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अथ उपटापि चरितम्

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उपटापि तो उपटापि ही हुआ, उसे परिभाषित करना ठीक वैसा ही है, जैसे गुड़ और करेले का स्वाद केवल महसूस किया जा सकता है, उसे शब्दों के माध्यम से मीठा या कड़वापन का स्वाद ही बयां किया जा सकता, उसके मीठे या कड़वेपन के अन्दर भी एक विशिष्ट स्वाद है जो अभिव्यक्ति के दायरे से परे है. असल स्वाद तो केवल वही अनुभव कर सकता है, जिसने स्वयं चखा हो. कुमाऊनी लोकभाषा में व्यक्तित्व परिभाषित करने के लिए ऐसे ही कई विशेषण हैं लेकिन उनका वास्तविक अभिप्राय वही समझ सकता है, जिसने उस लोकभाषा को बचपन में जिया हो और मां के दूध के साथ लोकभाषा को पीया हो. यह लोकभाषा की खूबी है कि केवल एक शब्दमात्र के विशेषण का प्रयोग करने से संबंधित व्यक्ति का पूरा व्यक्तित्व उभरकर आकार ले लेता है. निगरमण्ड, अनड्वान, बैचालि, छाक्ट्, खबीस, भ्यास, ऐसे ही कई व्यक्तिवाचक विशेषण हैं, जिनके लिए दूसरी भाषा में कोई सटीक शब्द ढॅूढना लगभग लगभग मुश्किल है. ये लोक विशेषण अभिव्यक्ति से परे अनुभूति के विषय होते है.
(Uptapi Charitam Bhuwan Chandra Pant)

कुमाऊनी लोकभाषा में प्रयुक्त होने वाला एक ऐसा ही विशेषण है – उपटापि. इसके लिए हिन्दी में कोई सटीक शब्द ढॅूढे नहीं मिलता। दरअसल उपटापि नटखट, खुरापाती, मसखरा, उद्दण्ड, उटपटांग, शरारती, विचित्र, प्रत्युत्पन्नमति जैसी विशेषताओं को स्वयं में समाहित किये है. इसे एक शब्द में समझ पाना मुश्किल है. हां – किसी व्यक्तित्व के प्रसंगों का सहारा लेकर इसे आसानी से समझा जा सकता है.

ऐसा ही एक ’उपटापि’ था – विनोद. ’यथा नाम तथो गुणाः’ की स्पष्ट छाप उसमें देखी जा सकती थी. गांव के लोगों ने उसका नाम ही विनोद ’उपटापि’ रख दिया था. बचपन से ही क्या घर क्या स्कूल वह अपनी अजीबोगरीब हरकतों के लिए अपनी विशिष्ट पहचान बना चुका था. हाईस्कूल तक की शिक्षा अपने गांव में पूरी कर, जब वह इन्टर की पढाई के लिए घर से दूर दूसरे गांव के स्कूल में गया, तो छात्रावास में रहने लगा. छात्रावास का कमरा स्कूल से जरूर मिला था लेकिन बाकी खाने-पीने की व्यवस्था स्वयं छात्रावासियों को स्वयं करनी होती थी. महीने-पन्द्रह दिन में घर जाता और जरूरत का राशन आदि ले आता. मां-बाप चिन्तित रहते, पता नहीं यह कुड़बुद्धि कब क्या न ’उपाम’ (काण्ड) कर दे.

इस बार उसका राशन एक हफ्ते में ही निबट गया. उसका आहार नहीं बढ़ा, बल्कि उसके आहार में कमरे में आने वाले चूहे उसके साझीदार हो गये. घर से कुटुरों में बांधकर जो लाता, चूहें रातों-रात उसको कुतर देते. जब कि साथ के कमरों के छात्रावासियों से कभी चूहों की शरारत की खबर उस तक नहीं पहुंचती. जब कि सभी कमरों के दरवाजों के नीचे सुराख इतने बड़े थे कि चूहे आसानी से आ-जा सकते थे. अपनी चूहों वाली समस्या को उजागर न करते हुए उसने अपने ही अन्दाज में अन्य बच्चों का मन टटोलते हुए कहा – ’’यार ! हमारे गांव में तो उतने चूहा धमा-चैकड़ी करते थे, यहां तो चूहे दिखते ही नहीं.’’ दूसरे छात्रावासियों ने उसे समझाया – भाई! वो घर है और ये छात्रावास के कमरे। यहां क्या खाने भला चूहे आयेंगे? विनोद उपटापि के समझने में देर नहीं लगी कि चूहों का सताया वह इकलौता बन्दा है, बाकी सब तो चैन से हैं. था तो वह उपटापि ही, चूहेदानी लगाने के बजाय अपनी भावी योजना अतिगोपनीय रखते हुए उसे दूसरी युक्ति सूझी. पिछली बार ही वह घर से भट की दाल लाया था. उसने दो मुट्ठी भट तवे में अच्छी तरह भून लिये. जब छात्रावास में सभी कमरों में बच्चे सो गये तो वह दबे पांव अपने कमरे से बाहर निकला और तीन-चार कमरों में भुने हुए भट के दाने दरवाजे के सुराखों के बीच से अन्दर को डाल आया और कमरे में लौटकर लंबी तानकर सो गया.
(Uptapi Charitam Bhuwan Chandra Pant)

इस रात उसे चूहों की खड़-बड़ नहीं सुनाई दी और सुबह उठकर देखा तो सारा सामान जस का तस सुरक्षित था. उसकी युक्ति काम आ चुकी थी और विनोद उपटापि का यह उपक्रम बदस्तूर चलता रहा. दूसरे कमरों के लड़के परेशान थे, वे जब विनोद से चूहों के आतंक की बात करते तो विनोद सहज भाव में कहने लगता – चूहे ही तो हैं, आखिर कितना खा जायेंगे? मन ही मन विनोद के लड्डू फूटने लगते. बहरहाल उसे तो चूहों से निजात मिल चुकी थी.

उम्र बढ़ने के साथ भी उसका यह स्वभाव नहीं बदला. दूर मैदानी शहर में नौकरी लगी. तब भी कुंवारा ही था. अपनी कालोनी में अकेला पहाड़ी. पड़ोस के सक्सेना जी से अच्छी पटती थी. जब भी घर से आता तो पहाड़ की विशेष चीजें लाता और सक्सेना जी से शेयर करता. इस बार दीवाली के बाद जब वह घर से लौटा तो पहाड़ी दाल के अलावा गडेरी की सब्जी भी लाया था. भांग डालकर गडेरी की स्वादिष्ट सब्जी बनाई और एक कटोरा सब्जी सक्सेना जी को भी दे आया. दूसरे रोज सक्सेना जी सब्जी की तारीफ करते नहीं थक रहे थे. बोले -’’ यार विनोद भाई मैं आज खुद भी ये सब्जी बनाना चाहता हॅू , क्या मुझे बनाने का तरीका बता सकते हो? ’’हां, है तो वाकई लाजवाब सब्जी, लेकिन इसे बनाना हरकिसी के बूते की बात नहीं.’’ ऊंट को पहाड़ के नीचे आते देख विनोद मन ही मन खुश हुआ और न बना सकने की चुनौती भी दे डाली. बोला – तुम्हारे बस का नहीं है, इसे बना पाना. बहुत मेहनत मांगती है, ये सब्जी. सक्सेना भी इस सब्जी के स्वाद का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे, उस पर चुनौती ने उनके पौरूष को ललकारा. अरे ! दुनियां में कोई ऐसी चीज है, जो नहीं की जा सकती , तुम तो एक सब्जी बनाने की बात कर रहे हो?. विनोद के मन में तो शरारत सूझी ही थी, बोला – मेरी तो घर से लाई दूसरी सब्जियां खराब हो जायेंगी मैं तो दूसरी सब्जी बना लॅूगा, हां तुमको मैं बनाने का तरीका मैं बता सकता हॅू. सक्सेना को लगा इससे अच्छा क्या हो सकता है? सब्जी खाने के साथ बनाना भी सीख जाऊंगा? तय हुआ कि कल शाम ऑफिस से लौटने के बाद इसे बनायेंगे. विनोद बोला – फिलहाल तुम्हें तैयारी अभी से करनी होगी. ऐसा करो – गडेरी का बाहरी छिलका उतारकर तुम इसे पानी में डुबोकर फ्रिज में रख दो. बाकी काम कल शाम को होगा.

सक्सेना ने बताये अनुसार गडेरी का छिलका उतारा और एक भगौने पानी भरकर उसमें छिली हुई गडेरी डुबाई और फ्रिज के अन्दर रख दी. अगले दिन शाम को सक्सेना जल्दी-जल्दी अपना काम निबटाकर घर पहुंच गये. विनोद तो पहले ही आ चुका था. गडेरी की रेसिपी के लिए विनोद का सम्मान के साथ बुलाया गया. अब, विनोद ने सिलसिलेवार बताया – पहले गडेरी को आयताकार टुकड़ो में बर्फी की शक्ल में काट लो. गडेरी काटने में ही सक्सेना की हालत खराब हो गयी. एक टुकड़ा काटते फिर हाथ खुजलाते, फिर चाकू उठाते दूसरे क्षण हाथ खुजलाते. जैसे-तैसे सब्जी कटी तो विनोद को सक्सेना पर तरस आ गया बोला – अब हाथों में थोड़ा सरसों का तेल चुपड़ लो, खुजली ठीक हो जायेगी, साथ ही यह भी बोला कि हाथ में जितनी अधिक खुजली काटने में लगती है, गडेरी उतनी ही स्वादिष्ट मानी जाती है. हाथ में तेल चुपड़ कर खुजली गायब होने से उसका विनोद पर और यकीन बढ़ गया.
(Uptapi Charitam Bhuwan Chandra Pant)

अब चूल्हे पर सब्जी चढ़ाने की बारी थी. विनोद ने बताया अन्य सब्जियों की तरह इसे तड़का लगा सकते हो, लेकिन ध्यान रहे कि पानी एक साथ मत डालना. अच्छा हो, कि इसके लिए तुम फ्रिज में पानी की एक बोतल रख लो, ज्यों-ज्यो पानी की जरूरत हो, फ्रिज से पानी निकालकर इसमें डालते रहो. ध्यान रहे कि पानी जितना ठण्डा इस्तेमाल करोगे, सब्जी उतनी अच्छी बनेगी. अपनी सारी तरकीबें बताने के बाद विनोद अपने कमरे में लौट आया, अपना खाना बनाया, खाया और सोने को बिस्तर पर चला गया. सामने सक्सेना के कमरे की लाइट अभी भी जली थी. विनोद दबे पांव उनकी कीचन की खिड़की से झांककर देखने लगा. सक्सेना गैस के पास खड़े सब्जी में करछी चलायें , फिर टुकड़ा निकालकर उसमें कांटा चुभायें और वापस कढ़ाही में डाल दें. विनोद को खित्त कर हंसी आती, इससे पहले वह खिड़की से हट गया और बिस्तर पर आकर सो गया. सक्सेना की सब्जी को याद करते करते कब नींद आई, पता ही नहीं चला.

सुबह-सुबह जब सक्सेना उठे तो सीधे विनोद के कमरे की ओर रूख किया. सक्सेना को आते देख विनोद को समझने में देर नहीं लगी की माजरा क्या है? सक्सेना बता रहे थे कि रात के दो बजे तक सब्जी का इन्तजार किया, जब भूख और नींद दोनों नहीं सह पाया तो एक रोटी अचार के साथ चबाकर सो गया लेकिन वह सब्जी रातभर चूल्हे में है, अब भी नहीं पक पाई है. विनोद अपनी हंसी को होंठों पर दबाते हुए मन ही मन कह रहा था – ऐसी ही होती है जनाब! पहाड़ की गडेरी.

नौकरी से लम्बी छुट्टियों में जब विनोद अपने गांव लौटता तो पूरे गांव में रौनक छा जाती. विनोद का एक सहपाठी था – शेर सिंह. शेर सिंह का गांव में ऐसा दबदबा था कि हर मुश्किल काम को करने का वह दम भर लेता. हट्टा-कट्टा छः फुटा पहलवान, रौबीली मूंछें, आवारा किस्म का दिलेर युवक. हालांकि उसकी दिलेरी किसी ने परखी नहीं थी लेकिन अपने मुंह मिया मिट्ठू वह दूर की फैंकता था. भूत-पिशाच को तो अंगुली पर नचाने की बात करता. उसके अनुसार भूतों को तो वह मल्लयुद्ध में इस कदर परास्त कर देता है कि फिर कभी भूत उस इलाके में आने साहस नहीं भी नहीं कर सकते. विनोद उपटापि ने उसके इस तरह के किस्से बहुत सुने थे. इस बार नौकरी से छुट्टी पर घर आने पर शेर सिंह की दिलेरी को आजमाने की सूझी. एक शाम अपने अन्य हमउम्र मित्रों के साथ शेर सिंह को भी गपशप के लिए घर पर आमंत्रित किया गया. अब सारे पुराने दोस्त साथ मिले हैं, तो बातचीत का सिलसिला लंबा चलना ही था. सभी के लिए रात के भोजन व्यवस्था विनोद ने अपने ही घर पर ही करवा दी, ताकि देर रात तक गपियाते रहें. सच तो ये था कि शेर सिंह की डींगों के लिए एक रात भी कम ही पड़ती.
(Uptapi Charitam Bhuwan Chandra Pant)

आते ही सभी मित्रों का चाय का दौर शुरू हुआ. विनोद ’उपटापि’ ने केवल शेरसिंह के गिलास में एक गोली डाल दी, जिसका आभास तक शेर सिंह को नहीं हुआ. चाय के कुछ देर बाद दोस्त मिले हैं, तो कांच के गिलासों का ’चियर्स’ तो लाजिमी थी. ज्यों-ज्यों नशा चढ़ता गया, शेर सिंह अब सवा सेर हो चुका था. अब तो वह दुनियां का सबसे शक्तिशाली सुपरमैन के अवतार में था. एक से बढ़कर एक अपनी दिलेरी के किस्से सुनाता और लोगों की हामी भरने पर और दूर-दूर की फैंकने लगता. गप्पें मारते रात के 12 बज चुके थे. खाना खाते ही शेरसिंह कुछ असहज होने लगा, बार-बार अन्दर बाहर चक्कर लगाता और पेट पर हाथ फेरता. दरअसल उसके पेट में चुपके से खिलायी गयी दवा असर करने लगी थी , जिससे वह अनजान था. विनोद उसकी इस असहजता को समझ चुका था. गांवों में तब शौचालय तो होते नहीं थे, शौचादि के लिए घर से दूर खेतों में शौच को जाना होता. अन्ततः जब पेट का पे्रसर ज्यादा जोर मारने लगा तो विनोद से टॉर्च मांगी और हाथ में लोटा थामे चल दिया दिशा जंगल को. आगे-आगे शेर सिंह और उसके पीछे दो खेत ऊपर से उसका पीछा करते विनोद उपटापि. शेरसिंह के पास टॉर्च होने से उसकी हर हरकत पर विनोद की नजर थी, जब कि विनोद को इसका कतई आभास नहीं, टॉर्च की रोशनी में अन्धेरे में चलने वाला विनोद उसके कहां दिखता? मंजिल पर पहुंचकर शेरसिंह ने अपनी पायजामा एक झाड़ी के ऊपर रख दी. ज्योंही वह शौच करने को बैठा, विनोद ने ऊपर से एक मुट्ठी कंकड़ झाड़ियों में फैंके. छणांक की आवाज से शेर सिंह उठ खड़ा हुआ. इधर-उधर झांका, फिर शौच करने को बैठा ही था, कि विनोद ने एक बड़ा सा पत्थर उसके बगल की झाड़ी में दे मारा. इस बार आवाज भारी व भयावह थी. पत्थर गिरते ही शेर सिंह आधे शौच से उठकर इस कदर भागा कि उसे लोटे व पैजामे की याद तक नहीं आई. जब थोड़ा आगे जाकर देखा कि लोटा-पैजामा तो वहीं छूट गये और अन्डरवीयर भी पाखाने से सन चुकी है. घर के पास दौड़कर पानी के धारे पर धोने लगा. उसकी हर गतिविधि की जानकारी टॉर्च की रोशनी दे रही थी. विनोद तब तक वापस अपने कमरे में आ चुका था. बिना पूरे कपड़ो के कमरे में प्रवेश कर ही रहा था कि विनोद बोल पड़ा – आओ-आओ छेरू सिंह ये क्या हालत बना रखी है. शेर सिंह के पास जवाब देने को कुछ नहीं था, उसके छेरू सिंह कहते ही शेर सिंह को यह समझने में देर नहीं लगी कि ये सब विनोद की ही खुराफाती है.
(Uptapi Charitam Bhuwan Chandra Pant)

इन तीनों प्रसंगों के बाद आप शायद ’उपटापि’ विशेषण का आशय आप समझ गये होंगे.

– भुवन चन्द्र पन्त

भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

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