तिब्बती में लो का मतलब है वर्ष या साल और सर से अभिप्राय है नया. बौद्ध पंचांग के अनुसार वर्ष का प्रथम दिवस लोसर कहलाता है.लोसर तिब्बती बौद्ध धर्म का त्यौहार है जो विभिन्न पहाड़ी प्रदेशों में अपनी भिन्न परंपराओं व रीति से अलग-अलग तिथियों में मनाया जाता है. सामान्यत: फरवरी माह के अंत से मार्च की शुरुवात तक इसका आयोजन धूमधाम से किया जाता है.पहाड़ों में घूमते ऐसे त्यौहार और पर्व सम्मोहक हैं क्योंकि उनमें सादगी के साथ परंपरा से चली रीत का जादुई आकर्षण है. सीधे-साधे वचन बोल हैं. गीत है, संगीत है. न जाने कब से चली आई विधियां हैं जिन पर चल सारे कामकाज के संयोग रच बस जाते हैं . खान पान में खूब जोर, बहुत कुछ नया बने इस दिन. नव रस वाला पवित्र मक्खन के साथ. अंग-अंग में व्यापी थिरकन है.हस्त मुद्राएँ हैं, चपल गति है. सबको साथ ले साथ साथ उस दिव्य देव की आराधना का संयोग है.
(Losar Festival Hindi)

बौद्ध धर्म के अनुयायी इस दिन को बहुत बड़े पर्व के रूप में मनाते हैं. पंद्रह दिनों तक चलने वाले इस पर्व का आरम्भ तिब्बती कैलेंडर के पहले दिन से होता है. लोसर का अर्थ ही नव वर्ष है जो बारह वर्षों के चक्र का अनुसरण करता है जिसे “लोहोकोर” कहा जाता है. “लो” या “बरगा” प्रत्येक वर्ष को दिया जाने वाला अनूठा नाम है जिसे बाघ, घोड़ा, गाय, गरुड़, बंदर, कुत्ता, बिल्ली, भेड़, चूहा, गरुड़, सर्प व पक्षी जैसे जीव-जंतुओं द्वारा सूचित किया जाता है. इन सब बारह जीवों को कपड़े या कागज में छपे एक घेरे में व्यवस्थित कर चक्राकार रूप दिया जाता है.

वर्ष की पहली प्रातः को “छे ” कहा जाता है तो वर्ष की पहली रात्रि “तोङ” कही जाती है. वर्ष का पहला दिन “सो-सो” अर्थात “स्वागत-स्वागत” का होता है. सूती वस्त्रों में अंकित झंडियो, ध्वजाओं और पताकाओं या “तारजौक” से समूचे परिवेश को सुसज्जित कर दिया जाता है. इन सूती वस्त्रों में “कङयुर” तथा “तङयूर” के श्लोक लिखे होते हैं.

प्रकृति की सज्जा के बाद समूचे माहौल के थिरकने के लिए उसे शुभ मुहूर्त या “शाक-गा” में बदलने के लिए आयोजनों की लम्बी श्रृंखला है, धार्मिक मेले हैं जिन्हें “धौलू” कहा जाता है. इसमें देवी देवताओं की डोली सजती है, नाचती है, लोक नृत्य होते हैं गीत गाए जाते हैं.

तिब्बत, नेपाल व भूटान के साथ भारत के पर्वतीय प्रदेशों जिनमें हिमाचल-लाहौल स्फीति, अरुणाचल में मोंपा जनजाति के द्वारा ‘तवांग’, असम व सिक्किम के साथ उत्तराखंड में ‘जाड़’ जनजाति के द्वारा उत्साह के साथ मनाये जाने की अलग-अलग रीत रही है.

लद्दाख में तो लोसर की शुरुवात दिसंबर माह से ही हो जाती है. इस वर्ष यह 19 फरवरी से 5 मार्च 2023 तक मनाया जा रहा है.इस उत्सव की शुरुवात में पूजा गृह, मठ, स्तूप के साथ आवासीय व अन्य विशिष्ट स्थानों में दीप की रोशनी कर पताका फहराई जाती है. यह जीव की उत्पत्ति व निर्वाण के जनमवार “जे चोंर वापा” का उत्सव है. कई स्थलों में पताकाओं को फहराते, हाथों में अनाज भर-भर ईश महिमा का गुणगान कर उसे धाल लगाई जाती है -“लहा सो लो, की की सो सो लहा ग्यल लो” अर्थात ईश की जय हो. विजय हो. जीत हो.
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धौलागिरी श्रृंखला व अन्नपूर्णा पर्वत उपत्यका के गुरंग समुदाय द्वारा ‘तामू लोसर’ हर साल पंद्रह पूस को मनाया जाता है. वहीं नेपाल के केंद्रीय भाग व काठमांडू घाटी में निवास करने वाले तमांग समुदाय द्वारा ‘सोनम लोसर’ मनाया जाता है. यह माघ की पहली अमूस से पंद्रह दिन तक मनाया जाता है. हर सोनम लोसर में तारीख बदलती रहती है जो जनवरी से फरवरी में पड़तीं हैं. शेरपा समुदाय के साथ तमांग भूटिया व योल्मो के निवासी द्वारा फरवरी माह में ‘ग्याल्पो लोसर’ मनाया जाता है.

तिब्बतियों के धर्मरक्षक देव “ने चुंग” हैं. माना जाता है कि लोसर में “ने चुंग” तिब्बती धर्मगुरु के शरीर में प्रवेश कर आने वाले वर्ष की भविष्य वाणी करते हैं. ने चुंग को सफेद वस्त्र की चुन्नी चढ़ाई जाती है.लोसर से साल के दो दिन पहले ‘गुठुक’नाम का पकवान पकता है जहां ‘गु’ का आशय है नौ और ‘ठुक’ हुआ व्यंजन अर्थात नौ तरह के व्यंजन. पूजा के बाद परिवार के लोग साथ मिल गुठुक खाते हैं. गुठुक के परोसे पात्र में गुरु द्वारा लिखा कागज डाल दिया जाता है जिसे इस प्रसाद को खाने से पहले पढ़ा जाता है. इसमें लिखे शब्दों से आने वाले समय की भविष्यवाणी किये जाने का रिवाज रहा है.

हिमाचल प्रदेश में मनाये गए तीन दिन के लोसर त्यौहार के पहले दिन को ‘लामा लोसर’ कहते हैं. इस दिन तिब्बती घर में ही पूजा करते हैं और मौन रखते हैं. दूसरा दिन ‘गालियो लोसर’ कहा जाता है. पहले इस दिन राजा के दरबार में जा कर भेंट -उपहार देने की परम्परा रही थी. अब इस दिन मित्र -रिश्तेदारों को निमंत्रित कर भोजन कराया जाता है. भेंट -उपहार का लेन -देन होता है. तीसरा दिन ‘छोई -क्योंग’ कहलाता है. ‘छोई’ का आशय है धर्म व क्योंग हुआ रक्षक, इसलिए यह धर्म पालक पूजन कहलाती है. मान्यता है कि इस अवसर पर लामाओं पर नेचुंग देवता का अवतार होता है. लोसर के पकवान व भोग मक्खन में बनते हैं. मक्खन के भोग को पवित्र माना जाता है.

लाहौल में लोसर के अवसर पर ‘छम नृत्य’ विशेष आकर्षण है जिसमें रंग-बिरंगी पोशाक, परंपरागत परिधान व चटकीले मुखौटे पहने नर्तक नवीं शताब्दी में क्रूर अत्याचारी राजा लैंग्डर्मा की मृत्यु की कथा का नाटकीय प्रदर्शन करते हैं. यहाँ लोसर से पहले ‘खेपा’ मनाया जाता है जिसमें स्थानीय कांटेदार झाड़ी की छोटी शाखाओं को घर के द्वार पर लगाया जाता है जिसे बुरी आत्माओं से रक्षा हो सके.

लोसर के समय लकड़ी या लोहे के लम्बे लम्बे डंडो में हरे, नीले, लाल, पीले व सफेद रंगों की लड़ी के झंडे घरों में लगाए जाते हैं. उत्तराखंड सीमांत के जाड़ परिवार जिनकी रिश्तेदारी- नातेदारी मारछा, तोलछा या जुहारी जनजाति व गढ़वालियों से होती है वह इन झंडो व इनकी लड़ियों को गांव से ऊपर या गेलू गोम्पा जाने के रास्ते नदी पर बने पुल और अन्य स्थानों पर भी लगाते हैं. साफ सुथरे स्थानों और गांव के ऊपर ये ज्यादा लगे दिखते हैं जिससे इनकी पवित्रता बनी रहे. लम्बे टुकड़ों व लम्बाई में लगी झंडियों को “लुगन्दर” कहा जाता है.

लोसर पर्व के समय “तारजौक”स्थापित किया जाता है. लकड़ी या लोहे के लम्बे डंडे पर तारजौक के ऊपर के भाग में चीड़ की टहनी सबसे पहले बँधी होती है जिस पर घी का ‘यारगा’ लगाते हैं. फिर नीचे फूल की टहनी बांधते हैं.

अनेक रंगों में छपी हुई ये ध्वजाएं पताका वीरपुर-डुंडा के घरों से ले उत्तरकाशी के जाड़ बहुल इलाके में लहराती -फरफ़राती दिखाई दे जातीं हैं. इन ध्वजाओं में सबसे ऊपर नीला रंग आकाश का प्रतीक है जिसके बाद हवा और बादल का सूचक है सफेद रंग तो इसी क्रम में अग्नि का प्रतीक लाल रंग, फिर धरती, खुशहाली और हरियाली का संकेतक हरा रंग जिसके आखिर में पीला रंग जो धरती की माटी को प्रदर्शित करता है. विविध इन्हीं रंगों से लहराती हैं ध्वजाएं.

राशि के रंगों के आधार और क्रम से तारजौक लगाए जाते हैं. तारजौक में ‘चे’ आकार के मन्त्रबद्ध कपड़े के टुकड़े लगा इसे विधिवत प्रतिष्ठित किया जाता है.तार जौक के वस्त्र पर ‘ओ३म मनी पद्मे हुं’ के साथ तिब्बती भाषा में अनेक मन्त्र लिखे होते हैं.फिर भगवान बुद्ध का जप ‘ओ३म मुनि मुनि महामुनिये स्वाहा’ मन्त्र द्वारा किया जाता है तो पद्मसंभव का जप ‘ओ३म हुम् वज्रगुरु पद्म सिद्धि हुं’ मन्त्र से किया जाता है. फिर जप होता है तारा देवी या ‘डोलमा’ का जिनका मन्त्र है ‘ओ३म तारे तुतारे तुरे स्वाहा’.
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जाड़ जनजातीय समाज धार्मिक दृष्टि से हिन्दू व बौद्ध धर्मावलम्बी है जिसके विविध रीति रिवाजों का समुच्चय यहाँ के पर्व त्योहारों में दिखाई देता है.

जाड़ समाज मुख्यतः तीन भागों में विभक्त है जिसमें प्रथम क्रम में आते हैं “छियाङ ” जो मुख्यतः ऊन के कारोबारी रहे.इनकी उपजातियों में नेगी, रावत, भंडारी, राणा, बिष्ट, रमोला आदि मुख्य हैं. फिर दूसरे वर्ग में आते हैं “फिया” या “फियाङ” जो पशुपालन व ऊन का काम मुख्यतः करते हैं.तीसरे क्रम में आते हैं बुनकर या जुलाव जुलाहे जिससे इन्हें “जिलो” कहा जाता है. इनमें कोली इत्यादि सम्मिलित हैं. सामाजिक संबंधों के स्तर पर पहले दो वर्गों से इनका तालमेल सीमित रहा है.आरम्भ में जिलो हिमाचल के बुशाहर व कुल्लू के साथ सांगला, कुन्नू -चारंग, मोरंग, ठाँगी आदि प्रांतों व इलाकों में बुनकर का काम करते रहे . जाड़ों में कोली बुनाई का काम करने टिहरी रियासत के टकनौर, रामा -सिराई, बड़कोट व बाड़ाहाट आते रहे और अन्य आर्थिक व्यावसायिक गतिविधियों में भी संलग्न रहे.

जाड़ों ने अपनी आर्थिक व कर्मकांड की जरूरतों को ध्यान में रख धराली व मुखबा के बाजगी तथा झुमरियों को अपने साथ किया जो उनकी खेती -पाती और पशु पालन में सहयोग देते थे साथ ही खेती के औजार और रिंगाल का सामान बनाने में भी कुशल थे. पर्व -उत्सव, धार्मिक आयोजन पर ढोल बजाने में सिद्ध हस्त थे जिसके लिए इन्हें अलग से इनाम बक्शीश, डडवार मिलती थी.

जनपद उत्तरकाशी में निवास कर रही जाड़ जनजाति समूह में हिमाचल से आए समूह के साथ यमुनोत्री के खरसाली, दुरबिल, कुठार, निशणी, पिंडकी, मधेश व बिफ गावों के पशुचारकों की संख्या अधिक रही है जिनके अलग अलग थोक च्छोङसा में बसते रहे. भटवाड़ी से ऊपर टकनौर के इतर निवासी ‘बुडेरा’ के नाम से जाने जाते रहे. जाड़ जनजाति इस प्रकार छियांङ व फिया के मिश्रित समूह के रूप में उभरी.
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पिथौरागढ़ से उत्तरकाशी की तीस मील की चौड़ाई में महाहिमालय की ऊँचाइयां बीस हजार फुट की अस्सी से अधिक चोटियों में विस्तृत हैं. इस महाहिमालय का जो उत्तर-पश्चिमी छोर है वहां नीचे संकरी घाटियों में बहती है जाड़-गंगा. जाड़-गंगा के करीब जांस्कर हिमालय में बसे हैं निलांग और जादोंग ग्राम. जाड़ गंगा के महागर्त का जो शीर्ष है उस पर 17,490 फुट पर जेलू खागा य सांग-चोकला की चोटी है तो 12,948 फुट पर थागला की दो चोटियां जिन पर हमेशा बर्फ जमी रहती है. इसी भैरों घाटी के परे जाड़ गंगा के जो गांव हैं वहां जाड़ों में खूब बरफ गिरने से पहले ही उच्च दुर्गम पर्वतों से उतर जाड़ वासी निचली घाटियों में आ जाते हैं.

उत्तरकाशी में हिंदी के प्रोफेसर सुरेश ममगाई अपने बीस वर्ष के इस इलाके में किये शोध कार्य व सर्वेक्षण के आधार पर बताते हैं कि –

इन रहवासियों की ये ‘प्रवासी आटविक घोषयात्रा’ है. सारे पशु- पियू (बछिया ), पेदू (बछड़ा) लेंयू (बैल ) फूता-मूता (घोड़ा-घोड़ी ) खि और पुशी (कुत्ता और बिल्ली) साथ में याक की असल और संकर नस्लेँ जिन्हें जौँ-जिमो, जावो-जबू, तोल्मू-तौल्बू साथ हैं. कुछों के साथ क्यांग (जंगली गधा) भी. रास्ते में ओड्यार (गुफा) में रात काटते वहीं गिबू (चूल्हा) जलाते, डू (अनाज) पकाते, बांगी (चिलम) में तांक (तम्बाकू) सुलगाते तोंगा (जाड़े की ऋतु) काटने उतर आए हैं ला-शी-गु (पर्वत चोटी) पांगा (बुग्याल) से नीचे तराई के इलाके भोपाल पाणि और चोर पाणि तक. अपने ऊपर के इलाकों, गुनसा के सब काम काज निबटा अब निचले इलाके के मुख्य बौर की ओर आ रहे हैं जहां मनाया जायेगा बहु प्रतीक्षित लोसर.

ऊँचे इलाके से जाड़ों में निचले इलाकों में आते अपनी ईष्ट रिंगाली देवी की पूजा होती है तब जा कर अगले साल के छह महिने कार्य व्यापार से जुड़ेंगे. पशुचारण मुख्य है, फिर खेती है, कुटीर धंधे हैं, लेन -देन व्योपार है. यहाँ के लोक जीवन के आयाम बहुविध हैं जिनसे वह सांस्कृतिक व सामाजिक परंपराएं विकसित हुईं जो यहाँ के रहवासियों की थात बन विकसित होती रही है. इन सब में मुख्य है लोसर.
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गढ़वाल में मनाये जा रहे प्रकाश-पर्व ‘बग्वाल’ की भांति लोसर सारी बसासात में गीत-संगीत-नृत्य का माहौल रच देता है. हर घर की देली पर जा जा बच्चे -किशोर अपने सुमधुर कंठ से गाते हैं गीत :

तरंग ता मेरंग मे खे
खांगमा तैमे सेर जुल ख्ये

आज और जो समय आने वाला है उसमें आपकी घर-कुड़ी सदैव सोने से चांदी से भरी रहे. ऐसा ही रिवाज (ठिम) है. अपने अपने घर (डांङसा ), मकान (पांगमा) में खड़े आदमी (मी), बूढ़े-बूढ़ी (ग्याबु-गेन्मु ), बहन-छोटा भाई (टिगमू-मिगमू ), बेटा-बेटी (टू-पू ) मेहमा (डुल्वा) पडोसी (डांग्रोआ) अपने-पराये (रेई-मिया )सब इस मिलन (थुक्जा) में बैर-दुश्मनी-झगड़ा (ठुकपा-मिथुना-ठुक-ठुक) छोड़ नये साल की शुरुवात में नये साफ सुथरे कपड़े पहन एकत्र होते हैं.

साल के पहले दिन इस पर्व की प्रतीक्षा में हर परिवार खूब तैयारी करता है. घर को लीप-पोत, साफ-सुथरा करना होता है. छह महिने तक के प्रवास के बाद अपने मकान (पांड़मा) में लौटने के बाद सब कुछ साफ स्वच्छ किया जाता है. उनका यह विश्वास है कि अब तक के जो भी दुख कष्ट विपदा है वह आने वाले साल में कट जाएगी.
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लोसर की शुरुवात साल के आखिरी दिन से शुरू होती है. रात को ही आटे के गोलाकार पिंड बनाए जाते हैं जिन्हें घर के हर सदस्य के सिर से पाँव तक छुवा कर ‘ढिलो-ढिलो’ जपते उसमें सिर का बाल लगा, कपड़े का टुकड़ा रख उसमें ऊँगली का निशान बनाया जाता है. इस बीच ‘ढिलो-ढिलो’ का जाप करते रहते है जिसे बुरी नजर सा बचाने वाला माना जाता है. वर्ष भर की पूजा के लिए घी, गुड़ और सत्तू को मिला कर उस आटे से मूर्ति बनाते हैं. साथ ही बलि की मूर्ति बनती है जिसे छोपा कहते हैं. इनमें माखन के बेल-बूटे बनाते हैं. इस तरह ये सत्तू की मूरत बनती है. रात को जो आटे के पिंड बनते हैं उनमें लाल मिर्ची, काली दाल और रूपये के सिक्के (जो पहले गिलट का होता था) रखे जाते हैं साथ में घर में बने भोजन का कुछ भाग भी साथ में रखा जाता है. अब उस इलाके के सभी घरों से घर के सभी सदस्य अपने अपने घर से इस सामग्री को चीड़ की लकड़ी के छिलुके सुलगा कर उस अग्नि में समर्पित कर देते हैं.

लोसर की पहली रात को ‘तोंड़’ कहते हैं और सुबह को ‘छे’ कहा जाता है. इस दिन ध्याणियों को बुलाया जाता है और उनके आवाहन हेतु उनको भेट-दक्षिणा प्रदान की जाती है. इस दिवस पर छँग बनाना बहुत शुभ माना जाता है. लोसर के अवसर पर भी छँग का अतिशय सेवन किया जाता है. इस समुदाय की मान्यता है कि लोसर से एक दिन पहले अगर परिवार में शिशु का जन्म हो तो अगले ही दिन उसे एक वर्ष का मान लिया जाता है. लोसर का दूसरा दिवस परिवार के ईष्ट – मित्रों के साथ मनाया जाता है. तीसरे दिन रिंड़ाली देवी के मंदिर में पूजा अर्चना कर सामूहिक भोज होता है. रात्रि में गीत-नृत्य के दौर चलते रहे हैं.

लोसर के बहुविध स्वरूप इसके स्थानिक विवर्तन में दिखाई देते हैं जिसमें पहाड़ के निवासी अपने ईष्ट बुद्ध की विधिवत पूजा अर्चना के साथ विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम, पारम्परिक प्रदर्शिनी व पुरातन रीति रिवाज संस्कारों का सामूहिक प्रदर्शन करते हैं. लोसर के आयोजन पर्यटन गतिविधियों में लोकप्रिय बन रहे हैं.
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प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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