अल्मोड़ा में अंग्रेज टैक्सी से आया या घोड़े पर, यह तो काल-यात्रा से ही पता लगेगा लेकिन उसका यहां तक पहुंचना, औपनिवेशिक विस्तार के बहुत बड़े आख्यान का छोटा सा हिस्सा भर है. जब अंग्रेज अल्मोड़ा आ रहा था, तब वह सातों महाद्वीपों पर कहीं न कहीं और भी जा रहा था. ग्लोब के हर हिस्से में अपनी श्रेष्ठता की गंद मचाता वह कुदरत पर विजय हासिल करने के दंभ में चोटियों पर झंडे गाड़ रहा था, सागरों में नावें तैरा रहा था और मछलियाँ मार रहा था. पाताल से हीरे-जवाहरात चुरा रहा था और जंगली जानवरों की खाल उतार जूते और बेल्ट बना रहा था.
(Maalu Leaf Uttarakhand)
इस ताकतवर लालची की भूख अनंत थी जो आज दुनियाभर के शासकों को संक्रमित कर धरती का नाश कर रही है. लेकिन इस ब्लैकहोल जैसी ताकत के पीछे-पीछे अन्वेषकों की जमातें भी संसार भर में घूमने लगीं. हालाँकि इन खोजियों में से अधिकतर उसी रोग के मरीज थे जिसे एंथ्रोपोसेंट्रिज़्म कहा जाता है. मतलब यह कि समूची कायनात केवल मानव नामक कपि के उपभोग के लिए ही है. इन अन्वेषकों ने दुनिया भर में जो कुछ देखा जा सकता था, उसे देखने और समझने के लिए बेहद जोखिम उठाये और न जाने कितने लोग इन मामूली दिखने वाली चीजों के पीछे दीवानों की तरह भटके और मारे गए, खैर.
इन खोजों के साथ ही एक बड़ी समस्या सामने आने लगी थी. यूरोप के सीमित भूगोल में जितने पेड़ पौधे, जानवर वगैरा थे, उन्हें समझना और उनके गुण-धर्मों के अनुसार उन्हें वर्गीकृत करना आसान था. लेकिन अफ्रीका, एशिया और नयी दुनिया में रोज नयी-नयी प्रजातियाँ सामने आ रही थीं. शुरुआत में यूरोप के ‘सभ्य’ लोगों का मकसद था कि इन हजारों-हजार प्रजातियों में से अपने फायदे की चीजें पहचानें और उनके इस्तेमाल से मुनाफ़ा कमाएं.
मगर अन्वेषण का भी अपना नशा होता है. धीरे-धीरे कुदरत को जानने समझने की लालसा बढ़ती जा रही थी और आधुनिक विज्ञान की विधि भी और साफ़ हो रही थी. ऐसे में इस बुद्धिमान कपि के सामने चुनौती थी कि हजारों-हजार प्रजातियों को उनकी समानता के आधार पर समूहों में बांटना. हल्का-फुल्का वर्गीकरण तो हम पहले से करते आये थे, मसलन फल, अनाज, बेलें, झाड़ियाँ आदि. लेकिन इतना काफी न था. संसार में बहुत कुछ ऐसा था जो हमारे व्यावहारिक वर्गीकरण के मौज़ूदा खांचे में फिट नहीं बैठता था. इसी दौर में शुरू हुआ पादपों के वर्गीकरण और नामकरण का काम.
बॉटनी का कोई भी विद्यार्थी कैरोलस लिनियस के नाम से अपरिचित नहीं होगा. उन्होंने जीव प्रजातियों के वैज्ञानिक वर्गीकरण और नामकरण की पुख्ता प्रणाली विकसित की जो आज भी सर्वमान्य और प्रचलित है, यद्यपि लिनियस से पहले ही प्रजातियों के वर्गीकरण की कवायद शुरू हो चुकी थी. प्रिंटिंग प्रेस के जन्म के साथ ही अनेक ऐसी पुस्तकों का प्रकाशन होने लगा था जो पेड़ पौधों के बारे में लिखी गयी थीं. इनमे से ज्यादातर चिकित्सकों द्वारा औषधीय वनस्पस्तियों पर लिखी किताबें थी.
जैसे-जैसे खोजबीन और अवलोकन के औजार विकसित होते गए, पेड़ पौधों के गुण-धर्मों को समझने की कवायत और तेज होती गयी. सूक्ष्मदर्शी के अविष्कार के बाद से उन चीजों को देखा जाना भी संभव हो गया जिन्हें अब तक नंगी आँखों से देखना संभव नहीं था. सत्रहवीं सदी के आते-आते वनस्पति विज्ञानियों ने केवल औषधीय पेड़ पौधों पर ध्यान देने की पद्यति को छोड़ दिया और पूरे वनस्पति संसार को समझने की कोशिशें शुरू कर दीं. इस दौर के तमाम वनस्पति विज्ञानियों में सबसे उल्लेखनीय नाम आता है गास्पर्ड बॉहीन का.
फ्रेंच भौतिक विज्ञानी जीन बॉहीन प्रोटेस्टेंट धर्म अपनाने के लिए अपना मुल्क छोड़ स्विट्जरलैंड जा बसे थे. 1560 में जीन के घर जन्म हुआ गास्पर्ड का, जिसने आगे चलकर चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई की और बेसल यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की उपाधि हासिल की. गास्पर्ड का अकादमिक करियर शानदार रहा और वह कई विश्वविद्यालयों में ऊंचे ओहदों पर रहे. महत्वपूर्ण पदों और उत्तरदायित्वों के बीच उनका जो काम सबसे उल्लेखनीय माना जाता है वह है- Pinax theatri botanici (English, Illustrated exposition of plants) पुस्तक, जो वनस्पतिशास्त्र के इतिहास में मील का पत्थर मानी जाती है. इसमें उन्होंने साठ हजार से ज्यादा पेड़-पौधों को वर्गीकृत किया था. वर्गीकरण का तौर परंपरागत ही था. यानी, पेड़, पौधा और झाड़ी के रूप में ही उन्हें समूहों में बांटा गया था. इनके साथ ही उन्होंने घासों और फलियों को भी सही-सही समूहों में बांटा. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण जो काम जो उन्होंने किया वह था- genera and species यानी वंश और जाति में क्लासिफिकेशन. यही आधार था जिस पर लिनियस ने द्विनाम पद्यति को विकसित किया और जो आज भी सर्वाधिक प्रचलित और वैज्ञानिक रूप से सही और सुविधाजनक नामकरण पद्यति है. इसके अलावा गास्पर्ड की योजना थी Theatrum Botanicum नाम से बारह वोल्यूम का एक फोलियो बनाने की जिसमें से वह तीन को ही अपने जीवन में पूरा कर पाए. इनमें भी केवल एक ही प्रकाशित हो सका.
गास्पर्ड की कहानी अभिन्न रूप से जुड़ती है उनके बड़े भाई जोहान्न या जीन बॉहीन से जो इनसे उन्नीस साल बड़े थे. उनकी औपोचारिक पढ़ाई वनस्पतिशास्त्र में ही हुई थी. अपनी मौत तक वह एक चिकित्सक ही रहे लेकिन अपने वनस्पतिशास्त्र प्रेम को उन्होंने बरकरार रखा और जो कुछ वह जान और समझ पाए उसे उन्होंने Historia plantarum universalis के रूप में संकलित किया. इन दो भाइयों के सम्मान में लीनियस ने पादपों के एक कुल का नाम बॉहुनिया (Bauhinia) रखा.
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अंग्रेज जब दुनिया जहान को खोजता टटोलता हुआ अल्मोड़ा पहुंचा तो उसके आगमन से पहले यह कुमाऊं की राजधानी हुआ करता थी. राजधानी थी तो राजसी ठसक होनी लाजमी थी. इसी ठसक को लिए हुए अल्मोड़ा की सर जमीं में जन्म हुआ एक अद्भुत मिठाई का, जिसे दूध और चीनी से तैयार किया जाता था. इस मिठाई में दूध को पका-पका कर लगभग ठोस अवस्था तक पहुंचाया जाता है और फिर इस दूधिया सफ़ेद परिणाम को एक ख़ास पत्ते में लपेटकर बीड़े जैसा बना लिया जाता है. पत्ते के बीड़े में धरी इस ख़ास मिठाई का नाम है सिंगौड़ी. जब आप इस अद्भुत मिठाई का भोग लगाते हैं तो उस ख़ास पत्ते का अनोखा फ़्लेवर मिठाई में मिलकर अप्रतिम असर छोड़ता है.
इस पत्ते को कुमाऊं में मालू कहा जाता है. मालू गर्म जलवायु का पादप है जिसकी बहुत बड़ी बेलें होती हैं. दो हिस्सों में बंटा इसका पत्ता हथेली के आकार से बड़ा होता है, कई बार मध्यम आकार की थाली के बराबार हो जाता है. अगर आप पहाड़ में किसी घाटी के इलाके में रहे हैं तो आपने सामूहिक कामों में इसका इस्तेमाल दोने पत्तल की तरह ज़रूर किया होगा. मेले कौतिकों में इसके पत्तों में लिपटी गाढ़ी खीर खाने का सुख शब्दातीत है. इसके मजबूत लचीले पत्तों के बहुत अच्छी गुणवत्ता के दोने बनते हैं. खुरदरे स्पर्श वाला यह पत्ता आसानी से सड़ता नहीं इसलिए इस्तेमाल में सुविधाजनक होता है. गर्मी आते-आते इसमें सफ़ेद फूल आने लगते हैं और कुछ महीनों बाद बड़ी-बड़ी फलियाँ इसकी बेल में लटकी नजर आती हैं. बचपन में हम इन ठोस भूरी फलियों को गोरखा खुखुरी की तरह पकड़ कर खेला करते थे. इसके पत्तों को भोजन की पैकेजिंग के काम में इस्तेमाल होते हुए भी मैंने कहीं देखा था. एलुमिनियम फॉयल और पॉलीथीन के मुकाबले यह बेहद पर्यावरण स्नेही विकल्प हो सकता है. यूज एंड थ्रो के जहरीले दौर में जानलेवा कैंसरकारी प्लास्टिक और थर्मोकोल प्लेटों की जगह इसका इस्तेमाल कहीं ज़्यादा मुफ़ीद हो सकता है लेकिन इसके लिए मजबूत मंशा की जरूरत होगी.
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उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में मालू के पत्ते दोने और पत्तलों के रूप में तो इस्तमाल होते ही थे, साथ इसकी खुखरी जैसी फलियों में छिपे कोमल बीजों को भी आग में भूनकर चाव से खाया जाता था. औषधीय दृष्टि से मालू में एण्टी बैक्टीरियल गुण भी बताये जाते हैं. बुजुर्गों से सुना है कि पुराने समय में इसे बुखार और अतिसार में प्रयोग किया जाता था. इसमें कई महत्वपूर्ण रासायनिक अवयव, जैसे- Flavonoids, Betulinic acid, Triterpene, Gallic acid आदि पाये जाते है. यदि इसकी पौष्टिक गुणवत्ता की बात की जाय तो इसमें लिपिड- 23.26% प्रोटीन- 24.59% तथा फाइबर-6.21% तक पाये जाते है.
जिस मालू की बेल की यहाँ बात हो रही है, उसका वैज्ञानिक नाम है- Bauhinia vahlii. यह फेबैसी परिवार का पादप है. यह उपोष्ण जलवायु की वनस्पति है जो उत्तराखंड में मध्यम ऊंचाई वाले अधिकांश इलाकों में पाया जाता है. यह पादपों का वही वंश है जिसका नामकरण लीनियस ने बॉहीन बंधुओं के सम्मान में किया था.
अगली बार अल्मोड़ा जाएँ तो आपको किसी पुरानी मिठाई की दुकान में मालू के पत्ते में लिपटी सिंगौड़ी का ऑथेंटिक स्वाद मिल सकता है. इस सिंगौड़ी को खाते हुए मालू के पत्ते को जरूर याद कीजियेगा. हमारे उन पुरखों को भी याद कीजियेगा जिन्होंने अपने जंगलों में मालू को फैलाया. इसके जुड़वा पत्तों को निहार कर उन बॉहीन बन्धुवों को भी कीजियेगा जिन्होंने वनस्पतिशास्त्र के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया.
अगली बार इसके एक और बिरादर की बात होगी.
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी का शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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