महिलायें पहाड़ में जीवन की रीढ़ हैं. महिलायें न होती तो पहाड़ दशकों पहले बंजर हो जाते. संघर्ष से भरे उनके जीवन में उनके पास इतना भी समय नहीं की वे अपने बच्चों को अपना समय दे सकें. काम की ऐसी मार की नवजात बच्चों को भी पूरा समय देना संभव नहीं है.
(Khvaad Kumaoni Tradition)
पहाड़ में नवजात बच्चे अक्सर बचपन से ही अपने आमा-बूबू की गोद में पलते और बढ़ते हैं. जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं बूढ़ों की मुश्किलें और बढ़ती जाती हैं. फिर ईजा को अपने प्यारे बच्चे के लिये कुछ न कुछ जुगाड़ करने पड़ते हैं जिससे बुजुर्गों को भी परेशानी न हो और बच्चे भी अपना बचपन खूब जी सकें.
दरसल पहाड़ में घर के पूरा काम महिलाओं के हिस्से ही होता है. सुबह सूरज उगने से पहले और सूरज ढलने के बाद तक वह लगातार काम में जुटी रहती हैं. इसमें बच्चों के लिये समय निकाल पाना उनके लिये बहुत मुश्किल हो जाता है. इसलिये वह बच्चों को घर पर छोड़ते समय कुछ न कुछ ख़ास इंतजाम कर जाती हैं. ख्वाड़, पहाड़ी माँ का ऐसा ही एक जुगाड़ है.
(Khvaad Kumaoni Tradition)
महिलायें घर के किसी भी कमरे अपने बच्चों के लिये ख्वाड़ बनाती हैं. वह कमरे के बीचों-बीच या कमरे के किसी एक कोने में लकड़ी का तख्ता लगाकर एक खाली हिस्सा बचाती हैं जिसमें बच्चे खेल सकते हैं. इस तख्त की ऊँचाई इतनी होती है बच्चा उसके सहारे खड़ा हो सके और उसे पार न कर सके. इसके भीतर बच्चे के बैठने के लिये छोटा बिछाने बिछाये जाते हैं. इसमें इतनी जगह होती है कि उसमें बच्चा आसानी से उसमें घुम सकता है.
ईजा इस हिस्से का निर्माण इसलिए करती हैं ताकि बच्चे पूरे घर में न घूम सकें और इधर-उधर गिरने का ख़तरा उसे न रहे. इस खाली हिस्से में ईजा बच्चे को बैठा देती है और बच्चे पूरी आज़ादी के साथ उसमें खेलते हैं और अपनी इस नई दुनिया में किसी राजकुमार या राजकुमारी की तरह राज करते है.
(Khvaad Kumaoni Tradition)
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लगता है ख्वाड़ ही "नर्सरी" का देसी रूप है.