रामलीला मंचन के शुरुआती वर्षों में प्रकाश व्यवस्था के लिये चीड़ के पेड़ के छिल्कों का प्रयोग किया जाता था. कच्चे पतले पेड़ों को काटकर रामलीला मंच के चारों ओर गाड़ दिया जाता और छिल्कों के गुच्छों को उनमें ऊपर से नीचे तक इस तरह बाँध दिया जाता कि ऊपर वाला गुच्छा बुझने से पहले नीचे वाले को जला दे.
कुछ समय बाद छिल्कों का स्थान बिनौले वाली रूई मोटी-मोटी बत्तियों ने ले लिया. रूई बांटकर इसे बड़े आकार के हुक्कों में रख दिया जाता और पैंदा बंद कर सरसों का तेल भरकर बत्तियां जला दी जाती. बिनौले वाली रूई नेपाल से मंगाई जाती थी.
पचास के दशक में पैट्रोमैक्स का प्रयोग होने लगा था. तब केवल पेट्रोमैक्स कम्पनी ही मिट्टी तेल की गैस बत्तियां बनाती थी इसलिये गैस बत्तियां पेट्रोमैक्स कहलाई.
मंचन में मुसीबत तब आती थी जब गिनी-चुनी गैस बत्तियों में से भी दो तीन एक साथ धप-धप कर दगा देने लगती. कभी-कभी तो इन्हें ठीक करने मंच में अभिनय कर रहे कलाकारों को खुद आना पड़ता. इसतरह गैस बत्ती की मरम्मत भी रामलीला मंचन का एक भाग था.
1956-57 में पोलर के आने के बाद प्रकाश व्यवस्था में सुधार आया. टिन के बड़े कनस्तरों को त्रिकोणीय आकृति में काटकर रिफ्लेक्टर के रूप में प्रयोग करने का सिलसिला हमने शुरू किया.
इन दिनों पिथौरागढ़ में रास्तों पर प्रकाश व्यवस्था भी मिट्टी के तेल के लैम्पों से ही होती थी. बाजार के कुछ प्रमुख चौराहों पर ये लैम्प खंभों पर हुआ करते. हर शाम टाउन एरिया कमेटी का एक कर्मचारी आकर इनकी चिमनियां साफ़ करता, मिट्टी तेल भरता और चला जाता.
पिथौरागढ़ की रामलीला में प्रकाश व्यवस्था की बात अधूरी रहेगी अगर लच्छी राम मिस्त्री का जिक्र न किया जाये तो. वह नगर के एक मात्र ऐसे तकनीकी व्यक्ति थे जो बच्चों के लिये तार की गाड़ी बनाने से लेकर नगर की पेयजल व्यवस्था के संचालन और संदूक से लेकर बंदूक तक की मरम्मत का काम करने की योग्यता से संपन्न व्यक्ति थे. रामलीला में प्रकाश व्यवस्था भी उनके ही जिम्मे थी.
यह लेख पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक में छपे महेंद्र सिंह मटियानी के लेख का अंश है. काफल ट्री ने पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से यह लेख साभार लिया है.
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