इक्कीसवीं सदी के बहुत प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी और हिब्रू यूनिवर्सिटी युरोशलम में प्रोफेसर युवाल नोवा हरारी अपने एक लेख में बताते हैं – मनुष्य हमेशा से उपकरणों के आविष्कार करने में माहिर रहा है उन्हें उपयोग करने में नहीं. 1950 के दशक में जब आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की खोज हुई तो वैज्ञानिकों का सपना इसके द्वारा मानव मस्तिष्क को पूरी तरह रिप्लेस कर देने का था. मगर आज आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस पूरी तरह से एलीट क्लास अमीरों के हाथों में है जो इसका उपयोग दुनिया को इसकी लत लगाने और उससे लाभ कमाने में करता है. इससे मुझे आज का अपने आस पास का परिदृश्य नजर आता है.
(Article by Kamlesh Upreti)
हमारे सरकारी विद्यालय आज सूचना जुटा रहे हैं कि कितने बच्चों के पास स्मार्टफोन है? कितनों के पास लैपटॉप, टीवी, डीटीएच है, कितनों के पास इंटरनेट कनेक्शन सहित स्मार्टफोन हैं और कितने रेडियो या बेसिक फोन वाले हैं और कौन ऐसे हैं जिनके पास कोई डिजिटल डिवाइस नहीं है.
इस सारी कवायद के पीछे उद्देश्य यह कि कैसे भी ऑनलाइन शिक्षण की पृष्ठभूमि तैयार करने में सहूलियत हो सके. मगर इसके पीछे बहुत सारे गहरे विरोधाभास छुपे हैं. जिससे मूल मकसद जिसे शिक्षा कहा जा रहा है वह नेपथ्य में चली गई है.
डिजिटल शिक्षा या ऑनलाइन शिक्षा के लिए शिक्षा के मूल तत्व या कंटेंट की जितनी समझ चाहिए उतनी ही उसे संप्रेषित करने वाले डिजिटल उपकरणों को हैंडल करने की तकनीकी दक्षता और इस सारी प्रक्रिया में गुणवत्ता होनी जरूरी है, जो कहीं भी नहीं दिखाई देती है. ऑनलाइन शिक्षण के नाम पर एक व्हाइट बोर्ड में कैमरा फोकस करके दो चार सवाल लगा देना और बोरियत भरी आवाज़ में उसे सुना देना यही सब टी वी चैनलों पर दिख रहा है.
हमारी कक्षाओं का वास्तविक स्वरूप भी अगर केवल बोर्ड और अध्यापक के व्याख्यान मात्र से चले तो वे भी नीरस हो जाती हैं, फिर एक स्क्रीन पर यह एक आध घंटे चलता रहे तो बच्चे इसमें रुचि लेंगे यह संदिग्ध है. फिर अभिभावकों की शिकायतें कि स्मार्टफोन पर ऑनलाइन टीचिंग की ओट में बच्चे अपनी मन पसंद गेम और कार्टून बगैर ज्यादा देख रहे हैं. इसका क्या समाधान हो सकता है हम नहीं जानते.
(Article by Kamlesh Upreti)
दूसरी जरूरी बात कि इस सारी कवायद में पढ़ना लिखना और पढ़ने की तल्लीनता और इसमें रस लेना यह सब गायब हो गया है. हमारे समाज की पढ़ने लिखने की आदत कितनी है यह किसी से छिपी नहीं है, हमारे घरों में महीने की खैनी तम्बाकू का खर्च पूरे साल की किताबों पर खर्च से ज्यादा है. जिस तरह के परिवारों से हमारे सरकारी स्कूलों के बच्चे आते हैं वहां पर स्कूल से मुफ्त मिली किताबों के अलावा कोई लिखित सामग्री नहीं होती, उन्हें हम डिजिटल बनाने का सपना देख रहे हैं.
अब जब ऑनलाइन शिक्षण का इतना अधिक हव्वा बन चुका है कि उन परिवारों की प्राथमिकता बदल गई हैं, एक मामूली से स्मार्टफोन भी 6 से 8 हजार की कीमत का है जिस कीमत पर घर में ही एक बेहतरीन लाइब्रेरी बन सकती हैं, शायद उसे भी काफी कम में. हर माह के इंटरनेट बाउचर की कीमत कमसे कम 250 रुपए है, इस कीमत पर एक अच्छी सी बाल पत्रिका साल भर के लिए मिल सकती है.
एक मामूली सी टीवी भी 6 से 10 हजार के बीच आती है उस पर डेढ़ से दो सौ का डीटीएच खर्च. हम करना क्या चाह रहे हैं हमें खुद नहीं मालूम. हमने पूरे समाज की चिंताएं और प्राथमिकताएं पूरी तरह से बदल कर रख दी है.
(Article by Kamlesh Upreti)
हम इस बात को समझें कि यह दुनिया में कुछ प्रभावशाली कंपनियों, संस्थाओं और व्यक्तियों के एकाधिकार की शुरुआत है जिनका मकसद आपको हमें या समाज को शिक्षित करना नहीं बल्कि आपको दी गई किसी भी डिजिटल सेवाओं के बदले भारी मुनाफा कमाना ही हो सकता है. वरना क्या कारण है कि जहां दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं धराशाई हो रही हैं और उनकी जीडीपी ऋणात्मक जा रही हैं वहीं कुछ कंपनियां और घराने इसी दौर में और ज्यादा अमीर हो रहे हैं. उनकी संपत्ति में यह बढ़ोतरी अभूतपूर्व है.
यह एक कल्याणकारी राज्य का तो उद्देश्य हो ही नहीं सकता. मगर हम इस मकड़जाल में फंसते ही जा रहे हैं. एक देश जो ठीक से पढ़ने लिखने की संस्कृति ही विकसित नहीं कर पाया है उसे हम अचानक उठाकर डिजिटल बना देना चाहते हैं. हम चाह रहे हैं कि एक परिवार जो मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा है उसके बच्चे अचानक हाथ में स्मार्टफोन मिलते ही खुशी और आश्चर्य से उछलते हुए उसकी चमक दमक में न खोकर सीधे उस पर शिक्षण सामग्री डाउनलोड करेंगे और ई बुक्स पढ़ना शुरू कर देंगे. क्या स्मार्टफोन कम्पनियों ने यूट्यूब, फेसबुक, वॉट्सएप या पब्जी जैसे प्लेटफॉर्म ज्ञान बांटने के उद्देश्य से बनाए हैं?
हमारे देश के अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग रोज नियम से वॉट्सएप फेसबुक पर गुड मॉर्निंग, जय शनिदेव प्रेषित करते हैं, फेक न्यूज पोस्ट करते हैं, 20 लोगों को शेयर करो चमत्कार होगा, जैसी चीजें पोस्ट करते हैं, तो नई नई डिजिटल हुई पीढ़ी से क्या हम ये उम्मीद करें कि वे इस माध्यम को शिक्षण का औजार बनाएगी?
मैं अपने आस-पास देखता हूं लोग स्मार्टफोनों पर फ़ूहड़ गाने बजाए हुए चले जा रहे हैं, दस दस की टोलियां बैठी हैं लड़कों की सड़क किनारे, स्मार्टफोन पर मुंडी गढ़ाए कहीं किसी और ही दुनिया में खोए हैं, वे एक दूसरे के इतने पास बैठे हैं पर कोई बात नहीं आपस में. हर हाथ में डिजिटल डिवाइस होने के बाद का नज़ारा क्या होगा सोचकर ही डर लगता है.
(Article by Kamlesh Upreti)
डिजिटल माध्यम आज हमारे लिए साधन नहीं साध्य बन गए हैं. वे सीखने में सहायक एक निश्चित सीमा तक ही हो सकते हैं, वो भी तब जब उनका इस्तेमाल पाठ्य पुस्तकों, रिफरेंस बुक्स और कक्षा शिक्षण के साथ सावधानी से किया जाए. मगर सबकुछ सिखा देने और कुछ नया करने की अफरा तफरी में इसके भयंकर दुष्प्रभावों पर सोचने की कोई जहमत नहीं उठता दिख रहा.
शिक्षा का लक्ष्य हर बच्चे के हाथों में स्तरीय पुस्तकें पहुंचाना, बच्चे को उसके परिवेश से सीखने के अवसर देना, दुनिया के प्रति उसको संवेदनशील बनाना, अपने घर परिवार और समाज के काम आने वाला बनाना ही तो होता है.
एक स्मार्टफोन में डूबा हुआ नकारा जिसकी आंखों में मोटा चश्मा चढ़ा हो और जो किसी से बात करना तक पसंद न करता हो अगर आपकी आने वाली पीढ़ी में ऐसा कोई हो जाए, तो दोष आपका ही है जो आज आपने अपनी प्राथमिकताएं तय नहीं की और अंधी दौड़ में खुद को धकेल दिया.
इस कवायद के विरोधाभास स्टीव जॉब्स जो कि दुनिया को डिजिटल बनाने के महारथी रहे थे उनके एक इंटरव्यू से समझा जा सकता है जिसमें वे बता रहे थे कि उनके घर पर कोई डिजिटल डिवाइस बच्चों के लिए उपलब्ध नहीं है वे घर के कामों में मदद करते हैं किताबें पढ़ते, प्रकृति के बीच घूमते और बात-चीत करते हैं, खुद जॉब्स शांति बोध और अध्यात्म की चाह में उत्तराखंड के साधु नीम करौली की शरण आते हैं. उन्हें एप्पल जैसे एकछत्र साम्राज्य की रचना करते समय इसके दुष्प्रभाव का अंदाजा रहा होगा तभी तो वे ऐसा किए होंगे.
डिजिटल दुनिया आज कुछ शक्तिशाली घरानों और कम्पनियों की मुट्ठी में है. जिनमें माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, फेसबुक, अमेज़न, ट्विटर जैसी नामी (और काफी हद तक अपनी बाज़ार रणनीतियों के कारण बदनाम भी) प्रमुख हैं. इनके बर्चस्व को हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि इन पर कई सरकारों तक को बनाने गिराने तक के आरोप समय समय पर लगते रहे हैं.और ये सब विश्व में आज डिजिटल ज्ञान के प्रसार के महारथी बने हैं. इनकी नीयत को हम कैसे पाक साफ और निस्वार्थ समझ लें.
(Article by Kamlesh Upreti)
इस डिजिटल मकड़जाल से निकालना पूरी तरह संभव न भी हो मगर कल्याणकारी राज्य का मकसद यदि हर बच्चे तक रोचक किताबें पहुंचाने का हो वे उन्हें पढ़े, छुएं, उनके चित्रों पर बात करें और आपस में पढ़े हुए को साझा करें. और ये बहुत कठिन काम नहीं है इसके लिए उन्हें स्मार्टफोन, टीवी, मोबाइल टॉवर, इंटरनेट कुछ नहीं चाहिए, बस चाहिए सुकून और शांति युक्त एक कौना, एक सुरक्षित और स्वस्थ परिवेश, जीवन जीने की बेहतरीन परिस्थितियां, आज के लिए भोजन और भविष्य के लिए सुरक्षा की चिंता से मुक्ति, क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए ये सब इंतजाम कर पाए हैं?
आज जिन पिताओं से रोजगार छिना है वे डिजिटल दुनिया में कैसे सर्वाइव करेंगे क्या हम सोच रहे हैं. अगर नहीं तो ये सारी कवायद बंद होनी चाहिए जिसके लिए इंसान बस एक आंकड़ा है, और आंकड़ों को कोई भी किसी भी तरह इस्तेमाल कर सकता है बशर्ते उनमें चमक दिखाई दे.
(Article by Kamlesh Upreti)
कमलेश उप्रेती
पिथौरागढ़ के रहने वाले कमलेश उप्रेती शिक्षक हैं. शिक्षण क्षेत्र की बारीक़ समझ रखने वाले कमेलश को उनके ब्लॉग कलथर में भी पढ़ा जा सकता है.
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