समाज

पहाड़ में नीली क्रांति को समर्पित कुमकुम साह

पंडा फार्म पिथौरागढ़ में कभी कभार ताजी साग सब्जी खरीदने, अंडा मुर्गी लेने जाना होता. जर्सी नसल की गायों का दूध भी मिलता. यह चीजें मिलने का टाइम तय होता. सुबह और शाम. सारा माल बिलकुल ताज़ा और काफ़ी सस्ता. बाजार में तो सब्जी के भाव हमेशा ही पंचचूली जितने ऊँचे चढ़ा दिये जाते.
(Kumkum Sah)

साग पात कट्टे में लाद अपने एल एम एल वेस्पा में रख गेट से बाहर निकला ही था कि बड़ी तेज बारिश आई. सामने चाय की दुकान में घुस गया. आध पौन घंटा हो गया बारिश होती रही. सड़कों पै कीचड़ की मत पूछो. पांच बज चुके थे. थोड़ी देर में अंधेरा होने लगेगा और रई बैंड तक पहुँचते पहुँचते टिल्ली हुए, बकबकाते, सड़क पै झोड़ा चांचरी करते, कहने को अपने घरों की ओर मुख़ातिब पर लटक कहीं और वाले सुरा सूरमाओं के बीच चढ़ाई में अपना एल एम एल निकलना मुझे बड़ा अटपटा लगने लगा था.

अब कई ऐसे दुमछल्ले भी होते जो मुझे जानते होते. तो मास्साब हो, गुरूजी, कह कुछ हाल पूछते, कुछ चाल निहारते और एक आध तो दस बीस पचास के नोट की फरमाइश कर देते. मास्साब दबाई के लिए चाहिए. बस कल इसी टेम लौटा दूंगा. इनमें अक्सर मिलने वाला एक पुराना छात्र संघ अध्यक्ष भी था जिसने शहर से दूर गुरना वाली सड़क के ठीक नीचे मछली का तालाब बनाया था, इतना आकर्षक कि लगता था कि रई झील तो पता नहीं कब बनेगी, ये जरूर पिकनिक और टूरिस्ट स्पॉट बनेगा. पर…

बारिश थम गई थी और एक ही किक में स्कूटर स्टार्ट हो गया, जरा चढाई थी फर्स्ट गियर डाल में चलने ही वाला था कि आवाज आई, दाज्यू ! पलट कर देखा तो एक भद्र महिला थीं, कंधे पै भारी सा बैग जिसमें फ़ाइल किताबें ठुंसी थीं. इनको मैंने पंडा फार्म में कई बार देखा था. अपनी धुन में, कहीं खोई सी. वहीं वैज्ञानिक थीं ये लोगों ने बताया था. दाज्यू आज स्टाफ बस मिस कर दी, मुझे भी ले चलो. महेंद्रा तो सब भरी ठुंसी आएंगी अब. आप तो कॉलेज में हो. मैं आपको जानतीं हूँ. जी आई सी रोड तक जाऊँगी. हां, हां बैठिये. जरा संभाल के हां. कीचड़, बारिस ये गड्ढे…
(Kumkum Sah)

कुमकुम से ये पहली बातचीत थी. जब उन्होंने कहा कि उनका घर रानीखेत में कालिका स्टेट में है तो मैंने उनसे पूछा कि तब तो वह अल्मोड़ा कैंपस में डॉ कंचन लाल साह को जानती होंगी जो कालिका स्टेट के ही हैं. मैं अल्मोड़ा कॉलेज में रह चुका था और साइंस फैकेलिटी में प्रकाश पंत, पी. सी जोशी, पी सी जूनियर, कंचनदा सब दाज्यू और गुरू लोगों की श्रेणी में आते थे. कुमकुम ने बताया वो कंचन की छोटी बहन हैं तो मैं उनसे एकदम खुल गया. उन्हें बताया कि अक्सर मैं पंडा फार्म आता हूँ साग सब्जी बटोरने और डॉक्टर प्रकाश चंद्र पंत से मिलने जो वहीं सीनियर साइंटिस्ट थे और हाईएलटिटूड मैं उगाई जानेवाली जड़ी बूटियों पर जरुरी शोध कर रहे थे. हम दोनों ने इसी विषय पर एक पुस्तिका भी लिखी . उत्तराखंड सेवा निधि ने रंग बिरंगी छापी.

जी आई सी रोड उनके घर पहुँचने तक तमाम चढ़ाई, शोर शराबे और साँझ ढलती रेलपेल के बावजूद इतनी बातचीत हो गई कि ऐसा लग रहा था कि मैं उन्हें बरसों से जानता हूँ. दाज्यू, अब बिना चाय पिए तो आपको जाने नहीं दूंगी. और हां, आप ये पंडा फार्म पंडा फार्म क्या कहते हैं. अब ये डी आर डी ओ का अनुसन्धान फार्म है सिर्फ साग सब्जी मुर्गी अंडा सेंटर नहीं. मैं खुद हिमालयी इलाके में फिशरी डेवलपमेंट पर काम कर रहीं हूँ. और भी बहुत सारे इनोवेशन चल रहे हैं.

बहुत ही सरल सहज सुरुचि की सज्जा से भरा उनका घर. वहां ऐपण की चित्रकारी थी तो धारचूला वाले खूबसूरत नक्काशी से भरे दन, उन्हीं का मेल सोफों पर और दीवार पर भी टंगा. कई शेल्फ जिनमें जूलॉजी, ऍनटेमोलोजी, फिशरी के साथ साहित्य की किताबें, हिमालय पे सन्दर्भ का ढेर. टेबल पर कागज लिखे,ट्रांसपेरेंसी के पीले डब्बे जो मिडास देहली की खास पहचान थे. इतने करीने से काम करना खुद में एक इबादत होती है ये मैं खूब जानता था जो हर स्तर पे अस्त-व्यस्त रहता, बेतरतीब. कोने में श्री लाल शुक्ल की राग दरबारी तीन चौथाई से ज्यादा पढ़ ली गई की तर्ज पर औंधी रखी थी. टेबल के ऊपर जीव मातृका पट्टा फ्रेम में टंगा था और भीतर के कमरे को जाने वाले दरवाजे के बगल में बाबा नीब करौरी की बड़ी वाली मुस्काती फोटो.

पकोड़ियों की खुशबु के साथ पर्दा हिला. दाज्यू लो, बैठो. यहाँ तो सब ऎसा ही पड़ा रहता है. खट के साथ उनके सोनी के साउंड सिस्टम से किशोरी अमोनकर की स्वर लहरियां गूंजने लगीं. चाय भी आ गई. साथ में ब्रिटानिया वाले चीनी चढ़े बिस्कुट भी. वाह…

चाय भी एकदम पर्फेक्ट जिसमें काली मिर्च और इलायची थी. खाओ न, हां में तो ले रहा आप भी लीजिये. मैंने प्लेट उनकी ओर बढ़ाई. हां, बाद में लुंगी. आज व्रत है. एक ही बार खाउंगी. वैसे भी बीस रोग हो गए हैं . फोटो खूब खींचते देखा है आपको. मुझे भी गाइडेन्स चहिये. ये नया कैमरा लिया है पर रिजल्ट तो क्लिक थर्ड जैसे भी नहीं आ पा रहे.

कैनन डीएसएलआर लेटेस्ट. मैं कुछ ही मिनटों में कैमरा टटोल गया. आप क्या मेरी फोटोग्राफी में मदद कर देंगे? अभी तो कुक्कू, वो फोटो श्री, सिनेमा लाइन के पास चली जातीं हूँ. आप खींच दोगे मेरी मछलियों की तस्वीरें?

हां, मैं खींचूंगा.

अब जब खींचने लगा मछली तब पता चला कि पोंड, पोखर जलाशय, तालाब में तैरती मछली, धीमी गति करती और एक क्लिक की ख्यान्च के बाद लहराती बलखाती मछली के लिए एक बट्टा ढाई सौ, पांच सौ, हज़ार सेकंड की टाइमिंग भी कम पड़ जाती है और अपर्चर आठ से कम करो तो पानी के भीतर उसकी आँख सही आएगी तो पूँछ धुंधली. इलफोर्ड 100 फीट के कई ब्लैक एंड वाइट रोलों पर प्रयोग हुए. टाइम भी कभी सुबह कभी दिन कभी सुबह से शाम जब अण्डों से प्रजनन का समय आता.खूब खूब पैदल चल अलग अलग टाइप की मछली खींची. पीतल की बॉडी वाले मेरे निकोन एफटी टू ने बड़ा साथ दिया. कई गाड़ गधेरे पार करने में काई जमे पत्थरों में पांव रड़ा, मोच- होच भी आई पर कैमरे की क्लिक बदस्तूर जारी रही.
(Kumkum Sah)

इसी दौर में एडहॉक नियुक्तियां हुईं. जूलॉजी में स्थान रिक्त थे. कुमकुम ने भी अप्लाई किया था और वो लेक्चरर बन पिथौरागढ़ महाविद्यालय में आ गई. और आते ही उनका मछलियों का काम नील क्रांति की हिलोरें लेने लगा. अधिकांश ने मुहं बिचकाये. पीने के लिए तो पानी घाट से खींचना होता है सोर घाटी में. अब माछ पालने के पोंड बनाने, उन्हें ताज़े पानी से भरने की बात कर रही पगलैट. गाड़ गधेरे अब कितने बचे . ये मैडम जी गुरना के नीचे क्योँ नहीं बना देतीं तलाब. हर बखत पानी ठैरा वहां, क्योँ गुरू.

अरे यार प्रोजेक्ट होजेक्ट का चक्कर होगा. हमने तो पहली बार सुना पहाड़ में माछ पालन. वो चम्पावत में खोल तो रखा इत्ता बड़ा माछ रिसर्च सेंटर, पर कांटे सब नानक सागर डैम की मछलियों के निकालते हैं. अब काली-धौली-गोरी में माछौ का टोटा थोड़ी हुआ? जौलजीबी, धारचूला, थल में दस दस रुपए सेर मिलते हैं माछ. बस ब्लीचिंग बहाओ, डोके में भर भर लाओ. अब यार, सब कहने की बात ठहरी. वो भड़कटिया से आगे कामाक्षा मंदिर से दिखने वाले गाँव की डिग्गी जैसे माछ थोड़ी पैदा होती हैं ऎसी रिसर्च से.

महाविद्यालय हॉस्टल के आस पास ही जूलॉजी विभाग ने चीर फाड़ वाले राना टिगरीना मेढकों की उछल कूद के लिए दो डिग्गियां बना रखीं थीं. एनिमल कैचर की पोस्ट भी हुई परमानेंट. कुमकुम ने प्राचार्य को समझा, जिलाधिकारी से फण्ड जुटा, यहीं मीठे पानी की मछलियों का प्रजनन पोंड बनाने में सफलता पायी. मछलियां डाली गई. कुमकुम और उनके चेले चारा देते, निगरानी रखते. इधर उधर के लौंडे मोंडे कुछ गड़बड़ न करें इसलिए उन्हें मोटे तार की जाली से ढका भी गया. इनके क्रमिक विकास की फोटो खींचने का जिम्मा मुझ पे था.

और फिर एक दिन सुबह पाया गया कि पाव भर आधे सेर तक पहुंची सारी बड़ी मछलिया गायब हैं. दोनों डिग्गियों की ऊपर वाली जाली वैसे ही सलामत है पर भीतर छोटी मछलियों के छिपड़े और भेकाने ही बचे दिख रहे. बहुत ही वफादार रात का चौकीदार चन्द्रबहादुर ओझा अलग परेशान. उसके रहते कॉलेज कैंपस में चोरी. वो भी मछलियों की. हॉस्टल का चपरासी देव भी वहीं स्टाफ क्वाटर में, कोने में दो-दो सफाई कर्मी भी.
(Kumkum Sah)

अब चंद्र बहादुर तो नेपाल का बड़ा बामण, अंडे मीट माछ की खुशबु को भी दुर्गन्ध माने. सो माछ चोरी की इन्क्वायरी कमिटी बनी, पत्रकारों ने सुरक्षा पे अंधेरा उजाला किया. रण भी जागा. कितने रिसर्च पेपर लिख चुकी कुमकुम को कोई न जानता पर इस घटना से सबको पता चल गया कि वह मछली एक्सपर्ट हैं. और उनके रिसर्च सैंपल तल भुन पचाये जा चुके हैं.

पहाड़ के हर गाड़ गधेरे में पायी जाने वाली मछलियों की उनको गहरी समझ थी. ताजे पानी के माछ, उनकी कितनी किस्में, जलस्त्रोत को उनसे मिलने वाले फायदे, उनको संरक्षित रखने के गुर, कई प्रजातियां ऐसी भी, जो लगातार कम होती जा रहीं थीं. कई ऐसी भी जो कब कैसे जलधारा में आ गयीं और पहले से मिलने वाली प्रजातियों को खा गयीं. उन्हें चट करती रहीं. नैनीताल की झील तक में ऎसा हो गया.

मछली के हर सियाह सफ़ेद को वह जानतीं थी और उनका अरमान था कि मीठे पानी की मछलियों के उत्पादन और इनके संवर्धन में उत्तराखंड नंबर वन पर हो. इनके व्यावसायिक पालन की संभावनाएं और वो भी इतनी ज्यादा कि कुमकुम की पर्सपेक्टिव प्लानिंग पर मेरा अर्थशास्त्र आश्चर्य से भर चक्कर खा जाता.

माइक्रो लेवल से शुरुवात कर धीरे-धीरे उत्तराखंड के हर जलागम क्षेत्र को छूता उनका मॉडल बेहतर और कारगर होने की हर संभावनाओं से लबालब था. उन्हीं दिनों नौकरशाहों की ऐसी टीम भी उभरी जो जन समस्याओं के प्रति बड़ी संवेदनशील रही. डॉ टोलिया थे जो कभी भी पिथौरागढ़ आयें कॉलेज जरूर आते. अपनी बात बताते. बहुत कुछ करने का जज्बा दे जाते.
(Kumkum Sah)

पहाड़ के स्थानीय उत्पाद, हाट बाजार जैसी उनकी योजनाएं परवान चढ़ती लगतीं थी. शोध कर लाइब्रेरी की शोभा बढ़ाने और नाम कमाने के महिमामंडन व अपने फायदे के चक्र से हट अब इतना तो दरवाजा खुला था कि अगर कुछ व्यावहारिक काम है तो सरकार की तरफ से कुछ गिने चुने अधिकारी भी मौजूद दिख रहे थे जो लग पड़ आपके साथ दिखेंगे.

पिथौरागढ़ में डी एम बन अनूप पांडे आये, मुलायम सिंह के ज़माने में. जो पिथौरागढ़ में हवाई जहाज पट्टी का उद्घाटन अपनी लड़बड़ जबान से कर गए तो बाद में अमरेंद्र सिन्हा आए. संचार क्रांति और कंप्यूटर उनकी विशेषज्ञ रूचि थी, बढ़िया फोटोग्राफर भी रहे. महाविद्यालय को सिस्को लैब स्वीकृत करा दी. वैष्णव जी आए काफ़ी कुछ रचनात्मक माहौल बना गए. सी डी ओ भी तालमेल वाले थे. कुमकुम लगातार प्रशासन से संपर्क रखतीं थी और अपने मछली के काम को बढ़ाना खूब जानतीं थी. काम बढ़ा भी.

एक मोटे थुलथुल नखचडे से एस डी एम साब को शहर से थोड़ी दूर उतार में पड़े तलाब में अपनी चाल लहराती मछलियों की दुर्लभ किस्म के बारे में कुमकुम बहुत समझाने की कोशिश कर रहीं थी. ये वह प्रजाति थी जो बड़ी तेजी से ख़तम हो रही थी. जरा रख रखाव कर गाँव में छोटे पोंड बना पनपने की गारेन्टी थी. पर साब तो असली साब थे, ध्यान से सुन भाव क्यों बढ़ाते, कभी उँगलियाँ चटकाते, भेसुंण सी मुख मुद्रा बनाते. कभी अपनी धों-फों सांसों को सम पे लाने के लिए अनुलोम-विलोम सा कुछ करते. कभी ऊँगली से नाक खचोरते. ऐसे नखचडुओं की क्या कहो जो जो जिलाधिकारी की आज्ञा के बाद भी नुक्स पे नुक्स निकाल नाक का माल निकलने में लगे थे.

अचानक ही मैंने पाया कि अब वो एकटक बगुले की तरह कुमकुम को तके जा रहे थे. मैं भी पास आ गया. वो बता रहीं थीं कि मछली में पोटेसियम, क्लोराइड, सल्फर, मेगनीसियम, जिंक, फ्लोरिन, कॉपर, आयोडीन होते हैं. ऐसे ताज़ा पानी की मछली खाने से दमा नहीं होता, हड्डी मजबूत रहती है, दाँत बुढ़ापे तक कायम, नज़र सही बनी रहती है. तंत्रिका तंत्र के रोग नहीं लगते, अल्सर नहीं होता, कैंसर नहीं पनपता. और तो और एम. अन. डी यानि मोटर न्यूरॉन डिजीज नहीं होती साथ ही सी.एच्.डी. मतलब कोरोनरी हार्ट डिजीज का तो सवाल ही नहीं. एस डी एम साहिब का मुहं खुला का खुला दिख रहा था. हाथ नमस्कार की मुद्रा में आ गए थे. बोले टेस्ट में कैसी होती है? क्या रोज मिल जाएगी खाने को?
(Kumkum Sah)

मतलब कि ! गाँव के पधान ने मछली की पकोड़ी भी तली थी, झोल भी था और लोकल गुलगुला भात भी. उसी लम्हे में गाँव में मछली के तलाब और उसके रखरखाव को सिग्नल मिल गया. एस डी एम साहिब ने आजन्म मछली खाने की प्रतिज्ञा की ताकि वो ऊपर से नीचे अपने शरीर में घिर आई काई को खुरच सोर घाटी के हर डाने काने में मुलायम पताका वाला विकास फैला सकें.

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिखा है कि उनके ज़माने में राजा लोग मतस्य पालन को प्राथमिक महत्त्व की वरीयता देते थे. पोखर, तलाब झील, सरिता नदी सब जगह न्यूनतम पकड़ने की लागत पे मछली मिल सकती थी. जिस पर कर लगा बेहतर राजस्व मिलता. राजा का कोश बढ़ता. फिर गोस्वामी तुलसी दास जी भी मानस में किष्किंधा कांड में मछली रानी के बारे में कह गए, “जल संकोच बिकल भई मीना, अबुध कुटुम्बी जिमि धन हीना. “आगे कहा गया, “सुखी मीन जे नीर अगाधा, जिमि हरी शरण न एकउ बाधा.”फिर दक्षिण भारत में तो मदुरै में मिनाक्षी देवी का मंदिर ही है.

जब धरती जलमग्न हो गई तो विष्णु भगवान ने मतस्य रूप लिया और धरती की रक्षा भी की ऎसा मतस्य पुराण में कहा गया. फिर जनम पत्रिका में भी बारहवीं राशि मीन ही है.

फिर सीधे फायदे की बात उठातीं हैं कुमकुम. जब दुनिया की चालीस प्रतिशत आबादी कुपोषण की गिरफ्त में हो तो इसका मतलब साफ है कि उनके आहार में प्रोटीन की कमी है जो लिए जा रहे अन्न से मिल नहीं पा रहा. हमारे देश में भी सिर्फ पांच सात प्रतिशत आबादी ऐसी है जो पशु और मछली से मिले प्रोटीन का उपभोग करते हैं.
(Kumkum Sah)

जहां तक मछली के उत्पादन की बात है तो काफ़ी बड़ा कोस्टल इलाका होने से, झील, तालाब, पोखर होने से दुनिया में दूसरे नंबर पर अपना देश है. करीब दो हज़ार तीन सौ प्रजातियों में कुल तीन सौ प्रजातियां आर्थिक व वाणिज्यिक महत्व की हैं. मेजर कार्प में रोहू, कतला और नैन या मृगल है तो कॉड, हिलसा, मैकरल, सार्डिन, तुना, हैरिंग्स, शार्क, पॉम्फ्रेटस समुद्री मछलियां हैं. साथ में परभक्षी या कैट फिश भी हैं जिनमें मांगुर, चन्ना, सिंधी, वैलेगो, मिस्टस, गूंच मुख्य हैं. विदेशी प्रजाति में कॉमन कॉर्प, ग्रास व सिल्वर कार्प मिलतीं हैं.

अब हिमालयी इलाके की मछलियों की गुणवत्ता तो लाज़वाब ही हुई . ठंडे पानी की मछलियों में महाशीर, रोहू के तो कहने ही क्या. इसके साथ साथ हुईं असेला या स्नो ट्राउट, बाम या स्पाईनि ईल, पत्थर चट्टा या ग्लिप्टोथोरेक्स, गडेरा या नीमा चिलस, होमोलेप्टेरा, गारा गोटाइला मुख्य हैं.

उत्तराखंड में कुमाऊं में 34 व गढ़वाल में 64 प्रजातियां पायीं जातीं हैं. उच्च हिमालयी इलाकों की हिमनदियों में 65 प्रतिशत तो बर्फ़ानी ट्राउट है तो बाकी स्यूडोई काइनिस,, निमेचिलेस, ग्लिप्टोथोरेक्स व अन्य. मध्य हिमालय की हिम नदियों में ट्राउट 40 प्रतिशत व 20 प्रतिशत महाशीर है बाकी में बरेलियस, निमेचिलस, लेबियो, गारा व विडाल मछली पायी जाती है. उच्च हिमालय की झीलों में भूरी व इंद्रधनुषी ट्राउट मछली पाली जा रही है.. उत्तराखंड में दो हज़ार कि.मी. शीत जल धाराओं की पहचान असेला प्रजाति की मछली पट्टी के रूप में की गई है जो ट्राउट और महासीर दोनों इलाकों में पायी जाती है और स्वाद युक्त होने से इनकी मांग भी ज्यादा है.

उत्तराखंड में कुमाऊँ जहां ‘प्राकृतिक झीलों का इलाका’ कहलाता है वहीं गढ़वाल मण्डल ‘सदानीरा नदियों का उदगम स्थल’. यहाँ तीन हज़ार कि. मी. लम्बी नदियाँ, तीन सौ हेक्टेयर झील व दो हज़ार पांच सौ हेक्टेयर में विस्तृत प्राकृतिक जल सम्पदा है. नील क्रांति की बुनियादी जरूरतों में बेहतर गुणवत्ता के मतस्य बीज, मछली की सही प्रजातियां, उनको मिलने वाला उचित आहार और एकीकृत मछली पालन के तरीके और टिप्स जिन पर बड़ी गहराई से कुमकुम साह ने अपनी अध्यापन दिनचर्या के साथ तालमेल बैठा कुछ नया कर दिखाया. वो लगातार अपने विद्यार्थियों की मदद से भूतपूर्व फौजियों से, जिले के जल स्त्रोतों के समीप व पानी की सुविधा वाली जगहों के किसानों से मिलीं जिनमें से कइयों ने इसे स्वरोजगार का माध्यम बनाया.

शीत जल मतस्य अनुसन्धान केंद्र, भीमताल, मीन महाविद्यालय पंतनगर, शोधकेंद्र चम्पावत के साथ देश भर के विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में की जा रही शोध का अपडेट उनके पास रहता था और जब वह ये पातीं कि ऎसा पहाड़ में हो सकता है तो वह गजब की ऊर्जा से भरीं दिखतीं.
(Kumkum Sah)

अब माछ पालन के प्रचार प्रसार और इनके विज्ञान को समझाने के लिए अक्सर ही वह गाँव वालों से पहाड़ी में संवाद स्थापित करतीं. उनके बीच रहतीं. उनकी व्यावहारिक दिक्कतें समझतीं. उन्हीं के बीच बैठ खाना खातीं अब मछली पकड़ साफ कर भून भान खालो या झोल बनाओ, पकोड़ी तलो. इससे आगे स्वाद और भी चटपटा है. फिश सॉस, फिश पेस्ट, फिश कोफ्ता, फिश कटलेट, फिश पिकल, फिश बिस्कुट, फिश केक के साथ फिश आयल और प्रिजऱवड मछली डब्बाबंद. साथ ही ड्राइंग रूम में सजे अक्वेरियम में बोटिया अल्मोड़ी, बेरेलियस, पुनटीयस, ग्लास फिश, क्रूसियन कॉर्प जो पहाड़ के जलस्त्रोतों में मौजूद हैं इनके साथ ही अन्य रंग बिरंगी हैं गोल्ड फिश, जेब्रा फिश, टाइगर बार्ब और टेट्रा, बस घटों निहारते रहो. साथ ही इन्हें पाल , बीज बना अच्छा खासा कुटीर उद्योग चलाया जा सकता है.

अब जो मछलियां खाने के लायक नहीं हैं वो खेतों के लिए अच्छी खाद बना डालतीं हैं. अंगूर की खेती तो बिना मछली की खाद के नहीं सपड़ती, ऎसा जानकार बताते हैं. फिर ऐसी भी कई प्रजातियां हैं जैसे गम्बूशिया या मॉस्किटो फिश, इसोमस या फ्लाइंग बार्ब, पुंटियस या ओलिव बार्ब, एनाबास, कोलिसा जो मच्छर के लार्वा को चट कर जातीं हैं. अब मलेरिया भी इसी अनुपात में कम होगा.

ऐसा नहीं कि मछली पालन में अड़चने नहीं. और सबसे बड़ी अडचन तो नदी तालाब पोखरों में पल रही मछलियों को अवैध तरीकों से काल कलवित कर उनका समूल नाश कर देने का सिलसिला है. जल के प्रवाह में ब्लीचिंग पोडर डाल कर, करेंट डाल कर मछलियों को मारने का खेल जारी है. रामबांस, च्यूरा, अख़रोट की पत्ती का रस छोटे जल स्त्रोतों में डाला जाता है जिसके प्रभाव में मछली सतह पर आ जातीं हैं. इन तरीकों से मछली के साथ छोटे मीन और उनके अंडे तो ख़तम हो जाते हैं साथ के सहचर भी ख़तम हो जल पारिस्थितिकी पर विनाशक प्रभाव डाल देते हैं. पहले प्रजनन काल में मछली मारना शिकार करने पर महिने मौसम का ध्यान रखा जाता था, अब तो बस माल समेटने पैसा कमाने की होड़ है.

विकास के लिए सड़क चाहिए और पहाड़ में सड़क बनाने में चट्टान तोड़ने के लिए डायनामाइट का प्रयोग होता रहा है चाहे पर्यावरण के कितने ही नियम क्यों न पेले जाएं. ब्लास्टिंग से सड़क बनने में जो बोल्डर मिट्टी निकलती है वह ढलानों पे लुढ़का दी जाती है. न केवल खेती बागवानी की जमीन ये सारे अपशिष्ट जल स्त्रोतों को अवरुद्ध करते दूषित करते हैं मछलियों की बढ़वार को भी ठप कर देते हैं. फिर साथ ही जंगलों में लगी लगाई आग है जिसके अवशेष भी जल प्रदूषण का कारण बन मतस्य सम्पदा के पतन का कारण बनते हैं. ऎसा नहीं कि जल प्रदूषण रोकने के उपाय प्रभावकारी नहीं हो पाए.

नैनीताल की झील में कई कठोर प्रतिबंधों से झील के पानी की गुणवत्ता व मतस्य संवर्धन के ठोस नतीजे मिले. वहां मछलियों की वृद्धि के लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति के इंतज़ाम भी किए गए भले ही वह बहुत खर्चीले रहे हों. पर कई ऐसे आसान उपाय हैं जिनको अपना कर मतस्य संरक्षण व संवर्धन किया जाना संभव है. जैसे कि प्रजनन काल में मछली का शिकार न हो. जल स्त्रोतों में कूड़ा कचरा, मलवा, मल मूत्र,, डिटर्जेंट से कपड़े धोने, कीटनाशक के प्रयोग पर रोक के लिए जागरूकता बढ़ाई जाए. ऎसी जगहें जहां मतस्य जैव विविधता है उन्हें फिश सेंक्चुअरी के रूप में संरक्षित किया जाए.

नदियों में बने बांध प्रजनन के लिए घूमने वाली मछलियों विशेषकर महाशीर के लिए बाधा बन जाते हैं इसलिए इनके लिए निकासी के सही पथ बनें जिससे इनका परिभ्रमण होता रहे. नदियों में स्थान चिन्हित कर कुछ वषों तक मतस्य आखेट पर रोक लगा दी जाए और पर्याप्त मतस्य सम्पदा होने पर वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग कर ही निकासी की जाए.
(Kumkum Sah)

अपने जीवन के पचीस से अधिक साल कुमकुम पहाड़ में मतस्य पालन के सभी आयामों को ले नील क्रांति की सफलता के सूत्र खोजने में अपने कई साथियों, छात्रों के साथ आम आदमी को जोड़ती चली गयीँ. ब्रजेश्वर प्रसाद ओली, विजय कुमार सिंह, किशोर सिंह मेहता, दिनेश चंद्र पंत, प्रेमलता बहुगुणा, मालविका दास त्रकरू, एस आर चन्याल, हेमा तिवारी, सी बी जोशी, प्रतिभा बिष्ट, आर एस चौहान, बी डी जोशी, एल एम जोशी, मंजू चौधरी, कैलाश भट्ट के साथ डॉ नीलाम्बर पुनेठा, डॉ बी डी सुतेड़ी, प्रो. के के भट्ट ने उनकी नील क्रांति को व्यावहारिक बनाने में खासी भूमिका निभाई. सरकार तक भी उनके बेहतर सम्पर्क थे हालांकि अपने पद में स्थायीकरण की लड़ाई भी फांस बन अटकी रही.

दुर्भाग्य से स्वयं स्फूर्ति का चरण आने के दौर में ही गंभीर अस्वस्थ होने पर अचानक ही वह चली गयीं. उनके साथ मैंने मछलियों के जीवन चक्र पर कहाँ कहाँ जा बहुत ट्रांसपेरेंसी व ढेरो रोल छायांकन किया. स्लाइड खींची, माइक्रो फोटोग्राफी सीखी. लोक जीवन के कई रूप देखे. कुमकुम बहुत उदारमना, सरल सहृदय थीं. राग द्वेष से दूर और अपने निर्णयों पर दृढ़. खुद खाने से ज्यादा खिलाने की शौक़ीन उनके हाथ के बने सुस्वादु व्यंजन खाने को खूब मिले. संगीत, ऐपण, साहित्य, कुमाउँनी संस्कृति, लोक शिल्प व लोक थात में उनकी पैठ और समझ गहरी थी. शाह परिवार वाले गुणों और सीपों से समृद्ध सुसंस्कृत थी वो कुमकुम.
(Kumkum Sah)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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