही ना पकड़ा दें कि लो बेटा ख़रीद तो हम लिए घर तुम पहुंचा दो. सो हम चाह रहे थे कि जल्दी से जल्दी यहाँ से कटा जाए लेकिन भुआली पर कोई फ़र्क़ ही नहीं. वो एक एक चेहरे एक एक देहयष्टि के पीछे अपनी वाली को तसल्ली से ढूँढ रहा था. मल्लब कहीं कहीं से जो है हर चेहरा तेरे जैसा लगता है टाइप. बताओ इ सायरी फायरी साला इश्क मोहोब्बत में लाइव इफ़ेक्ट नहीं देगा तो कहां देगा बे?आंय?
उसकी इश्के हकीकी में डूबी भाव समाधि शायद क़यामत के दिन से ऐन पहले और हमें जूता गाली खिलाने के बाद ही टूटती लेकिन हमारी तथाकथित भाभी भैंस के बियाने,पाँव के पिराने अथवा बाप के गरियाने इनमें जो भी कारण सच हो आज शायद आईं नहीं थी. अत: अनुसंधान जल्दी ही ख़त्म हो गया और हम गली के दूसरे छोर से लिकल्लिए.
ये गली जिस टी पाइंट पे खतम होती वहाँ कतार से पान की दुकानें थीं जहाँ खड़े थोड़े गंभीर क़िस्म के लोग पीक थूकते और सुर्ती मलते हुए राजनीति से लेकर समाज के गिरावट तक पर नक़्शा झाड़ते. किंतु बेसिकली इन बातों का नब्बे प्रतिशत कुचरई से भरा होता. किसकी लड़की किसके साथ भागी है, कौन मिसिर ने कहारिन रखी है या कौन नया नया धन के गुमान मे उड़ रहा है, इस टाइप की बातें. मूलत: ये अगलगावन क़िस्म के लोग थे जो पंचैती फरियाने को भी उतने ही बेताब रहते. पेशे से ये किसान दुकानदार से लेकर सिंचाई दफ़्तर के चपरासी अमीन और ज़िला स्कूल के मास्टर तक थे.
“का हो पाड़े चेला? अब यही दोस्त संघाती बचे हैं तोहार?”
हम इनसे तिरछी काट लेना चाहते थे लेकिन ओझा मास्टर ने देख लिया और एक जहरबुझा तीर मेरी ओर छोडा.
मैं तो काँप ही गया भुआली के भी पसीने छुट गए. कारन था कनपटी के लंबे स्टाइलिश बालों को पकड़ कर बच्चों को टाँग लेने की उनकी कला. मुझे वो नाम रोसन करने वाला मानते इसलिए हर दूसरे तीसरे कहीं ना कहीं टोका करते.
“तें रे सारे. ” वो भुआली की ओर मुख़ातिब हुए.
” तें काहे बिगाड़ रहा इसको. अपने जैसा बारात मरजाद रखेगा क्या इसका भी!आंय?”
मरजाद बारात एक पुराने ज़माने की बात थी जब धनी मानी लोगों की बारातें जातीं तो कई कई दिनों तक रूका करती. किंतु यहाँ उसका अभिप्राय था परीक्षा बार बार फ़ेल कर एक ही क्लास में रूके रहना.
“नाहीं माट साब. हम लोग साथे स्टडी कर रहे थे. बस अभी आए हैं. ”
भुआली ने खंखार कर गला साफ़ किया और साफ़ खड़ी हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्द पेल कर ओझा को इम्प्रैस करने की कोशिश की.
“तें? भेंचो तें पढ़े वाला हवे!”
ओझा मास्टर अपनी शुद्ध औक़ात पर आ गए. गालियों और मुहावरों की बंदूक़ में भर कर व्यंग्य की गोलियाँ सट्ट सट्ट बरसने लगीं.
“बाप ददा ना खइले पान दाँत निपोर के गइल परान. तें पढबे रे!”
हम लोग बुरे फँस गए थे और पता नहीं कब तक फंसे रहते तभी रामजसी चौबे ने उनको हरकारा दिया.
“अरे ओ माहटर. कुछ नइ चीज़ बनाए हो कि नही? सुनाओ यार. ई का लौंडों के साथ दिन भर माहटरई पेलते रहते हो ?”
ओझा मास्टर आशु कवि भी थे और कविता सुनाने की फ़रमाइश पर बाग बाग हो जाते. उनका मुँह लाल हो जाता और मूँछों में रहस्य भरी मुस्कान खेलने लगती जिसे भुआली गुंडी हँसी कहता.
ओझा का अचानक से मूड चेंज हो गया और वो टॉप गियर हनुमान गियर में पहुँच गये.
“तऽ सुनऽ ताज़ा टटका माल. “ओझा मास्टर ने गला खंखार कर साफ़ किया.
“हम उस गाँव के बासी हैं
जिस गाँव में हरामी पचासी हैं
पहले स्थान पर नासिर हैं
दूसरे स्थान पर गुलासिर हैं
तीसरे स्थान पर बिसेसर पाड़े चपरासी हैं. “
पहले दो नाम तो दिवंगत हो गए थे किंतु कविता तो तीसरे नाम की ओर इंगित थी जो सिंचाई विभाग के दफ़्तर में ही चपरासी थे. ये थोड़े सटके हुए थे और इस बात का उन्हें बहुत गरब गुमान भी था. मसलन ये कहने पर कि बिबेका पाडे आपसे बीस पागल हैं, वो गरजते-वो बीस हैं तो हम इक्कीस बाइस तेइस.
कविता और संगीत इनके अंदर भी बित्ता बित्ता उछाल मारते. अपने उपर कबिताई मे कमेंट सुन कर उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ. वो झन्न से पटरे वाले बेंच से उठ पास आ गए. चुभलाते पान सुपारी को गट्ट से निगले और मैदान मे कूदे.
“हम उस गाँव के बासी हैं
जिस गाँव में कुदरवा नदी बहता है
हमको हरामी कहने वाला कहाँ लुकाए रहता है???”
जय हो जय हो. ग़ज़ब. जीते रहो गुरू, जियले के भूख हौ. चारों तरफ़ से तालियाँ बजीं . ओझा मास्टर चुपचाप गुंडी मुस्कान मुस्काते रहे. उकसा कर मज़ा लेना ही उनका मकसद था. वैसे वो इस गाँव के रहवासी नहीं थे बस यहाँ नौकरी करते थे. लेकिन यहाँ की एक एक पार्टी पॉलिटिक्स और लंगई से मुत्तालिक थे. अतः उन्हें यहाँ से और यहाँ को उनसे पृथक नहीं किया जा सकता था.
जिनके घर वो रहते वो तीन भाई थे-गुप्तेश्वर,सुदर्शन और दीनदयाल. उन पर भी ओझा मास्टर ने कबित रचा था- “गुप्त बात गुप्तेसर बोलैं गन के बात सुदरसनचारी/बीच में टकटकी लगाएँ दीनदयाल बिरद संभारी. ”
सियाबर रामचंद्र की?? ज़ोर से बोलो-जै जै. जय हो.
पहले तो हम लोग ओझा मास्टर के डर से हिल नहीं पा रहे थे किंतु अब हम लोगों को भी इस नोंक झोंक में मजा आने लगा था. हम अभी खिसोटना शुरू ही किए थे कि अचानक ओझा मास्टर की निगाह हम लोगों पर पड़ी और हम लोगों को हँसता देख वो लपके.
“का रे अब का कटहल लेबसन?(अर्थात अब क्या कटहल लोगे). भाग भेंचो नाहीं तो खोद के गाड़ दूँगा. ”
हम सरक लिए. क्योंकि नाकारा से नाकारा मास्टर भी अभी गुरूजी कहे जाते थे और बाक़ायदा माने जाते थे. गार्जियनों में भी विश्वास था कि विद्या का निवास जो है गुरूजी के तेल पिलाये जूत्तों में ही होता है. इसलिए पनही मुंड सम्मेलन नित्य हुआ करते और कंप्लेन की कोई प्रशासनिक व्यवस्था अभी अमल में नहीं आयी थी.
वहाँ से हम भरभराते भागे. बग़ल की गली मिठाई की थीं जहाँ मैदे में चउरठ(चावल का घोल) पेल कर जलेबियाँ छनतीं . दूसरी मिठाइयों को कोई घंटा नहीं पूछता. टेस्ट बड्स ही जो ख़राब ठैरे कोई क्या करे भला.
गली के एकदम कोने पर ही सामा हलवाई की दुकान देख भुआली फुसफुसाया.
“सारे इ सामवा नंबरी हरामी हौ. काल्ह जलेबिया उठावे पर गोल से सीधा हो गइल बे. कुकुर ना झांके गुरू एकरे दोकाने ओर. ”
सामां इस मेले में अकेले लोकल हलवाई थे और उन्हें इस बात की बेहद कोफ़्त होती कि सारे एक आदमी को इस गाँव के तमीज़ नहीं सवाद हवाद की. झाँकते तक नहीं पाँच दिन तक गाँव के हो कर भी. ये क्या जानें जलेबी का स्वाद. अनरसा,टिकरी और मतीचूर से उपर उठें तब ना. यहाँ शहराती इमरती का टेस्ट दोगे तऽ घंटा निमन लगेगा भिखमंगों को!
ख़ैर हमें तो इधर कोई विशेष दिलचस्पी थी नहीं क्योंकि मिठाइयां कोइ ना कोइ लेकर घर में आता ही रहता. सो हम दायीं ओर मुड़े कि बाहरी रास्ते का चक्कर काट कर फिर उसी दरे जानां पर पहुँच जाएँ जहाँ नायक के देर से आने के बावजूद नायिका सुक्र मना रही थी और हीरो आर्मी के एकाध कमान को अकेले निपटाने वाला था.
तभी अचानक सूरज की जोत बढ़ गयी, नदी के पानी में सोना पिघल आया, हवाओं में निसा ( नशा) छा गया और हमारे तामीरे पिलान (प्लान) की झंड हो गयी. भुआली के चेहरे पर धूप छाया धूप छाया जैसे रंग तेज़ी से आने जाने लगे. उसकी दँतनिपोर मुस्कुराहट आधी गंभीरता की ओर मुड़ गयी. नार्मल रहने और ना रह पाने के नाकाम द्वंद्व में एक विशेष तिर्यक बेहुदगी उसके मुखमंडल पे विराज चुकी थी.
हमने उसकी झिरफरी खेलती नज़रों का पीछा किया. नदी की तरफ़ एकदम कोने वाले दुकान पर अपनी अधेड़ रेवती फुआ के साथ खड़ी हमारी भाभी और भुआली की जान ए बहारां,रश्के चमन सिलबट्टे का मोल भाव कर रही थीं.
( जारी )
पिछली कड़ी वह वह एक आधा कच्चा बचा गाँव था
बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.
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