अशोक पाण्डे

कुमाऊँ में लकड़ी पर नक्काशी करने वाले आख़िरी उस्तादों में से एक धनीराम जी का इंटरव्यू

अठहत्तर साल के धनीराम जी कुमाऊँ की गौरवशाली काष्ठकला परंपरा के आखिरी उस्ताद ध्वजवाहक हैं. उन्होंने आज से साठ बरस पहले एक गांव के घर में बारह आना रोज की दिहाड़ी पर अपना पहला नक्काशीदार दरवाज़ा बनाया था. वे एक उस्ताद बढ़ई होने के साथ साथ लोहे के उपकरण बनाने और दीवारों की चिनाई का उम्दातरीन काम भी करते आए हैं. गोल्ल-गंगनाथ की जागर भी लगाते हैं. (Master Woodcarving Artist Dhani Ram Kumaon)



जिला अल्मोड़ा के मौजा खौड़ी, पोस्ट खट्यौला के मूल निवासी धनीराम जी अपने योग्य बेटे राजेन्द्र प्रसाद के साथ फ़िलहाल इन दिनों काम के सिलसिले में पौड़ी गढ़वाल में कयाम किए हैं. उनके साथ काफल ट्री के अशोक पाण्डे ने एक लम्बी बातचीत की. (Master Woodcarving Artist Dhani Ram Kumaon)

काफल ट्री एक्सक्लूसिव.



धनीराम जी पहले तो आप अपने गाँव का नाम बताइये.

मेरे गाँव का नाम हुआ खौड़ी

अच्छा. खौड़ी!

पूरी डिटेल बता दूँ?

हाँ अवश्य!

जिला अल्मोड़ा. पोस्ट ऑफिस खट्यौला. और मौजा खौड़ी. मौजा मतलब ग्राम!

पिताजी का नाम क्या हुआ आपके?

गुसाईंराम. मेरा नाम धनीराम और बाबू का नाम गुसाईंराम.

कितनी पीढ़ियों से आप लोग यह काम कर रहे हैं?

मेरे परदादा भी यही काम करते थे. दादा भी यही करते थे. बाबू भी करने वाले हुए. हम भी करने वाले हुए.

पहले गाँव के घर-घर में काम करते रहे होंगे आप?

हाँ. लेकिन अब करीब चालीस साल से मैंने यह काम छोड़ दिया है क्योंकि गाँव में अब कोई भी इस तरह का घर नहीं बनाने वाला हुआ आजकल. तब छोड़ दिया यह काम. वो तो जब करीब दस-बारह साल पहले मैंने जागेश्वर मंदिर का गेट बनाया उसके बाद मुझे दोबारा काम मिल्ब्ना शुरू हुआ. तब से मैंने करीब पन्द्रह-बीस खोलियां (घर) बना दी होंगी!

अच्छा आपकी आयु कितनी हो गयी होगी अब तक?

मुझे सतहत्तर साल हो गए हैं. अब अठत्तरवां चल रहा है. जब मैं उन्नीस साल का हुआ तो मेरे पिताजी ने मुझे यह काम करना सिखाया.

काम सीखने के बाद आपने पहला घर किसका बनाया?

फारकोई गाँव में चंद्रमणि का घर बनाया मैंने.

वहां क्या-क्या बनाया आपने?

पूरी खोली बनाई. चार खिड़कियाँ बनाईं दो दरवाजे बनाए और चिनाई की पूरी, छत भी डाली. चार सौ रुपये मिले थे तब. ऐसा ज़माना हुआ उन दिनों! मैंने बारह आना रोज में मिस्त्री का और लिखाई का काम कर रखा है (लिखाई से धनीराम जी का मतलब लकड़ी की नक्काशी से है). एक दिन के बारह आने! फिर दो रूपये हुए, पांच हुए, दस हुए और पंद्रह भी हुए. फिर एक दो वर्ष तक सोलह रूपये मिलने लगे. उसके बाद एक-दो वर्ष बाईस रूपये मिले. धीरे धीरे पच्चीस-तीस होते-होते पचस पचास रूपये भी मिले. उसके बाद पचास से एकदम सौ रुपये हो गए. फिर सौ से डेढ़ सौ …

जैसा आपने बताया कि आपने करीब चालीस साल पहले काम छोड़ दिया था. तब आपको कितने रुपये मिलते थे.

पचास रुपये. देखिये चौखट तो हम बनाते ही थे ना. लिखाई का काम नहीं मिलने वाला हुआ. गंवाड़ियों के यहाँ नक्काशी का काम जो क्या मिलने वाला हुआ. चिनाई का काम हुआ, चौखट बनाने का काम हुआ दरवाजे की जोड़ी बनाने का काम हुआ. बस लिखाई का काम नहीं मिलने वाला ठैरा. लोग कहने वाले हुए उसमें देर लग जाती है. एक तो अच्छी लकड़ी नहीं मिलने वाली हुई. अब उतनी मेहनत कर के उतने पैसे खर्च कर के काम हुआ और लकड़ी सड़ जाए तो अच्छा नहीं होने वाला हुआ न. तब जा कर लोग नहीं बनाने वाले हुए नक्काशी वाले दरवाजे. लोग कहने वाले हुए कि जितने पैसे तुम्हें लिखाई के देंगे उतने में तो पूरी कुड़ी (घर) बन जाएगी. जितनी देर में हम एक चौखट में लिखाई करते थे उतनी देर में मिस्त्री पूरे घर की चिनाई कर देने वाला हुआ.

मेरे बड़े भाई को एक बार एक लाख रुपये का ईनाम मिला. उन्होंने राम-लक्ष्मण की मूर्ति बनाई थी. वहां आरतोला, गरुड़ाबांज में. वहां कांग्रेस के कुछ नेता आये हुए तो उन्होंने ददा को एक लाख रुपये का इनाम देने की घोषणा की. फिर उन्हें वे पैसे मिल भी गए. उन्हें देहरादून बुलाया गया. इस बात को करीब छः-सात साल हो गए होंगे.

उसके बाद मैंने सोचा मैं भी ऐसा ही कुछ करता हूँ. तो मैंने दो मूर्तियाँ बनाईं- एक हनुमान की और एक गणेश की! लकड़ी अपने घर की हुई. मैंने उसमें फ्रेम भी लगाया. रंग-वगैरह लगाकर उसे बहुर अच्छा बनाकर मैं ले गया. मेरे भतीजे कहने लगे कि मुंहमांगी कीमत देंगे हमें दे दो कि हम उन्हें कमरे में सजाएंगे. मैंने कहा कि नहीं यार मुख्यमंत्री के लिए बना रखी हैं. तुम्हें नहीं दूँगा.

तो मैं उन्हें लेकर गरुड़ाबांज आया. और मैंने वे मूर्तियाँ उन्हें दीं.

किसे दीं?

मुख्यमंत्री को! हरीश रावत को! बिचारों ने उसे अपने झोले में धरा और उन्हें दिल्ली ले कर चले गए. अब वो कुंजवाल की लड़के हैं ना हरीश कुंजवाल. तो उन्होंने माइक पर एनाउंस किया कि धनीराम जी अच्छे कलाकार हैं खौड़ी के. और ये मूर्ति अब जो है … दिल्ली को गयी! उसके बाद प्रमुख साहब आए तो उन्होंने कहा कि देखो भाई एक जिले में एक ही आदमी को इनाम देने की सरकार की स्कीम है. फिर भी जो होगा जैसा होगा थोड़ा-बहुत तुम्हें भी मिल जाएगा.

उसके बाद मेरे हाथ की बनाई एक गोल्ल देवता की मूर्ति भी थी. फिर हरीश रावत दुबारा आए तो मैंने वह भी उन्हीं को दे दी. तो वो उसको भी ले गए. गोल्ल की मूर्ति में मैंने फ्रेम वगौरक कुछ नहीं लगा रखा था. पहली वाली तो बहुत ही बढ़िया बना रखी थीं.

तो पैसा एक भी नहीं मिला?

ना! एक डबल भी नहीं मिला! तो हमारी लकड़ी भी गयी. मजूरी भी गयी!

(ठठाकर हँसते हैं)

फिर उसके बाद?

उसके कुछ समय बाद अल्मोड़ा कसारदेवी के आसपास लमगड़ा वाले एक पटवारी जी मिले और उन्होंने कहा कि मिस्त्री जी जिसकी भी आप चाहें आप एक मूर्ति बना दीजिये. मैं आपको इनाम दूँगा. तो मैंने चार दिन लगा कर मूर्ति बना दी. फ्रेम वगैरह भी लगा दिया. मूर्ति उन्हें दी और उन्होंने भी वही किया. अभी कुछ दिन पहले मैंने उन्हें फोन किया … लमगड़े के थे वो … तो मैंने उन्हें फोन किया कि पटवारी ज्यू आप तो कुछ दूंगा कह रहे थे … आपने भी कोई सुनवाई नहीं की मेरी. वे बोले कि मिस्त्री जी यहाँ आने का टाइम ही नहीं मिल रहा है. फिर कुछ दिन बाद दफ्तर के बाबू को फोन करा तो उसने कहा कि वह हल्द्वानी गया हुआ है. उनसे फिर कहा कि आप लोग तो इनाम देने को कह रहे थे. क्या हुआ! अब तो तीन चार बरस बीत गए हैं! तो वे बोले कि लौट कर तुम्हारे ही पास आ रहा हूँ. लेकिन वो नहीं आए.

कसारदेवी में धनीराम जी द्वारा बनाया गया द्वार

यह तो अच्छा नहीं हुआ आपके साथ! आप मुझे जागेश्वर के गेट वाली कहानी बताना चाहेंगे धनीराम जी?

वहां तो पुरातत्व वालों ने अपने म्यूजियम का गेट बनवाया. मेरे बड़े भाई हुए हरी राम. तो पहले उन्हें गेट बनाने के लिए बुलाया गया लेकिन उन्होंने वहां झगड़ा कर लिया. उसके बाद मुझे बुलवाया गया. मैंने मना करते हुए कहा कि साहब मैं तो नहीं आ सकूंगा क्योंकि मेरा बड़ा भाई इस बात पर कल मुझसे झगड़ा करेगा तो मैं क्या करूंगा. तो वे बोले कि देखो भाई हम तो कारीगरों को आगरा-जयपुर से बुला लाएंगे लेकिन तुम हमारी ही इलाके के आदमी हो. आज तक तुमने गाड़-गधेरों में ही काम किया हुआ ठहरा. आज  हम तुमको इतनी बड़ी जगह पर काम करने का मौक़ा दे रहे हैं. तो आप यहाँ आ जाओ. तो साहब मैंने वहां काम किया. घर में मुझे डेढ़ सौ रूपये मजूरी मिलती थी, उन्होंने ढाई सौ रुपये दी.

उस काम के बाद मेरा खूब प्रचार हो गया. उसके बाद मैंने आरतोला में काम किया. भीमताल में काम किया. आरतोला की आरामशीन में मैंने दो मूर्तियाँ भी बना रखी हैं. एक बड़ी मूर्ति बना रखी है गणेश जी की …

आपने बताया कि आपने चालीस साल तक लिखाई का काम छोड़ दिया था … तो उन दिनों आपने जीवनयापन कैसे किया?

अरे बाकी काम किये … चिनाई की, खिड़की लगाई, दरवाजों की जोड़ी लगाई, टीप-पलस्तर किया … सारे ही काम करे.

आप और क्या क्या काम जानते हैं?

मैं लुहार का काम भी कर लेने वाला हुआ. सारे ही सीखने हुए काम हम लोगों को!  …तो उसके बाद मैंने बग्वालीपोखर में एक घर बनाया किन्हीं शर्मा जी का. उसके बाद बासुलीसेरा में एक बाबा का मंदिर बनाया. उसके बाद एक घर हल्द्वानी में बनाया. फिर जागेश्वर में वसंत पंचमी के दिनों में एक घर और बनाया. कसारदेवी में भी बनाया मोहन्स कैफे वालों का. उसके बाद दो घर जैंती में बना दिए हैं. जागेश्वर में एक होटल भी बनाया. (जब धनीराम जी घर बनाने की बात करते हैं तो वे उन जगहों पर अपने द्वारा किये गए लकड़ी की नक्काशी के काम का ज़िक्र कर रहे हैं). कसारदेवी मंदिर में भी काम किया. अभी हाल ही में गैराड़ गोल्ल ज्यू के मंदिर में भी काम किया है. और भी बहुत सारे काम कर दिए हुए अब तक! अब ये प्रशांत बिष्ट जी यहाँ ले आये हैं पौड़ी में …

तो आपने लगातार काम ही किया?

हाँ काम ही तो किया … अब आरतोला में मैंने एक दरवाजा अधूरा बना कर रखा ही हुआ है. उसमें क्या हुआ कि लकड़ी सड़ी हुई निकल गयी. तो मकान के मालिक ने कहा लकड़ी कल आएगी. कल-परसों करते करते आज दो बरस होने को आ गए हैं. फोन तो उनका नहीं आया. अब देखिये क्या होता है … पता नहीं कब आता है उनका जवाब!

जब आपने आज से साठ साल पहले काम शुरू किया था तब तो इस काम को करने वाले बहुत सारे लोग रहे होंगे. अब क्या हालत है?

अब तो कोई है ही नहीं! पहले के लोग मर गए. नए जमाने में ऐसा काम करने वाले के लिए टिकने की जगह ही नहीं बची हुई.

आप मुझे यह बताइये कि आपने इतनी सारी जगहों पर इतना सारा काम किया. आपको सबसे ज्यादा आनंद किस काम को करने में आया. मतलब जिस काम से आपके दिल में छपछपी जैसी लगी हो!

आनंद तो सभी में आया. मुझे तो सारे कामों में आनंद आता है. मैं तो लोहार का काम भी करता हूँ. बेंत की डालियाँ भी बनाता हूँ. ये सारे औजार, कुल्हाड़ी, कुटला, दातुल, बसूला वगैरह सब बनाता हूँ. गाँवों में जाग और जागर भी लगाता हूँ. पत्थर निकालना भी आता है … दुनिया भर के सारे काम आने वाले हुए. अब कोई काम अच्छा होने वाला हुआ, कोई काम खराब भी होने वाला हुआ. करना सभी पड़ने वाला हुआ. सारे ही काम बढ़िया हुए!

आप किस किस की जागर लगाते हैं?

देखिये जागर होने वाली हुई कृष्ण की कथा और शिव जी की कथा, पाण्डवों की कथा और जाग होने वाली हुई गंगनाथ की कथा, गोल्ल की कथा …

आप स्कूल गए कि नहीं?

नहीं. कभी नहीं गया. बस अ-आ-क-ख सीखा. गाँव के स्कूल में एक मास्टर थे तो उन्होंने दो पैसे की फीस माँगी. तो बाबू ने फीस नहीं दी. अब तब चार पैसे का एक आना होने वाला हुआ और सोलह आने का एक रुपया. तो फीस के पैसे नहीं हुए तो मास्टर ने कहा कि अब स्कूल मत आना.

तो बचपन में आपका समय कैसे बीतता था?

खेतों में काम करने वाले हुए. खेलने वाले हुए कभी कभी. ग्वाला बन कर जाने वाले हुए. उन्हीं के जैसे खेल करने वाले हुए. कंभी घर बनाने का खेल खेला कभी कुछ और खेला … ऐसा ही हुआ …

जागेश्वर में संग्रहालय का द्वार

आपका विवाह किस साल में हुआ?

उन्नीस साल का था मैं … घुरकण गाँव गए थे बारात लेकर. हम लोग गरीब हुए. तो लड़की के बदले मेरे घर वालों ने तीन सौ रूपये दिए. उस जमाने में लोग रुपये खाने वाले हुए ब्योली के बदले. तो मेरी पत्नी के घरवालों ने मेरे बाबू से तीन सौ रुपये लिए शादी कराने के बदले. अब आज साठ साल हो गए …

घर में खेती पाती कितनी थी?

थी ही. गुजारे लायक थी. अब खेती पाती छोड़ दी हुई सब ने! अब सरकारी गोदाम से राशन मिलने वाला हुआ. ऊपर से गाँवों में गुणी-बानर, सूअर, चिड़िया-कीड़े वगैरह कुछ उगने ही नहीं देते. अपनी ही जमीन में काम करने वाले हुए उन दिनों … अब कोई बुवाई वगैरह नहीं करता अपनी जमीनों में …

अच्छा ये बताइए आज तक आप अपने गाँव से सबसे दूर किस जगह तक गए हैं?

हल्द्वानी तक गया हूँ. एडाद्यो गया हूँ.

हल्द्वानी से आगे नहीं गए कभी?

नहीं नहीं गया था. एक बार दिल्ली गया था.

कब गए थे?

ये अपने इसी लड़के के ब्याह के समय गया था. (बेटे राजेन्द्र प्रसाद की तरफ इशारा करते हैं)

दिल्ली में कोई खास काम था?

हाँ था! ये भाग गया था. ये अपने ब्याह के दिन भाग गया. तो मैं इसे बुलाने के लिए दिल्ली गया.

आपको कैसे पता लगा?

ऐसे ही पूछ पूछ कर. अरे उन दिनों गाड़ी वाले आने वाले हुए. दिल्ली-दिल्ली की आवाज लगाने वाले हुए. ये वहीं गाँव से हल्द्वानी गया होगा. बस दिल्ली चला गया.

दिल्ली में कैसे मिला ये आपको?

ऐसे ही. मैं बस अड्डे से बाहर निकला तो ये वहीं बाहर बैठा हुआ मिल गया. बाहर निकलते ही मिल गया ठहरा!  

साक्षात्कारकर्ता अशोक पाण्डे के साथ धनीराम जी

(अब मैं धनीराम जी के बेटे राजेन्द्र प्रसाद से मुखातिब होता हूँ)

आप घर से क्यों भाग गए?

उन्नीस आल की आयु में मेरी शादी तय कर दी पिताजी ने तो मैं घर से भाग गया. उस जमाने में दिल्ली का किराया था अडसठ रुपये. छोटे-मोटे काम करके मैंने सौ रुपये बचा रखे थे और मैं घर से भाग गया.

क्या सोच के भागे थे?

अरे ऐसे ही. मन करा भाग गया. फिर बाबू वापस भी ले आये और शादी भी कर दी.

(दोनों खिलखिला कर हँसते हैं)

आपने यह काम कब से सीखा?

मैंने यह लिखाई का काम 2010 से सीखा जब आरतोला में बाबू ने काम किया. उसके पहले मैं चिनाई और लकड़ी का काम करता था. वैसे तो इस काम में अच्छा हुआ लेकिन शुरू शुरू में बहुत सिरदर्द होता था. अब तो आदत पड़ गयी है. बाबू ने काम सिखा दिया है मतलब काम की सारी बारीकियां सिखा दी हैं.

आपका परिवार?

मेरे पांच बच्चे हैं. सबसे बड़ी बेटी और एक बेटे की शादी हो गयी है. मेरी एक नातिन है. तीसरा लड़का पटियाला में होटल में काम करता है पहला वाला भी वहीं होटल में है. चौथा लड़का अभी दसवीं में पढ़ता है. पांचवीं भी लड़की है जो नवीं में पढ़ती है.

अब आगे?

फिलहाल तो यही काम करना है. यही करना हुआ.

(पिता-पुत्र दोनों काम में जुट जाते हैं.)  

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  • रोचक साक्षात्कार है...वक्त की जमीन पर धुंधली हो रही एक शानदार कला पर रोशनी डालने वाली रचना!!! बधाई!

  • बहुत रोचक साक्षात्कार, पढ़ते समय ऐसा लगा जैसे धनीराम जी स्वयं सामने बैठे बयां कर हों ।

  • धनीराम जी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने अपनी जीवन यात्रा का वृतांत इतनी सरलता से सुनाया कि जैसे चलचित्र सामने से गुजर रहा हो।

  • जिस दिन मै अपनी जिंदगी मे मकान बनाऊंगा वो पहाड़ी शैली का ही होगा ???

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