वासू और रोहिणी, विदेशी यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र की उच्चतर डिग्री लिए अब भारत की रिजनल डिस्पैरिटी की बड़ी सरकारी परियोजना के मसविदे पर काम कर रहे हैं. नई दिल्ली में विदेश व्यापार संस्थान की प्रोफेसर डॉ सुमित्रा चिश्ती ने उन्हें पहाड़ भेज दिया. अपनी दो हफ्ते की मिलम यात्रा से घर वापस पिथौरागढ़ आया तो भाई ने बताया कि उन्हें आए दो दिन हो गए थे. इस बीच उनकी भेजी चिट्ठी भी मिली जिसमें उनके यहां पहुंचने की सूचना थी. दोनों उल्का देवी के पास टूरिस्ट गेस्ट हाउस में लस्त-पस्त पड़े दिखे .थैला भर के तो दवाइयां थीं साथ में, कितने किस्म की एलोपैथिक टैबलेट निगल लेने के बाद भी स्ट्रैन यानी बदनदर्द-कमरदर्द पीछा ही नहीं छोड़ रहा. रोहिणी तो कह रही कि पैरों के तलवों में स्वैलिंग जैसी भी कहीं कोई किडनी इन्फेक्शन तो नहीं हो गया है .कान भी सांय -सांय कर रहे जिसे हमारे पहाड़ में “बुजी गए” कहते हैं. मैंने कहा डॉक्टर पाठक को दिखा देते हैं. चलो. दो दिन से बिस्तर में ही घुसे हो. अब पहाड़ चढ़ ही गए हो, धारचूला मुंसियारी जाने की हौस रखते हो तो यहां का हौल-हवा भी तो सूंघो.
(Kumaon Pithoragarh Mrigesh Pande)
उल्का देवी मंदिर परिसर से ऊपर टूरिस्ट रेस्ट हाउस के कोने वाले कक्ष में डबल बेड में लाल इमली का धारीदार मुलायम कंबल, उस पर लोई ओढ़े रोहिणी. पंजाबण जो हुई, सो नाश्ते में छोले भटूरे का ऑर्डर दे चुकी थी. सोम ने इडली पूछी, वडा पूछा – ये दोनों साउथ इंडियन व्यंजन नहीं मिल पाएंगे साब!सुबे सुबे. भवानी गुरु ने बताया तो ब्रेड मक्खन और कॉफी की फरमाइश हुई.भवानी दत्त जी फिर मुस्काए – कॉफी कल से दे देंगे भाऊ, अभी आद वाली चाय ले आता हूं. सोम कुछ और डिप्रेशन में आ गया. बोला तो कुछ नहीं पर लगा कि वो बहुत ही निचुड़ा-थका है.
उनके आने की खबर मिलते ही अगले दिन सुबह दीप, कुंडल दा, सोबन के साथ रेस्ट हाउस की ओर हम चढ़ गए भेट-घाट करने. सुबह देर तक सोने की मन था पर कहां? एक लोटा दूध लिए कुण्डल छह बजे दरवाजा खटखटा आ गया. सोबन अपने डेरे टकाना से धोबी घाट के रास्ते अपनी दौड़ में जी आई सी पहुंचा ही था तो उसे मेरे यहां आते कुंडल मिल गया. अब कहां सोना? चलो चाय पी सोम और रोहिणी से मिल लेते हैं. रास्ते नारायण प्रेस के आवास से दीप को भी ले लिया. लक्ष्मी नारायण मंदिर की सीढ़ी चढ़ते रजनीश सर मिले भाभी जी और दो छोटी बेटियों के साथ तो उल्का देवी मंदिर की ओर हम सब साथ हो लिए. फिर कुंडल की आवाज सुनाई दी कि लो डाकसाब भी आ रहे .देखा जगमोहन चंद्र जोशी जी और साथ में नेगी जी .नेगी जी रसायन विज्ञान के महारथी. योगानंद के कर्मयोग में दीक्षित. जगमोहन जी और रजनीश जी दोनों गणित के धुरंधर. जगमोहन जी प्रबल पूजा पाठी. रोजाना दो घंटे कम से कम तो उनकी देवी आराधना चलती ही थी. साथ में ईजा के परम भक्त. दूसरी तरफ डॉ रजनीश जे कृष्णमूर्ति से प्रभावित खूब मनन किये ध्यान मार्गी. कम बोलते जो कहते वह तर्क संगत होता, अनूठा प्रभाव छोड़ता. सबसे बड़ी बात जो मेरे लिए बड़ी उत्साहजनक थी कि दोनों अर्थशास्त्र से गहरी प्रीति रखने वाले. उनसे खूब डिस्कशन होता. रजनीश जी के बड़े भाई साहिब ने तो इकोनॉमिक टाइम्स भी लगा रक्खा था. भले ही एक दिन लेट आता. रजनीश जी उसका नित्य पाठ करते फिर मुझे बताते कई मैक्रो-माइक्रो समस्याओं का मर्म.
जगमोहन जी ने बताया कि आज तो अष्टमी है और इतवार की छुट्टी भी हुई . सब मंदिरों में आराम से दर्शन कर सकते हैं. मैंने सोम-रोहिणी के बारे में बताया तो सभी नए मेहमानों की कुशल लेने पहुंच गए. सोम रोहिणी दोनों हतप्रभ.
रेस्ट हाउस का कक्ष थोड़ी ही देर में पूरा भर गया .भवानी गुरु दो टीन वाली फोल्डिंग कुर्सी भी रख गए .फिर थोड़ी ही देर में सफेद बड़े व भारी बोन चाइना कप में चाय आ गई . टुकड़ों-टुकड़ों में बातें हुईं. हमारी दो हफ्ते की मिलम-मुंसियारी यात्रा जिसका घटनाक्रम किश्तों में यहां-वहां होता रहा. अभी तो आकर्षण का केंद्र सोम और रोहिणी थे. तो फिर कैसा लग रहा यहां आ के ?रजनीश मोहन जोशी जी ने सोम से पूछा जो बड़ी अनिच्छा से चाय के छोटे घूंट सुड़क रहा था. खूबसूरत जगह है. साफ हवा है…
“अब यहां से नीचे दूर तक देखोगे तो इस पूरी समतल सी घाटी में खेत दिखेंगे. खूब अच्छी मिट्टी है यहां, पैदावार भी खूब होती है पर धीरे धीरे उनमें मकान बन रहे हैं बेतरतीब. टाउन प्लानिंग जैसी कोई व्यवस्था नहीं पाओगे यहां”. दीप बोला, उसकी आवाज कुछ तल्ख थी.
“प्लानिंग तो पूरे देश में ऐसी ही है.प्लानिंग फ्रॉम ऐबब. और राज हो रहा गरीबों के नाम पे.क्या नारा दिया गरीबी हटाओ और हट रहे गरीब”. ये रजनीश मोहन जी की आवाज थी. बोलते-बोलते उनकी आंखे कूटस्थ चैतन्य पर टिक गईं . “11 जनवरी 1966, शास्त्री जी क्या गुजरे सारा देश निर्जीव हो गया. इतना बड़ा आदमी जिसने उधार ले कर किश्तों में कार खरीदी थी. हमेशा मोटा-झोटा पहना. मरने के बाद भी देनदारी बची रही. रेल दुर्घटना हुई तो रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. अब देख रहे हैं राजनीति में जीवन मूल्यों का कितना पतन हो गया है? व्यक्ति परक कार्य प्रणाली पर चल पड़ी है यह. प्रशासन कितना अनैतिक और व्यापारी बेईमान. कांग्रेस तो बम्बईया बी ग्रेड फिल्मों की तरह नाटकीय घटनाक्रम से भर गई”.
“हां, भाई, ना हिंदी जानते थे ना अंग्रेजी, आती थी बस तमिल. घंटो चुप रहते. बस सबकी सुनते. ऐसे बने किंग मेकर नाम था – कामराज. साफ कहते कि उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनना. अब जो प्रधानमंत्री बनना चाहा वह रहा कड़े अनुशासन और मोनोपॉली पर चलने वाला मोरारजी, जिन्हें टक्कर देने को कामराज के हाथ-पैर जोड़े गए पर वह न माने. सामने कर दिया इंदिरा गांधी को.गुप्त मतदान हुआ और नेहरू की बेटी जीत गई “. रसायन विज्ञान के नेगी जी ने बताया.
“कृषि नीतियों को बाजार की तरफ मोड़ने का काम शास्त्री जी चाहते थे. उदार नीतियों को बनाने की चाह थी उनकी, तभी लक्ष्मी कांत झा को अपना मुख्य सचिव बनाया. पर वो तो चल बसे और इंदिरा गांधी ने उनके बदले पी एन हक्सर को तैनात कर दिया”. रजनीश जी बोले.
सोम ने चाय खत्म कर कप मेज के किनारे रख दिया था और कान के गिर्द मफलर लपेट वह गौर से हर बात करने वाले को देखने लगा था. मैंने महसूस किया कि वह अचानक ही शुरू हो गई इस चर्चा में दिलचस्पी ले रहा है. बातें सब पोलिटिकल इकोनॉमी की थीं. गणित के दोनों धुरंधर चल रही नीतियों के इफेक्ट्स पर साधिकार बोलने में सक्षम थे. जगमोहन जी ने तो मेरे रिसर्च विषय ‘1966 में रूपये का अवमूल्यन व इसका भुगतान संतुलन पर पड़े प्रभाव के गणितीय मॉडल पर अपना सारा ध्यान लगा दिया था.इसकी चर्चा वह कहीं भी मिलने- टकराने पर करते और मैं उनकी सोच और खोजबीन से हैरत पर पड़ जाता.
यह विषय अल्मोड़ा कॉलेज में रहते मुझे मेरे सीनियर व बड़े भाई सद्रश प्रोफेसर निर्मल शाह ने सुझाया था.साफ जताया था कि बिना क्वांटिटेटिव एनालिसिस के इसकी कंक्रीट पालिसी बनाना पॉसिबल ही नहीं. हमेशा की तरह यह भी जताया कि तू स्टूडेंट्स को पढ़ा तो ले जाता है पर तुझे मैथमेटिकल इकोनॉमिक्स आती नहीं.
अब उसका बड़प्पन देखिये कि एहसासे कमतरी का सबब मुझे जता उसने चुप्पी न साधी. उसने कहा कि वह मुझे क्वांटिटेटिव इकोनॉमिक्स पढ़ायेगा. करीब-करीब रोज मुझे चौधरी खोला अल्मोड़ा की सीढ़ियां उतर निर्मल की किताबों के साथ म्यूजिक सिस्टम भरी बेहिसाब अजूबों भरी दुनिया में प्रवेश करना होता जहां उसकी राजदुलारी बिल्ली भी होती जिसे नियम से वह अहद मियाँ के यहां से लाए पंजे और छिछड़े खिलाता. राजरानी सी रखी ये लूसी मुझसे भी प्यार जताने पास आती, कभी पंजे मारती कभी बगल में लेट खुर्र-खुर्र करने लगती. मैं तो जब निर्मल स्टडी रूम में न होता तो बेरहमी से उसे दूर छटका देता. बिल्लियाँ तो मुझे बिल्कुल नापसंद रहीं. वैसे भी हम कुत्ता प्रेमी-पालक हुए. सोम की जुकाम भरी आवाज से मेरी यादें टूटी.
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“सबसे बड़ी ट्रेजेडी ये है सर कि नाइनटीन फिफ्टी के डेसेड में जो पॉलिसीज लागू हुईं, उनमें कंटिन्यूटि थी ही नहीं. पहले एग्रीकल्चर फिर महालनोबीस मॉडल और फिर चाइना वार. 1957-58 के बजट को देखिये. उसमें कालडोर संपत्ति कर, व्यय कर, उपहार कर, पूंजी कर, और सबसे अधिक 87.5 परसेंट आय कर लगा दिया गया. स्टॉक मार्केट तो करीब-करीब खत्म ही कर दिया. प्राइवेट इंडस्ट्रीज का फ्यूचर तो सेबोटेज कर दिया. ऊपर से मेंहगाई, बढ़ती मुनाफाखोरी, काला बाज़ारी.चाइना वार के बाद भी कोई सबक नहीं लिया गया. इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन डिक्रीज हुआ, टैक्स बेहिसाब बड़े, कस्टमड्यूटी बढ़ी, इम्पोर्ट बढ़ते रहे और हुआ क्या? बैलेंस ऑफ़ पेमेंट डिसइक्विलिब्रियम….”
“तभी 1966 में अवमूल्यन हुआ. रुपये की कीमत गिरा दी छत्तीस दशमलव पांच परसेंट. इसे देश की नाक कटना कहते हैं, और उसके बाद प्लानिंग गैप”. मैं बोल पड़ा. यह मेरा विषय था. इसी की पड़ताल करने बहुत भटकते मैं प्रोफ़ेसर पूरन चंद्र जोशी से मिला जो इंस्टिट्यूट ऑफ़ इकोनॉमिक ग्रोथ में थे. उन्होंने भेजा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फॉरेन ट्रेड, नई दिल्ली डॉ सुमित्रा चिश्ती के पास जो टर्म्स ऑफ़ ट्रेड पर भारी काम कर रहीं थीं. उन्होंने मेरी उलझनें सुलझाने के साथ इस पहाड़ पर काम करने की टेक भी दी. उन्होंने ही अब सोम और रोहिणी को पहाड़ चढ़ा दिया पिथौरागढ़. मुझे भेजी चिट्ठी में साफ कहा भी कि,’ इन्हें बॉर्डर के गांव भी दिखाना. फॉरेन से पढ़ाई रिसर्च कर अब दोनों अपने देश में ही काम करने की सोच रखते हैं. तो तुम दिखाओ पहाड़ और समझाओ पहाड़ का भूगोल’.विदेश से अर्थशास्त्र पढ़े ये दोनों ,अब इनको हिल डेवलपमेंट की सैर कराओ. जब तक इनसे न मिला था तब तक झिझक थी कि मैं अंग्रेजी में अटक अटक कर चलने वाला पता नहीं इनसे कैसे मेल कर पाऊँगा.
सोम कुछ कम बोलने वाला, शांत अपने में खोया सा. थोड़ी तेज हवा चले तो जुकाम की शिकायत करने वाला. घर आये तो हाथ से दाल-भात-खट्टा खूब स्वाद ले खाने वाला. तमिल अय्यर ब्राह्मण तिरुचिरापल्ली में कावेरी डेल्टा के समीप गांव का निवासी. पिताजी आई.ए.एस, अभी यू एन डी पी में सलाहकार, माँ प्रोफेसर. तो दूसरी तरफ रोहिणी ठेठ पंजाबण, खूब बोलने वाली ठहाके के साथ,हाथ से जोर की ताली भी बजाती. खुशी के ऐसे मौकों में सोम उसकी गतिविधियों को रोकने का असफल प्रयास करता तो उसे चिढ़ाने ,वह भंगड़ा करने पर भी उतारू हो जाती.
रोहिणी ने कहा वो रिसर्च करने के दौरान ही टकराए. लंदन हौघटन में. चार साल हो गए हैं. तब से साथ हैं. अभी शादी नहीं की है. थोड़ा सेटल हो जाएं. उनके ऐसे साथ रहने पर यहां कई चिढ़े तो कई जले-भुने दिखते. अभी तो बहस गजब के मोड़ में थी जिसने सोम की सारी उदासीनता और लटके हुए मुँह के भाव ही बदल दिए थे.
“ये बैलेंस ऑफ़ पेमेंन्ट डिसइक्विलिब्रियम कोई एक दो साल में पैदा नहीं हुआ ये तो स्ट्रक्चरल था”. सोम बोला.”जानते हैं क्यों?, उसने फिर एक सवाल उछाल दिया.
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“पॉलिसीज जो चलीं वो दिखावे से भरी थीं उन्होंने इंट्रिप्रोनियर को, साहसी को काम का बूता रखने वाले को दबाया, उसे निचोड़ा. उसकी थाली से खाना गायब किया. उन्होंने काम का बूता रखने वाले हर किसी को निराश और हताश किया. अफसर बस आर्डर देना जानते थे, ऐसा नहीं कि इफीशियंट और डिसिप्लिन के सहारे काम को अंजाम देने वाले अधिकारी नहीं थे पर उनके काम की वकत नहीं हुई. बस हर फील्ड में एक ऐसा क्लास मलाई खाता रहा जो अपनी सुविधाओं के बूते पढ़ लिख ऊँची कुर्सियों में बैठा और देश को बीमार करता रहा.नेहरू के जमाने से ही देश के करदाताओं का पैसा बुरी तरह बर्बाद हुआ. सरकारी कंपनियों का प्रबंध ऐसे लोगों को सौंप दिया गया जिनके पास उपक्रम चलाने की योग्यता, कुशलता या हुनर कुछ था ही नहीं. ऐसे में उत्पादन बढ़ाना और लाभ कमाना संभव ही न हुआ. नेहरू में भी न धीरज था और न ही प्रबंधकीय कौशल. बस अपनी केंद्रीय योजना वह ऊपर से थोपते गए. उद्योगपतियों को इस बात से डरा दिया गया कि स्वतंत्र व्यापार और अहस्तक्षेप की नीति तो सिर्फ आर्थिक संकट ही पैदा करेगी.महालनोबीस के मॉडल पर आधारित रह भारी मशीनरी उद्योग का निर्माण हुआ. कुटीर उद्योगों का विकेंद्रीकरण यह सोच कर किया जाना तय हुआ कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम मिल सके. नेहरू ने कीन्स की माइक्रो इकोनॉमिक्स, स्टालिन की पब्लिक इन्वेस्टमेंट पालिसी और गांधीवाद के ग्रामीण विकास से देश में संयुक्त उपक्रम की शुरुआत की. नेहरू ने राष्ट्र से समाजवाद आधारित समाज के निर्माण का वादा किया जिसका अभिप्राय था कि सामाजिक स्वामित्व अथवा नियंत्रण के अधीन उत्पादन हो”. प्रोफेसर जगमोहन चंद्र जोशी धारा प्रवाह बोले.
जैसे ही उनकी बात खतम हुई रजनीश जी की गंभीर आवाज सुनाई दी. कमरे में खिड़की से आती सुबह की धूप उनके चेहरे पर पड़ रही थी. उनका माथा मुझे अद्भुत चमकता सा दिख रहा था. “नेहरू के चहेते रणनीतिकार प्रशांत चंद्र महालनोबीस सोचते थे कि इस्पात का उत्पादन कर देश में आमूलचूल परिवर्तन किया जा सकता है. विभिन्न कलपुर्जों और इस्पात के अधिकाधिक उत्पादन के लिए अधिक मशीनों का उत्पादन जरुरी होगा. फिर आती हैं उपभोक्ता वस्तुएं जिनको बनाने के लिये भी मशीनरी चाहिए, इतनी संचित पूंजी चाहिए कि कई तरह के उपभोग में आने वाली वस्तुएं बनाई जा सकें.उपभोक्ता वस्तु व पूंजी गत वस्तुओं के उत्पादन के लिए उनका मॉडल तकनीक और पूंजी की भारी मात्रा चाहता था जो देश में था ही नहीं. इसलिए विदेश से कच्चा माल, तकनीक व विनियोग कर ही उत्पादन बढ़ाया जा सकता था. इसी वाह्य निर्भरता का सहारा लिया गया”.
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“पचास के दशक से ही बम्बई विश्व विद्यालय के प्रोफेसर ब्रह्मानंद और सी एन वकील ने अल्टरनेटिव रखे थे जो न तो ज्यादा विदेशी पूंजी पर आधारित थे और न ही आयातित तकनीक पर. उसमें बढ़ -चढ़ के वृद्धि दर भी अनुमानित न थीं और वह आसानी से एक कम विकसित देश में उपलब्ध साधनों से विकास का रास्ता बना लेने का रास्ता दिखाते थे. ब्रह्मानंद और वकील ने जो दस्तावेज बनाया उसमें देश में उपलब्ध श्रम शक्ति का ब्यौरा था जिन्हें काम चाहिए था. ऐसे साधनों की ओर इशारा किया जिनका दोहन कर रोजमर्रा की वस्तुएँ बन सकतीं थीं. इनको बनाने के लिए ज्यादा पूंजी की जरुरत भी न होती. लागत भी कम पड़ती और बिक्री का जोखिम भी न होता. कपड़े, जूते, बिस्कुट, टॉफी, रेडियो, साइकिल, सिलाई मशीन जैसी अनगिनत वस्तुएँ जो बन रहीं थी उन्हें विस्तार दे ज्यादा से ज्यादा बेरोजगार श्रमिकों को खपाया जा सकता था. यह कम लागत और कम जोखिम वाले धंधे उद्यमियों को भी अधिक उत्पादन के लिए आकर्षित करते. गांव से आये अकुशल मजदूरों को भी खपाया जाना मुमकिन होता. इस तरह जो भी आम उपभोग की वस्तुएँ बनती उनकी खपत भी आसानी से हो जाती. ऐसी वस्तुएँ “भत्ता वस्तुएँ “कही जाती क्योंकि श्रमिक के हाथों जो भी जिंस बनती उनकी मांग भी होती और जो भी आय ज्यादा लोगों को काम मिलने से बढ़ती उसके किसी न किसी भाग से वस्तुओ की खरीद भी हो जाती. भत्ता वस्तु की यह रणनीति खेती, ग्रामीण इलाके में बन रही वस्तुओं, लघु व छोटे कल-कारखानों में बनी आम जरुरत की चीजों पर फोकस कर इन क्षेत्रों में अधिक विनियोग को बढ़ावा देती. इससे घरेलू के साथ निर्यात का बाजार गति लेता”.
“ब्रह्मानंद और वकील की रणनीति को अपनाने का मतलब था कि महालनोबीस की भारी उद्योग की मल्टी सेक्टर परियोजनाओं को टाल दिया जाए. वह ऐसा समय था जब भारत के अर्थशास्त्री व शासन तंत्र के साथ बुद्धिजीवी सोवियत संघ की प्रगति से चमत्कृत थे जिसकी जरुरत बड़े बड़े इस्पात के कारखाने थे न कि जूता, कपड़ा, खिलौना, साइकिल की छोटी फैक्ट्री”.
दूसरी योजना में,1956 में महालनोबीस के प्रारूप पर आश्रित रहते हुए विखंडित औद्योगिक नीति अधिनियम को आगे बढ़ाया गया. इसमें पब्लिक सेक्टर की सत्रह इंडस्ट्रियल यूनिट्स को रिजर्वेशन मिला. इनमें आयरन व स्टील, माइनिंग,मशीन, टूल मेकिंग व इलेक्ट्रिसिटी में निजी प्रवेश के लिए खुलापन रखा गया. पर ये रिजर्वेशन बना रहा. संरक्षण का दमघोंटू माहौल बना रहा. साठ के दशक के आते जी डी बिरला का स्टील प्लांट लगाने का लाइसेंस रिजेक्ट किया गया. टाटा के एक सौ उन्नीस प्रपोज़ल पर कोई सुनवाई न हुई. आदित्य बिरला भारत के बजाय मलेशिया, इंडोनेसिया, मलेशिया, फिलिपीन्स में बिरला प्रतिष्ठान को विस्तार देने के लिए मजबूर हुए.1951 में तय औद्योगिक लाइसेंस अधिनियम को नौकरशाही ने तबाह कर दिया”.
इसके ठीक कांट्रेरी निर्धनता की रेखा के नीचे रहने वाले जन थे. देश की एक तिहाई आबादी भूखी थी, कुपोषण से ग्रस्त थी, आधी से ज्यादा आबादी अनपढ़ थी. पॉवर्टी लाइन और मार्केट इंपरफेक्शन के साथ प्रोटेक्शन की पॉलिसीज. थोपा हुआ लाइसेंस राज . व्यापारी बेईमान होते गए. बस लाइसेंस एकत्रित करो जिससे मार्केट पर कंट्रोल रहे. कोई कम्पटीशन नहीं. बस ऐसा बैंक हो जो कुछ लेनदेन से लोन दे. उसका दस-बीस परसेंट व्यापार में लगाओ.अपने रिश्तेदारों को खरीद में कमीशन दो. भतीजे- भान्जे को सेल पर कमीशन. यहां के पूँजीपति बहुतेरे तो ऐसे,जिनने आजादी के बाद अंग्रेजों की कंपनियों को चीप रेट पर खरीद लिया, धंधा बढ़ाया और राजनेताओं को चंदा बाँट ये कम्पनियां अलग अलग वस्तुओं में अपनी मोनोपोली बढ़ाती रहीं”. रजनीश जी की सधी बात सब चुपचाप सुन रहे थे.
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“पर, मैडम गाँधी ऍम आर टी पी एक्ट तो लाईं थीं” अब सोम ने सवाल किया.
“हां, पहले बड़ी जल्दबाजी में बैंक सरकारी कर दिए. फिर व्यक्तिगत घरानों ने जो उद्योग चलाये थे उन पर लगाम लगा दी…”
“पर अभी तो आप इंडस्ट्रियलिस्ट को क्रिटिसाइज कर रहे थे “. सोम एकदम बोला.
देखो सोम, सारे उत्पादक योग्य और कुशल नहीं होते, कुछ ही होते हैं जो साहसी कहलाते हैं, उपक्रमों की संज्ञा पाते हैं पर हुआ तो यह कि उद्यमियों को सफलता इसलिए नहीं मिल पाई क्योंकि वह गोवमेंट के प्रशासनिक तंत्र से जूझ नहीं पाए.. सरकारी नियंत्रण और टैक्स के प्रावधान कठोर थे जटिल थे. ग्रोथ पोटेनशियल पर इनकी कुल्हाड़ी चलती रही. बड़े व्यापारिक घरानों पर शिकंजा कसता गया. इस लाइसेंस राज ने व्यापारी को धूर्त और चालाकी भरा अवसरवादी बना दिया. एक नाटक है त्रिशंकु जिसमें चार रास्तों पर लोग चलते हैं, अवसर-सुविधा-समझौता और तटस्थता. जो इन रास्तों पर न चल सका, अपने को इन रास्तों पर चलने लायक न बना पाया वह हो गया त्रिशंकु, बन गया त्रिशंकु. समूचा देश ऐसे ही दुविधा में लटका हुआ था.क्यों मृगेश, शाह जी का ये नाटक तो तुमने करवाया है ना..”.
“सर, ये दुविधा जैसी बात जो आप कह रहे हैं, वह तो कब से है…” अचानक ही रोहिणी बोल पड़ी और रुकी नहीं,बोलती गई. “हमारा देश ऐसा देश है जहां हाथ से काम करने वालों को कभी सम्मान मिला ही नहीं. घर में काम करती सुबह से रात तक चूल्हे चौके-साझे चूल्हे में खटती औरतों को देख लीजिये या सदियों से हाथ के काम से रोजी रोटी चलाने वाले क्राफ्ट मैन को जिसे शिल्प कार कहने में बड़ी जातियों का ईगो हर्ट होता था न, तभी उसे शूद्र कहा. टट्टी उठाई उसने, गन्दगी भी साफ की और सारी बड़ी जात मान कर चली कि ये गू उठाने वाले दिमाग का तो काम कर ही नहीं सकते. ये छुआछूत तो अभी भी जिन्दा है ना. कितनी ही नॉलेज हो जब तक यह हाथ के काम से लेबर एक्टिविटी से नहीं एसोसिएट नहीं होगा कोई डिस्कवरी नहीं हो सकती. क्या आप ये नहीं मानते कि हमारे यहां पूंजी पति रहे, बनिया रहे उत्पादक हुए पर डिस्कवरी कितनों ने की? गिने चुने. ये जो हाई कास्ट में थे उन्होंने कितनी नई चीज खोजी? कितने नए साधन, क्या नए तरीके?”
रोहिणी की बातों से मुझे शुम्पिटर की इन्नोवेशन थ्योरी याद आ गई. नवप्रवर्तन का सिद्धांत जो आर्थिक विकास की रीढ़ सिखाता है .
रोहिणी बोले जा रही थी और कुछ गुस्से में भी आ गई थी. “कास्ट सिस्टम जिसने सबसे ज्यादा हाथ के काम करने वाले को हमेशा सबसिस्टेंस लेवल पर रखा. ऊँची तीनों जातियां तो हाथ का काम करने से छिटकती ही रहीं बस दिमाग के काम का औरा दिखाती रहीं. यही वो रीजन है कि हमारे देश भारत में इंडस्ट्रियल रेवोलुशन कहाँ हुआ? नहीं हुआ न. ये तो बस देश था, अभी भी वही है, इसे राष्ट्र बनने में पता नहीं कितना समय लगेगा?…
“ये देश.. राष्ट्र नहीं. कुछ समझ में नहीं आ रहा.” दीप ने अचानक अपनी शंका प्रकट की. नेशन-स्टेट पर कुछ पढ़ा मुझे भी याद आ रहा था पर अभी मैं भी गडमड था.
“देखिए, मैं एक्सप्लेन करती हूँ. ” हमारी जो ह्यूमन हिस्ट्री रही उसमें नेशन का कांसेप्ट बस नया ही समझिये. देश-कंट्री तो पहले से है. वो यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका है पहला मॉडर्न देश जहां लोगों ने आधुनिकीकरण के लिए कलक्टिव एफर्ट किये. इतिहास की यह पहली ऐसी घटना रही होगी जब न जाने किस-किस देश से आये लोगों ने, सिटीजन ने मिल कर इस देश को राष्ट्र यानी नेशन बनाने का डिसिशन लिया. ये वही अमेरिका था जिसका कोई अतीत न था. तब से अपने आज को नॉलेज और लेबर-मैन पावर के तालमेल से उन्होंने मेहनत भरा बनाया और उनका विज़न बस अपने फ्यूचर को जीने लायक बहुत बहुत अच्छा बनाना था. इसी बात को फिर इंग्लैंड सीखा और इंग्लैंड से ये बात हमारे देश में आई…”
(Kumaon Pithoragarh Mrigesh Pande)
“विचार और कर्म का दर्शन तो हिंदुस्तान की उपज है आप गीता पढ़ लीजिये. उसमें साफ..” जगमोहन चंद्र जोशी जी बोले पर रोहिणी रुकी नहीं.
“हाँ मेरे पापा भी. श्री कृष्ण और भी कितने ज्ञानी ऋषि, सम्राट, राजा, चाणक्य. पर हमारी जो राष्ट्र की हाइपोथिसिस है, नेशनलिज़्म का जो प्रोजेक्ट है वह हमेशा से हमारे ‘गोल्डन पास्ट’ के कांसेप्ट के साथ कोऑर्डिनेट ही करता रहा है. कितना थका देने वाला काम है यह. कितने सारे धर्म, प्रान्त-प्रदेश, लैंग्वेज-डायलेक्ट, कितनी जात-कितने वर्ण की डाइवर्सिटी है यहां. पूरे देश को छोड़िये परिवार में फैमिली में. मैं और सोम साथ रहते हैं, अभी शादी नहीं की है तो ऐतराज है बहुतों को मेरी माँ मेरे पापा, ताया, ताई को. शादी करेंगे पर नहीं पहले शादी फिर चाहे जैसे रहो.शादी कर ये फॉरेन रहे और में पंजाब के या मद्रास के गांव तो सब खुश… क्या sss सर? मैं भी कहाँ डाइवर्ट हो गई”. रोहिणी रुकी और इससे पहले कि किसी और का बोलना सुनाई देता वह फिर अपनी पिछली रौ में आ गई.
“हां, तो मैं कह रही थी कि हमारी हिस्ट्री होमोजिनियस कहाँ है? कितनी कास्ट और रिलीजियस डाइवर्सिटी-डिफ़्रेन्सेज जिसकी होमोजिनिटी को सॉल्व करने के लिए हमने बेस हिस्ट्री का ही लिया. इससे क्या हुआ? हर अल्पसंख्यक कम्युनिटी सब कास्ट बन कर उभरी.ये सिलसिला चलता रहा है पर इस्लाम इमीग्रेंट्स के केस में यह कोऑर्डिनेशन नहीं हुआ. इसका रीजन यह था कि उन्होंने अपने को एक वैश्विक रिलीजन का अनुयायी माना. वो नहीं चाहते कि किसी भी तरह की सबकास्ट बन कर रहें.अब जो इंडिया हमारे सामने है उसमें हिन्दू परंपरा है, मुस्लिम धर्म भी है और पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की ललक भी है पर इकोनॉमिक फ्रंट में हम बहुत बैकवर्ड साबित हो रहे हैं”.
“उसकी वजह में बस अवसरवादी हैं”. रोहिणी की बात खतम ही हुई तो जगमोहन जी बोले.” अवसरवादी पूंजीपतियों ने ऐसी हर परिस्थिति का लाभ लूटा. ये वही थे जो सरकार के पेंदे की आड़ में देश को चूना लगा रहे थे. इससे लॉस हुआ टाटा जैसे उद्योगपति को, जे आर डी टाटा. जिसकी एक न सुनी. ऍम आर टी पी एक्ट रोकने उन्होंने सरकार को मेमो दिया था, नई परियोजनाओं के प्रस्ताव दिए पर हुआ क्या? जे आर डी ने इंदिरा गाँधी से कई बार कहा कि वह सरकारी उद्योगों को ज्यादा ऑटोनमी दें, उन्हें ज्यादा रिस्पांसिबल बनायें. ये सरकारी सेक्टर वक़्त की नजाकत को नहीं पहचान पा रहा, रेशनल डिसिजन नहीं ले पा रहा और यही बड़ी वजह है जिससे ये वीक यूनिट्स में बदल रहे, मंहगाई बढ़ा रहे.टाटा ने साफ कहा कि डेवेलपमेन्ट की कमजोरियों के पीछे सबसे बड़ा जिम्मेदार सरकारी अमला है. पहले तो पॉलिसीज ढुलमुल थीं फिर डिसीजन लेने में लेटलतीफी. कोई मौरल वैल्यूज नहीं, डिसिशन एबिलिटी नहीं. उनको कोई प्रबंधकीय आजादी थी ही नहीं.”. थोड़ी देर सन्नाटा पसर गया. कुण्डल दा कमरे से बाहर सरक गया. सोबन ठुड्डी को अपने हाथ की मुट्ठी पर टिकाए आँखे मूंदे दिखा. दीप ने कुर्सी पर बैठे पीठ सीधी की. मेरे दिमाग में जे डी सेठी की लिखी किताब “इंडिया इन पॉवर्टी” उभरने लगी.
(Kumaon Pithoragarh Mrigesh Pande)
मैं सोच रहा था कि कितने प्रतिभाशाली अर्थशास्त्री हैं अपने देश में. पूरे स्कूल हैं, अपने आप में पूरी संस्था. दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में ही एक से बढ़ कर एक अर्थशास्त्री रहे हैं, अब भारतीय विकास संस्थान भी है. बॉम्बे यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ब्रह्मानंद और सी एन वकील जैसे खगाड़ मुंहफट अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने देश की क्रिटिकल कंडीशंस को सॉल्व करने के लिए “सेमी बॉम्बला”जैसी स्कीम पेश कर दी पर अमल में लाने वाली व्यवस्था तो अपने मद में चूर थी. किसकी सुनी? पहली योजना में ही आधार हरोड-डोमर का मॉडल था जो पूर्ण रोजगार और कीमत स्थिरता की मान्यता देता था जबकि था इसके उलट. चलो इसमें खेती-किसानी को प्रिविलेज तो दी गई पर सेकंड प्लान तो महालनोबीस की सेक्टरल एप्रोच, इंडस्ट्री पर फोकस था. इन्वेस्टमेंट के कितने साल बाद रिटर्न्स मिलेंगे? और तब तक सिर्फ कीमत के उछाल, बढ़ते आयात.हमारे देश में तो बस आधे-अधूरे एक्सपेरिमेंट किये गए. शुरुआत की योजनाओं में हमारे यहां रोजेन्स्टीन रोडान और हैरोड-डोमर मॉडल के सुझाए उपाय लागू किये गए. रोडान की संकल्पना थी कि जब विनियोग के नतीजे असफल होते हैं तब गरीबी का घेरा फैलता है. अगर देश के पूँजीपति इन्वेस्टमेंट नहीं करते तो इसकी जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए. ये पालिसी बैलेंस्ड ग्रोथ की थी. वहीं हैरोड -डोमर ने देश की औसत बचत को बढ़ा उसको गवर्नमेंट सेक्टर की कंपनियों में विनियोग की स्ट्रैटजी को सामने रखा. अब हमारे देश में तो बस इस बात पर फोकस किया गया कि बचत कैसे हो. सबसे जरुरी इस आस्पेक्ट को ध्यान में नहीं रखा गया कि पूंजी कि उत्पादन क्षमता क्या है. पालिसी मेकर और अफसरशाही तो यह मान चले कि गवर्नमेंट इन्वेस्टमेंट से खुद बखुद पूंजी अवेलेबल होगी. ऐसा होता भी कैसे जिन-जिन सेक्टर में गवर्नमेंट ने इन्वेस्टमेंट किया उनके रिटर्न्स कम थे, बहुत कम थे. गवर्नमेंट का पूरा मैनेजमेंट सिस्टम लचर साबित हो गया.सरकार ने जो राष्ट्रीयकृत उद्योग चलाये वह रिटर्न देने में नाकामयाब रहे. दूसरी तरफ जनता की आय के न बढ़ने से बचत की दर में भी वृद्धि नहीं हुई. गरीबी हटाओ के लिए भी नेहरू के चलाए औद्योगीकरण, कर वितरण और गैर सरकारी क्षेत्र में लगाए उद्योगों पर कठोर नियंत्रण को पूरी तरह अपनाया गया.
अब देखिए, लाइसेंस राज इसलिए चलाया गया कि प्लानिंग से इन्वेस्टमेंट कर सकें. मोनोपली डेवलप न हो. जमाखोरी न हो. इंडस्ट्री के बीच रीजनल बैलेंस बना रहे. स्माल यूनिट्स में प्रोडक्शन हो जिनमें हिस्सेदारी करने नए उद्यमी आएं. जरुरत के हिसाब से प्लांट्स लगें और नई तकनीक को प्रोत्साहित किया जाए. पर जिस लेट लतीफी भरी आदतों गैर-जिम्मेदार तौर तरीके और अदूरदर्शिता भरी सोच से आवेदनों की छँटनी की जाती, अनुमोदन के लिए मंत्रालय में फाइलें सड़ती जाती. नौकरशाह तय शुदा प्राथमिकताओं के बगैर अनुमोदन के लिए उनका निरीक्षण करते उसमें कई परियोजनाएँ सालों लटकी रहती. अगर सरकार से वित्त चाहिए होता या विदेश से आयात होने वाले इनपुट या तकनीक किसी प्रोजेक्ट में शामिल हैं तो मामला फिर उलझता. दफ्तर-दफ्तर फाइल चक्कर काटती रह जातीं. जाहिर था कि इस परिपाटी ने उद्यमी का गला घोंट कर रख दिया. अगर लाइसेंस मिल भी गया तो तय व स्वीकृत क्षमता से अधिक उत्पादन करना भी कानूनन जुर्म था.
इनसे बचने के लिए बड़े चालाक औद्योगिक घरानों ने लाइसेंस लेने, फाइल सरकाने के लिए भृष्ट तरीके अपनाने में भी कसर न छोड़ी. दूसरे दर्जे की तकनीक का इस्तेमाल हुआ और तकनीकी निर्णय भी नौकरशाहों द्वारा लिए जाने से जहाँ तैयार माल की लागत अनाप-शनाप बढ़ी तो उसी तेजी से आबोहावा बिगड़ती गई. नौकरशाही के सूझ बूझ रहित अंकुश ने देश के आर्थिक माहौल में तमाम जोड़-तोड़ और विक्रतियों का दलदल पनपा दिया. हालांकि टी टी कृष्णमाचारी जैसे दबंग नेता भी थे जिनने सही नीयत के उद्योगपतियों की हर संभव मदद की, कई वित्तीय संस्थान स्थापित करने में खासी भूमिका का निर्वाह किया जैसे आई डी बी आई, आई एफ सी आई, आई सी आई सी आई इत्यादि. टाटा की टिस्को और टेल्को योजना को साकार करने में हर संभव मदद की. इसके साथ ही सरकारी क्षेत्र की तीन इस्पात कंपनियों को तेजी से आगे बढ़ाया. उन्होंने बीमा क्षेत्र का राष्ट्रीय करण किया.1956 की औद्योगिक नीति का अध्यादेश बनाया और महालनोबीस की दूसरी योजना को पूरा समर्थन दिया. बस वह समाजवाद के कट्टर विरोधी थे और “चलो गांव की ओर” के पक्षधर गांधीवादियों से उनकी बिल्कुल नहीं बनती थी”.
(Kumaon Pithoragarh Mrigesh Pande)
“मिश्रित अर्थव्यवस्था में नेहरू ने समाजवाद और पूंजीवाद का घालमेल किया. इन दोनों के दुर्गुण आपस में मिलते रहे जिससे मिश्रित अर्थव्यवस्था का पतन हुआ. देश में भारी भरकम, अक्षम और एकाधिकार नीयत वाला पब्लिक सेक्टर बना डाला गया जहाँ वर्क कल्चर विकसित ही न हो पाया.. घरेलू बाजार में प्रतियोगिता का माहौल नहीं रहा जिससे वस्तुओं और सेवाओं की गुणवत्ता लगातार गिरती गई. विदेशी पूंजी व विनियोग के साथ उन्नत तकनीक को आकर्षित करने पर बंधन रहे. सोवियत अर्थव्यवस्था को चमत्कार माना गया तो बस भारी उद्योग को प्राथमिकता दी गई. छोटे उद्योग और कारखाने पनपे ही नहीं. बाजार को बढ़ावा देने वाली रणनीति का निरन्तर अभाव बना रहा”.
“देश की जो हालत थी उस पर कई अर्थशास्त्री नेहरू द्वारा अपनाई गई नीतियों से कहीं बेहतर समाधान प्रस्तुत करते थे. इनमें जगदीश भगवती थे. सुखमय चक्रवर्ती थे. तपन राय चौधरी थे. धरम कुमार थे. प्रशांत पटनायक और अमर्त्य सेन फिर मोंटेक सिंह, मनमोहन सिंह.रेगनर नर्क्से के सिद्धांत से प्रभावित हो प्रोफेसर ब्रह्मानंद और सी एन वकील ने बहुत व्यवहारिक कार्य योजना प्रस्तुत की थी जो गरीबी और बेकारी की दशा को सुधारने में बहुत कारगर होती पर नीति निर्माताओं के साथ इन्हें संचालित करने वाले तंत्र ने उसकी उपेक्षा ही की”.
“जगदीश भगवती ने अपनी किताब, “द इकोनॉमिक्स ऑफ अंडर डेवलप्ड कंट्री” में कहा था कि निर्धनता को दूर करने व इसे कम करने के लिए आर्थिक प्रगति के प्रयास लगातार होने जरुरी हैं. उत्पादन और आय की वृद्धि से ही और अधिक लोगों को नौकरी के अवसर मिलेंगे. उत्पादन के बढ़ने से ही निर्यात के अधिक अवसर भी जुटेंगे. साठ के दशक में जापान ने यही किया. भारत को भी अपने बढ़ते आयातों के बोझ को वहन करने के लिए सरकारी सहायता के साठ निर्यात प्रेरित वृद्धि पर ध्यान देना होगा. दूसरी योजना से जो योजना नीति अपनायी गई वह औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि के लिए देश को आयात पर निर्भर बनाती गई. ऐसी वस्तुओं व ढांचे के निर्माण में विनियोग किया गया जिससे बाजार में तुरंत उत्पादन न आया जबकि आय, वेतन मजदूरी के रूप में पैसा बढ़ गया. इस से कीमतें तेजी से बढ़तीं रहीं. तीसरी योजना में नीति फिर बदली जिसने दूसरी योजना से मिलने वाले कई फायदों पर पानी फेर दिया. ऊपर से चीन का युद्ध. 1966 आते आते रुपये का अवमूल्यन”.
“जब हम आजाद हुए तभी गाँधी जी जो चाहते थे उसके खिलाफ पढ़े लिखे लोगों की सोच यह भी उभरती गई कि देश का आधुनिककरण वक़्त की सबसे बड़ी प्राथमिकता बननी चाहिए. देश एक मजबूत स्वतंत्र राज्य के रूप में उभरे जिसका प्रशासन एक प्रभावशाली नौकर शाही के द्वारा चले.”
“देश में सांप्रदायिक सद्भाव बना रहे इसके लिए धर्मनिरपेक्ष होने की राह पकड़नी होगी. सामाजिक प्रजातंत्र बनाए रखना तब संभव होगा जब निचले वर्ग व पिछडी जातियों को ऊपर उठाया जाए. समानता लाने के लिए प्रजातंत्र में व्यापक मताधिकार का प्रयोग हो. यही वह कुछ खास मुद्दे थे जिनको साकार करने के लिए आधुनिकता के गुणों को 1950 में भारत के संविधान में संचित किया गया”.
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आजादी के बाद आधुनिक बनने के लिए समाज में सुधार करने के पक्ष को गहराई से देखा भी गया. आजादी मिलने के कुछ साल तक सुधार की एक बेहतर लहर भी चली.नेहरू पश्चिमी विज्ञान व तकनीक के साथ समाजवादी योजनाओं का आधार ले कर चले.अब सवाल तो यह है कि नेहरू ने जो सरासर गलत नीतियां तय की क्या वह उस समय की परिस्थितियों के हिसाब से सही थी? ऐसी बेड़ा गर्क करने वाली नीतियों को तमाम मुंहलगे व्यवसायी झेलते रहे. जवाब वही दो टूक है संरक्षण का आर्थिक आतंक वाद. ये सिलसिला इस सत्तर के दशक में भी नहीं थमा जब तमाम विकासशील देश अपनी नीतियों में तेजी से बदलाव ला रहे थे. पर हमारे देश के बड़े नामी इकोनॉमिस्ट और एडमिनिस्ट्रेशन में तोप माने जाने वाले सुधारवादी ऐसी हड़कंप मचाते रहे. लाइसेंस राज का भस्मासुर खड़ा कर दिया इन्होने. अधिक उत्पादन करो तो सलाखों के भीतर होने का संकट. किसी इंडस्ट्रिलिस्ट की फैमिली वेल्थ अगर पच्चिस करोड़ से अधिक हो तो वह न तो अपने व्यावसायिक उपक्रम को बढ़ा सकता था और न ही कोई नया काम शुरू कर सकता था. व्यवसायी डरपोक बना दिए गए कुछ ही रहे जो निडर थे. मोनोपोली कमीशन फेस करते बजाज स्कूटर को तय लिमिट से ज्यादा प्रोडक्शन करने पर जब कोर्ट ने राहुल बजाज से कहा कि ऐसी हरकत पर क्यों न उन पर मुकदमा चलाया जाए तो वह ही थे जो निडरता से बोले कि उनके दादा आजादी के लिए जेल गए तो वह भी अधिक उत्पादन के लिए सजा भुगतने को तैयार हैं. उस समय जाने माने इकोनॉमिस्ट प्रो. जगदीश भगवती ने कहा था कि देश के जाने पहचाने मेघावी इकोनॉमिस्ट ने सरकारी नीतियों की हां में हां मिला और या फिर चुप रह देश का बेड़ा गर्क कर दिया.किसान तक अपनी उपज को राज्य की सीमा से बाहर नहीं बेच सकता था. बैंक मैनेजर सिर्फ उसे लोन देने के लिए मजबूर थे जो किसी मंत्री विधायक का अपना हो”.
गांधीवादियों ने भी खूब बेड़ा गर्क किया”. जे ऍम सी जोशी जी ने सिगरेट के एक जोरदार कश के बाद बात आगे बढ़ाई.
“इंदिरा गाँधी के राज में तो ये गांधीवादी सोशलिस्ट परंपरागत उद्योगों को प्रोटेक्शन देने पर अड़े रहे. बड़े उद्योगों से, बड़े स्केल से तो वो खार खाये बैठे थे. उनका कहना था कि बड़े उद्योग परंपरागत उद्योगों को खतम कर देंगे. उनमें ज्यादा काम मशीन करेगी तो रोजगार कैसे बढ़ेगा? अब देखिये आठ सौ साठ से ज्यादा उद्योग उन्होंने छांट दिए जिनमें साठ लाख रूपये से कम का विनियोग था. ये गांधीवादी समाजवादी बस यह चाहते थे कि इन उद्योगों को मध्यम व बड़े उद्योगों से कम्पटीशन फेस न करना पड़े. ऐसा सुरक्षा का ढांचा बना दिया कि छोटे कारखानों ने अपने प्रोडक्ट की क्वालिटी पर कोई ध्यान न दिया. इन सबका असर लगातार गिरते निर्यात के रूप में दिखा.इकोनॉमी की हालत खस्ता हो गई. डिवैल्यूएशन के बाद भी ढाक के वही तीन पात दिखे”.
“हां, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं”. रोहिणी बोली ,”आजादी के बाद ये लाइसेंस राज, कोटा -परमिट, ये बेहिसाब नियंत्रण उन्होंने आर्थिक स्वतंत्रता का गला घोंट दिया. गुन्नर मिर्डल ने ऐसे ही माहौल से देश को “सॉफ्ट स्टेट” कहा.
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“सर. वेस्टर्न सोसाइटी की सकसेस तो उसकी लॉजिकल रीजनिंग की थिंकिंग और कंसिस्टेंट बिहेवियर से हुई. साइंस और इंजीनियरिंग से ही इकोनॉमिक गेन पॉसिबल हुए. ‘एफलुएण्ट सोसाइटी’ में जे के गालब्रेथ यही लिखते हैं. नेहरू ने आधुनिकता लाने की बहुत कोशिश की और एक अलग ही सोच विकसित की जिसे वह ‘तीसरा रास्ता कहते थे. कैपिटलिज्म के डेवलपमेंट और सोशलिज्म की जस्टिस को उन्होंने कम्युनिस्ट हिंसा के बगैर जोड़ने की कोशिश की.पर उनकी ये कोशिश सफल नहीं हुई. नेहरू 1964 में नहीं रहे उससे पहले ही यह साफ दिख गया कि कि न तो देश ने कैपिटलिज्म की तेज ग्रोथ रेट हासिल की और ना ही सोशियलिज़्म की जस्टिस. पॉवर्टी लेवल को कम करने में उसका कोई कंट्रीब्यूशन नहीं दिखा. उस पर पापुलेशन की ग्रोथ रेट ढाई परसेंट तक बढ़ गई. ऊपर से हर लेवल में करप्शन. नेहरू के राज में स्वतंत्रता बेलगाम अनुशासन हीनता की ओर बढ़ गई. समाजवादी सिद्धांत लाइसेंस राज में बदल गया.सरकारी नीतियों ने न तो प्रतिस्पर्धा बढ़ाई और ना ही ढांचे की कमियों को पाटने की कोई कोशिश की. हमारे देश में दुर्लभ पूंजी को सस्ता, श्रमिक दल को महंगा, और विनिमय मूल्यों को हद से ज्यादा बढ़ा दिया. प्रतिस्पर्धा के दबाव कम से कम करने की कोशिश की. एजुकेशनल इंस्टीट्यूट भी गंभीरता से नहीं सुधरे”.
“देखो रोहिणी”जगमोहन जोशी जी समझाने लगे.” जब से दूसरी औद्योगिक क्रांति शुरू हुई, जिसके बीते महज दो सौ ही साल हुए हैं.तब जिन देशों ने अपने यहां जीवन स्तर को सुधारने के लिए, भले ही आवश्यक न्यूनतम प्रयास किये हों या प्रबल प्रयास उससे यह संकेत तो साफ दिखता है कि हर देश ने एक खास सेक्टर पर जोर दिया जैसे कि ब्रिटेन ने वस्त्रोद्योग पर, डेनमार्क ने मिल्क प्रोडक्ट्स पर, स्वीडन ने इमरती लकड़ी, संयुक्त राज्य ने रेलवे से औद्योगिक क्रांति का सूत्र पकड़ा निर्धनता से हट खुशहाली की ओर जाने के लिए”.
“अब दाज्यू”. रजनीश जी ने कहा,”नेताओं को गठजोड़ के हथकंडों से फुर्सत मिलती तब विकास की बात सोची जाती. पहले दान के गेहूं से पेट भरा. पी एल 480. तकनीक भी दान की जो उनके यहां किसी काम की नहीं वो यहां पी एल 665 में फेंक दी गई . लाल गेहूं आया विदेश से, उसमें बीज आये पार्थेनियम के.वही कोंग्रेसी घास जो हर जगह फैल फसल की बढ़वार रोक रही.राशन लगा, चावल, चीनी आटा, मिट्टी तेल. सुरसा का मुँह खोलती महंगाई क्या होती है और क्यों यह नारा गरीबी हटाओ. अरे तुम्हारे ही पिता की नीतियों से ये दुर्दशा हुई. तुम हटाओ- हटाओ चिल्ला रहे बस. तभी पता चला बेकारी है कितने किस्म की. पढ़े लिखे बेकार. उससे भी बुरे हाल पहाड़ के. जहां भनमजुवा संस्कृति पनपी. उससे पहले से ही रोजी रोटी के लिए लोग बागों ने पहाड़ छोड़ा”.
“तुमको बताऊँ सोम, ये जो अपना पिथौरागढ़ है ना यहां सबसे ज्यादा मनी आर्डर आते हैं. यही क्या पूरे कुमाऊँ और गढ़वाल के पहाड़ों में यही है. हिल स्टेट बनता कुछ सही लोगों की सोच काम करती तो यहां के हालत बदलती”.रजनीश जी अब कुछ भावुक हो गए.
हालत बदलने वाले तो लगे हैं गठजोड़ में. एक से बढ़ एक हथकंडे. जे ऍम सी जोशी जी का पारा अब गरम होने लगा. ज्यादा गुस्से में बोलते उनके होठों के किनारे थूक जमा होने लगता जिसे वो बार बार जेब में पड़े रुमाल से पोछते और अचानक रुक पनामा सिगरेट भी सुलगाते.
“देखा ना आपने.1975 में तो सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में बेईमानी के तरीके अपनाने पर इंदिरा गाँधी को दोषी पाया और उसे त्यागपत्र देना पड़ा”.
“पर हुआ क्या? उस लेडी ने इमरजेंसी लगा दी.कुछ घंटों में भारत के लोकतंत्र पर तानाशाही हावी हो गई. विपक्षी नेता जेल में डाले.प्रेस में सेंसर शिप”.
“पर सर. इस इमरजेंसी ने ब्यूरोक्रेसी को गवर्नमेंट सर्वेंट को डिसिप्लिन सिखा दिया. सरकारी कर्मचारी, क्लर्क, चपरासी सब लाइन पर आ गए. रेल, बस, एरोप्लेन सब सही टाइम और कायदे से चलने लगे. फर्म, फैक्ट्री, कारखाने का प्रोडक्शन बढ़ा.वो क्या थे विनोबा भावे लैंड रिफार्म वाले उन्होंने तो इमरजेंसी को अनुशासन पर्व कह तारीफ की”. सोम बोला.
जे एम सी जोशी अचानक झल्ला गए.”ये जिस अनुशासन की बात हुई ना वो इंदिरा गाँधी के सुपुत्र ने कायदे-कानून की जगह निरंकुश व्यवस्था में बदल दिया.वो दून स्कूल का पढ़ा, इंग्लैंड रॉल्स रॉयस के यहां मोटर मेकेनिक का काम सीखने वाला संजय गाँधी.1971 के इलेक्शन में गरीबी हटाओ से इंदिरा गाँधी खूब जीती और तब से ही ये संजय अपनी माँ के राज में सर्वे सर्वा हो गया. हर मंत्री मुख्यमंत्री उसकी खुशामद करने लगे”.
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“चरण चाट संस्कृति अपने पूरे उफान पर आ गई. संजय की चप्पल पैर से फिसली तो तीन मुख्यमंत्री उसे उठाने झुके. क्या पुलिस क्या डीएम-कमिश्नर, मंत्री-संतरी राष्ट्रपति भी झुनझुना बजाने लगे”.
“कम्युनिस्ट सलाहकार छा गए थे पॉलिसी मेकिंग में पहले मोहन कुमार मंगलम का दबदबा रहा. शास्त्री जी जो चेंज चाहते थे, इंडस्ट्रियल पालिसी को बदलना चाहते थे वह सब नौकरशाही ने बदल दिया. शास्त्री जी चल बसे उनके साथ ही उनके सारे जरुरी कदम भी जकड़ दिए गए.” जगमोहन जी कुछ गुस्से में आ गए थे. कुछ कुछ काँपते हाथों से उन्होंने फिर सिगरेट सुलगा ली थी.
तुम्हें ये सोच के इरिटेशन नहीं होता कि वो हमारी पी. ऍम जो बड़ी कलचर्ड फैमिली में पली बढ़ी, अपने फादर की बदौलत जिसका उठना- बैठना देश की एफलुएण्ट जेंट्री से हुआ वह पावर मिलते ही अपने छोटे बेटे की कारगुजारिओं में कैसे फंस गईं. चरण चाट ट्रेडिशन में हर बड़ा अधिकारी, डिप्लोमेट, मंत्री प्रधान मंत्री रहता है पर फैमिली प्लानिंग के नाम पर जो कुछ हुआ वह नासमझी भरा था क्यों तुम क्या कहते हो दीप”? जगमोहन जी ने दीप पंत से पूछा जो सोबन की तरह हाथ पर अपनी ठुड्डी टिकाये बड़े ध्यान से सुन रहा था.
दीप के चेहरे के भाव कुछ तल्ख़ हुए.
“पापुलेशन कण्ट्रोल तो जरुरी हो गया था पर वो तरीका बड़े आतंक पूर्ण तरीके से अंजाम दिया गया. अब जिसके दो बच्चे हैं उसकी नसबंदी कर दी जाए. ये क्या तुक हुई? पर हुआ तो यही कि न उम्र देखी गई और न ही यह कि वह शादीशुदा है या गैर शादी शुदा”.
“इक्कीस महिने की इमरजेंसी. इंदिरा गाँधी को यह मुगालता रहा कि उन्होंने कई सूत्री प्रोग्राम चला गरीबी हटाओ के नारे से बड़ी लोकप्रियता हासिल की है”.
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पाकिस्तान के मशहूर अर्थशास्त्री हुए हैं मेहबूब उल हक़ जिनकी किताब आई अभी 1976 में,”द पॉवर्टी कर्टन :चाइस फॉर द थर्ड वर्ल्ड. उन्होंने साफ लिखा कि गरीब देश समृद्ध होने में इसीलिए असफल रहे कि उन्होंने अपने लोगों के बुनियादी विकास को कोई तवज्जो नहीं दी. उन्होंने शिक्षा और परिवार नियोजन के साथ सामाजिक क्षेत्र के मुद्दों को अहमियत दी और मानव विकास सूचकों के द्वारा गुणात्मक कारकों से बेहतर जीवन बनाने पर जोर दिया. जब हमारा देश संरक्षण की नीतियों पर चलने पर बाध्य था तभी हक़ साहिब ने पाकिस्तान के लिए पूंजी वाद की वकालत की और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए मुक्त बाजार सिद्धांतों को लागू करने के लिए मार्गदर्शन किया. वह चाहते थे कि विकास के लाभोँ का वितरण समाज के हर तबके की ओर रिसे. मेहबूब उल हक़ और अमर्त्य सेन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में सहपाठी रहे. गरीबी दूर करने के लिए उन्होंने जिस बहु सूत्री रणनीति को प्रस्तुत किया उसकी साफ छाप हमारे यहां लागू बीस सूत्री कार्यक्रम में पाई गई. पर आयरन लेडी ने इसका कहीं जिक्र नहीं किया”.
यहां भी क्या हुआ,कितने सूत्री कार्यक्रम हों, लाख नारेबाजी हो, शोशे बाजी हो, इमरजेंसी लगे और फिर आयरन लेडी ने आनन फानन चुनाव डिक्लेयर किए और वो हार गईं. कब से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने की चाहत पाले मोरारजी देसाई 24 मार्च 1977 को देश के चौथे प्राइ मिनिस्टर बन गए”…
“हां, स्वमूत्र चिकित्सा की अनंत संभावनाएं भी खुल गईं ” हँसते हुए रजनीश जी बोले तो बड़ा गंभीर हो चुका माहौल हंसी ठिठोली में बदल गया.
सोम भी जो बीमार सा जुकाम ग्रस्त पड़ा था, इस बातचीत के बाद बहुत खुल सा गया दिखा. बहुत सहजता से भरा.
“सर, में कितनी ही यूनिवर्सिटीज में गया. वहाँ रहा, पढ़ा. और ये पाया कि वहां स्टॉफ और प्रोफेसर बस अपने ही सब्जेक्ट में टिके रहते हैं उसी कि बात भी होती है. पर यहां तो मैथमेटिक्स वाले, फिजिक्स, केमिस्ट्री वालों को देश की पोलिटिकल इकोनॉमी की इंटेंस नॉलेज है. आपके फोर्थ क्लास का चपरासी भी पूरे ध्यान से सबको सुन रहा दिखा. मुझे बड़ा अच्छा लगा, और अब मुझे लग रहा कि प्रोफेसर चिस्ती ने हमें पिथौरागढ़ भेज बड़ा अच्छा किया, क्यों रोहिणी?”
“हां, जी. तुम्हीं घबड़ा रहे थे.रात भर बस में बैठे हाय पहाड़, होय पहाड़ कर रहे थे. अब देखो बातों बातों में कितनी गहरी बातें खुल गईं “.उसने तारीफ की.
अब घर आओ, कॉलेज आओ. बातें तो होती ही रहेंगी. ये मृगेश हुआ ही ले आएगा तुम्हें. इसे भी खूब घूमने का शौक है. हो आओ इंटीरियर तक.
हाँ, तभी मुझे मेडम चिश्ती ने भेजा.
रोहिणी इस बीच अपने बैग खोल सामान खोलती बंद करती रही. सोम को बताती रही कि दिल्ली से चलते वह क्या कुछ रखना भूल गया खास कर उसकी माँजी के हाथ के बने स्वेटर. उसने अपनी माँजी के हाथ बने बड़े से पीतल वाले कटोरदान में रखे आटे के लड्डू खिलाये जो गोंद और तमाम काजू बादाम अखरोट किशमिश से भरे थे .पिन्नी भी खिलाई.
मैंने तारीफ की तो उलाहने से बोली, “मेरा पीहू इन्हें खा ले तो पेट खराब हो जाता इसका.इसे तो तो बस इडली भात चाहिए.इंग्लैंड में भी साम्बर राइस के लिए खूब टैक्सी पकड़ी इसने.
सोम कुछ शरमा गया.
“आप चिंता ना करो, हम खिलाएंगे रस भात, बड़ी भात, चुड़काणी भात, पालक का कापा, भाँग की चटनी . मजबूत हो जायेगा पट्ठा पहाड़ रहते”.दीप बोला, फिर फुस फुसाया.
“वैसे नेपाली शिलाजीत भी मिलती है यहां, सालम पंजा मूसली तो हुए ही, क्यों मृगेश!”.
(Kumaon Pithoragarh Mrigesh Pande)
(जारी)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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