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मुल्क की हिफाज़त की कीमत चुका रहे हैं पिथौरागढ़ के गाँवों के लोग

हेम पंत मूलतः पिथौरागढ़ के रहने वाले हैं. वर्तमान में रुद्रपुर में कार्यरत हैं. हेम पंत उत्तराखंड में सांस्कृतिक चेतना  फैलाने  का कार्य कर रहे  ‘क्रियेटिव उत्तराखंड’ के एक सक्रिय सदस्य हैं .  

देश की आंतरिक सुरक्षा और बाहरी खतरों के कारण अब हर तरफ चौकसी बरती जा रही है. सेना प्रतिष्ठान खासतौर से कड़ी सुरक्षा के घेरे में आ गए हैं, इस कारण पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय के आसपास सैन्य छावनी के चारों तरफ बसे हुए लगभग 20 गांवों के लोगों को बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. कड़े सुरक्षा नियमों के कारण लगभग 25 हजार ग्रामीणों के सामान्य दैनिक कार्य प्रभावित हो रहे हैं. पिथौरागढ़ शहर से 5-7 किलोमीटर की दूरी पर बसे भड़कटिया, कुसौली, कासनी, कुमडार, कोटली, रुईना, लेलू, तिलाड़, तरौली, जामड़ आदि गांवों के लोग इस समस्या के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं.

पिथौरागढ़ सैन्य छावनी मुख्यालय के पास स्थित गांव भड़कटिया के युवा प्रधान योगेश जोशी के अनुसार पिछले पांच-सात सालों से सेना द्वारा अधिग्रहित क्षेत्रों में जाने पर रोक के कारण इन गांवों के लोगों के पशुपालन, खेती, धार्मिक कार्यक्रम और बच्चों की स्कूली शिक्षा-खेलकूद जैसे महत्वपूर्ण क्रियाकलापों पर असर पड़ रहा है. गांवों को आपस में जोड़ने वाले कई रास्ते सेना द्वारा बन्द कर दिए गए हैं. अभी कुछ साल पहले तक ही खाली जगहों पर ग्रामीणों द्वारा पशुओं को चराने और घास काटने पर कोई रोकटोक नहीं थी, लेकिन अब अधिकांश इलाकों में गेट और तारबाड़ लगने के कारण इन सभी गतिविधियों पर पूर्ण रूप से पाबंदी है. बच्चों के स्कूल और खेल के मैदान जाने के रास्तों पर भी सेना के गेट बन गए हैं. सैन्य क्षेत्र से लगे हुए मंदिरों में सार्वजनिक पूजापाठ के लिए भी सेना के अधिकारियों से लिखित अनुमति लेने की जरूरत पड़ती है. रात के समय अपने गांव जाने वाले लोगों को परिचय पत्र न होने पर सेना द्वारा पूछताछ के नाम पर कई बार पुलिस थाने तक भी पहुंचाया गया है.

इस इलाके के वरिष्ठ नागरिक बताते हैं कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद सरकार द्वारा इस सीमांत जिले में सैनिक छावनी बसाने के लिए बहुत ज्यादा जमीन अधिग्रहित की गई. पूरे देश में जनसंख्या घनत्व के आधार पर सबसे अधिक सैनिक (कार्यरत व सेवानिवृत्त) पिथौरागढ़ जिले से ही आते हैं. देशभक्ति और सैनिक बहुलता के कारण लोगों ने भविष्य की चिंता किए बगैर बहुत ही कम कीमत पर खाली पड़ी जमीनें सेना को सौंप दी, जिसमें पशुओं के गोचर (चारागाह), जंगल और गाज्यो (घास) पैदा करने के इलाके भी थे. जब तक रोक-टोक नहीं थी तो कोई खास समस्या पैदा नहीं हुई, लोग खाली जगहों को घास काटने और गाय चराने के लिए उपयोग कर लेते थे, खाली मैदानों पर बच्चे खेल सकते थे. लेकिन सीमांत इलाका होने के कारण यह बहुत संवेदनशील क्षेत्र मान लिया गया.

सेना द्वारा धीरे-धीरे आम जनता की सामान्य गतिविधियों पर रोक लगाई गई और अब स्थिति यह है कि सार्वजनिक पूजा के लिए अपने पुश्तैनी मन्दिर जाने के लिए भी सेना से लिखित अनुमति लेनी पड़ती है. 15 अगस्त को आयोजित होने वाले ग्रामीण खेलकूद आयोजन भी सेना की अनुमति के बाद ही संभव हो पाते हैं. भड़कटिया और खतेड़ा गांव के बीच कई गांवों को जोड़ने के उद्देश्य से ‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना’ के अंतर्गत बनी सड़क पर सेना द्वारा गड्डा खोद दिया गया, क्योंकि सड़क छोटा सा हिस्सा सैन्य क्षेत्र में पड़ता था. इस विवाद के कारण यह सड़क बेकार पड़ी हुई है.

इस मसले का एक दुखद पहलू यह भी है कि इस सख्ती के कारण महिलाएं और बच्चे अधिक प्रभावित हुए हैं. खेती-पशुपालन, लकड़ी-घास के लिए महिलाओं को ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है और बच्चे भी स्कूल और खेल के मैदान में आने-जाने के लिए दिक्कत का सामना कर रहे हैं. इन गांवों के जनप्रतिनिधियों द्वारा सेना के साथ बातचीत के माध्यम से इस समस्या का समाधान निकालने के कई प्रयास किए गए हैं, लेकिन सुरक्षा कारणों से सेना कोई ढील देने के पक्ष में नहीं दिखती. ग्रामीण जनता से बातचीत करने पर महसूस होता है कि अब यहां के ग्रामीण संगठित होकर कानूनी लड़ाई लड़ने का मन बना रहे हैं.

 

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