2007 में व्यास घाटी से सिलना पास होते हुए दारमा घाटी की परिक्रमा पूरी करने के बाद नागलिंग गांव के मित्र बड़े भाई करन सिंह नागन्याल से बात हुई थी और 2022 में सीपू की यात्रा के बाद बातचीत में मैंने उन्हें बताया कि सड़कों ने पहाड़ों की रौनक ही खत्म कर दी है. पहाड़ धंसते जा रहे हैं. दर गांव का बुरा हाल है. लालच की खातिर ठेकेदारों ने सड़क बनाने के मानक भी किनारे कर दिए हैं. इस पर उनका मानना था कि हिमालयी क्षेत्रों में बड़े निर्माण नहीं होने चाहिए. क्योंकि हिमालय अभी भी शैशव अवस्था में है.
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)
नागन्यालजी का शुरुआती बचपन गांव में बीता. जब वह चार वर्ष के थे तो तिब्बत व्यापार से लौटे अपने पिता के किस्से बहुत चाव से सुना करते थे. हिमालयी दर्रों की कठिन चढ़ाई और तीखे ढलानों के बाद तकलाकोट के विस्तार और सामने कैलाश पर्वत के वर्णन के अलावा तिब्बती व्यापारियों की आत्मीयता को यादकर वह आज भी भाव-विभोर हो उठते हैं. तिब्बती लामाओं की रहस्यमयी शक्तियों के किस्से अपने पिता से वह बहुत ही चाव से सुना करते थे. उनके पिता बताते थे कि व्यापार का वक्त खत्म होने पर वह अपना बचा हुआ सामान वहीं तिब्बती व्यापारियों के पास रख देते थे और अगले साल तिब्बती व्यापारी उनका सामान उन्हें प्रेम से वापस सौंप दिया करते थे.
नागन्यालजी के पास दारमा घाटी के किस्सों का खजाना भरा पड़ा है. बाद में पढ़ाई के जुनून के चलते वो धारचूला और अन्य जगहों में चले गए. सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए आज वह उच्च पद पर हैं लेकिन गांव के प्रति उनका प्रेम कभी कम नहीं हुआ. बकौल उनके, “एक छिरकिला बांध बनने से हुई तबाही सभी ने देखी है. हर बरसात में तवाघाट से आगे तो अब सड़क गायब ही रहती है. अब बारिश भी बहुत तेज होती है, पहले सतझड़ी में भी पैदल चलने में कोई परेशानी नहीं होती थी. आज तो हाल ये हो गए हैं कि अगर घंटाभर भी बारिश हो गई तो रास्ते चलने लायक रहते ही नहीं हैं. चट्टानों से पत्थर गिरने का डर अलग रहता है. क्षेत्र के विकास के लिए जल विद्युत योजना बनी लेकिन दारमा में आज भी बिजली नहीं है. सोलर से ही रात में उजाला रहता है. अब दारमा घाटी में तीन और परियोजनाओं के बारे में बात हो रही है. इससे तो महाविनाश ही होगा.”
दर गांव की तलहटी से ऊपर गांव की ओर जाती सड़क को देख नागन्यालजी की बात सही जान पड़ी. दर गांव धीरे-धीरे दरक रहा है. दर गांव के लगभग 35 घर पूरी तरह टूट गए हैं. वर्ष भर बिना बरसात के भी गांव में लगातार लैंडस्लाइड होते रहता है. एक बुजुर्ग ने बताया कि दर गांव तो 1974 से ही दरक रहा है. भूमिगत जलस्रोत अब गांव के नीचे से रिस रहे हैं. जिससे रिसते जलस्रोत पहाड़ियों को लगातार कमजोर करने में लगे हैं. हाल ये हैं कि अब गांव धीरे-धीरे नीचे को धसने में लगा है. गांव के नीचे कोई भी कठोर चट्टान नहीं है, जिसके कारण कमजोर मिट्टी लगातार दरक रही है.
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)
धारचूला से चलने के बाद से इस बीच जीप ड्राईवर उर्फ जीप मालिक दीपू तीनेक बार चरस की बूटी युक्त सिगरेट फूंक अपनी पिनक में आ चुका था. दीपू ने बताया कि, “चार साल पहले उसने यह जीप वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली योजना से ली है, अब तक डेढ़ लाख चल चुकी है.”
“शिव बूटी बहुत लेते हो. गाड़ी चलाने में दिक्कत नहीं होती?” पूछने पर हंसते हुए उसने बताया, “17 साल से ले रहा हूं. अब जो क्या छूटती है यह. कुछ गलत जो क्या करने वाला हुआ मैं. इसे लेने के बाद मन मगन हो जाता है. गाड़ी लेकर मैं हिमाचल, यूपी, उत्तरकाशी जाते रहने वाला हुआ. पहले तो यही दर में ही रहा पांच साल तक किराए में यहां डैम के काम में. डंपर के साथ ही जेसीबी भी चलाई. काम करते हुए इन गाड़ियों ने मैकेनिक भी बना दिया ठैरा!”
बात करते हुए उर्थिंग पहुंचे तो दीपू ने कुछ चबैना खाने के लिए जीप अमर सैलालजी के ढाबे के किनारे चिपका दी. हरीशदा ने परिहार मासाब की दी हुई पोटली निकाली और अंदर घुप अँधेरा लिए हुए ढाबे में चले गए. सैलालजी मित्रवत व्यवहार वाले निकले. ठंडे पराठों को उन्होंने तुरंत गर्म कर दिया और साथ में अचार भी परोस दिया. पराठे उम्मीद से ज्यादा स्वादिष्ट थे. मन ही मन परिहार मासाब को धन्यवाद देकर सभी ने आपस में पराठे मिल-बांट के खा लिए.
दुग्तु गांव के गीतेश दुग्ताल गांव की पूजा में शामिल होने को आ रहे थे. वह ऐटा में एक राष्ट्रीय बैंक में अधिकारी हैं. “पूजा के लिए परिवार के एक न एक सदस्य को शामिल होना ही पड़ता है ना. बमुश्किल छुट्टी मिल पाई. दोपहर को धारचूला पहुंचा तो ये दीपू मिल गया. वैसे गांव आकर कई लोगों से मुलाकात हो जाती है और बचपन के दिन याद आ जाते हैं.” पराठे खाने के बाद गीतेश ने बताया. पराठे खत्म हो गए तो हम वापस जीप में बैठ गए. आगे चले तो सामने नागलिंग गांव दिखने लगा था. नागलिंग गांव में कुछ पल रुक दीपू ने अपने परिचितों से कुशल-क्षेम ली और जीप आगे बढ़ा दी.
नागलिंग से थोड़ा आगे चलने के बाद चट्टानों की ओर इशारा करते हुए गीतेश ने बताया कि, “जब वह छोटा था तो तवाघाट तक पैदल ही आना-जाना होता था. रास्ते में चलते हुए बुजुर्ग आपस में अपने किस्से बांचा करते थे और मैं उन किस्सों को ध्यान से सुना करता था. वे किस्से होते ही बहुत रहस्यमयी थे.”
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)
नागलिंग से आगे दुग्तु की ओर जाते हुए गीतेश ने दीपू से जीप रोकने को कहा और सामने की ओर ईशारा करते हुए बताया, “ये जो बड़े-बड़े से पत्थर दिख रहे हैं न आप, ये एक जमाने में लोहार का आफर हुआ करता था. और इधर देखो वह चट्टानों में. जो सांप की रेखा जैसी दिख रही है न, वह बीते जमाने का बहुत बड़ा नाग रूपी दैत्य था. उसका आतंक बहुत था और लोहार ने इसी आफर में उसे मार दिया था. वैसे नागलिंग में सांप बहुत होने वाले हुए लेकिन ये बात भी गजब थी कि इतने ठंडे ईलाके में सांप कैसे होते होंगे. बड़े-बूढ़ों के किस्से सुने तो यकीं करने का मन हो ही जाता है.”
नागलिंग और बालिंग के बीच का पैदल रास्ता सड़क निगल गई थी. नीचे खेतों के बीच बना पुराना रास्ता पुराने जमाने की याद दिलाता हुआ अपनी अलग ही कहानी बयां कर रहा था.
दुग्तु गांव पहुंचने तक नीम अंधेरा छाने लगा था. दुग्तु गांव में जीप से उतरते वक्त गीतेश ने आत्मीयता से हाथ मिलाया. दीपू का गांव भी दुग्तु ही हुआ लेकिन वह हम दोनों को दातु गांव तक छोड़ने आ गया. दातु गांव पहुंचने तक पूरी तरह अंधेरा घिर गया था. कुछेक जगहों में सोलर लाइटें टिमटिमा रही थी. रकसेक कांधों में डाल हमने अपने टार्च निकाल लिए. दुग्तु-दातु गांव के वाशिंदों ने अब अपने घरों में मेहमानों के ठहरने की व्यवस्था भी शुरू कर दी है. रहने और भोजन की व्यवस्था से वे भी आर्थिक रूप से संभल रहे हैं.
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)
धारचूला में कृष्णा गर्ब्याल ने दांतू गांव में महेश दत्ताल के वहां हमारे रुकने की व्यवस्था फोन से करवा दी थी. हम पता पूछते हुए उन्ही के घर की ओर बढ़ गए. गलियों में सोलर लाइटें उजाला बिखेरते मिलीं. महेश दत्ताल के घर में उनकी पत्नी अंजू ने हिमालयी मुस्कान बिखेरते हुए हमारा स्वागत किया. ऐसा लगा जैसे अपने ही गांव के घर में आ गए हों. नीचे पाथर वाले बरामदे से दोमंजिले की सीढ़ीयों के साथ ही अंदर कमरे की लिपाई-पुताई इतनी साफ ढंग से की गई थी कि जूतों को समझा-बुझा के नीचे दरवाजे के बाहर ही रहने के लिए मना लिया. बाहर बर्फीली हवाओं की शिकायत जैसी वह कर रहे थे तो उन्हें ग्लेशियर में मस्ती से चलने की याद दिलाई गई तो अनमने ढंग से वह फिर वहीं रात गुजारने के लिए राजी हो ही गए. पाथर के दोमंजिले मकान की चाख में जमीन में बिस्तर सजा मिला. सीढ़ियों की तरफ किनारे से चाख में लकड़ी के बड़े संदूक/भकार से ढककर कमरे का रूप दे दिया गया था. कमरे में एक बल्ब से अच्छी रोशनी मिली. दीवार में मोबाइल चार्जिंग के लिए दो प्वाइंट भी थे. सोलर लाइट से ही ये सारी व्यवस्था की गई थी. मकान को देख लगा कि पुराने जमाने की धरोहरों को समेटे दारमा घाटी के वाशिंदों ने इसका बेहतरीन इस्तेमाल किया है.
(Keshav Bhatt Darma Travelogue)
“चलो रसोई में ही चलते हैं.” हरदा ने सुझाव दिया तो गर्म जैकेट पहनते हुए मैंने भी हामी भर ली. बरामदा पार कर किनारे में रसोई में चले गए. अंदर के कमरे की चाख के बीचों-बीच तीन फीट लंबे चौड़े बने चूल्हे में रखी सगड़ी लकड़ियों के बूते सुलग रही थी और अंजू उसमें खाना बनाने में लगी थी.
जारी…
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
इसे भी पढ़ें : रहस्यमयी कथाओं के लोक दारमा की ओर
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
योग की भूमि उत्तराखंड, तपस्या से भरा राज्य जिसे सचमुच देवताओं की भूमि कहा जाता…
मेरे मोहल्ले की औरतें, जो एक दूसरे से काफी अलग है. अलग स्वभाव, कद-भी एकदम…
रूद्रपुर, उत्तराखंड का एक प्रमुख शहर, अपनी सांस्कृतिक विविधता और ऐतिहासिक परिवर्तनों के लिए प्रसिद्ध…
उत्तराखंड की धरती पर कृषि शिक्षा, अनुसंधान और विकास का एक चमकता सितारा है "गोविंद…
उत्तराखंड, जिसे प्यार से "देवभूमि" कहा जाता है, उस अद्भुत सांस्कृतिक विविधता, परंपराओं और प्राकृतिक…
उत्तराखंड में औद्योगिक विकास को गति देने के लिए सिडकुल (उत्तराखंड राज्य अवसंरचना एवं औद्योगिक…