समाज

एटकिंसन ने क्या लिखा है लोहाघाट के बारे में

काली कुमाऊं परगना और रगडुबान पट्टी में एक गांव और पुरानी फौजी छावनी हैं जो चम्पावत से 6 मील दूर लोह नदी के किनारे है. लोहाघाट छिरापाणी से 10 मील उत्तर में, बेपाल सीमा से 15 मील और अल्मोड़ा से 35 मील पूर्व में है.

29 डिग्री, 24 मिनट और 2 सैकेंड अक्षांश उत्तर और 80 डिग्री 7 मिनट और 53 सैकेंड देशांतर पूर्व में स्थित लोहाघाट की समुद्र तल से ऊंचाई 5510 फीट है. लोहू या लोहावती नदी यहां से 20 मील नीचे जाकर काली नदी के दाएं किनारे से मिलती है.

1872 में लोहाघाट की आबादी 96 थी जो भारत की पहली नियमित जनगणना (1881) के दौरान 154 थी इस समय यहां महिलाओं की संख्या 64 थी.

आस-पास देवदार के पेड़ों से घिरा लोहाघाट एक समतल और घास वाले ऊंचे-नीचे हिस्से में बसा है. यहां पहले एक सैनिक छावनी हुआ करती थी लेकिन यहां पहुंचने में होने वाली कठिनाईयों और मैदानी क्षेत्र से यहां आने वाली सड़क के आस-पास अच्छी जलवायु न होने के कारण बहुत पहले ही यहां छावनी बंद कर दी गयी.  

यह पश्चिम की ओर करीब तीन मील घाटी क्षेत्र में खुला है लेकिन दूसरी तरफ बहुत ऊंचे पहाड़ खड़े हैं.यहां छावनी के बैरक और बंगले अभी भी खड़े हैं जिनकी मरम्मत होते रहती है.

यहां की जलवायु स्वास्थ्य के लिये लाभदायक मानी गयी है लेकिन नये लोगों में सामान्य किस्म की कब्ज क शिकायत देखी गयी है. स्थानीय लोगों में बुखार, गठिया, गल्गांठ और तीव्र नेत्र-प्रदाह बीमारियां पाई जाती हैं.

यहां चम्पावत वाले ग्रेनाईट पत्थर गायब हैं उनकी जगह यहां खड़ी संस्तर वाली नीली स्लेट मिलती है, इनमें स्फटिक भी है. यह मैदान उत्तर की ओर धीरे-धीरे उठता जाता है और तीन मील दूर घास वाली पहाड़ी झूम है, इससे होकर पिथौरागढ़ के लिये रास्ता जाता है. यह चोटी दक्षिण में खिलपती से जुड़ी है.

सुई के पास देवदार के झुरमुट विशेष रूप से सुंदर हैं और लगता है कि ये पेड़ यहां सदियों से फैले हुए हैं लेकिन न तो यहां न कुमाऊं में कहीं ओर इस पेड़ों क स्थानीय पेड़ माना जा सकता है. कुमाऊं में देवदार के पेड़ केवल मंदिरों और गावों के चारों ओर मिलते हैं, खुली पहाड़ियों पर नहीं.

यहां से पिथौरागढ़ के दो रास्ते जाते हैं एक कालाकोट गांव होते हुए धुर्याड़ा से और दूसरा नया व् बेहतर रास्ता है जो रैकोट होते हुए छिड़ा जाता है.

रैकोट में मिस्टर लायल के चाय-बगान और अन्य दो चाय-बागानों की देखभाल अच्छी तरह होती है और उत्पादन भी अच्छा होता है, लेकिन बाजार से दूर होने की वजह से ज्यादा लाभ नहीं मिल पाता है. यहां से एक पुल से लोहू नदी पार कर चम्पावत साढ़े छः मील और द्यूरी 15 मील है और चल्थी में लधिया नदी पार कर जनकपुर (टनकपुर) 15 मील है.

1886 में प्रकाशित एटकिंसन की ‘द हिमालयन गजेटियर’ का हिन्दी अनुवाद.  पहाड़ पत्रिका से साभार .

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Girish Lohani

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