सेराघाट मंडी के उस पार ग्राम धपना (पिथौरागढ़) सन 1905-06 के आस पास मोहन सिंह का जन्म हुआ था. पिता का नाम था, ठाकुर हिम्मत सिंह बोरा. ठाकुर साहब की दो शादियां हुई थी. उनके आठ बेटे और संभवतः तीन बेटियां थी. सबसे छोटा बेटा था मोहन. बचपन से ही विनोदप्रिय मोहन का मन पढ़ने लिखने में कभी नहीं लगा. वर्णमाला के अक्षरों और पहाड़े की रटंत उसके पल्ले नहीं पड़ी क्योंकि वह तो धरती के स्वरों में डूब जाने के लिए ही जन्मा था. मोहन सिंह के अन्य भाईयों ने थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा था. इसलिए उन लोगों के लड़के आज समाज में प्रतिष्ठित और सम्पन्न हैं.
बचपन में ही मोहन के कानों में राजुला-मालूशाही की कथा एवं मोहक संगीत रचा गया था. कहां से और कैसे समा गया यह संगीत उसमें? एक बार मोहन ने बताया था कि गांव के एक बारुड़ी (डलिया-टोकरी बनाने वाला) से उन्होंने पहली बार राजुला मालूशाही सुनी थी. वह हरिजन गायक कुछ समय मेवाड़ के इलाके में रह चुका था. अतः वहां के जानकार लोगों से मालूशाही की कथा सीखकर वापस धपना गांव लौट आया था. सेराघाट के क्षेत्र में वही एकमात्र कलाकार था जो राजूला मालूशाही की कथा जानता था. वह लम्बे समय तक मेवाड़ में नहीं रह सका सो वहां सीखी हुई धुनें धीरे-धीरे धूमिल सी पड़ने लगी या परिवर्तित होने लगी. इस वारुड़ी लोकधुन गायक में नई-नई धुन ग्रहण करने की क्षमता थी इसलिये वह इधर-उधर की धुनें अपने गायन में मिश्रित कर लिया करता था. यही कार्य बाद में उस बारुड़ी के एकलव्य शिष्य मोहन सिंह से भी किया. वह हरिजन कलाकार अवकाश मिलने पर इधर-उधर के गावों में जाता था और अपने मधुर कंठ से मालूशाही गाया करता था. बालक मोहन उससे चिपका रहता था तथा मोहन मन ही मन उसकी गायी हुई धुनों को दोहराता रहता और गाथा की सारी कहानी याद करता रहता. धीरे-धीरे संपूर्ण गाथा और गायकी मोहन को याद हो गई. वह प्रकट रूप में खुले तौर पर उस हरिजन गायक के अर्जुन शिष्य नहीं हो सकते थे. इसलिये छुप-छुप कर सिखते रहे और एकलव्य बन गये. उनका गुरु बारुड़ी था जो अभाव और भूख प्यास के बीच पला, ढला और सेराघाट में सरयू के किनारे जला भी.
अब युवक मोहन ने इधर-उधर गाना शुरु किया. वह लोक गीतों का धुनी था और स्वयं आशुकवि था. उसने चोरी छिपे मेलों में बैर गायकों के बीच में भी घुसना सीख लिया. अल्मोड़ा जिले के सभी मेलों में वह आवारा युवक पहुंच जाता और विभिन्न प्रकार की छापेलियों, झोड़ों तथा चांचरियों का संगीत संचय कर अपनी सासों में संवारने लगा.
उम्र बढ़ती गई. अतः आजीविका का भी आधार चाहिए था. अतः अनपढ़ कलाकार ने बंजारे की आजीविका अपनाई. वह अल्मोड़ा नगरी से घोड़ों पर सामान लादकर गंगोलीहाट, बेरीनाग, लोहाघाट और पिथौरागढ़ की मंडियों में ले जाने लगा. उसके एक में सैन्टी रहती थी तो कंधे में एक झोला लटका रहता था और छुपा रहता था उस झूलते झोले में गायक मोहन का प्रिय वाद्य हुड़का.
विश्राम की बेला में विभिन्न पड़ावों में वह रात-रात भर मालूशाही गाता था. कभी कभी बैर-गायकों के अखाड़े में जा कूदता अक्सर ह्रदय टीसने वाली न्यौलियां गाकर स्वयं भी सिसकता और श्रोताओं को भी सिसका देता था. इसप्रकार वह बंजारा गायक पर्वतीय प्रदेश के मेलों और उत्सवों का आकर्षण बन गये. हीरो बन गये. पूरे कुमाऊं में गायक मोहन बहुत लोकप्रिय हो गया. मंडल के सभी प्रमुख मेलों का वह मुख्य आकर्षण रहता था. उसे सुनने के लिए भी असंख्य नर-नारियों का समूह उन मेलों की ओर उमड़ता चला जाता था. तब सब-कुछ अच्छा ही चल रहा था. मोहन सिंह के पास घोड़े थे, रोजगार था, पैसे थे और उस हट्टे-कट्टे जवान के पास था के मस्ती भरा स्वच्छंद जीवन.
समय ने करवट बदली और होनी ने करतब दिखाना शुरु किया. सम्मान और प्रसिद्धि प्राप्त मोहन सिंह जब लगभग चालीस वर्ष के आस-पास पहुंचे थे तो भाग्य उन्हें जिला अल्मोड़ा के पट्टी रिठागाड़ के नौगांव ग्राम में खींच लाया. रीठागाड़ के सम्पन्न बिष्टों में मोहन सिंह की एक बहन ब्याही गई थी. अतः उनके जीजाजी के छोटे भाई स्व. प्रताप सिंह बिष्ट (स्वतंत्रता सेनानी) ने उन्हें विशेष प्यार और प्रोत्साहन दिया. श्री बिष्ट स्थान-स्थानों पर मोहन सिंह की कला का प्रदर्शन आयोजित करवाते और उन्हें प्रोत्साहित करते रहते. धीरे-धीरे मोहन सिंह रीठागाड़ में रमने लगे और घोड़े हांकने से उनका मन भरने सा लगा.
अब नियति ने मोहन सिंह को तोड़ना शुरु किया. उन्होंने रीठागाड़ पट्टी में एक गूल निर्माण का ठेका ले लिया. उस परियोजना को पूरा करने में मोहन सिंह ने अपना सब संचित धन और यहां तक कि घर का जेवर तक लगा दिया. इसी बीच कुटिल ग्रहों की दशा से ग्रस्त होकर उन्होंने बैदीबगड़ में कुछ जमीन भी खरीदी और वहीं मकान बनाकर रहने लगे. धीरे-धीरे गांव धपना से उनका संबंध कम होने लगा. किन्ही कारणों से गूल निर्माण के ठेके में भारी नुकसान हुआ और मोहन सिंह आर्थिक रुप से टूट गए.
इन सब परेशानियों के ऊपर बैदीबगड़ में जमीन की खरीद फरोख्त संबंधी एक मुकदमें में भी उन्हें आर्थिक हानि और मानसिक अशांति का सामना करना पड़ा. इन परेशानियों और टूटन से मोहन सिंह का कलाकार नहीं टूटा बल्कि उनके गले से एक मधुर वेदना ने प्रवेश कर लिया फलस्वरूप उनकी गायकी में निखार आता गया.
इसी बीच उनका परिचय तत्कालीन लोक कलाकार संघ अल्मोड़ा के कलाकारों और संगीत निर्देशक मोहन उप्रेती से हुआ. यहीं से मोहन सिंह की कला और प्रतिभा को लगातार विशेष सम्मान और प्रोत्साहन मिलाना आरंभ हो गया.
अब वह ग्रामीण मेलों की सीमा से निकल कर कुमाऊं मंडल के शरदोत्स्वों, ग्रीष्मोत्सवों एवं विशेष समारोहों में भाग लेकर ख्याति अर्जित करने लगे. असंख्य नगरीय और ग्रामीण दर्शकों के सम्मुख सुव्यवस्थित आयोजनों में आकर श्रोता दर्शकों का स्नेह प्राप्त करने लगे.
मोहन सिंह की कला प्रदर्शन का क्षेत्र बढ़ा. अब वह प्रांतीय राजधानी लखनऊ में भी विभिन्न उत्सवों और समारोहों में बुलाए जाने लगे. आकाशवाणी लखनऊ और नजीबाबाद ने भी उन्हें कार्यक्रम देने प्रारंभ किए. उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री स्व. पं. गोविन्द वल्लभ पन्त ने भी उनकी कला को सराहा. जब पन्त जी ने उनकी शिक्षा-दीक्षा के बारे में प्रश्न किया तो विनोद प्रिय मोहन सिंह ने उत्तर दिया, “हुजूर आपके राज्य में अंगूठे का जो सबसे बड़ा निशान होगा वह इस मोहनियां का ही होगा.” सब हंस पड़े थे.
अब मोहन सिंह रीठागाड़ी का यश और कला-प्रदर्शन देश की राजधानी दिल्ली तक जा पहुंचा. मोहन उप्रेती के प्रयास से संगीत नाटक अकादमी ने भी उनकी संपूर्ण मालूशाही का ध्वन्यालेखन किया और उन्हें यथोचित सम्मान और पारिश्रमिक देकर विदा किया. दिल्ली में स्थित पर्वतीय कला केद्र ने भी मोहन सिंह को यथेष्ट आदर और सम्मान देकर विदा किया.
लोककला तथा संस्कृति के इस तुच्छ सेवक को भी सन 1954-55 में किसान मेला कपकोट के दौरान मोहन सिंह के संग लगभग 4-5 दिन साथ-साथ रहकर बिताने तथा उनसे कुछ सीखने का अवसर जरुर मिला. इस अवसर पर मोहन सिंह ने दानपुर तथा कत्यूर के क्षेत्रों से आये हुए असंख्य श्रोताओं और दर्शकों को चार संध्याओं तक मालूशाही गाथा और लोकगीतों की अन्य विधाओं से बांध कर मंत्र मुग्ध, जड़वत कर दिया. इसी अवधि में लोक कला के इस सेवक को भी मोहन – सिंही – शैली की मालूशाही सीखने का सुअवसर मिला. तब से मोहन सिंह के साथ इस अकिंचन लेखक ला स्नेह भी प्रगाढ़ होता गया. जो कि अब भी मोहन सिंह के निधन के बाद उनकी संतानों से बना हुआ है.
लोक कलाकार मोहन सिंह बोरा की संक्षिप्त जीवनी का परिचय देते हुए इस लेख का लेखक प्रताप सिंह रावल, लोक गायक ग्राम खाकरी पट्टी रीठागाड़ जिला अल्मोड़ा को नहीं भूला है. जिन्होंने स्व. मोहन सिंह को ‘बैरा गायन’ द्वन्द में कई स्थानों और अवसरों में निरुत्तर सा कर दिया था. बैर गायन के क्षेत्र में प्रताप सिंह को बैराचार्य कहा जा सकता है. इसके अतिरिक्त वह रमौला गाथा के भी महाजानकर कहे जा सकते हैं. मोहन सिंह और प्रताप सिंह शुरु में बैरा प्रतिद्वंद्वी रहे. लेकिन धीरे-धीरे उनकी प्रतिद्वंदिता प्रगाढ़ मैत्री में बदल गयी. प्रताप सिंह से 40 वर्षों तक मोहन सिंह का साथ दिया. मोहन सिंह को प्रताप सिंह के साथ मिलकर मालूशाही, न्योली और छपेली गायन में विशेष आनन्द आता था.
अव तक प्राप्त सामग्री के अनुसार मोहन सिंह की जीवनी में थोड़ा बहुत प्रकाश डाला गया है. उनकी प्रस्तुतीकरण की प्रतिभा, गीत संरचना और विभिन्न धुनों के मिश्रण के बारे में लिखना कुछ अप्रसांगिक न होगा. संभवतः इधर-उधर से लोक गीतों की धुनें लाकर उन्हें मालूशाही में ढालकर मोहन सिंह अपने अनाम बारुड़ी गुरु का अनुसरण करते थे. उनका प्रस्तुतीकरण अनोखा था. वह श्रोताओं के रुख और नाड़ी को भली प्रकार जानते थे. गाथा-गायन में जब कभी वह नीरसता या श्रोताओं में उकताहट के लक्षण देखते तो तुरंत ही गायन के छंद, लय और धुनों को बदलकर श्रोताओं को पुनः एकाग्र और मुग्ध करने में वह अत्यंत निपुण थे.
वह मालूशाही गायन की किसी एक शैली तक ही सीमित नहीं रहे. उन्होंने जिस किसी भी गाथा गायक में जो भी विशिष्टता देखी उसे आत्मसात किया और अपने गायन में जोड़ दिया. विभिन्न जागर, गीतों, छोलियों तथा हुडकिया बौलों से धुनें बटोरकर उन्होंने अपने गायन को संपन्न किया है. इस प्रकार उनका मालूशाही गायन एक मिश्रित ठुमरी का सा स्वाद देता है. जिसमें रुप-रस और भावों का मोहक समन्वय\ निहित रहता है.
प्रख्यात सितार वादक पं. रवि शंकर ने जिस तरह अपनी मूल अदायगी को निभाते हुए एक निश्चित सीमा तक लोक धुनों और शास्त्रीय संगीत के घरानों का मिश्रण किया है उसी तरह मोहन सिंह ने मालूशाही गाथा के विभिन्न घरानों और धुनों को कुशलता से अपने गायन में सजाया है क्योंकि वह शौकिया गायक थे. गाथा गायन के किसी घराने में नहीं जन्मे थे.
जब तक भी मालूशाही की गाथा गाई और सुनी जायेगी और जब शोधकर्ता उस पर कार्य करते रहेंगे तब तक मालूशाही गायन के एक मिश्रित घराने के रूप में याद किया जायेगा.
अरे! मैं तो भूल ही गया था कि मैंने इस लेख का शुभारंभ इसे एक अनोखा शीर्षक देकर किया था ‘गाता जाए बंजारा’. सचमुच मेरे लेख का गायक यह बंजारा अपने जीवन के अंतिम दो वर्षों को छोड़कर गाता और श्रोताओं को रिझाता ही रहा. इन अंतिम दो वर्षों में रक्तचाप, स्वांसरोग और वृद्धावस्था की अन्य व्याधियों से ग्रस्त होकर मोहन सिंह बोरा ग्रह तथा फिर शय्या की सीमाओं में ही बंधे रहे.
28 जनवरी 1984 को लगभग 79 वर्ष की अवस्था में हुड़के की गमक अनंत में विलीन हो गयी. शेष रह गयी एक गूंज, एक प्रतिध्वनि जो हमें स्व. मोहन सिंह के गायक पुत्रों चंदन और गिरीश के गायन में कभी-कभी प्राप्त हो जाती है और प्राप्त होती है मोहन के प्रतिभावान शिष्य मोहन के गले से… मेरा मतलब अपने प्रिय मित्र मोहन उप्रेती से है. यह लोग उस दिवंगत बंजारे के कुछ स्वर समेटे हुए हैं, जो जीवन भर दूसरों को मोहने और रिझाने के लिए ही गाता रहा और भटकता रहा.
आज से कोई ढाई दशक पहले ‘पहाड़’ द्वारा एक महत्वपूर्ण मोनोग्राफ छापा गया था. ‘गोपी-मोहन’ नामक इस मोनोग्राफ का सम्पादन विख्यात लोक-कला कर्मी बृजेन्द्र लाल साह ने किया था. इसमें गोपीदास के अलावा एक और महान कुमाऊनी लोकगायक मोहन सिह रीठागाड़ी पर भी आवश्यक सामग्री थी.
(‘पहाड़’ पुस्तिका ‘गोपी-मोहन’ से साभार)
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