समाज

सम्पूर्ण हल्द्वानी खास की भूमि नजूल है?

उत्तराखंड के नैनीताल जिले की हल्द्वानी तहसील के बनभूलपुरा क्षेत्र की अधिकाँश आबादी इन दिनों सड़कों पर है. सर्दी के इस मौसम में अचानक यह क्षेत्र देश- दुनिया के स्तर पर चर्चा का केंद्र बनता जा रहा है. धीरे-धीरे मीडिया के लोग भी बनभूलपूरा के आसपास केन्द्रित होने लगे हैं, सामाजिक-राजनितिक संगठन ही नहीं, राजनेता भी इधर का रुख़ करने लगे हैं. आखिर यहाँ हुआ क्या है ? (Land Ownership of Haldwani City)

इस को समझने के लिए हमें 20 दिसम्बर 2022 के उत्तराखण्ड हाईकोर्ट नैनीताल के फैसले को देखना होगा. दो जजों की खंडपीठ द्वारा दिया गया यह निर्णय अपनी असंवेदनशीलता के लिए इतिहास में दर्ज होगा. जिसमें कहा गया है कि—‘‘हम लम्बे विचार विमर्श के बाद अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा के निवासियों व अनुबन्ध कर्ताओं का, जिस भूमि पर वह रह रहे हैं, कानूनी अधिकार नहीं बनता है. इसको बलपूर्वक खाली कराया जाना चाहिए. कोर्ट के इस आदेश को अंजाम देने के लिए सचिव सहित पुलिस प्रशासन, जिलाधिकारी और उनके अधीनस्थों के साथ ही रेलवे के अधिकारियों को निर्देश दिया जाता है और यह सुनिश्चित करने के लिए कहा जाता है कि कोर्ट के आदेश को लागू करने के लिए तत्काल रेलवे की अनाधिकृत कब्जे वाली जमीन को खाली कराया जाय. निर्णय को लागू करने के लिए स्थानीय पुलिस बल साथ ही रेलवे सुरक्षा बल का उपयोग किया जाय और यदि जनता की ओर से इस निर्णय को लागू करने पर किसी प्रकार का प्रतिरोध आता है तो आवश्यकतानुसार पैरा मिल्ट्री फोर्स को भी लगाया जा सकता है.’’ इसके लिए नियमानुसार करवाई की जाय. लेकिन अदालत ने इस निर्णय को लिखते हुए, इस विषय को पूरा तरह नजरअंदाज कर दिया कि जिन 4365 परिवारों के लगभग 50 हज़ार लोगों की बेदखली का आदेश लागू करवाने की बात उन्होंने की है. उनमें सामान्य इंसानों के साथ ही बच्चे, बूढ़े, बीमार, गर्भवती महिलाएं भी होंगी, आखिर एक हफ्ते के इतने कम समय में इतने लोग कहाँ जायेंगे? क्या  इनके पुनर्वास या अन्य कोई व्यवस्था पर अदालत की चुप्पी न्याय सम्मत है? क्या अदालत इस पर भी निर्देश नहीं दे सकती थी? क्या रेलवे, जो सरकार के अधीन ही आता है, के मनमानेपन की उचित छानबीन नहीं की जानी चाहिए थी?

यह हम सभी जानते हैं कि भारतीय कानून व्यवस्था में आज भी 18वीं सदी में अंग्रेजों द्वारा बनाये गए कानूनों को लागू किया जाता है. अक्सर ही हम देखते हैं कि सरकारें जटिल कानूनी भाषा एवं प्रक्रिया का फायदा उठाकर मनमाने तरीके से आम मेहनतकशों को कभी झूठे केसों में फंसाती हैं और कभी अतिक्रमण के नाम पर सालों से किसी जगह को रहने लायक बनाने वालों को ही बेदखल करके उनके नागरिक होने के अधिकार को ही छीन लिया जाता है. ऐसा भी हम देखते आ रहे हैं कि अपने हितों के अनुरूप सरकारें इनमें संशोधन करती रहती है और आमतौर पर यह सब जनता के हक़-हकूकों को छीने जाने और सीमित कर देने के लिए ही किया जाता है.

इसी रोशनी में हमें अदालत के 20 दिसम्बर के जजमेंट को देखना होगा जिसमें लिखा है कि हल्द्वानी नगर क्षेत्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा 1816 में सिगौली संधि के दौरान नेपाली शासकों को दो लाख रुपये अदा करके अपने शासन में मिला लिया था. 1834 में श्रीमान ट्रेल ने हल्द्वानी खास को कंपनी की प्रभुसत्ता के रूप में उचित इस्तेमाल करने के लिए भाबर क्षेत्र में दूरस्थ पहाड़ के निवासियों को हल्दानी लाकर बसाया. उन्हें ज़मीनों का हक दिया गया ताकि वे इस उपजाऊ भूमि को उपयोगी बना सकें.

अँगरेज़ इतिहासकार एंटिकसन द्वारा लिखे हिमालयन गजेटियर में यह उल्लेख मिलता है कि हल्द्वानी खास का स्वामित्व 1834 से 1896 तक मि. थामस गान के पास था. उसके बाद 1869 में मी. गान ने सदाचार और भलमनसाहत में इस क्षेत्र के दस्तावेज़ पिथौरागढ़ जिले के व्यापारी दान सिंह बिष्ट को प्रदान कर दिए. इस दिन से यह इलाका दान सिंह बिष्ट की सम्पत्ति माना गया. यहाँ पर मुख्य बिन्दु यह है कि 1896 के बाद दान सिंह बिष्ट के पास जो भूमि थी वह नजूल की थी और कानून के अनुसार इसके हस्तान्तरण का अधिकार नहीं बनता. हल्द्वानी नगर निगम के अधिकारिक दस्तावेजों तथा अन्य कागजों के अनुसार हल्द्वानी खास की ज़मीन नजूल भूमि मानी गई है. ऐसे में रेलवे का इस भूमि पर अधिकार जताना कानूनन सही नहीं दिखता.

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मई 1907 के स्थानीय प्रशासन के मुख्य दस्तावेजों में यह दर्ज है कि हल्द्वानी खास की जमीन को नजूल भूमि माना जायेगा. इसमें यह कहा गया है कि 16 अप्रैल 1907 में लेफ्टटिनेन्ट गर्वनर यह घोषित करता है कि ‘‘हल्द्वानी नोटिफाईड एरिया कमेटी का पूरा हल्द्वानी खास मौजा हल्द्वानी जिसमें कृषि भूमि भी शामिल है नजूल सम्पत्ति के रूप में माना जायेगा.’’ इस पत्र के अनुसार न तो यह भूमि बेची जा सकती है और न ही इसका स्थायी पट्टा माने जाने की इजाजत है. 16 अप्रैल 1907 को अँगरेज़ राज में इस क्षेत्र के उपसचिव ने यह आदेश पारित किया है. ‘‘गर्वमैन्ट आर्डर आफिस मैमो न. 178/1-10-1907 दिनांक 17 मई 1907 में म्यूनिसिपल डिर्पाटमैन्ट बोर्ड ने कमीश्नर को भेजा है.’’ जिसके तीसरे बिंदु से स्पष्ट होता है कि “सम्पूर्ण मौजा हल्द्वानी खास की जमीन नजूल भूमि है, जिसका एक हिस्सा कृषि उपयोग का है. यह स्थानीय नियमों के अनुसार संचालित होगी और इसको नजूल संम्पति माना जायेगा” किन्तु रेलवे का इस भूमि पर अनावश्यक कब्ज़ा दिखाकर यहाँ के लोगों को बेदखल करने की योजना बनाई जा चुकी है. क्या यह बात किसी से छिपी है कि कई रेलवे स्टेशन पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए निजीकरण की भेंट चढ़ रहे हैं.

सर्वोदयी कार्यकर्ता इस्लाम हुसैन से जानकारी मिली कि “इस मुद्दे को विवादित बनाने के लिए 2007 में एक अफसर द्वारा न्यायालय में याचिका डलवा दी गई थी. जिसमें दूसरे पक्ष को सुने बिना रेलवे स्टेशन के पास की बस्ती को हटा दिया गया था. 2013 में गौलापुल गलत डिज़ाइन के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था. लेकिन मिडिया में यह परसेप्शन बनाया गया कि यहाँ रहने वालों के अवैध खनन के कारण यह ढहा और रेलवे बस्ती को हटाने की मांग की जाने लगी. यहाँ रहने वालों के प्रति यह धारणा बनाई गई कि यह लोग बाहरी हैं. जबकि सच्चाई यह है कि यह ब्रिटिश कालीन बस्तियां हैं, यहाँ रहने वालों के पास 80 साल पुराने रिकॉर्ड हैं. सरकार ने पट्टे दिए हैं. जबकि रेलवे बहुत बाद के दिनों में इस जगह पर अपनी दावेदारी पेश कर रहा है. पहले यह दावा किया गया कि 29 एकड़ ज़मीन रेलवे की है और अब कहा जा रहा है की 78 एकड़ ज़मीन रेलवे की है. रेलवे विभाग स्वतंत्र नहीं है बल्कि भारत सरकार के अधीन ही आता है.’’

अब यहाँ पर न केवल सरकार की मंशा पर सवाल उठाने की ज़रूरत है बल्कि उन राजनेताओं को भी घेर कर प्रश्न करने की ज़रूरत है, जिन्होंने इतने लम्बे समय तक इस मुद्दे का कानूनी हल करने के बजाय इसका उपयोग अपने वोट बैंक के रूप में किया. कोई भी सरकार रही हो, उसने कोर्ट में इस मसले पर पैरवी ही ठीक से नहीं की, जबकि यहाँ सिंचाई विभाग, बिजली विभाग के बिल आते हैं. स्वास्थ्य व शिक्षा विभाग खामोशी बनाये रखा, जबकि प्राथमिक अस्पताल और स्कूलों की पर्याप्त संख्या है यहाँ पर. पी. डब्लू. डी की सड़कें हैं, सिंचाई विभाग की नहरें हैं, लेकिन गंभीरता और संवेदनशीलता से सरकार के किसी भी महकमें ने यहाँ के लोगों के हक की खातिर अदालत में पैरवी नहीं की, बल्कि सब खामोश रहे. अपने नागरिकों का पक्ष रखने के बजाय उनको उनके हाल पर छोड़ दिया गया.

पहले तो स्थानीय प्रशासन ख़ामोशी से तमाशा देखता रहा लेकिन अब उनके लिए कोर्ट के आदेश को लागू करने में एक अलग तरह की समस्या उत्पन्न हो गई है. चूंकि इस इलाके में मौजूद बालिका और एक बालकों के सरकारी इन्टर कालेज हैं, जिनको अतिक्रमण के नाम पर ढाए जाने का आदेश है, इनमें 8 जनवरी को प्रतियोगी परीक्षा का सैन्टर पड़ा हुआ है. यहाँ पर माध्यमिक व प्राइमरी मिलकर करीब पांच-छह स्कूल हैं. अदालत ने बिना पट्टे देखे, बिना बंदोबस्ती के कागज़ देखे, फैसला कर दिया है. इस जगह पर आधा दर्ज़न से अधिक प्राइवेट स्कूल हैं, तीन मंदिर हैं, 11 छोटी बड़ी मस्जिदें हैं. सभी हल्द्वानी नगर निगम के अधीन हैं. पीडब्ल्यूडी की सड़कें बनी हुई हैं, स्वास्थ्य केन्द्र है. पानी की टंकी है, यहां के लोग नगरपालिका को टैक्स देते हैं. यह मुस्लिम बहुल इलाका ज़रूर है लेकिन यहाँ पर हिन्दू परिवार भी रहते हैं. यह भी कोर्ट में नहीं रखा गया कि रजिस्ट्री के पक्के मकान भी तोड़े जा रहे हैं. अधिकांश लोगों की जमीन की रजिस्ट्री, खसरा खतौनी है. रेलवे भी पीपी एक्ट के तहत यहां के निवासियों को जमीन खाली करवाने के लिए नोटिस जारी कर चुका है.

इस मामले को लेकर 2016 में कई परिवार कोर्ट में गये थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने वापस हाईकोर्ट भेज दिया. अब रेलवे मनमानी कर रहा है, यदि सरकार चाहे तो इस फैसले के विरुद्ध अपने तर्क रख सकती है. लेकिन राज्य सरकार इस दिशा में बहुत ढुलमुल रवैया अपना रही है, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस क्षेत्र की उपेक्षा की जा रही है.

2016 में सरकार ने यह तय किया था कि उत्तराखण्ड में जितनी भी मलिन बस्तियां हैं उनको या तो वे जहां हैं वहीं नियमित किया जायेगा या कि उनका पुनर्वास किया जायेगा. लेकिन सरकार द्वारा बनभूलपुरा क्षेत्र के निवासियों के साथ पक्षपात किया गया. यहां की पांच मलिन बस्तियों को मलिन बस्ती से बाहर कर दिया गया. जिसके कारण यहाँ की बसावट को अतिक्रमण मान कर तोड़ देने की परिस्थितियां तैयार हो गयी हैं. अब रेलवे इस इलाके को अतिक्रमण बता कर 1959 के अपने दावे को लागू करवाना चाहता है. रेलवे यह दावा कर रहा है कि 78 एकड़ जमीन उसकी है अब कोर्ट के आर्डर के बाद स्थानीय प्रशासन ने इस जमीन की घेराबन्दी करना और उसका सर्वे करना शुरू कर दिया. जिसके अन्तर्गत 4365 घरों को तोड़ने के आदेश दे दिए गए हैं, जिनमें करीब 50 हजार लोगों के बेदखल होने का अनुमान है. यहां के लोगों को लाइसेंसी हथियार सरेण्डर करने के लिए पुलिस-प्रशासन ने आदेश दे दिया है. साफ़ जाहिर हो रहा है कि किसी को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है कि अब ये जीते जागते इंसान इतनी कड़कती ठण्ड में कहाँ जायेंगे? क्या यह इस राज्य की चुनी हुई सरकार और उसके नुमाइन्दों के सोचने का विषय नहीं है? क्या यहाँ रहने वाले इस देश के नागरिक नहीं हैं? क्या इनके पुनर्वास की बात नहीं उठाई जानी चाहिए?

20 दिसम्बर उत्तराखंड हाई कोर्ट के इस फैसले के विरोध में दिनांक 27 दिसम्बर को हल़्द्वानी में उत्तराखण्ड के सामाजिक संगठनों द्वारा एक आपात बैठक बुलाई गयी, जिसमें ‘बस्ती बचाओ संघर्ष समिति’ बनायी गयी और बस्ती के लोगों के साथ मिलकर इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने का फैसला किया गया. बैठक में सभी लोगों का यह कहना था कि हल्द्वानी मे नजूल भूमि पर बसे बनभूलपुरा के लोगों के साथ हर परिस्थिति में खड़ा रहा जायेगा. इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे लोगों का समर्थन यहाँ के निवासियों को मिलने लगा है.

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28 दिसम्बर को मुख्यमंत्री के नाम जिलाधिकारी के माध्यम से एक ज्ञापन प्रेषित किया गया. जिसमें मांग रखी गयी कि हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की गयी 2 जनवरी तक सुप्रीम कोर्ट में बन्द होने के कारण किसी भी तरह से पुलिस की कार्यवाही सीमांकन आदि पर रोक लगावा दें. ताकि हाईकोर्ट के फैसले के विरोध में पुनर्विचार याचिका डाली जाने का समय मिल सके. ‘बस्ती बचाओ संघर्ष समिति’ के साथ मिलकर इस क्षेत्र के लोगों ने 28 दिसम्बर को मानव श्रृंखला बनाकर विरोध दर्ज किया गया तो 29  दिसम्बर को शाम 5  बजे कैंडिल मार्च भी निकाला गया.

अभी हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में लगी अपील पर 5 जनवरी को सुनवाई होना तय हुआ है, जिसमें 12 लोगों की तरफ़ से अपील दायर की गई है. इस बीच प्रशासन ने अखबार में नोटिस प्रकाशित करवा दिया है कि जिन भी लोगों की बेदखली होनी हैं वे एक हफ्ते के भीतर इस जगह को खाली कर दें. सामाजिक राजनितिक संगठनों ने सरकार से अपील की है कि इसमें हस्तक्षेप करें. सरकार यदि चाहे तो आज भी अपने 2016 के मलिन बस्तियों की श्रेणी में से पांच बस्तियों गफूर बस्ती,  ढोलक बस्ती,  चिराग अली शाह,  इन्दिरा नगर ए,  इन्दिरा नगर बी को मलिन बस्ती के अंतर्गत ला सकती है. इस क्षेत्र के निवासियों की यही मांग है कि पांच बस्तियों को पुनः मलिन बस्तियों में शामिल किया जाय. कड़ाके की सर्दी में हजारों लोगों को बेदखल किए जाने के कोर्ट के निर्णय पर तुरन्त रोक लगाईं जाय.

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं.
संपर्क : chandra.dehradun@gmail.com +91-7830491584

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Sudhir Kumar

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  • काफल ट्री, क्या आप इस लेखिका के विचारों का समर्थन करते हैं? क्या आपकोनाज न्यायालय पर भी भरोसा नहीं। क्या किसी और कि जमीन पर गैर कानूनी कब्जा करने वालों को अगर पहले नहीं हटाया गया था नेताओं ने अपने वोट बैंक के कारण तो क्या वो गैर कानूनी कब्जा वैध हो जाता है।
    उत्तराखंड के मूल निवासी तो किसी की भूमि पर कब्जा नहीं करते। दूसरी ओर इस तरह के अतिक्रमणकारी उत्तराखंड के भोले भाले लोगों के व्यापार, काम धंधों को भी कब्जाते जा रहे हैं।

  • वाह जी वाह क्या बात है पहले कब्जा करो फिर उसको तोड़ मरोड़ कर जस्टिफाई करो। साले हम तो करोड़ों रुपए की जमीन खरीद कर घर बनाएं और ये दस दस बच्चे पैदा कर फ्री की जमीनों पर कब्जा कर रहें। वह भाई वह। एक आध बच्चा करो ताकि दूसरे की जमीन पर कब्जा न करना पड़े।

  • हम उत्तराखंड के मूल निवासी , हमारे पूर्वज हजारों सालों से देवभूमि में रहते आ रहे है, आज हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नही है जो हम हल्द्वानी में जमीन ले सके, जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी है वो पहाड़ी अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे से लेते है जमीन। और ये लोग बाहर से आकर कब्जा कर लेते है और आप जैसे लोग इनको घर दिलाने की पैरवी करने लगते हो, शर्म आनी चाहिए आपको।

  • बहुत अच्छा लेख। लेखिका को धन्यवाद। ये जमीन रेलवे को कभी हस्तांतरित ही नही हुई। 2016 में भी हाईकोर्ट नैनीताल द्वारा बस्ती उजाड़ने की बात की थी उस समय समाजिक संगठन क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम के तहत रेलवे विभाग से मालिकाने के दस्तावेज मांगे गए पहले तो रेलवे ने मामला कोर्ट में होने की बात कर सूचना ही नही दी करीब ढाई -तीन साल की कोशिश के बाद केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश पर रेलवे विभाग द्वारा मात्र 4 नक्शे अपीलकर्ता को उपलब्ध कराते थे। रेलवे विभाग को सरकार द्वारा जमीन कब हस्तांतरित की गई और अधिग्रहण करने के कोई दस्तावेज़ आदि रेलवे विभाग के पास नही थे। फिर जमीन रेलवे विभाग की कैसे हो गयी। आज आधे से ज्यादा उत्तराखण्ड के लोग उत्तराखंड से बाहर रहते हैं तो क्या वो सब भी वहां अतिक्रमण कारी हो गये ? । हिन्दू मुस्लिम के चश्मे से बाहर निकल कर न्यायप्रिय होकर मानवीय संवेदना के साथ इस मुद्दे को समझने की जरूरत है।

  • साथियों,
    हल्द्वानी (नैनीताल) उत्तराखंड में बनभूलपुरा बस्ती को उजाड़े जाने का जमकर विरोध होना चाहिए। उजाड़े जाने की इस प्रक्रिया में मजदूरों के 4000 से अधिक परिवारों की बस्ती को उजाड़ने जाने के हम खिलाफ है । हम इसका घोर निंदा करते हैं।

    *हमारे आजमगढ़ में भी एयरपोर्ट विस्तार के नाम पर उजाड़े जाने की इस प्रक्रिया में 40000लोगों की जमीन-मकान छीनने के खिलाफ खिरियां बाग में 85दिनों से धरनारत है। हमारे दुःख एक हैं।*

    जो सरकारें मेहनतकश मजदूरों को आज तक ढंग से बसा नहीं सकीं। जो सरकारें भूमिहीन गरीब किसानों को उनकी भूमि (खेती की जमीन) के अधिकार पर कब्जा जमा कर निरंकुश तरीके से बैठी रहीं यानि ठीक ढंग से भूमि सुधार करके भूमि वितरण करके किसी समानता को लागू नहीं कर सकीं। वह आज बुलडोजर लेकर उजाड़ देने की बात कर रही हैं? उन्हें नहीं पता कि आजादी की लड़ाई के बाद देश का नागरिक का अधिकार जितना उनको है उतना ही मेहनतकश मजदूर किसानों को भी है ?
    ब्रेख्त के शब्दों में,
    *रोटी की रोज जरूरत होती है ,
    इंसाफ की भी रोज जरूरत होती है,बल्कि कहा जाए तो हर रोज
    कई बार इंसाफ की जरूरत होती है।*
    इसीलिए तथाकथित आजाद भारत में हमें बार-बार इंक़लाब जिंदाबाद के नारों के साथ आगे आना पड़ता है।
    *जुल्मी जब जब जुल्म करेगा सत्ता के गलियारों में,
    चप्पा चप्पा गूंज उठेगा, इंकलाब के नारों से।*

    *राजेश आज़ाद,संयुक्त किसान मोर्चा,आजमगढ़*

  • शायद काफल ट्री में लिखा गया लेख, इस अतिक्रमण का पक्षधर है। वहा बिक रही स्मैक का, वहा के लोगो द्वारा किए जा रहे अवैध खनन का, और उत्तराखण्ड राज्य की संस्कृति में बाहरी लोगों की घुसपैठ का भी।

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