प्रो. मृगेश पाण्डे

पहाड़ में परंपरागत भूमि प्रबंध और कर प्रणाली का सम्पूर्ण इतिहास

उत्तराखंड में भूमि प्रबंधन व राज्य को चलाने के लिए आगम के प्रमाण कत्यूरी राजाओं के समय से मिलते हैं. कत्यूरी नरेशों के काल में खेतीबाड़ी, जंगलात और खनन आगम प्राप्ति के मुख्य स्त्रोत थे. खेत बाड़ी की निगरानी का जिम्मा क्षेत्रपाल के द्वारा किया जाता तो जमीन की नापजोख का दायित्व ‘प्रभाकर ‘ द्वारा संभाला गया. वहीं जमीन के अभिलेख ‘उपचारिक’ के पास रहते थे जिसे ‘पट्टकोष चरिक’ भी कहा गया.
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 कत्यूरी नरेशों ने भूमि की नाप के लिए जो तरीका अपनाया उसमे बोये गये बीजों के आधार पर नाप की जाती रही. इसके लिए ‘दूण’ या ‘द्रोण’ तथा ‘पाथा’ या ‘नाली’ का प्रयोग किया जाता रहा.एक नाली की माप दो सेर या नौ पाथा के समतुल्य थी. इस प्रकार ‘द्रोणा बापम’ के साथ ‘नालीबापम’ अथवा एक नाली बीज वाली भूमि के आधार पर जमीन की नाप की गई. दूसरी तरफ ‘खंड पति’ वह अधिकारी कहा गया जो खनिज और वनों की देखरेख किया करता. पहाड़ के लोहे, ताँबे और स्वर्ण चूर्ण तथा स्वर्ण पीपली की मैदानी इलाकों में बहुत मांग थी तो बांस, रिंगाल, व भोज पत्र. भेड़ो से प्राप्त ऊन, जंगलों से इकट्ठा किया गए शहद और सीमांत की जड़ी बूटियों की बेहतर पूर्ति थी जिससे इन जिंसों व वस्तुओं का खूब व्यापार होता था. राजा के लिए ये आगम प्राप्त करने के मुख्य स्रोत होते. जिसके लिए लोक वित्त की संरचना बनी. कर की वसूली ‘भोगपति’ तथा ‘शौल्किक’ के द्वारा की जाती. खेती बाड़ी तथा पशुओं से प्राप्त उपादान के तय शुदा हिस्से पर राज्य कर वसूलता लेता. प्रजा से बेगार या ‘बिष्टि’ वसूलने के लिए ‘चार-प्रचार’ नाम के अधिकारी तैनात रहते.

चंदो के शासन के समय भूमि के मालिक को थातवान कहते थे. थात से आशय होता जमीन. जमीन से मिलने वाले लगान में ‘खायकर’ और ‘सिरतान’ का महत्व था. खायकर उसे कहते जो जमीन कमा कर दे साथ ही रकम अर्थात मालगुजारी भी दे. खायकर अनाज और नकदी दोनों देता तो सिरतान वह असामी होता जो बस नकद रूप में कर देता. ऐसे ही ‘कैनी’ खेतों में काम करने वाले गुलाम होते. मोल लिए हुए नौकरों को ‘छयो’ कहा जाता।.चंद राजाओं के समय थातवान के द्वारा छत्तीस प्रकार के कर राजकोष में जमा करवाये जाते. थातवान अपनी थात को आसानी से नहीं छोड़ता चाहे जमीन कोई भी कमा रहा हो वह मालगुजारी हर हाल में जरूर वसूलता. वह अपनी भूमि दूसरे को कमाने के लिए दे सकता था. तब ये थातवान के खायकर हो जाते और ‘सिरती’ तथा ‘ज्यूलिया’ राज कर देने को मजबूर हो जाते. थातवान ज्यादातर खस राजपूत होते वहां जो जातियाँ उच्च होती वह ‘गखरा’ कहलाती थीं. इसमें भी ‘कैनी’ और ‘छयोडे’ होते.

थातवान तब कैनी हो सकता था जब राजा जमीन का संकल्प करके ब्राह्मण को दे देता या लड़ाई में वीरगति प्राप्त करने वालों को रौत में देता. यह तब भी संभव होता जब राजा अपने दरबारी या अन्य किसी प्रिय को जमीन जागीर में दे देता. इनमें से कोई भी बात होने पर थातवान जागीर पाने का पात्र या कैनी हो जाता. जब थातवान अपनी थात को छोड़ना चाहता तो वह थात की कुछ मिट्टी या वहां की भूमि से एक पत्थर उठा उसमें एक पैसा रख राजदरबार में राजा के सामने थात से अलग किए जाने की विनती करता. किसी भी थातवान को बलपूर्वक कैनी नहीं बनाया जा सकता था. अगर वह कैनी बनना ही चाहे तो वह गरखा के पद से अवनत हो जाता और उसका हुक्का पानी बंद कर दिया जाता. उसके साथ शादी ब्याह की भी मनाही हो जाती. जमीन को त्यागने पर वह गरखा माना जाता. जिनके पास रौत और जागीर होती तभी वह अपने को रौत और जागीरदार कहते. ब्राह्मण खायकर और सिरतान नहीं माने जाते.

चंद शासन के समय खायकर निकाले जा रहे थे. उनकी संतान बिना थातवान और मालिक की मर्जी के खायकारी नहीं पा सकती थी. कर अनाज के रूप में दिया जाता पर कोई पक्की लिखा पढ़ी नहीं होती. ऐसा भी होता कि खायकर को थातवान की नौकरी भी करनी पड़ती. वहीं कैनी को थातवान की नौकरी करनी होती. वह थातवान के घर उसके बर्तन मलता. घर भर के कपड़े धोता. मालिक को एक से दूसरी जगह डांडी में ले जाता. राठ में किसी के मर जाने पर शवदाह हेतु लकड़ी मुर्दाघाट तक ले जाता. थातवान और राजा की मौत होने पर सिर भी मुंडवाता यानी उसे राजा के बनाए सारे आदेश मानने होते. यदि कैनी काम न करे तो उसे दंड दिया जाता. थातवान कैनी को बेच भी सकता था पर बिना जमीन के नहीं. छ्योड़ा को जब चाहे तब दूसरे को बेचा जा सकता था.

राजा और जमीन से कमाने वालों के मध्य और भी ऐसे कर्मचारी होते थे जिनका जमीन पर हक होता था. पाली में इनको सयाना कहा जाता. पाली के चार सयानो में दो मनराल, एक बिष्ट और एक बंगारी होता था. इसी तरह काली कुमाऊं में यह चार थे, तड़ागी, कार्की, बोरा और चौधरी. इस इलाके में महर और फर्रत्याल के दो धड़े होने से ये चार के बदले आठ बनाए गये थे. दारमा और जोहार में एक बूढ़ा होता था. बूढ़ों और सयानों का पद थोकदार के नाम से जाना जाता. कमीन का पद भी होता था जिसे वेतन मिलता पर उसका गाँव में हक न होता.वह राजा को भेंट, बेगार और बर्दायस देता.

काली कुमाऊं में बूढ़ों को जो अधिकार मिले थे वह सयानों की तरह ही होते व यहाँ के बूढ़ों से राज काज में सलाह ली जाती दूसरी तरफ जोहार और दारमा में बूढ़ों को विशेष अधिकार न थे.थोकदारों को सयानों और बूढ़ों से हीन माना जाता, न तो वह ढोल नककारे व निशान रख सकते थे और न ही राज्य प्रबंध में उनकी सलाह ली जाती. काली कुमाऊं में सयाने नक़कारे निशान रख सकते थे. कालान्तर में राजा बाज बहादुर चंद ने दारमा और जोहार में बूढ़ों को इन्हें रखने का हक दे दिया.
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काली कुमाऊं में मनराल सयाने नक़कारे-निशान रख सकते थे. सयाने गाँव की थात में भोजन पाने का हक रखते थे. हर दूसरे साल हर घर से सयाने को एक रुपया मिलता था. वह त्योहारों में भी अपने घर के खर्च का सामान लेता था. सयाने कर की वसूली करके राजकोष में जमा करते थे.

हर गांव में एक पधान होता जो मालगुजारी वसूल करता और पुलिस का काम भी उसी के जिम्मे होता. पधान के नीचे कोटल होता जो पधान का सहायक होता तथा उसके लेखक का काम करता.साथ ही एक प्रहरी होता जो गावं की चौकीदारी करता.उसका काम सरकारी चिट्ठी पत्री ले जाना व पहरा देने के साथ बाकी छुटपुट काम करना होता. ज्यादातर ये हरिजन होते और उनको हर मौ या परिवार से फसल के बखत अनाज और पर्व त्योहारों में कुछ दस्तूरी मिलती. उसी से इनका गुजारा चलता घर परिवार पलता.

मालगुजारी वसूलने के नियम काफी कठोर होते. कर में माफ़ी मिलना व कर अपवंचन मुश्किल होता था. विशेष परिस्थिति जैसे अकाल के समय ही इसकी रकम में माफ़ी दी जाती थी.राजाओं की आय सिर्फ मालगुजारी से ही नहीं बल्कि व्यापार, खनन, जंगलात से मिलने वाली आय और कानूनी कार्यवाही में लगे कर से भी प्राप्त होती थी.

रूद्र चंद के बाद राजा लक्ष्मी चंद के बड़े भाई शक्ति गुसाईं ने राजस्व नीति में बड़े सुधारात्मक परिवर्तन किए इससे करापात बढ़ा व कराघात में कमी आई. उसने नये तरीके से दारमा घाटी की राजस्व नीति निर्धारित की जिसमें शौकों के नये अधिकार और कर्तव्य तय किए गये. इस बंदोबस्त के एवज़ में कई तिब्बत से लाई गई वस्तुओं को राज दरबार में पहुँचाने का अनुबंध हुआ. राजकर के साथ सिरती की शर्तें भी तय हुईं और राज्य की सीमाओं में पत्थर के संकेत पट्ट लगाये गये. भूमि पर अनेक प्रकार के नये कर लगे जिनके नाम ज्यूला, सिरती, बैकर, रछया,रतगलि, बखरिया, सीकदार -नेगी, कनक, साऊ, कूत, भात इत्यादि थे. राजधानी में बंदोबस्ती कार्यालय खुला. दो प्रकार की कचहरी बनायी गईं. जो ‘न्योवाली’ अर्थात न्याय वाली समस्त जनता के लिए और ‘बिष्टाली’ केवल सैनिक मामलों की जाँच -पड़ताल के लिए होती थीं. राज्य कर्मचारियों में परगने का शासक ‘सरदार’, सेना का अधिकारी ‘फौजदार’ व राज्य के छोटे कर्मचारी ‘नेगी’ होते. नेगी को दस्तूरी या नेग अनाज के रूप में मिलता था उन्हीं के द्वारा नागरिक प्रशासन भी चलाया जाता रहा.

तदन्तर राजा बाज बहादुर चंद ने कैलास मानसरोवर की यात्रा करने वाले तीर्थ यात्रियों के लिए 1673 ई. में गूंठ भूमि दान में दी. गूंठ वह भूमि होती थी जिससे मिलने वाली रकम से मंदिरों की उचित देखरेख के लायक का व्यय प्राप्त हो जाता तथा उनकी समुचित व्यवस्था की जाती. गूंठ भूमि दान देवालयों के पुजारियों को किया जाता था. बाज बहादुर चंद ने भोटिया और शौका व्यापारियों के द्वारा तिब्बत को जो दस्तूरी दिए जाने का रिवाज था पर भी रोक लगा दी. इससे तिब्बत के व्यापारी असंतुष्ट हो गये. उन्होंने राजा से यह बात कही तो उनकी परेशानी व व्यापार पर पड़े नुकसान को देखते इस प्रतिबन्ध को हटा लिया गया. लोक कल्याण की भावना से जो भी साधु सन्यासी, परिज्रावक व तीर्थ यात्री कैलास मानसरोवर जाते थे उनकी सुख सुविधा, खाना कपड़ा और मार्ग में टिकने की व्यवस्था के लिए पर्याप्त रकम मिलती रहे जैसी व्यवस्था के लिए पांच गांवों की मालगुजारी भी तय की. बाज बहादुर चंद ने व्यांस घाटी के दर्रों में अपना अधिकार कर तिब्बतियों से कई शतें तय कीं जिनसे व्यापार भी फले फूले और राज्य की आमदनी भी बढ़े. भोटिया व्यापारियों के साथ हुणियों या तिब्बतियों को इस बात के लिए बाध्य किया कि वह ‘सिरती’ नाम का कर चुकाऐं. सिरती कर का भुगतान नकद में किया जाना तय किया.

इसी तरह सोने के चूर्ण जिसे ‘फेटांग’ कहते थे पर भी कर लगा. कस्तूरी सी मूल्यवान वस्तु, नाभा तथा दैनिक प्रयोग हेतु अनिवार्य लूंण या नमक पर भी कर लगाया गया. इतिहासकार डॉ श्याम लाल के अनुसार बाज बहादुर चंद का राज्य काल आर्थिक दृष्टि से समृद्धि की ओर गया. उसके बाद उद्योत चंद, ज्ञान चंद गद्दी पर बैठे. कुमाऊं के राज्य का स्वर्ण काल तब आया जब राजा जगत चंद का राज्य स्थापित हुआ. तब समूचा राज्य क्षेत्र धन-धान्य से परिपूर्ण था. सिर्फ तराई भाबर से ही नौ लाख रुपये की आमदनी होती थी.

कहा जाता है कि चंद राजाओं ने ‘छत्तीस रकम और बत्तीस कलम’ वाले अनेक कर लगाये थे. जगत चंद की मृत्यु के बाद उसका बड़ा सुपुत्र देवी सिंह गद्दी पर बैठा जिसे देवी सिंह गुसाईं ज्यू भी कहा गया. इनके बाद अजीत चंद, दीप चंद, मोहन चंद. प्रद्युम्न चंद, शिव चंद और चंद राजवंश का आखिरी राजा महेन्द्र चंद कुमाऊं की गद्दी पर बैठा. चंदों में लक्ष्मी चंद ऐसा राजा था जिसने इतने अनाप शनाप कर जनता पर थोप दिए कि जनता इन करों के भार से परेशान हो गई और लोगों ने खेत के बजाय अपने घरों की छत पर मिट्टी डाल कर साग-पात उगाना शुरू कर दिया ताकि वह राजस्व अधिकारियों की नजर से बच जाएँ और क्यारी में उगाई सब्जी पर कर देने की बेवकूफी का विरोध भी जता सकें. पर जनता को तो अभी कर के नाम पर ज़्यादती का एक लम्बा दौर भोगना था.

फिर शुरू हुआ गोरखा राज. गोर्खाओं की स्पष्ट सोच थी कि राजकोष के भरे रहने से ही राज पाट आर्थिक समृद्धि की ओर बढ़ सकता है. अतः अपने आगम स्त्रोत की वृद्धि के लिए उन्होंने अपनी रैयत पर अनेक किस्म के कर लगाये. हालांकि लक्ष्मी चंद के समय के कई हास्यास्पद और फिजूल कर हटा दिए गये तो इसके साथ कई नये कर जबरन थोप दिए गये.
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उत्तराखंड में कुमाऊं के इतिहास की प्रामाणिक खोजबीन करने में डॉ श्यामलाल ने अथक परिश्रम किया. डॉ राम सिंह की भांति वह भी गाँव-गाँव भटके, जगह-जगह से प्राचीन सामग्री एकत्रित की, ताम्रपत्रों को खोजा. और सिलसिलेवार कुमाऊं के नरेशों की आर्थिक नीतियों व राजस्व प्रणाली का विवेचन किया.उनके पुत्र पंकज प्रियदर्शी ने यह अनुसंधान जारी रखा और सुदूर के राजकीय महाविद्यालयों में प्राध्यापक रहते अपने पिता की तरह अपना रचनात्मक योगदान इतिहास के उन विस्मृत पन्नों की खोज बीन पर लगाया जो अभी तक सामने नहीं आए थे. यह सभी लोग बिना किसी सरकारी अनुदान, यू जी सी व आई सी एच आर की छोटी या बड़ी परियोजना के मिले भी कंधे में झोला डाल, गावं वालों के घर ठहर सीमांत का कोना कोना टटोलने वाले थे और इनके पास इतना वक़्त भी नहीं था कि अपना प्रचार करने वाली सभा-संगोष्ठी-सेमिनार की अग्रिम पंक्ति में माला डलवा और शॉल उड़वाने की योग्यता हासिल कर सकें.

डॉ पंकज प्रियदर्शी लिखते हैं कि गोरखों ने जो नये कर लगाये उनमें बामनों यानी ब्राह्मणों पर लगाया ‘कुसही’ नामक कर मुख्य था. यह ‘तेरह ज्यूलिया’ यानी दो सौ साठ नाली तक जमीन हथियाये हुए ब्राह्मणों पर लगाया गया और इसकी दर पांच रुपये प्रति मवासा थी. इसी तरह कुमाऊं और गढ़वाल में छत पर चढ़ने वाली महिला को दण्डित करने के लिए जुर्माने के रूप में भी कर लगाया गया. गोरखा बौद्ध व हिन्दू दोनों ही धर्मों के अनुयायी थे. उनकी सनदों में शक्ति की देवी दुर्गा की पूजा का उल्लेख मिलता है. ‘दुर्गमन’ राक्षस का वध करने से वह दुर्गा कहलाती थीं. ‘दशाई’ या दशहरे के दिन गोरखा अपना सबसे बड़ा त्यौहार मनाते थे और अपने हथियारों जैसे खुकरी, भुजाली, छुरी, तलवार और खांडे की विधिवत पूजा करते थे व भेंसे, खांडू, मेढ़े, बकरे की बलि चढ़ाते थे. कुमाऊं में उन्होंने अनेक मंदिरों को गूंठ में जमीन चढ़ाई थी. पिथौरागढ़ में उल्का देवी मंदिर की स्थापना की थी तो चम्पावत के बालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार किया था. कुमाऊं गढ़वाल में कई मंदिरों को सदावर्त के लिए दान किया व इनमें सदावर्त चलाया था. इनमें गुरुड़ जाती के लोग मोसट्या देवता को अपना ईष्ट मानते थे. गोरखा शारीरिक शक्ति में अपार बल के धनी थे. सामान्यतः शिष्ट व नम्र होते थे पर पढ़े लिखे व ज्यादा बुद्धिमान नहीं होते थे. पढ़ाई लिखाई की बात होने पर कहते, “क्या भन्याँ के जानयूं नें?” यानी क्या जानूँ यह उन्हें कुछ नहीं पता.

कुमाऊं में जो गोरखा राजा राज पाट चलाये वह बहुत कठोर और रूखी भाषा बोलते थे. उनका लोक व्यवहार भी उग्रता व मनमानी से भरा दिखता था. स्थानीय महिलाओं के प्रति भी वह शिष्ट न थे व उनके सैनिक प्रायः ऐसी ओछी हरकत कर देते जो असहनीय होती. जब गोरखों के अभद्र व्यवहार की शिकायत उनके राजाओं तक पहुंची तब इस छींटाकशी कि औरतों के साथ उनका चाल चलन अशोभनीय है गोरखा राजा ने औरतों को उनके घर की छत पर आने में भी कर थोप दिया ताकि न तो वो बाहर निकलें न गोरखे सैनिक-सिपाही उन्हें देखें. उन्होंने अपने राज में बेगार और बर्दाश्त जम कर ली जनता को कोई रियायत न दी फिर चाहे उनकी प्रजा के बामण हों या शिल्पकार.

गोरखों ने अपने राज में जो कर लगाया उन में शुभ अवसरों और शादी ब्याह पर ‘टीका भेंट’ नामक शुल्क लगता था. उत्सवों पर होने वाले खर्च पर भैंस और बकरे के रूप में ‘सोन्याफागुन’ लिया जाता था. यह उत्सवों का खर्चा था जो फागुन, सावन व दशाई पर व्यय के लिए लिया जाता था. जागर लगाने वाले बामनों और शिल्पकारों से लिया जाने वाला कर ‘मिझारी’ कहलाता था. भूमि पर ‘पुंगाडी’ लगता था इससे प्राप्त आगम से सैनिकों का वेतन भुगतान होता था. गोरखा राजा इस मद से लगभग डेढ़ लाख रुपये सालाना रकम प्राप्त करते थे. हर बीसी भूमि पर एक रुपये का ‘सुवांगी दस्तूर’ लिया जाता था हर परिवार पर दो रुपये का कर ‘भौँ ‘कर कहलाता था. यह चंद राजाओं ने भी लगाया था. इसे ‘घरही-पिछही’ भी कहा जाता था.दुधारू पशुओं के मालिकों से ‘घीकर’ लिया जाता था. घर में छुपाई गई संपत्ति पर ‘बहता’ नामक कर लगाया जाता था. जमीन औ जायदाद के हस्तान्तरण में जिसे जमीन का स्वामित्व मिलता वह ‘पगरी’ या ‘पगड़ी ‘ नाम का कर एकमुश्त भुगतान करता. यह राज्य की आय का एक मुख्य साधन बना. खास जमींदारों से ‘अधनी दफ़्तरी’ लिया जाता रहा जो राजस्व विभाग के कारिंदो के वेतन में व्यय होता. हिन्दू और भोटिया बुनकरों से ‘टान कर’ लिया जाता था. इसे तान या कपड़ा कर भी कहते. ढाई आना मेजबानी का दस्तूर तय था. गावं छोड़ कर भाग गये लोगों पर ‘रहता’ नामक कर उन्हें पकड़ वसूला जाता. राज्य के कर्मचारियों से लगान की जानकारी लेने पर ‘जान्या -सुन्या’ नाम का कर लगता था. जिसका अर्थ था जानना व सुनना. राज्य के वह निवासी जिनके पुत्र न हों उन पर ‘मरो’ नामका कर लगता. काश्तकारों से कर ‘ठेका बंदी’ के आधार पर वसूला जाता.शुद्ध घी पर भी ‘घ्यू ‘ कर लगता था.. हर भैंस पर साल में एक बार कर देना होता. कपड़ा बुनने वाले कोलियों से भी कर वसूली की जाती.

जमीन पर कर की दर कम होती. उपरांऊ की भूमि पर एक तिहाई हिस्सा राज कर लिया जाता. तो तलाऊँ जमीन पर आधा हिस्सा कर वसूली होती.जिन खदानों में खनन होता उन पर कर लगता जो वजन के हिसाब से लिया जाता. सिरती कर की दर काफी कम होती.तराई भाबर में गाय चराने पर भी कर ले लिया जाता.

गोरखों से पहले चंद राजाओं के समय से ही राजकोष में आगम बढ़ाने के वास्ते जिससे राजा का शासन सुचारु रूप से चले अन्य कर भी लगाये गये जिनमें ‘मौ’ कर और ‘गृह’ कर मुख्यतः शामिल थे. कुल मिला कर इन सबका नाम “छत्तीस रकम और बत्तीस कलम” था. कुल मिला कर कहा जाता था कि अड़सठ तरह के कर हैं पर व्यवहार में ये इससे कम ही वसूले जाते कारण यह था कि जिस व्यक्ति, मद, वस्तु या सेवा पर करापात किया जा रहा होता वह कर के प्रकार के अस्पष्ट होने से पकड़ में न आता. कुल पैदावार का कहीं एक तिहाई तो कहीं दो बटा पांचवा हिस्सा ‘कूत ‘ के रूप में ले लिया जाता. कूत के रूप में चावल ही लिए जाते. एक बीसी जमीन में छब्बीस मन चावल और दस मन गेहूं पैदा होते थे. एक बीसी जमीन एक एकड़ में बीस गज कम जमीन होती थी. कूत खायकर के द्वारा दी जाती जो इसके साथ राजा को भेंट भी दिया करता.

कर की वसूली भी दो तरह से की जाती. एक साल जमीन से कर तय कर की वसूली अनाज के रूप में होती तो दूसरे साल व्यक्तिगत रूप से जनता से कर वसूला जाता. चंद राजाओं ने गूंठ में भी बहुत सी जमीन चढ़ाई. अकेले कुमाऊं की बीस फीसदी उपजाऊ भूमि गूंठों में चढ़ी थी.

गोरखों के राज में करों के अलावा बखसीस, ऊपरी रकम, कल्याण धन, केरु, घररू, खुना, जैसे कर भी लगाए गये थे. गोबर और पूछिया नाम के कर भी लगते थे. पहाड़ के पशुचारकों से “दोनिया” नामक कर हैड़ी और मेवाती भाबर में वसूला जाता. जो आदमी राज्य के द्वारा लगाये करों को न चुकाता, कराघात करता, आनाकानी करता उसे पकड़ कर मैदान की मंडियों में ले जा दस से ले कर तीस रुपये में बेच दिया जाता था. इन लोगों को ज्यादातर जोहार व दारमा के व्यापारी खरीद लेते थे. इनसे वह भेड़ों की खाल से ‘करबज’ या थैले तैयार करवाते और बिक्री के लिए जम्बू, गंधरेणी, नमक और सुहागा इत्यादि के साथ आलू भरवाते. भोटिया व्यापारियों के यहाँ जो खस और नामगी बसे हैं वह इसी खरीद के जरिये सुदूर इलाकों में आए. इनमें शौकाओं के पुरोहित या बामण “नामगी” भी शामिल थे.

पहाड़ के सीमांत में व्यापार की एक समृद्ध व सुव्यवस्थित प्रणाली विद्यमान रही थी. कुमाऊं में ब्रिटिश शासन से पहले सन 1776 में जॉर्ज बोगले और सन 1814 में विलियम मूरक्राफ्ट ने तिब्बत का दौरा किया था और ईस्ट इंडिया कंपनी को यहाँ से किए जाने वाले लाभों के बारे में रपट दी थी. सन 1815 में जब जॉर्ज विलियम ट्रेल कुमाऊं के द्वितीय कमिश्नर हुए तब उन्होंने तिब्बत के साथ व्यापार का गहराई से निरीक्षण किया. उन्होंने व्यापार पथों में सुधार करवाया. पारगमन कर व कस्टम ड्यूटी हटा दी.तिब्बत को निर्यात की जाने वाली वस्तुएं जो इंग्लैंड में बनी होती थीं अब पहले समुद्री मार्ग से आयात हो कलकत्ता पहुंची. फिर यहाँ से वह तिब्बत को भेजी जाने लगीं. कोलकत्ता के भंडार से इन वस्तुओं को काशीपुर के व्यापारी और अल्मोड़ा के साह बनिये तिब्बती व्यापारियों को उपलब्ध कराते. ट्रेल के द्वारा कस्टम ड्यूटी व पारगमन हटाने से प्रशुल्क राशि तो जरूर कम हुई पर भारत तिब्बत व्यापार काफी बढ़ा. तिब्बत व्यापार और व्यापारिक गतिविधियों के कुछ अनोखे नियम थे.कत्यूरी राजाओं के शासन में व फिर चंद राजाओं के द्वारा कुमाऊं के सीमांत पिथौरागढ़ में मल्ला अस्कोट परगने के व्यांस, चौंदास और दारमा से लगान और कर वसूला जाता था. भारत, नेपाल और तिब्बत की सीमा के भीतर पड़ने वाले सात गावों बूदी, गर्बयांग, गुंजी, नपलच्यू, नाबी, रौगकौग तथा कुटी गाँव शामिल थे जो ब्यासी कहलाते. नेपाल के दो गाँव छाँगरु और तिंकर भी इसी घाटी में आते. गर्मियों में यहाँ के निवासी अपने गाँव में रह खेती बाड़ी करते और मवेशी पालते. साथ ही ‘किदंग’ या तिब्बत प्रान्त में तिब्बती व्यापारियों से वस्तु विनिमय द्वारा व्यापार करते. तब इस व्यापार में कोई रोक टोक न थी. तिब्बत में तिब्बती राजाओं का राज था. तिब्बती राजाओं के हुक्म से उनके एजेंट यहाँ गांव में आ कर टैक्स वसूली करते. इस टैक्स वसूली को “ठल” कहा जाता. नाबी गाँव में श्री अजय नबियाल के मकान जिसे ‘कुलदेवी’ के स्थान की मान्यता मिली को आज भी ‘ठल -चिम’ कहा जाता है.कर को ही ठल कहा जाता.

ठल कई रूपों में एकत्रित होता. तिब्बती एजेंट किसी परिवार से रुपया तो किसी से अनाज की वसूली करते. यही नहीं ठल के रूप में पूरी व ‘सल’ या कोयला भी वसूला जाता. वसूले गए ठल को बही में चढ़ाया जाता जिसे ‘थ्वक’ कहा जाता. ठल की वसूली हर साल होती.

विलियम मूरक्राफ्ट सन 1814 में। हेनेरी स्ट्रेची 1843 व 1848 ई. में कुमाऊं के कमिश्नर रहे चार्ल्स शेरिंग के द्वारा सीमावर्ती इलाकों से तिब्बत की यात्रा के बाद जो मानचित्र प्रकाशित हुए उनमें पश्चिमी तिब्बत के इस क्षेत्र को ‘वेस्टर्न तिब्बत ‘, ‘खोरसुम’ और ‘हूण देश’ के नाम से सम्बोधित किया गया. इन्हीं इलाकों से तिब्बत से नमक, सुहागा व ऊन इत्यादि के साथ जौ और ‘ऊवा’ गयमरा या पत्थी आती जिसका सत्तू बनता जो नमकीन चाय के साथ लिया जाता. व्यापार के नियम और कर -प्रशुल्क के तरीके बहुत सरल और रोचक होते. जैसे कि नमक के व्यापार में तिब्बती व्यापारी हर साल अपनी हजारों भेड़ बकरियों की पीठ पर बंधी थैलियों में नमक लाद कर शौका व्यापारियों के गर्मियों वाले आवास स्थल पर आते और पहले से तय शुदा व्यापारी मित्र के साथ विनिमय कर व्यापार की क्रिया संपन्न करते. नमक के बदले ऊवा जिससे सत्तू बनता की अदल -बदल होती. बदले में गेहूं चावल का भी प्रयोग किया जाता. नमक का भार भेड़ -बकरी में लादे जाने वाले थैले जिसे करबछ या ‘खेमणी’ कहते की संख्या के आधार पर तय होता. थैली की संख्या के साथ उसका दस प्रतिशत ‘गेबल’ ऊन भी शौका व्यापारी द्वारा लिया जाता. एक तिब्बती भेड़ से करीब एक सेर ऊन एक बार में निकलता जिसे गेबल कहते. इस हर गेबल ऊन का मूल्य शौका व्यापारी को चार से आठ आने अलग से भी भुगतान करना पड़ता था. इस प्रकार नमक के लेन-देन के साथ उसे तिब्बती व्यापारी ‘एक अनाज के बदले चार नमक’ का भाव देते और बहुत कम कीमत पर ऊन का दुहरा लाभ हो जाता. अगर किसी शौका व्यापारी के पास अदल -बदल के लिए पर्याप्त मात्रा में अनाज न हो तब वह किसी अन्य शौका व्यापारी से इस अदल- बदल की व्यवस्था कर देता. इस दशा में उसे तिब्बती व अपने शौका व्यापारी से किए गए कुल व्यापार का लाभांश मिल जाता.व्यापार की यह पारम्परिक प्रथा जिसमें नमक, ऊन और अनाज का पारस्परिक विनिमय या अदला-बदली होती को ‘सोग -ला-सोग ‘ या “देबिन” कहते.
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व्यांस घाटी में आने वाले गाँव-बूदी गर्बयांग, नाबी, नपलच्यू, गुंजी, रॉन्ग कोंग तथा कुटी के निवासियों के बीच कई बार सीमा विवाद होता रहता था. ऐसे मौकों पर गाँव की पंचायत और न्यायालय के सामने मामले जाते थे जिससे समस्या का समाधान संभव हो. 1872 में कुमाऊं के साथ-साथ इस घाटी में भी पहला बंदोबस्त किया गया था जिसकी अध्यक्षता विकट के द्वारा की गई. इसलिए इसे विकट के बंदोबस्त के नाम से भी जाना जाता रहा. विकट के बंदोबस्त से गांव की सीमाएं निर्धारित हुईं. इस प्रकार तय की गई सीमाओं को “चक्रनामा” कहा जाता था. व्यांस घाटी में स्थित ग्राम नाबी और गुंजी के मध्य 1872 में हुए विकट के बंदोबस्त के समय सीमा रेखा खींची गई जो “यंगतीकंग पार रि राम से जन तिप्पालेख होते हुए कुंडकं तक” निर्धारित की गई.. इसी के साथ गुंजी और गर्बयांग के निवासियों के बीच कालापानी की जमीन को ले कर भी विवाद था जिसे विकट के बंदोबस्त से सुलझाया गया.

कालापानी वह स्थान था जहां भारत, नेपाल और तिब्बत की सीमाएं मिलती थीं. विकट के बंदोबस्त ने गर्बयांग और गुंजी गाँव के साथ तिब्बत, नेपाल और भारत की सीमा को निम्न प्रकार सुलझाया गया:

गर्बयाल गुंजयाल का सीवाना सिनडुब्बडुब से गधेरा –गधेरा,
कुंडक से गधेरा –गधेरा तिप्पा लेख
जहां गर्बयाल एवं नबियाल का सिवाना है.
तिप्पा लेख से डॉडा -डॉडा गरीफू,
गरीफू से डॉडा –डॉडा लिपुलेख जहां भारत, तिब्बत का सिवाना है.
तिप्पा लेख से डॉडा –डॉडा छाता लेख जहां भारत, तिब्बत का सिवाना है.
लिपुलेख से डॉडा -डॉडा छाता लेख (ॐ पर्वत ), टाई जक्सन जहां भारत तिब्बत और नेपाल का सिवाना है.
छाता लेख ॐ पर्वत से डॉडा –डॉडा डांप्या लेख जहां भारत नेपाल का सिवाना है

पूर्व में नेपाल सरकार द्वारा जब कालापानी की सीमा को ले कार विवाद हुआ तब विकट के बंदोबस्त के अंतर्गत खींची गई सीमा रेखा चक्रनामा को नेपाल और भारत के अधिकारियों के शिष्ट मण्डल के सामने रखा गया जिससे स्थिति स्पष्ट हो सके.
(Land Management and Taxes in Uttarakhand)

व्यांस घाटी से जाड़ों में धारचूला की ओर प्रवास होता. प्रवास या अल्पकालीन विस्थापन को ‘कुंचा’ कहा जाता. अपने गावों से चलते सारे पालतू पशु भेड़ बकरी, गाय, बैल, खच्चर, घोड़ा साथ होते. धारचूला में पर्याप्त चारागाह न होने के कारण नेपाल के दारचुला जनपद के इलाकों दयोथला, लेकम, हरसिंगा बगड़, रायसौ तक पहुँच जाते. इन गांवों में इन परिवारों के रहने की ठौर होती. मकान, आंगन और पशुओं के चरने की जमीन भी. इन जमीनों पर उनका स्वामित्व होता जिसका लगान नेपाल सरकार को चुकाया जाता. प्रवास में आने पर अपने साथ के हर जानवर के हिसाब से वह कर चुकाते थे.सामान पर कोई कर नहीं लगता था. यहाँ आने के लिए किसी परिचय पत्र की जरुरत भी नहीं पड़ती थी. नेपाल नरेश की ओर से व्यास घाटी के निवासियों के लिए पंचायत की व्यवस्था थी व साथ ही उन्हें प्रधान और सदस्य चुनने के अधिकार भी मिले थे. मत देने के अधिकार के साथ उन्हें वहाँ की नागरिकता भी प्राप्त थी. भारत में रहते हुए वह अपनी यहाँ की जमीन का कर यहाँ के राजा को चुकाते थे. हर गाँव में मालगुजार या पधान होता जो लगान इकट्ठा करता. इस तरह व्यांस घाटी के लोग तिब्बत के राजा, नेपाल नरेश और अपने देश का कर व लगान चुकाते थे. इसी कारण व्याँसी बहुत अभिमान से कहते कि ‘इन सुम राजा गै रइतो ल्हिने’. मतलब यह कि, ” हम तीन राजाओं को लगान देने वाली जनता हैं”.

अँग्रेजी हुकूमत के समय नेपाल सीमा पर जौलजीबी, बलुआकोट, धारचूला और सीतापुल गर्बयांग में लकड़ी के अस्थायी पुल वार-पार जाने के लिए बनाए गए थे. इन पुलों से जानवर ले जाने पर हर जानवर पर टैक्स की वसूली की जाती थी. इसे ‘जगात’ कहते थे. हर साल जगात की वसूली कर उसे नेपाल नरेश को सौंपा जाता था. पहले दार्चुला में स्थायी रूप से कर वसूलने के लिए माल विभाग का कार्यालय नहीं था. बाद में नेपाल सरकार ने भारत से आवागमन होने वाले पुलों पर अपने ‘भन्सार’ या कस्टम कार्यालय खोले जिनसे कर की वसूली होती थी.

चंद राज्य वंश में रूद्र चंद की भूमि सनदों में हर गाँव व उसमें आने वाली जमीन का जिक्र किया गया है. चंद राजाओं ने नये रूप में सामाजिक-आर्थिक कार्य विभाजन किया था व इसके लिए ‘धर्म निर्णय’ नामक ग्रन्थ की रचना कराई गई थी.इसमें ब्राह्मणों के गोत्र व उनके पारस्परिक संबंधों का अंकन भी किया गया था.ब्राह्मणों में उच्च ब्राह्मणों ‘चौथानी’ की मंडली उसी तरह बनाई जैसे गढ़वाल में सरोला या रसोइया ब्राह्मण होते थे. इससे निचले क्रम में तिथानी या पचबिड़िये फिर हलिये या पितलिए रखे गये.राजा रूद्र चंद के समय में गुरु, पुरोहित, वैद्य, पौराणिक, सईस या बखरिया, प्रहरी, बजनिया, बाजदार व ताँबे का काम करने वाले टम्टा जैसे पद बनाए गये. सईस, साहू और रंगतली के लिए हर गाँव में दस्तूर तय हुए. ओले पड़ने पर सब को थाली बजा कर सतर्क करने वाले ब्राह्मणों का नया वर्ग ‘ओली’ बनाया. इसी तरह गांवों से अनाज के छटे भाग की वसूली कर राजधानी तक पहुँचाने के लिए, ‘कैनी -खसों’ का कार्य निर्धारित किया. घरों में काम करने के लिए, ‘छयोड़े’ तथा ‘छयोडियां ‘ रखवाई गईं.

सीरा डीडीहाट से राजा रूद्र चंद के जो भूमि सम्बन्धी दस्तावेज मिले उनसे यह पता चला कि उसने सीरा से मल्लों को पराजित कर पूरे सीरा परगने में भूमि का बंदोबस्त किया था. सीरा पर विजय प्राप्त कर अस्कोट, दारमा और जोहार भी उसके अधीन हुआ पर व्यांस-चौंदास की उपत्यका जुमला राज्य के अधीन ही रहीं. रूद्र चंद द्वारा बनाई गई भूमि सनदों में हर गाँव की भूमि सनद का जिक्र मिलता है.

1815 में गोरखों को हरा कर उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी के तले ब्रिटिश राज्य आरम्भ हुआ. गढ़वाल में ब्रिटिश गढ़वाल तथा टिहरी गढ़वाल राज्य के दो भाग बने. अलकनंदा के पश्चिमी भाग में टिहरी गढ़वाल राज्य बना जिसमें पूर्ववर्ती परमार राज्य वंश को फिर से स्थापित किया गया. दूसरी ओर अलकनंदा के पूर्वी भाग पर अधिकार कर उसे ब्रिटिश गढ़वाल नाम दे कुमाऊं कमिश्नरी में शामिल किया गया. उन्नीसवीं शताब्दी में कंपनी की प्रशासनिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण कार्य राजस्व प्रबंधन व लोक प्रशासन की नीतियाँ थीं. जॉर्ज विलियम ट्रेल ने कुमाऊं को  छब्बीस परगनों में विभाजित किया और 1823 में राजस्व ग्रामवार सीमाएं नियत कीं. 1825 से 1830 की अवधि में पटवारियों की संख्या अठारह से बढ़ा कर तिरसठ हो गई. पहाड़ों में पटवारी द्वारा बड़े जरुरी कार्य संपन्न किए जाते रहे जैसे कि लगान की वसूली करना किसानों को प्रवर्जन के लिए हतोत्साहित करना.स्थानीय स्तर पर लड़ाई झगड़ो के मामले सुलझाना, कोई दुर्घटना होने या आत्महत्या के जैसे मामलों में तुरंत तहसीलदार को इसकी जानकारी देना और किसी भी विवाद की स्थिति में सदर कचहरी को सूचना देना. उत्तराखंड में रेवेन्यू पुलिस के रूप में पटवारियों की भूमिका देश भर में अकेली रही और सफल रह एक मिसाल बनी. ट्रेल ने दीवानी और राजस्व व्यवस्था में काफी बदलाव किए थे उन्होंने भारत -तिब्बत व्यापार को व्यवस्थित करने के भी काफी प्रयास किए जिसमें उन्हें सफलता मिली.
(Land Management and Taxes in Uttarakhand)

1824 में सरकारी खजाने में ‘डबल लॉक’ व्यवस्था उन्हीं के द्वारा लागू की गई जिसमें खजाने की एक चाबी ट्रेजरर के पास व दूसरी कलेक्टर के पास रहती थी. बाद में कमिश्नर बैटेन के कार्यकाल में नया राजस्व बंदोबस्त किया गया जिसका खसरा सर्वेक्षण महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ. उन्होंने योग्य व प्रशिक्षित पटवारियों की तैनाती भी की. बैटेन के आठवें ऐतिहासिक बंदोबस्त को कुमाऊं और गढ़वाल में पूरा करने का श्रेय हेनरी रेमजे को जाता है. यह बंदोबस्त बीस साल के लिए किया गया तथा 1860 तक प्रभावी रहा.वरिष्ठ सहायक आयुक्त बैकेट को बंदोबस्त का काम सौंपा गया था. इसकी खूबी यह रही कि इसमें खसरा खेतों की पैमाइश की गई थी जबकि इससे पहले इस प्रकार की खसरा पैमाइश केवल राजस्व या दीवानी मुकदमों में विवाद होने की दशा में सत्यापन के लिए दी जाती रही थी.

रेमजे ने 1852 में कुमाऊं में कटौली की सदाव्रत भूमि के विवाद के सम्बन्ध में खसरा पैमाइश का प्रयोग किया था. इस बंदोबस्त की तारीफ यह थी कि इसमें,’ रिकॉर्ड ऑफ़ राइट्स’, ‘खसरा मुंतखिब’अर्थात सारे खेतों को सम्बन्धित कृषक के नाम के साथ सूची बद्ध करना, ‘तेहरीज और फाट’ अर्थात हर भूस्वामी के खेतों व उनके द्वारा दिए लगान और करों की स्थिति व विवरण को साथ ही साथ दिखा दिया गया था. इसके साथ ही भूमि को भी तीन श्रेणियों में बांटा गया था, पहली ‘तलाव ‘, दूसरी,’उपरांव’ तथा तीसरी,’ऊखर अव्वल ‘. इनमें तलाव स्थायी रूप से सिंचित भूमि अव्वल कहलाती थी तो दोयम ऐसी जमीन जो सिंचाई के लिए वर्षा और नदियों पर टिकी हो. दूसरी श्रेणी में उपरांव की जमीन आती थी जिसमें पहली श्रेणी की जमीन शुष्क सीढ़ी दार उच्च स्थल की तथा दूसरी दोयम में रखी जाती थी. तीसरे विभाजन में उस अव्वल के भी कई वर्ग बना दिए गये थे जैसे कि गांव से लगी ऐसी जमीन जो उर्वर होने के साथ ही उर्वरक तत्वों से भरपूर हो. दूसरी श्रेणी में गांव से सटी ऐसी जमीन जो पोषित तो की जा रही हो पर वह अधिक उपजाऊ न हो. इसी तरह गाँव के नजदीक की विषम जमीन ऊख दोयम कहलाती थी.ऊख सोयम सीढ़ीदार पर सिंचित होने के बावजूद घटिया होती. सिंचित पर बिना सीढ़ी दार घटिया भूमि, ‘कटील’ कहलाती. बैकेट बहुत चुस्त अधिकारी थे उन्होंने प्रत्येक पट्टी का व्यक्तिगत निरीक्षण किया था. ऐसी जमीनों का भी बंदोबस्त किया गया जो गूंठ, सदाव्रत और माफ़ी भूमियाँ थीं. बैकेट के बंदोबस्त में कुमाऊँ के 6,333 गांवों और गढ़वाल के 4,392 गांवों की पैमाइश की गई थी.

ब्रिटिश कुमाऊँ में भी भूमि को थात और भूमि स्वामी को थातवान कहा गया जो ‘मुक्त जोत क्षेत्र’ था अर्थात जहां उपज पर थातवान का अधिकार था.वहीँ थातवान के कृषक को खैकर कहा गया. ये खैकर भी दो तरह के थे, पक्के और कच्चे. पक्के खैकर वह थे जो पहले तो कभी भूमि के स्वामी हुआ करते थे पर अब जिनका भूमि पर से अधिकार समाप्त हो गया इसलिए कि उन्होंने अपनी जमीन बेच दी और अब उनकी हालत यह हो गई कि वह थातवान के यहाँ कृषक मजदूर की तरह काम करने की लाचारी से अपनी रोजी -रोटी चलाने के लिए मजबूर हों. दूसरी तरफ खैकर कभी भी भूमि स्वामी रहे ही नहीं. ब्रिटिश काल में सिरतान को बंदोबस्त अधिकारी उस कृषक का संज्ञान देते थे जो कृषि योग्य भूमि का वार्षिक भोगी न हो तथा जो भू स्वामी को साल भर किराया देता हो. इसे सिरती भी कहा गया. सिरतान का एक ऐसा वर्ग भी था जिसे मौरुसी सिरतान कहा गया. जिन पधानों व थोकदारों को अंग्रेजों ने नयाबाद अनुदान के अधीन बंजर या उजाड़ भूमि दी उसमें उनके असामियों ने विकास और सुधार के काम करवाये. उन्होंने खेती के साथ ही वहां जमीन का सुधार कार्य किया और फिर उनका कब्जा साठ साल या इससे अधिक हो गया हो. ये ही सिरतान कहे गये. अंग्रेजों के समय पहले तो यह चलन था कि इन सिरतानों को मुआवजा दे कर या क्षति पूर्ति द्वारा निष्काषित भी कर दिया जाता पर बंदोबस्त में यह कहा गया कि इन्हें निकाला नहीं जाएगा. इन सिरतानों को मौरुसी सिरतान कहा गया. ऐसे ही गांव के कारीगर, हलिया जिनको कहीं से ला कर गाँव में बसाया गया और कुछ जमीन नाम मात्र के किराये में उनकी सेवाओं के बदले दे दी गई. अब उन्हें भी सिरतान कहा गया. सिरतान के रूप में उन लोगों को शामिल किया गया जो उजाड़ और बंजर भूमि का विकास करें और कई सालों तक उस भूमि पर खेती कर रहे हों.

ब्रिटिश शासन ने कुमाऊँ व गढ़वाल पर पुरानी सामंती प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाए रखने के लिए भू राजस्व को बढ़ाने के नये प्रयोग कर दिखाए थे. उन्होंने पटवारी का पद सृजित किया जो भूमि प्रबंध व प्रशासन के साथ पुलिस का उत्तरदायित्व भी संभालता. पहाड़ के बीहड़ इलाकों में भी जहां सड़क व संचार की सुविधा न थी वहां पटवारी व्यवस्था ने ब्रिटिश साम्राज्य वादियों के आगम स्त्रोतों को खूब बढ़ा दिया. इसके साथ ही पटवारी -पेशकार -कानूनगो की त्रिमूर्ति ने आजादी की लड़ाई को कुचलने और जनता को भयभीत रखने के कई कुचक्र रचे.वहीँ जो उनके पिट्ठू रहे वह राय साहिब, राय बहादुर और माफीदार बन पुरस्कृत हुए.1837में जी. डब्लू ट्रेल की बनाई राजस्व पुलिस व्यवस्था आज भी उत्तराखंड के पहाड़ी भू भाग में बनी हुई है जिसने ग्रामीण इलाकों को पुलिस व्यवस्था से बचाये रखा है. यह सवाल बार बार उभरता है कि राजस्व प्रबंध की इस व्यवस्था ने क्या सच ही कुमाऊँ गढ़वाल की संस्कृति, परंपरा व लोक विरासत को विलुप्त होने से बचाये रखा है. थात यानी जमीन तो अभी भी बाहरी लोगों के लिए सबसे सुरक्षित निवेश बनी ही हुई है.
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प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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