जल्द ही लुप्त हो जायेंगे परंपरागत पहाड़ी लुहार

उसके चेहरे पर आग की दहक से उभरने वाली चमक बिछी थी… आंखें भट्ठी की आग पर टिकी हुईं. बीच-बीच में लहकते कोयले से भभकती चिंगारियां भट्ठी से बाहर की ओर लपक पड़तीं और वह सरिये के अगले सिरे पर बने हुक को भट्ठी के मुंह में घुसेड़कर दरांती का जायजा लेता है. दरांती तप कर लाल हो उठी है. मन ही मन तस्दीक करने के बाद उसकी नज़र मेरी ओर उठती है. (Luhar Uttarakhand)

“क्या आप इस पर धार चढ़ा देंगे?” मैंने कुल्हाड़ी का फलक उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा. “हां-हां क्यों नहीं… पर देर लगेगी. “यह कहते हुए उसने लोहे का वह फलक मेरे हाथ से लेकर एक ओर रख दिया. फिर दरांती को भट्ठी से निकालकर उसके ऊपर हथौड़े मारने लगा.

अधेड़ उम्र की दो पहाड़ी औरतें लकड़ी के बेंच पर दरांतियों के तैयार होने का इंतजार कर रही थीं. उनके ऊपर धूप का एक मासूम टुकड़ा गिर रहा था. दोनों के चेहरे खिले थे. मैंने गौर किया चार दरांतियां पहले ही तैयार हो चुकी थीं. लगभग 20-25 मिनट के बाद पांचवीं भी तैयार हो गई और फिर मेरी बारी आ गई.

एक रस्सी में लपेटकर उसने पांचों दरांतियां और एक कुल्हाड़ी की फलक उनकी ओर बढ़ा दीं. दोनों महिलाएं झटपट उठ खड़ी हुईं और पैसे देकर साथ की गली में ओझल हो गईं. मुझे लगा शायद उन्हें घर जाने की जल्दबाजी थी… मवेशियों के लिए जंगल से चारा लाना होगा, रसोई पकाने के लिए नौले या हैंडपम्प से पानी ढोना होगा या शाम घिरने से पहले घर को गर्म रखने के लिए आग जलानी होगी. वजह जो भी हो, वे अपनी तयशुदा जिम्मेदारी से चूकना नहीं चाहती थीं. मीलों चलकर बाजार आई होंगी. दरांतियां बनवाने में हुई देरी को अब वे अपनी तेज कदमों से पाटेंगी.  

बहरहाल, वे आंखें एकबार फिर से लहकती आग पर जा टिकी थीं. मेरी कुल्हाड़ी का फलक भट्ठी के अंदर जा चुका था. वही प्रक्रिया अब उसके साथ भी दुहराई जा रही थी. एक हाथ साइकिल की रिम को घुमाता हुआ… दूसरा भट्ठी में लाल हो उठे लोहे के टुकड़े को उलटता-पलटता हुआ.

“आप यहां बैठ जाओ,” अचानक से उसने अपने बगल में रखे पतले से तख्त की ओर इशारा करते हुए कहा. वाकई मैं अब तक खड़ा ही था और मंत्रमुग्ध-सा साइकिल के घूमते पहिए, भट्ठी के अंदर जाते सरिए… लोहे के लाल हो उठे टुकड़े का उलटना-पलटना, फिर बाहर आते ही पिटकर उसका पतला होना देख रहा था. बेंच पर बैठने के बाद भट्ठी की ताप ने मुझे ठंड की ठिठुरन से राहत दिला दी. जैकेट की जेब में दुबके मेरे हाथ अब बाहर आ गए थे.

भट्ठी से निकलती गुनगुनी गर्मी के बीच मेरी जेहन में शोर करते, धुआं और विषैला पानी छोड़ने वाले दैत्याकार कारखानों के दृश्य उभरने लगे, जो अपनी स्वचालित उत्पादन मशीनों से महज कुछ सेकंड में कच्चे मालों से हजारों यूनिट तैयार उत्पाद बना डालती हैं. जिन्होंने पिछले 250 सालों के दरम्यान दुनियाभर में हाथ से चलने वाले उद्योगों-शिल्पों को हाशिए पर धकेल कर अपने लिए एक अपराजेय मार्ग बना लिया है. हमारे देश में भी कारीगरी के कई परंपरागत पेशों ने पिछले कई दशकों से खामोशी से अपने हाथ-पांव समेट लिए हैं. उन्हीं के बीच लुहारी एक शानदार कारीगरी है. लोहे के एक बेकार टुकड़े को तपा कर मनचाहे आकार में बदल देना. मेहनत, हुनर और सृजन करने का सुख, सभी एक साथ, पर बढ़ती जरूरतों और महंगाइयों के बीच इससे होने वाली आमदनी क्या घर चलाने के लिए काफ़ी पड़ जाती होगी.

“नहीं साहब, कुछ ख़ास नहीं, हां 200-300 रु. तक रोज की आमदनी हो जाती है. घास के मौसम में दंरातियों की ज्यादा बिक्री होती है. अब लगा लो सर्दियों में लकड़ियाँ काटने के लिए गांवों के लोग कुल्हाड़ियाँ बनवाते हैं. तब थोड़ी ज्यादा आमदनी हो जाती है. यही लगा लो तब हर रोज 500 रु. के करीब आ जाते हैं.” असम्पृक्त भाव से अपनी आमदनी के हिसाब बताने के बाद वह कुल्हाड़ी के लाल हो उठे फलक पर झटपट-से हथौड़े की चोट जमाने लगता है. क्योंकि ज्यादा ठंड में लोहा जल्दी ठंडा हो जाता है और तब उसका तापीय प्रसार नहीं हो पाता.

मैं भी तो ठंड की वजह से ही यहां आया था. दरअसल कल हुई बर्फ़बारी के बाद से रानीखेत इलाके की बत्ती गुल हो गई थी. शून्य के करीब पहुंचे तापमान से मुकाबला करने के लिए आग से अच्छा कोई उपाय नहीं था. आग में जलाने के लिए लकड़ियों के छोटे टुकड़े बनाने के वास्ते मैंने बाजार से कुल्हाड़ी तो खरीद ली थी, पर उसके ऊपर धार चढ़ाए बिना वह बहुत कारगर नहीं होती. दुकानदार की ही सलाह पर ही मैं लोगों से पता पूछता हुआ बाजार की एक गली में खड़ी लुहार की इसी दुकान में पहुंच गया था.

बातचीत में उसने अपना नाम जगदीश चंद्र बताया. तांबई रंग का चेहरा, कान में एक बाली, हाड़ कंपाने वाली ठंड में भी महज पूरी बांह की कमीज और पेंट पहने मुस्तैदी से अपने काम को निपटाता हुआ जगदीश चंद्र एक हुनर का मालिक था. ज्यादा कपड़ों की जरूरत भी नहीं थी. भट्ठी की आंच शरीर को गर्म रखने के लिए काफी थी. बातचीत से पता चला कि 3-4 पुश्त पहले उनके पुरखे इस काम को जेनौली से रानीखेत बाजार ले आए थे. कुछ ही हफ्ते पहले उनके पिता का देहांत हो गया था. उसके बाद जगदीश चंद्र इस भट्ठी पर बैठने लगा था.

“साहब, अपने परिवार में इस पेशे को जानने वाला मैं अकेला बचा हूं. अब बच्चे इसमें थोड़े ही न आएंगे. मेरे बाद परिवार की यह कारीगरी लुप्त हो जाएगी.” उसकी बातों में एक अनकही-सी पीड़ा थी. मनुष्य के इस दो सौ से दो सौ पजास सालों के तथाकथिक विकास ने कितनों से उनकी जीविका छीनी, कितनों को बेघर किया, कोई हिसाब नहीं बताया जाता, पर इतना तो साफ है कि कभी अपने रोजगारों को लेकर स्वावलंबी रहने वाला भारतीय ग्रामीण समाज आज कृत्रिम-दोषपूर्ण मशीनरी और व्यवस्थाओं के जाल में उलझने के लिए लाचार हो गया है.

कुल्हाड़ी के तपे हुए फलक को मजबूती से पकड़ने के लिए जगदीश ने अपने भतीजे को आवाज लगाई. मासूम आंखों वाला 15 साल का जतिन 9वीं कक्षा में यहीं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई कर रहा है. उसकी हल्की नीली-भूरी आंखों में न जाने कई मासूम सपने कैद होंगे, कोई नहीं जानता. अंदर के दो कमरों में वे दो भाई अपनी माँ के साथ रहते हैं और छोटे से बरामदे पर जगदीश ने यह भट्ठी लगाई है. जगदीश के दोनों बच्चे अभी छोटे हैं, इसलिए जेनौली के ग्रामीण स्कूल में उनका दाखिला कराया है.

“हर रोज अंधेरा घिरने से पहले भट्ठी बंद कर मैं जेनौली अपने गांव लौट जाता हूं,” सामने खड़ी एक बाइक की ओर इशारा कर जगदीश ने बताया.

तकरीबन 25 मिनट के भीतर मेरी कुल्हाड़ी का फलक भी तेज हो चुका था. उसकी भली-भांति जांच-पड़ताल करने के बाद जगदीश के चहरे पर संतोष का भाव फैल गया था. फलक के अर्ध चंद्राकार धार को दिखाते हुए उसने बताया कि लकड़ी पर प्रहार करने पर अब बीच का बाहर उभरा हिस्सा लकड़ी की सटीक कटाई करेगा. अब इसे चलाने में भी सहूलियत होगी.

एक अखबार के टुकड़े में उस तैयार फलक को लपेटकर, हल्की मुस्कराहट के साथ उसने मेरी तरफ बढ़ा दिया. जब मैंने उससे जब मेहनताना पूछा तो मुझे झिझकता हुआ जवाब मिला, “साहब, आपको जो उचित लगता है दे दो, अब मैं क्या बताऊं.”

उसकी झिझक को ध्यान में रखते हुए बटुए से मैंने पचास की एक नोट निकालकर उनकी तरफ बढ़ाया. “अरे साहब, यह तो बहुत ज्यादा है. इतना नहीं बनेगा.”

मैंने आग्रह करते हुए वह नोट उनकी मुट्ठी में दबा दिया. मेरे पास अब कुछ कहने को शब्द नहीं बचे थे. मेहनताने के बाद के अतिरिक्त पैसे से वह अपने बच्चों के लिए मिठाइयां या कलम-पेंसिल अथवा ऐसी ही जरूरी चीजें तो ले ही जा सकता था. नमस्कार कह कर मैं वहां से वापस चल पड़ा. अब मेरे हाथ में कुल्हाड़ी के उस फलक के रूप में उसकी मेहनत, हुनर, लगन और ईमानदारी का बेशकीमती टुकड़ा पड़ा था. 

पहाड़ों के लोगों ने अपनी सच्चाई और ईमानदारी अभी भी बरकरार रखी है. नाकाफी आमदनी के बावजूद जगदीश को लालच ने कहीं से भी नहीं छुआ था. मुझे लगा यह उसकी कला का गरिमाबोध था. दूसरों के हिस्से-हुकूक पर कब्जा जमाने की मानसिकता पैदा करने वाले शहर और महानगरों के बीच ऐसी भी दुनिया इसी देश में है, जहां लोग सड़क पर पड़ी दूसरों की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते. मेहनत से ज्यादा पैसे लेने से मना कर देते हैं.

एक बात को लेकर मुझे तसल्ली हुई कि भले ही इन पहाड़ों पर जगदीश जैसे कारीगर अगले कुछ दशकों में स्मृति की परतों के नीचे दब जाएं, पर जब तक ऐसे लोग उत्तराखंड के पहाड़ों की ममतामई प्रकृति के बीच रहेंगे उनकी ईमानदारी, सच्चाई और सरलता उनसे कोई नहीं छीन सकता. 

मूल रूप से बेंगलूरु के रहने वाले सुमित सिंह का दिमाग अनुवाद में रमता है तो दिल हिमालय के प्रेम में पगा है. दुनिया भर के अनुवादकों के साथ अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के वैश्विक प्लेटफार्म  www.translinguaglobal.com का संचालन करते हैं. फिलहाल हिमालय के सम्मोहन में उत्तराखण्ड की निरंतर यात्रा कर रहे हैं और मजखाली, रानीखेत में रहते हैं.

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