यात्रायें जीवन की तलाश हैं और इस तलाश का हासिल गतिमान होकर उस छोर को पकड़ना है जो चेतना के किसी स्थिर बिंदु पर आनंद व प्रकाश की अनुभूति प्रदान करता है. यात्राओं के दौरान चेतना सजग और जागृत हो जाती हैं. संभवतया यही कारण है कि चलते रहना जीवन के रहस्यों की खोज है, यही नहीं यात्रायें आत्ममंथन का पड़ाव भी हैं. (Khandeshwari Devi Temple Dwara)
मैंने पहाड़ों पर चढ़ते हुए यह महसूस किया है कि केवल हमारी देह ही पहाड़ पर नहीं चढ़ती है यद्यपि साथ में हमारा मन भी बहुत ऊंचे-ऊंचे पहाड़ नापता है. पहाड़ पर चढ़कर हम ऐसी सत्ता में प्रवेश करते हैं जहां दृष्यमान जगत अर्थात मिट्टी, हवा , आकाश, पेड़, सूरज, बारिश में उस देवीय शक्ति के होने का आभास होता है. यही दैवीय स्वरूप हमारी अन्तश्चेतना का भी मार्ग-दर्शन करता है.
मेरे अनुसार भौतिक-संसाधनों से दूरी और प्रकृति से सामीप्यता स्वयं के अन्त:प्रदेश से होकर ईश्वरीय सत्ता में प्रवेश करने का मार्ग है यह बात और है कि मोबाइल और कैमरा हम प्रकृति के अद्भुत दृश्यों को कैद करने हेतु साथ ले जाते हैं ताकि यात्राओं के दौरान जो हमने अर्जित किया है ताउम्र हमारी स्मृतियों में बसा रहे.
जंगल, पेड़, पहाड़, हरियाली, धार्मिक-स्थल आपको जीवन के सौंदर्यकरण की ओर भी प्रवृत्त करते हैं बशर्ते हम सभी में जीवन को अलंकृत करने वाले तत्वों को पहचानने की सूक्ष्म-दृष्टि विकसित हो. चलना एक सतत यात्रा है किंतु जीवन को जो लय, सरसता व तरलता प्रदान करता है उस जीवन-दर्शन की भिज्ञता भी ज़रुरी है जीवन पथ पर चलते हुए. यात्राएं चाहे सायास हों या अनायास, सूक्ष्म हों या विस्तृत हों फिर कठिन हों या सरल हों जीवन को एक उद्देश्य व प्रेरणा ही प्रदान करती हैं.
मेरे लिए प्रकृति की संपूर्ण सत्ता मेरी मार्ग-दर्शक है. यदि पहाड़ों की ओर देखती हूं तो पहाड़ मुझे धैर्यवान बनाना सिखाते हैं. पहाड़़ जब धूप और गर्मी की मार सह सकते हैं तो हम क्यों नहीं? पहाड़ हमें ऐसे तटस्थ और मौन रहना ही तो सिखाते हैं सार्थक जीवन जीने के लिए. जंगल से गुजरते हुए चीड़ के वृक्षों की विस्तीर्ण व नीरव सत्ता में जब मैं अधजले अर्थात आधे हरे और आधे काले वृक्षों को देखती हूं तो इनमें मुझे जीवन की आपदा और विपदा में जीजिविषा के लिए श्रम व संघर्ष दिखाई देता है. प्रबल संभावना है कि बारिश की बूंदें जैसे ही इनकी अधजली शाखाओं पर गिरेंगी एक नयी चेतना के साथ इन चीड़ के पेड़ो के पुनर्नवा का दौर शुरू हो जायेगा.
एक जिज्ञासु और सजग मन जीवन मूल्यों को संजोने वाले दर्शन के बल पर ही जब भी समय और परिस्थितियां अनूकूल हों पहाड़ों की ओर डग भरता है. एक सचेतन मन की तलाश हैं यात्राएं जिसे पता है कि जीवन के जो अनुत्तरित व अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर वह तलाश रहा है यात्राऐं मददगार साबित होंगी उनके समाधान ढ़ूढने में.
बहुत गर्मी पड़ रही है देहरादून में. अल्लसुबह की खुनकी या शाम के नीम अंधियारे की नर्म हवा कुछ देर तक ही सुकून देती है फिर इन दोनों के अंतराल की गर्मी मन को बहुत बेचैन किये रहती है. शनिवार का आधा दिन बीत गया है पतिदेव ने घर आते ही कहा आज बहुत गर्मी है क्यों ना थोड़ी राहत पाने के लिए द्वारा गांव चला जाये अनायास ही घर से बाहर डग भरना यूं तो असहज होता है मेरे लिए किंतु फिर भी निकलती हूं अपने अनुभवजन्य इस आश्वस्ति के साथ कि अकस्मात लिए गये निर्णयों की परिणति संतोषजनक ही होती है, हम नाहक ही किंतु-परंतु में उलझकर प्राप्य अवसर को नज़रंदाज़ कर देते हैं. ख़ासकर जब शरीर और मन परिवर्तन की मांग करता है तो परिवर्तन के लिए ही प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि परिवर्तन ही एक स्थायी प्रक्रिया है जीवन को पुनर्जीवित करने की.
हमने ज़्यादा कुछ नहीं सोचा है एक-एक जोड़ी कपड़े और ज़रूरी सामान साथ रख लिया है और द्वारा गांव के लिए निकल गये हैं. चूंकि द्वारा गांव हम अक्सर जाते रहते हैं इसलिए वहां जल्दी पहुंचने की हमें कोई हड़बड़ी नहीं है. देहरादून से द्वारा गांव महज़ 25 किमी है और आधे -पौन घंटे में हम वहां पहुंच ही जायेंगे. इस बार तो कहां हम ठहरेंगे यह भी नहीं सोचा है लेकिन द्वारा गांव अब पहले जैसा नहीं रहा है. कदम-कदम पर होम-स्टे और सभी सुविधाओं से लैस रिसार्ट हैं. कहीं ना कहीं हम मुसाफिरों को रहने का ठिकाना मिल ही जायेगा.
हम रास्ते में मौज-मस्ती करते खाते-पीते हुए द्वारा गांव पहुंच गये हैं. लेखक रमाकांत बेंजवाल की किताब “गढ़वाल के इतिहास” में द्वारा गांव का ज़िक्र भी है. जिसमें द्वारा गांव को गुरु द्रोणाचार्य की तपस्थली कहा गया है और इस बात की पुष्टि स्थानीय लोग भी करते हैं.
रात के आठ बजे हम द्वारा गांव पहुंच गये हैं. हमने ‘ब्लू एंड व्हाइट’ होम स्टे के आगे गाड़ी रोक दी है. दो-तीन बार हम इस होम-स्टे में आ चुके हैं इसलिए सोचा कि पहले यहीं दस्तक दी जाये. ‘ब्लू एंड व्हाइट’ सड़क के किनारे थोड़ा चढ़ाई पर है. इस वक्त उसके बाहर की सारी लाइट जली हुई है लेकिन कोई नहीं दिखाई दे रहा है. पतिदेव ने आवाज़ दी है, एक स्त्री ऊपरी मंजिल से झांकती है. कह रही है, “दोनों कमरे आरक्षित हैं.” पतिदेव की जान-पहचान स्टाफ से लेकर मालिक तक सभी से है इसलिए थोड़ा जुगाड़ भिड़ा रहे हैं यहां रुकने के लिए. पूछने पर पता चला है कि दो लड़कों की यहां बुकिंग है. किंतु वे अभी तक आये नहीं हैं. केवल सोने के लिए आयेंगे कहकर चले गये हैं. होमस्टे के मालिक को पतिदेव ने कहा कि वो दोनों लड़के अकेले हैं और कहीं भी रह सकते हैं और हमारे परिवार और बच्चे साथ में हैं. यदि उन दो लड़कों को आप हमारी समस्या फोन पर बताकर उन्हें कहीं और रहने के लिए तैयार कर सकते हैं तो हमारी समस्या का समाधान हो जायेगा. मालिक ने पति का मुलाहज़ा कर उन दोनों लड़कों से फोन पर बात की और वह भले इंसान कहीं और रहने के लिए तैयार हो गये. यह तो अच्छा यह हुआ कि उन्होंने एडवांस नहीं दिया था बुकिंग के लिए. इसलिए मैंने ऊपर कहा कि यात्राओं के लिए बहुत ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए, ख़ासकर पहाड़ों पर जाने के लिए. अभी पहाड़ में भलमनसाहत और इंसानियत सांसें ले रही हैं वरना बिना पूर्वनिर्धारित यात्रा हमारे लिए परेशानी का सबब बन सकती थी.
देर बहुत हो चुकी है खाना बनाने और इस पूरे होम-स्टे की देखभाल करने वाली मात्र यही महिला है. उसने पूछा, “रात के भोजन में क्या खायेंगे आप लोग?” हमने समय की कमी देखते हुए कुछ भी बनाने को कहा. हम सभी फ्रेश होकर बाहर बैठ गये हैं. बालकनी की दिवार से ही लगा हुआ बालकनी को स्पर्श करता हुआ लंबा और पतला सा सेमल का पेड़ है जो हवा के ठंडे झोंके के साथ नशीला होकर यहां वहां झूम रहा है. सेमल के फलों की कहते हैं बहुत स्वादिष्ट सब्जी होती है हालांकि मैंने कभी नहीं खायी है. मौसम का मिजाज़ तो देखो! अभी देहरादून से आते-आते हम लोगों का गर्मी से बुरा हाल था. लेकिन गर्म हवाएं मानो पहाड़ के आगोश में मचलकर बर्फ हो गयीं इतनी ठंडी कि, ठंड से हमारे हाथों में सरसराहट होने लगी. मुझसे तो ठंडी हवा झेली नहीं गयी और मैं झट से अपना पतला सा शाल उठा लायी. मुझे पता है… यहां पहाड़ों का मौसम, अभी गर्मी अभी झट से बादल घिर आते हैं और फिर झमाझम बारिश… ऐसे ही हुआ तेजी से सेमल का पेड़ झूमने लगा. हवायें बालकनी के पर्दों को बाहर खेतों पर अपने साथ उड़ा के ले गयीं और जैसे ही हम पर बारिश की छींटें गिरीं हमने अपने आपको डिनर के साथ ही गोल टेबल पर समेट लिया. खाना स्वादिष्ट व घर जैसा ही था. होमस्टे ने हमें हमारे घर को भुलाने ही नहीं दिया है.
रात बारह बजे तक हम बारिश और हवाओं की गुत्थम-गुत्थी में सेमल के पेड़ को लहराता देखते रहे, बेचारा सेमल का निरीह पेड़! अब थकान लगने लगी है. सुबह जल्दी उठकर नदी-पहाड़ हवाओं के सानिध्य में सभी सुबह की सैर पर जायेंगे यह कहकर सबने शुभरात्रि बोल दिया है. देखते हैं कौन-कौन सुबह जल्दी उठता है? मुझे तो हर हाल में जल्दी उठना है मुझे पैताने पर तैरती धूप बिल्कुल भी नहीं भाती है.
सुबह के पांच बजे चिड़ियों की चहचहाहट कानों में जीवन के मीठे रस का उल्लास व संगीत घोलती महसूस हो रही हैं. इस मधुप को दृगों से पिया जाये तो आनंद ही कुछ और होगा. आंखें खोली तो देखती हूं मां पलंग पर बैठकर ही दोनों हाथों से ताली बजाकर अपने में ही लीन ईश्वर का भजन कीर्तन कर रही हैं.
मां और मैं बाहर आकर बालकनी में बैठ गये हैं. बाहर मौन प्रकृति में ईश्वर प्रदत चर और अचर की खलबली मची हुई है. हम कुछ एक इंसानों को छोड़कर हर कोई सुबह-सुबह जीवन के संघर्ष के लिए तैयार. चिड़ियों को अपने परिवार के लिए भोजन जुटाना है. सूरज को जल्दी से पहाड़ी पर चढ़ना है. चरवाहों को अपने मवेशी लेकर चारागाह पर पहुंचना है. हवा और पेड़ों को सारा दिन धूप के साथ संघर्ष करने के लिए नये सिरे से तैयार होना है.
यहां खाना बनाने वाली स्त्री दूर गांव से आती है इसलिए पतिदेव ने उन्हें रात में ही कह दिया था कि वह सुबह की चाय के लिए परेशान न हों, हम स्वयं ही चाय बना लेंगे. चाय पीकर मैं पतिदेव और मां सुबह की सैर पर निकल गये हैं.
नीरभ्र आकाश है. भोर की नीरवता में पहाड़ों के संघर्ष की खलबली मची हुई है. स्त्रियां हाथ में दरांती लिए पीठ पर घील्डा (एक लंबा टोकरा जिस पर स्त्रियां अपने मवेशियों के लिए घास लाती हैं) टांगकर बकरियों के रेवड़ के बीच न जाने कहां जा रही हैं? किसी जंगल या शायद किसी घास से आच्छादित पहाड़ी पर अपने मवेशियों को चराने के लिए. सड़क रात में बारिश होने की वजह से गीली व साफ-सुथरी है. द्वारा गांव क्योंकि देहरादून वासियों के लिए इतवार की सैरगाह है अतः मोटर साइकिल, स्कूटी और कारों का तांता लगा हुआ है. न जाने इतने लोग सुबह-सुबह कहां जा रहे हैं?
हम तीनों अभी सैर पर है, हम आगे बढे ही जा रहे हैं. हम में से किसी का भी वापस मुड़ने का मन नहीं है. सड़क के किनारे-किनारे इफ़रात में मीठी नीम के पेड़ और अलमोड़, घिलमोड़ लगा हुआ है जिसे मां ने हमारे गढ़वाली भोजन फाड़ू में डालने के लिए तोड़ा है. सही बताऊं तो मां ने मुझे इन दो वनस्पतियों का स्थायी नाम बताया है जिससे मुझे वनस्पतियों के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिल गयी हैं. सच है ना ? बुजुर्ग अनुभव और ज्ञान के चलते फिरते पुर्जे होते हैं. सड़क के नीचे कदम-कदम पर होमस्टे व छोटे- छोटे लाज बने हुए है जिनमें कि सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं सभी के आगे बड़ी-बड़ी लग्जरी गाड़ियां खड़ी हैं. शहरों का गांव की तरफ़ रुख़ करना इस बात की तस्दीक करती हैं कि जीवन के एशो-आराम गांव की शुद्ध हवा, पानी की जगह नहीं ले सकते हैं.
आगे बांयी तरफ़ सड़क के मोड़ पर चाय की एक टपरी है जहां गैस के ऊपर चाय चढ़ चुकी है. दुकानदार अपनी दुकान को बिस्कुट, नमकीन, कुरकुरे चिप्स के पैकेटों से सजा रहा है. पहला ग्राहक उसका एक छोटा सा बच्चा है जो शायद नीचे गांव से बिस्कुट लेने आया है. गांव में पिज्जा, बर्गर कहां पहुंचेगा? वैसे भी गांव में बच्चों को बिस्कुट बहुत अच्छा लगता है.
थोड़ा और आगे जाने पर बांयी तरफ़ एक से बढ़कर एक कारें कतार में लगी हैं और दांयी तरफ मेन रोड से अलग होती एक ऊंची पहाड़ी की ओर जाती हुई घुमावदार सड़क जिस पर नीचे से ही नज़र आता है एक हटनुमा बड़ा सा घर. जिसके बारे में नीचे रोड पर ही एक बोर्ड पर लिखा है ‘फ़्योली होम स्टे.’ बाद में पतिदेव ने इस फ्योंली गेस्ट हाउस में जाकर इसके बारे में पूरी जानकारी ली है. यह एक सभी आधुनिक सुविधाओं वाला घर की ही शक्ल में होम स्टे है. एक रूम का 3500 रु चार्ज करते हैं . एक बड़ी सी किचन भी है जिसमें चाहो तो आप खाना स्वयं भी तैयार कर सकते हो. यहीं एक ओर ख़ूबसूरत दृश्यावली नज़र आ रही है ऊपर कहीं घास का मैदान कुछ बुग्याल जैसा नज़र आ रहा है उससे भी ऊपर चीड़ के पेड़ का घना साम्राज्य है ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो कि मेला लगा हुआ है. कुछ लोग नीचे उतर रहे हैं कुछ लोग ऊपर चढ़ रहे हैं. समझ नहीं आ रहा हमें कि ऊपर क्या है?पास में चाय के ढाबे में चाय बन रही है. पीने का तो बहुत मन है लेकिन हमारी किसी की भी जेब में पैसे नहीं हैं. हम तो केवल सुबह की सैर के लिए आये थे. लेकिन ऊपर जहां लोगों की आवाजाही हो रही है. वहां क्या है? लोग क्यों जा रहे हैं? मेरी इस जिज्ञासा को शांत तो करना ही होगा. इसी उद्योग के लिए हम चाय की दुकान पर खड़े हो गये. सबसे पहले पतिदेव ने हमारा यहां ‘ब्लू एंड व्हाइट’ में रुकने का परिचय दिया और पर्स और मोबाइल साथ में न होकर बाद में गूगलपे द्वारा चाय पिलाने के लिए पूछा, वह दुकानवाला चाय पिलाने के लिए सहर्ष ही तैयार हो गया. गांव में शहरों की अपेक्षा इंसानियत और संवेदनाएं अभी पूरी-पूरी ज़िंदा हैं.
हमारे पूछने पर दुकानदार ने बताया कि करीब एक-डेढ़ किलोमीटर ऊपर घास के समतल मैदान में खंडेश्वरी देवी का मंदिर है जो कि यहां के स्थानीय लोगों की कुलदेवी है. मंदिर के साथ-साथ गोल पहाड़ी पर चीड़ के पेड़ों से होकर ऊंचाई पर ट्रेकिंग का अपना अलग आकर्षण है. पतिदेव दुकानदार से जानकारी ले रहे थे और मैंने साथ-साथ खंडेश्वरी देवी के दर्शन करने का मन बना लिया था.
चाय पीने के बाद हम वापस होम स्टे पहुंच गये हैं बहन और बच्चों को खंडेश्वरी देवी के बारे में बताया. बच्चों ने ट्रैकिंग पर चढ़ने की अनिच्छा जतायी है. बहन सुनकर सहर्ष तैयार हो गयी है. हम दोनों ने नाश्ता किया बैग में कुछ जूस के डिब्बे, चिप्स और पानी की बड़ी बाटल रख ली है. पतिदेव ने हमें कार से ‘फ्योंली होम स्टे’ के एक ओर छोड़ दिया है जहां से खांडेश्वरी देवी के लिए छोटी सी करीब डेढ़ किलोमीटर की ट्रेकिंग शुरू होती है. हम दोनों ने सबको बाय कह दिया है और पहाड़ की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं. धूप अपने प्रचंड रूप में है. बहन और मैं बातें करते हुए फोटो खींचते हुए चले जा रहे हैं. एक दो विडियो भी हमने बनाये हैं. द्वारा गांव से खाडेश्वरी देवी की.
जलाती-बरसती धूप में चीड़ का शामियाना थी हमारी यात्रा.
जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर चढ़ते जा रहे हैं हमें चीड़ के पेड़ के अधजले जंगल नीचे तने के भाग से काले और शाखायें जिनकी अभी भी हरी हैं और उम्मीद की जा सकती है की अभी इनमें जीवन का अंश बाकि है. काश की सजग पर्यटकों या सरकार द्वारा इनके नीचे फैली हुई विस्तीर्ण पिरल को गर्मी आने से पहले ही हटा दिया जाये तो पहाड़ों पर आग फैलने से काफी हद तक रोक लगायी जा सकती है… एक तीव्र कारक हैं ‘पिरुल’ जंगल में आग फैलाने के लिए. कहीं पर रौद्र धूप है. कहीं पर चीड़ के वृक्षों की सघन सत्ता के मध्य हवाओं का काफिला है. कहीं पर लड़केऔर लड़कियों का झुंड पिकनिक मना रहा है. कहीं पर जोड़ा बैठा हुआ है और कहीं पर आदमियों का समूह अपने ही हिसाब का मनोरंजन कर रहा है. हम दोनों भी जब तक जाते चीड़ के पेड़ों की छांव-ठांव में आराम से पैर फैलाकर बैठ जाते.
एक जमघट सा लगा हुआ है, ज़िदगी से पीछा छुड़ाकर क्षणिक ही सही सबकुछ भुला देने का किंतु दुख की बात है कि पर्यावरण का दोहन करने वाले हम सभी भूल जाते हैं कि यदि हम यूं ही बोतलें, चिप्स के रैपर, पोलीथीन यहां-वहां फेंकते रहे तो क्या ये प्रकृति की देवीय सत्ता यूं ही यथावत और पावन रहेगी? और हमें दोबारा आमंत्रण देगी अपने सानिध्य में समय बिताने का? यह विचारणीय और गहन विमर्श का विषय है.
अचानक से हम चौड़ी, समतल व भूरी पहाड़ी पर पहुंच गये हैं जहां गर्मी की वजह से घास जलकर भूरी हो गयी है जिसके ठीक ऊपर खंडेश्वरी मंदिर सीमेंट के बने पक्के विशाल परिसर में अवस्थित है. मंदिर गुलाबी रंग का है. परिसर में विराट छायादार वृक्ष है. जिस पर असंख्य चिड़ियों की चहचहाट सुनाई दे रही है इसी चहचहाहट में मंदिर के घंटे की टनटनाहट मन को पवित्र व शुद्ध कर देती है. मंदिर के ठीक सामने भैरो देवता का मंदिर है. खांडेश्वरी के चारों ओर से द्वारा गांव बहुत सुंदर दिख रहा है. बांयी ओर सौंग नदी बह रही है जो गर्मी के कारण सूखी हुई सी प्रतीत हो रही है. मंदिर में दो व्यक्ति दर्शनार्थ आये हैं, एक कृषकाय संन्यासी बाबा जिन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण किया हुआ है. उन दो श्रद्धालुओं के साथ बातचीत करते-करते बाहर आ गये हैं. मैंने बाबा को प्रणाम करने के बाद उनसे कुछ जानकारी लेने की आज्ञा मांगी. बाबा जी ने बताया कि खांडेश्वरी मंदिर बनगांव में स्थित है. यह बनगांव ‘द्वारा’ गांव के अन्तर्गत ही आता है. खांडेश्वरी देवी बनगांव के लोगों की कुलदेवी है. पंडित जी ने बताया कि तीन-चार सौ साल पहले यहां खुदाई में एक मूर्ति मिली. खुदाई करने को गढवाल में खैंड़ना कहते हैं . संभवतः यही खैंड़ना का अपभ्रंश खांडेश्वरी हो. पंडित जी से मेरे द्वारा पूछने पर कि क्या द्वारा गांव को गुरु द्रोणाचार्य की तपस्थली कहा जाता है? बाबा जी ने सहमति में सिर हिलाते हुए ऊंगली से दूर पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए जहां एक टावर भी दिखाई दे रहा है, कहा कि वहां द्रोणाचार्य का प्राचीन आश्रम और नागराज का मंदिर है.
बाबाजी ने यह भी बताया कि वे जूना अखाड़े के संन्यासी हैं और पौड़ी गढ़वाल के ताड़केश्वर महादेव सिद्धपीठ के रहने वाले हैं. सन् दो हजार में जब वह यहां बनगांव आये थे उस समय यहां कोई नहीं था बाद में मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ. मंदिर के ठीक बांयी तरफ सामने भैरों देवता का मंदिर है और करीब सौ मीटर की दूरी पर नागराज का मंदिर है. नवरात्रि में खांडेश्वरी में बहुत बड़ा मेला लगता है उसी समय लोग नागराज के दर्शन करने भी जाते हैं.
बाबा से इतनी ही जानकारी प्राप्त हुई. बाबा को प्रणाम करने के बाद हम मंदिर से नीचे की ओर उतरने लगे.
यात्राओं के संदर्भ में कहूं तो चढ़ना जीवन का कौतूहल है और उतरना जीवन का अमुल्य अर्जन शायद यायावर भी नहीं जान पाता है कि अनजाने ही सही उसने क्या कुछ नहीं पा लिया है. अतः जीवन की सड़क पर सीधा चलने के लिए यात्राओं के टेढ़े-मेढ़े और ऊंचे नीचे सफ़र तय करते ही रहना चाहिए. कुछ न कुछ हासिल ही होता है.
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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