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लाल बुरांश: एक उत्तराखंडी लोककथा

ज़माने पुरानी बात है. एक गाँव में किसान परिवार रहा करता था. इनकी एक ही बेटी थी. बड़ी होने पर उन्होंने अपनी बेटी का ब्याह कर दिया. विवाह के बाद तीज-त्यौहार, उत्सव-पर्व के मौके पर किसान दंपत्ति अपनी बेटी का बेसब्री से इन्तजार करने लगे. त्यौहार-पर्व आते और बीतते रहे मगर उनकी बेटी नहीं आयी. शुरू में उन्होंने सोचा कि नयी शादी है ससुराल के कुछ काम-काज में उलझ रही होगी या फिर किसी बीमार की सेवा से फुर्सत नहीं मिल पा रही होगी.

लम्बा समय बीत गया मगर बेटी नहीं आयी, अब किसान दंपत्ति चिंतित और उदास रहने लगे. अपने जिगर का टुकड़ा – इकलौती बेटी को देखे बिना उनका दिल कई आशंकाओं से भरा रहता.

उधर बेटी भी ससुराल में दुखी रहा करती. उसकी सास का व्यवहार निष्ठुर था. उसे दिन-रात काम में जोते रखा जाता और ढंग से आराम भी नहीं करने दिया जाता. वह दिन भर घर और खेत, जंगल के काम में खटती रहती. उस पर अपना मन हल्का करने के लिए वह मायके भी नहीं जा सकती थी. जब भी वह अपनी सास से मायके जाकर अपने माता-पिता की कुशल पूछ आने को कहती, उसकी सास किसी न किसी काज का हवाला देकर उसे मना कर देती.

कोई ऐसा भी नहीं था जिससे वह माता-पिता की कुशल जान सके और उन तक अपना संदेसा भिजवा पाए. अकेलेपन में वह जानवरों का सानी-पानी करने के दौरान उनसे ही अपने मन की बात कहती रहती. चारा, लकड़ी लाने के लिए जंगल पहुंचकर पेड़-पौधे से बात कर अपना दिल बहला लेती.

उधर माता-पिता भी इकलौती बेटी को देखने की आस में बीमार रहने लगे. एक दिन बेटी को सपने में अपनी माँ की बीमारी का भान हुआ. उसने अपनी सास को यह बताया और उनके पास जाने कि विनय की. सास भी आखिर उसे कब तक रोकती. न चाहते हुए भी उसने उसे मायके जाने की इजाजत तो दे दी, लेकिन यह शर्त भी रख दी कि वह सभी काम-काज निपटाकर मायके के लिए निकल सकती है.

दो पहर बीत गए मगर काम है कि निपटने का नाम ही नहीं लेता था. उसने सास की फिर से मिन्नतें कीं. आखिर सास ने बहुत न नुकुर के बाद उसे जाने की इजाजत दे ही दी. वह उतावली होकर अपने घर-गाँव के रास्ते पर तेजी से चल पड़ी. उसका मन अपने माता-पिता से मिलने के लिए हुमक रहा था. गाँव दूर था और शाम ढलान पर, वह और तेजी से अपने कदमों को साधने लगी.

आखिर शाम ढलने के बाद ही वह अपने गाँव पहुँच सकी. अन्दर दाखिल होते ही उसने देखा माता-पिता दरवाजे की ओर टकटकी लगाये बैठे हैं. पलंग पर लेटी बीमार माँ की आंखें तो द्वार पर टंगी ही हैं उसके सिरहाने बैठे पिता भी जैसे उसी की राह तक रहे हों. दोनों बहुत कमजोर और असक्त दिखाई दे रहे थे. बेटी आयी तो थी अपने दिल का बोझ उतरने लेकिन माता-पिता की हालत देख वह अपना दुःख भूल गयी. उसने माता-पिता की कुशल जानने के लिए सवालों की झड़ी लगा दी. यमराज और बूढ़ी माँ की लोककथा

किसान दंपत्ति जैसे अपनी लाडली बेटी कि ऐसा हालत देखकर अवाक थे. जैसे उन्हें अपनी बेटी की हालत देखकर समझ आ गया हो कि उसे ससुराल में किन हालातों में रखा जाता है. उनकी भंगिमा देखकर लगता था कि वे स्तब्ध हैं.

बेटी के आंसू भी निरंतर बह रहे थे. वह उन्हें नियंत्रित करना चाहकर भी नहीं कर पा रही थी. उसने माँ के माथे को छूकर उसकी बीमारी का जायजा लिया. पिता को गले से लगाया. उसे संदेह हुआ कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है. उसे लगा उसके आंसू देखकर तो माता-पिता को उसे अपने गले से लगा लेना चाहिए था मगर वे तो निशब्द बैठे हैं. उसने उन्हें हिलाया, प्रतिक्रिया न पाकर जोर-जोर से झिंझोड़ना शुरू किया.

बेजान शरीर निढाल हो गए. बेटी के राह तकते माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी. बताते हैं कि कुछ समय बाद उस वीरान घर में एक बुरांश का पेड़ उग गया. उस पेड़ पर बुरांश के दो फूल खिले. अब बेटी हर साल बुरांश खिलने के मौसम में अपने मायके आती रही. वह बुरांश से भेंट कर ही महसूस कर लेती जैसे अपने माता-पिता से मिल रही हो.

कहते हैं तभी से बुरांश खिलने के मौसम में बेटियों के अपने मायके आकर माता-पिता से भेंट करने की परंपरा पहाड़ में चली आ रही है.

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Sudhir Kumar

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