आम फलों का राजा है. ना ! ये राजा नहीं चक्रवर्ती सम्राट है फलों का. दुनिया में ज़्यादातर देशों में भले लोकतंन्र हो और वहाँ के आम लोग चुनाव जीतते ही मद में चूर होकर ख़ास होने के दर्प से तमतमाए रहें पर इससे आम को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. (Essay of Smita Karnataka)
आम के अलावा शायद ही कोई दूसरा ऐसा फल हो जिसके पेड़ का हर हिस्सा किसी न किसी तौर पर काम न आता हो. पेड़ की छाल, लकड़ी, पत्ते से लेकर आम अपनी उम्र के हर पड़ाव पर हमसे जुड़ा रहता है. आँधी तूफ़ानों में गिरी अमिया का पाककला में निपुण लोग चटनी, मुरब्बा,खटाई और अचार बना डालते हैं. अचार भी कोई एक दो तरह के नहीं, अपने देश में कश्मीर से तमिलनाडु और गुजरात से अरुणाचल तक इसकी भी कई सौ क़िस्में मिल जायेंगी.
अपने यहाँ आम हमेशा ख़ास होकर भी सर्वसुलभ रहा है. ये नहीं कि साल में दो तीन महीने के लिये आये तो नखरे दिखाता फिरे. इसका हम भारतीयों से कितना पुरातन लगाव है ये इसी से समझ आता है कि वैदिक ग्रंथों में भी आम को विलास का प्रतीक माना गया. उल्लेख मिलता है कि घुमक्कड़ ह्वेनत्सांग ने भी अपनी भारत यात्रा में इस अद्भुत फल के स्वाद को चखकर अपने को धन्य समझा.
घुमक्कड़ तो आम भी कम नहीं. ये भारत का आम मैंजीफेरा इंडिका बर्मा, मलाया से आकर भारत भूमि में अपनी जड़ें मज़बूत करके चौथी पाँचवीं सदी तक पूर्वी एशिया और फिर दसवीं सदी तक तो पूर्वी अफ़्रीका जा पहुँचा और वहाँ से धीरे-धीरे कुछ लैटिन देशों मसलन ब्राज़ील, वेस्टइंडीज़ और फिर मैक्सिको तक.चौदहवीं सदी में इब्नबतूता इसे सोमालिया में देखते हैं.
अपने देश में गर्मियों में एक राहत की बात होती है तो केवल आम. माथे से टपकते पसीने और चिलचिलाती धूप के बाद ठंडे आम खाने का मज़ा उसे सबसे ज़्यादा आता है जो भरी दोपहरी इसे लादकर लाया हो और जिसने लाते ही इन्हें पानी में डालने की सदियों पुरानी रीत निभाई हो. गर्मियाँ शुरु होते ही फलों की रेहड़ी पर एक कोने की टोकरी में यदा कदा दिखने वाला आम जब अपने पूरे शबाब पर आता है तब इसके वैभव के सामने मँहगे से मँहगा फल नहीं टिकता.
जितने आम उतनी तरह के क़िस्से. अकबर ने दरभंगा में एक लाख पेड़ों वाला आम का बाग लगवाया तो वो लाखीबाग के नाम से मशहूर हो गया. कहते हैं कि कालिदास जैसे कवि ने भी इसकी महिमा गायी तो दुनिया को जीतने निकला सिकंदर भी इसके मोहपाश से नहीं बच सका. चित्रकारों ने इसे अपने कैनवस पर उकेरा. ग़ालिब के समय में बाक़ायदा आम की दावतें दी जाती थीं और आम खाने के तौर तरीक़ों पर तफ्सील से बात होती थी.
आजकल आम काटकर उसे चम्मच से खाने का रिवाज भी है और टुकड़े कर काँटे की मदद से भी पर जो मज़ा इसे समूचा खाने में है वो और किसी तरीक़े में कहाँ. जब तक गुठली नहीं चूसी गई, उससे हथेलियाँ नहीं सनी तब तक आम क्या ख़ाक खाया ?
पूरी दुनिया का बावन प्रतिशत आम उगाने वाले हमारे देश में आम से कितनी मोहब्बत की जाती है यह इस बात से पता चलता है कि आम का मौसम परवान चढ़ते ही प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर आम महोत्सव के आयोजन किये जाने लगते हैं. यहाँ तक कि सदन में एक दूसरे की छीछालेदर करने और सदा अपने विरोधियों को पटखनी देने का अवसर तलाशते नेता भी जब आम पार्टियों का आयोजन करते हैं तब अपने उन्हीं विरोधी मित्रों को बुलाना नहीं भूलते जिनपर वे अपने शब्दों के बाण भाले बरछी लेकर सदा पिले रहते हैं. क्या मालूम कब पासा पलट जाये और कल तक चाय पानी पी पीकर उन्हें कोसने की जगह उनका यशोगान करना पड़े. बात इतनी सी है कि होली और ईद मिलन की तरह आम मिलन से भी बिगड़ी बातें बन ज़ाया करती हैं.
उत्तर बाज़ार के बाज़ारों में सबसे पहले पीला सा गोल मटोल आम आता है. फलवाले से पूछो तो कहेगा कि साउथ से आ रहा है. शुरू में तनिक खट्टापन लिये इस आम को भी उस मेहमान की तरह घर लाया जाता है जिसके आने पर बहुत ख़ुशी तो नहीं पर शगुन ज़रूर हो जाता है. कई लोग इसे मैंगोशेक वाला आम कहकर ही पुकारते हैं.
हर प्रदेश के आमों की अपनी विशिष्टता है. तमिलनाडु में कृष्णागिरी के आम स्वादिष्ट माने जाते हैं तो महाराष्ट्र रत्नागिरी के अपने अलफांसो पर गर्व करता है. कर्नाटक के बादामी, रासपुरी और तोतापुरी भी उत्तर भारत में कभी मिल ही जाते हैं, यहाँ का श्रीनिवासपुर 63 क़िस्म के आम उगाने के कारण मैंगोसिटी के नाम से प्रसिद्ध है.
गुजरात के गिरनार में सिर्फ़ शेर ही नहीं होते, आम भी होते हैं और उनका नाम है केसर. बंगाल में बेगमपसंद है तो नवाबपसंद भी है. लक्ष्मणभोग है तो किशनभोग भी है. पंजाब क्यों पीछे रहता. उसने जो आम उगाया उसे नाम दिया बाम्बे ग्रीन. आंध्रप्रदेश से जो सफ़ेदा आम लाकर हम मैंगोशेक बनाते हैं वही धीरे-धीरे मीठा होता जाता है. यहीं होता है नीलम. अँगूठी में जड़ने वाला नहीं, उदरस्थ करने वाला.
उत्तरप्रदेश के आमों का तो पूरा उत्तर भारत दीवाना है. लखनऊ और मलीहाबाद के दशहरी जिसने नहीं खाये वो जीवन में एक पुण्य कमाने से वंचित हो गया. उस्ताद बिस्मिल्ला खान कहते थे जहाँ रस बना रहे ऐसा शहर है बनारस. इसी बनारस का लंगड़ा आम अपने स्वाद और आकार के कारण दशहरी को टक्कर देता रहता है. चौसा की ख़ुशबू और स्वाद के तो कहने ही क्या.
लंगड़े आम की तो पूरी एक अलग ही कहानी है. कहते हैं कि एक बार एक साधु शिव मंदिर में आया और वहाँ रहने की जगह माँगी. उसने अपने साथ लाये दो आम के पौधों को वहाँ रोप दिया. चार साल बाद जब वहाँ से चलने लगा तो मंदिर के पुजारी को ताकीद करता गया कि आम में फल आयें तो काटकर शिव पर चढ़ाना फिर प्रसाद में बाँट देना. याद रहे किसी को समूचा आम खाने को न देना न किसी को इसकी कलम लगाने देना. गुठली जला देना वर्ना लोग उसे रोपकर पेड़ बना देंगे. भला ये भी कोई बात हुई? साधु से ऐसी उम्मीद नहीं थी, ख़ैर…
पुजारी पेड़ बन गये पौधों की साधु के कहे अनुसार देखभाल करता रहा. इंसान ही ठहरा, जिसने भी प्रसाद में कटा हुआ आम खाया वो इसके स्वाद पर मर मिटा. लोगों ने पूरा आम देने की याचना की लेकिन पुजारी साधु की बात से फिर नहीं सकता था.
आम की चर्चा काशीनरेश तक पहुँची. वे मंदिर में पधारे और पुजारी को आज्ञा दी कि राज्य के माली को इस आम की कलमें लगाने की अनुमति दें. राजा ठहरा साक्षात ईश्वर का प्रतिनिधि. राजाज्ञा थी, पुजारी कैसे टालता.उसने कहा कि वो साँध्य पूजा के समय शिव से प्रार्थना कर कल प्रसाद लेकर राजा के सामने उपस्थित होगा.
शिव ने स्वप्न में पुजारी को वही कहा जो मैं आपको बता चुकी हूँ. “राजा मेरा प्रतिनिधि है, उसे कलमें लगाने दो.”
अगले दिन पुजारी जी आम का टोकरा लेकर काशीनरेश के सम्मुख उपस्थित हुए. राजा ने उन आमों में एक अनूठा स्वाद पाया. माली ने कलम लगाकर एक बड़ा आमों का बाग तैयार किया. इस तरह कुनबा बढ़ता गया और धीरे-धीरे काशी जनपद में आम के अनेक बाग तैयार हो गये. इसी लंगड़े पुजारीके नाम पर इस आम का नाम लंगड़ा पड़ा.
दीर्घ आयु का वरदान प्राप्त आम के पेड़ की आयु सौ साल से भी ऊपर हो सकती है. ऐसा भी दावा किया जाता है कि बाँग्लादेश में आम का एक सौ दस साल पुराना पेड़ अब भी मौजूद है.
साल भर में एक बार आने और आकर छा जाने वाले आम की दीवानगी सिर्फ़ इसके स्वाद को लेकर ही नहीं है. कई तरह के रोगों में इसके पत्तों और छिलकों का इस्तेमाल किया जाता है. शादी ब्याह और किसी भी सुअवसर पर इसके पत्तों के साथ फूल गूँथकर बंदनवार सजाई जाती है.
कच्चे पक्के हर रूप में काम आने वाले आम को हमने यूँ ही फलों का राजा घोषित नहीं कर दिया है. देश का राज चलाने वालों को चुनने में हम भले ही गलती कर बैठें पर अपनी जिह्वा और पेट का बहुत ख़्याल रखते हैं.
जो फलों और रंगों को भी मज़हब के नाम पर बाँटने चले हैं उन्हें मेरी ओर से विशेष तौर पर आम खाने की सलाह दी जाती है. क्या पता कभी सत्य का बोध हो जाये. अपने तिरंगे के दो रंग भी अपने में समेटे आम पूरी तरह से लोकतांत्रिक है. कई रंगों और स्वाद वाला आम भारत की विविधता का प्रतीक भी है. न यक़ीन आये तो अलग अलग जगहों के आम खाकर देख लीजिये.
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स्मिता कर्नाटक. हल्द्वानी में रहने वाली स्मिता कर्नाटक की पढ़ाई-लिखाई उत्तराखंड के अनेक स्थानों पर हुई. उन्होंने 1989 में नैनीताल के डीएसबी कैम्पस से अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. किया. पढ़ने-लिखने में विशेष दिलचस्पी रखने वाली स्मिता काफल ट्री की नियमित लेखिका हैं.
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