1841 में पीटर बैरन द्वारा बसाये गए इस नैनीताल शहर (history of Nainital) में ठीक 146 साल और अपने स्कूल शेरवुड काॅलेज की पढ़ाई छोड़ने के करीब अठारह सालोें के बाद 1987 की शरद् ऋतु में सांसद-अभिनेता अमिताभ बच्चन अपने मित्र तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनकी पत्नी सोनिया गांधी के साथ नैनीताल आये थे और वहाँ उन तीनों लोगों ने तालाब में बोटिंग की थी. उस दिन सुबह से आठ बजे से शाम के पाँच बजे तक सुरक्षा की दृष्टि से किसी को भी तालाब के किनारे जाने की इजाजत नहीं थी. मगर इस बीच नैनीताल एकदम बदल चुका था, क्योंकि बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में जब मोतीलाल नेहरू नैनीताल आए थे, और उन्हें भारतीय होने के नाते तालाब में बोटिंग करने की अनुमति नहीं मिली तो उन्होंने वायसराॅय से इसकी शिकायत की और वे लंबे संघर्ष के बाद भारतीयों को यह अधिकार दिलाकर ही रहे.
नैनीताल के अजाने इतिहास से निकली एक और अनोखी कहानी
ब्रिटिश शासकों ने इस शहर को एकदम यूरोपीय शैली में अपने प्रवासी घर की तरह बेहद आत्मीयता के साथ विकसित किया था. इसीलिए पिछली सदी के आरंभिक वर्षों में नैनीताल के डिप्टी कमिश्नर रहे जे. एम. क्ले ने अपनी पुस्तक ‘नैनीताल: ए हिस्टाॅरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव एकाउंट’ में लिखा, ‘‘नैनीताल का हिल स्टेशन ब्रिटिश प्रशासकों की रचना है. इसलिए 1841 में कैप्टेन पीटर बैरन की खोज से पहले इसका कोई इतिहास नहीं है.’’
1845 में नैनीताल में म्युनिसिपल बोर्ड का गठन हुआ और यह न सिर्फ संयुक्त प्रांत बल्कि सारे भारत की पहली नगर पालिका थी. पीटर बैरन ने तो अपना मकान तालाब की सतह से अधिक ऊँचाई पर नहीं बनाया मगर तमाम दूसरे अंगे्रजों ने अपने बँगले पहाड़ की ऊँचाइयों पर ही बनाए. तालाब के दक्षिण-पश्चिमी किनारे पर कुछ हिन्दुस्तानी व्यापारियों को बसाया गया जो अंगेजों के लिए रसद, कपड़े, मांस, सब्जी, घोड़े, टट्टू आदि की व्यवस्था करते थे. नैनीताल के इस छोर का नाम हिंदुस्तानी व्यापारियों ने मल्लीताल रखा और दूसरे छोर का नाम तल्लीताल. तालाब के इन दोनों किनारों को जोड़नेवाली पूर्वी सड़क का नाम अंग्रेजों ने मालरोड रखा और पश्चिमी सड़क का हिंदुस्तानियों ने ठंडी सड़क.
नैनीताल जैसे पहाड़ी शहरों की चर्चा बिना बंपुलिस के संभव ही नहीं है
मल्लीताल के ठीक सिर पर समुद्र सतह से आठ हजार फीट की ऊँचाई वाले शिखर का नाम चीना पीक रखा गया और इस शिखर पर अंगे्रज पुरुष तथा औरतें पैदल या घोड़े में तथा बूढ़ी अंग्रेज औरतें डांडी में बैठकर जातीं जहाँ से उत्तर की ओर अदृश्य चीन की दीवार को देखने की कोशिश करते. हिन्दुस्तानी औरतें परम्परागत परिधान पहने हुए, हाथों में पूजा का थाल लिये हुए तालाब किनारे के नैनादेवी और तालाब के मध्य में बने पाषाण देवी के मन्दिर होते हुए तालाब का चक्कर लगातीं. मालरोड के समानांतर, उससे लगभग पाँच-छह फीट नीचे ठंडी सड़क के समानांतर एक और सड़क बनायी गयी थी जिसमें अंग्रेज पुरुष और युवा किलकारियाँ भरते हुए बेतहाशा तेज घोड़े दौड़ाते और किनारों पर चलते हुए हिन्दुस्तानियों को उन्हें फर्शी सलाम करना पड़ता. जो व्यक्ति सलाम नहीं कर पाता, साहब लोग उस पर घोड़े की चाबुक से हण्टर बरसाते हुए आगेे बढ़ जाते. मगर ये बातें बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों की थीं.
नैनीताल के सबसे ऊँचे शिखर चीना पीक से लेकर तालाब किनारे की मालरोड तक तालाब को घेरती हुई सड़कों का निर्माण किया गया. सबसे निचली सड़क का नाम ‘लोअर चीना माल’, उसके ऊपर की सड़क का ‘मिडिल चीना माल’ और सबसे ऊपरी सड़क का ‘अपर चीना माल’ रखा गया. 7580 फीट की ऊँचाईवाले पूर्वी शिखर पर हिंदुस्तानी शिल्पकारों के द्वारा खूबसूरत फिलैंडर स्मिथ काॅलेज (अब बिड़ला विद्या मंदिर) बनवाया गया जो अर्सें तक भारत का सबसे ऊँचाई पर स्थित विद्यालय माना जाता रहा. 1880 से तालाब में पाल नौकाएँ चलने लगीं और 1900 में संयुक्त प्रांत के लाट साहब के लिए भव्य गवर्नमैंट हाउस का निर्माण हुआ जिसे इंगलेंड के बकिंघम पैलेस की नकल पर बनाया गया था. 1885 से अवध-कुमाऊँ रेलवे द्वारा काठगोदाम तक और उसके बाद ताँगे से नैनीताल आया जाता था. 1915 में काठगोदाम से नैनीताल तक की मोटर सड़क बनी और नैनीताल के उत्तर-पूर्वी मुहाने पर बना एक छोटा-सा बस अड्डा. 1916 में नैनीताल में बिजली आ गई.
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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