कला साहित्य

चर्चाओं में है अल्मोड़ा की निर्भीक बकरी की कहानी

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12th फेल नाम की फिल्म इन दिनों काफ़ी चर्चा में है. दर्शकों द्वारा खूब पंसद की जा रही यह फिल्म असल में भारतीय पुलिस सेवा के एक अधिकारी मनोज कुमार शर्मा के जीवन पर आधारित है. फिल्म रिलीज होने के बाद से ही मनोज कुमार शर्मा के ख़ूब सारे इन्टरव्यू आ रहे हैं. अपने कई इन्टरव्यू में मनोज, डॉ जाकिर हुसैन की कहानी ‘अब्बू खाँ की बकरी’ का जिक्र कर चुके हैं. अल्मोड़े की पृष्ठभूमि पर आधारित यह एक बाल कहानी है जिसे मध्य प्रदेश के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया जाता है. मनोज कुमार शर्मा के इन्टरव्यू के बाद अल्मोड़े की इस बकरी की कहानी में भी लोगों की और अधिक दिलचस्पी बनी है. यहाँ पढ़िये डॉ जाकिर हुसैन की कहानी ‘अब्बू खाँ की बकरी’ – सम्पादक    
(Abbu Khan ki Bakri Story)  

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे. उनका नाम था अब्बू खाँ. उन्हें बकरियाँ पालने का बड़ा शौक था. बस एक दो बकरियाँ रखते, दिन भर उन्हें चराते फिरते और शाम को घर में लाकर बाँध देते. अब्बू गरीब थे और भाग्य भी उनका साथ नहीं देता था. उनकी बकरियाँ कभी-न-कभी रस्सी तुड़ाकर भाग जाती थीं. पहाड़ पर एक भेड़िया रहता था. वह उन्हें खा जाता था. मगर अजीब बात है कि न अब्बू खाँ का प्यार, न शाम के दाने का लालच और न भेड़िये का डर उन्हें भागने से रोकता. हो सकता है, ये पहाड़ी जानवर अपनी आजादी से इतना अधिक प्यार करते हों कि उसे किसी कीमत पर बेचने के लिए तैयार न हों.

जब भी कोई बकरी भाग जाती, अब्बू खाँ बेचारे सिर पकड़कर बैठ जाते. हर बार यही सोचते कि अब से बकरी नहीं पालूँगा. मगर अकेलापन बुरी चीज है. थोड़े दिन तक तो वे बिना बकरियों के रह लेते, फिर कहीं से एक बकरी खरीद लाते.

इस बार वे जो बकरी खरीद कर लाए थे, वह बहुत सुंदर थी. उसके बाल सफेद थे. काले-काले सींग भी बड़े खूबसूरत थे. सीधी इतनी थी कि चाहे तो कोई बच्चा दुह ले. अब्बू खाँ इस बकरी को बहुत चाहते थे. उसका नाम उन्होंने चाँदनी रखा था. दिन भर उस से बातें करते रहते.

अपनी इस नई बकरी के लिए उन्होंने एक नया इंतजाम किया. घर के बाहर उनका एक छोटा-सा खेत था. उसके चारों ओर उन्होंने बाड़ बँधवाई. इसके बीच में वे चाँदनी को बाँधते थे. रस्सी इतनी लंबी रखते थे कि वह खूब इधर-उधर घूम सके. इस तरह बहुत दिन बीत गए. अब्बू खाँ को विश्वास हो गया कि चाँदनी कहीं नहीं जा सकती.
(Abbu Khan ki Bakri Story)

मगर अब्बू खाँ धोखे में थे. आजादी की इच्छा इतनी आसानी से किसी के मन से नहीं जाती. चाँदनी पहाड़ की खुली हवा को भूल नहीं पाई थी. एक दिन चाँदनी ने पहाड़ की ओर देखा. उसने मन-ही-मन सोचा, वहाँ की हवा और यहाँ की हवा का क्या मुकाबला? फिर वहाँ उछलना, कूदना, ठोकरें खाना और यहाँ हर वक्त बँधे रहना. मन में इस विचार के आने के बाद चाँदनी अब पहले जैसी न रही. वह दिन-पर-दिन दुबली होने लगी. न उसे हरी घास अच्छी लगती और न पानी मजा देता. अजीब-सी दर्द भरी आवाज में वह ‘में-में’ चिल्लाती.

अब्बू खाँ समझ गए कि हो-न-हो कोई बात जरूर है, लेकिन उनकी समझ में न आता था कि बात क्या है? एक दिन अब्बू खाँ ने दूध दुह लिया, तो चाँदनी उदास भाव से उनकी ओर देखने लगी. मानो कह रही हो, “बड़े मियाँ, अब तुम्हारे पास रहूँगी तो बीमार हो जाऊँगी. मुझे तो तुम पहाड़ में जाने दो.”

अब्बू खाँ मानो उसकी बात समझ गए. चिल्लाकर बोले, “या अल्लाह! यह भी जाने को कहती है.“ वे सोचने लगे, “अगर यह पहाड़ पर चली गई, तो भेड़िया इसे भी खा जाएगा. पहले भी वह कई बकरियाँ खा चुका है.” उन्हें चाँदनी पर बहुत गुस्सा आ रहा था. उन्होंने तय किया कि चाहे जो हो जाए, वे चाँदनी को पहाड़ पर नहीं जाने देंगे. उसे भेड़िये से जरूर बचायेंगे.

अब्बू खाँ ने चाँदनी को एक कोठरी में बंद कर दिया. ऊपर से साँकल चढ़ा दी. मगर गुस्से और झुंझलाहट में वे कोठरी की खिड़की बंद करना भूल गए. इधर उन्होंने कुंडी चढ़ाई और उधर चाँदनी उचक कर खिड़की से बाहर.

चाँदनी पहाड़ पर पहुँची, तो उसकी खुशी का क्या पूछना! पहाड़ पर पेड़ उसने पहले भी देखे थे, लेकिन आज उनका रंग और ही था. चाँदनी कभी इधर उछलती, कभी उधर. यहाँ कूदी, वहाँ फाँदी, कभी चट्टान पर है, तो कभी खड्डे में. इधर जरा फिसली, फिर संभली. एक चाँदनी के आने से पहाड़ में रौनक आ गई थी.

दोपहर तक वह इतनी उछली-कूदी कि शायद सारी उम्र में इतनी न उछली कूदी होगी. दोपहर ढले उसे पहाड़ी बकरियों का एक झुंड दिखाई दिया. थोड़ी देर तक वह उनके साथ रही. दोपहर बाद जब बकरियों का झुंड जाने लगा, तब वह उनके साथ नहीं गई. उसे आजादी इतनी प्यारी थी कि वह किसी के बंधन में पड़ना ही नहीं चाहती थी.

शाम का वक्त हुआ. ठंडी हवा चलने लगी. सारा पहाड़ लाल हो गया. चाँदनी पहाड़ से अब्बू खाँ के घर की ओर देख रही थी. धीरे-धीरे अब्बू खाँ का घर और काँटे वाला घेरा रात के अँधेरे में छिप रहा था.

रात का अँधेरा गहरा था. पहाड़ में एक तरफ आवाज आई-‘खूँ-खूँ’. यह आवाज सुनकर चाँदनी को भेड़िये का ख्याल आया. दिन भर में एक बार भी उसका ध्यान उधर न गया था. पहाड़ के नीचे सीटी और बिगुल की आवाज आई. वह बेचारे अब्बू खाँ थे. वे कोशिश कर रहे थे कि सीटी और बिगुल की आवाज सुनकर चाँदनी शायद लौट आए. उधर से दुश्मन भेड़िये की आवाज आ रही थी.
(Abbu Khan ki Bakri Story)

चाँदनी के मन में आया कि लौट चले. लेकिन उसे खूंटा याद आया. रस्सी याद आई. काँटों का घेरा याद आया. उसने सोचा कि इससे तो मौत अच्छी. आखिर सीटी और बिगुल की आवाज बंद हो गई. पीछे से पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई दी. चाँदनी ने मुड़कर देखा, तो दो कान दिखाई दिए, सीधे और खड़े हुए और दो आँखें, जो अँधेरे में चमक रही थीं. भेड़िया पहुँच गया था.

भेड़िया जमीन पर बैठा था. उसकी नजर बेचारी बकरी पर जमी हुई थी. उसे जल्दी न थी. वह जानता था कि बकरी कहीं नहीं जा सकती. वह अपनी लाल-लाल जीभ अपने नीले-नीले होंठों पर फेर रहा था. पहले तो चाँदनी ने सोचा कि क्या लड़ूँ. भेड़िया बहुत ताकतवर है. उसके पास नुकीले बड़े-बड़े दाँत हैं. जीत तो उसकी ही होगी. लेकिन फिर उसने सोचा कि यह तो कायरता होगी. उसने सिर झुकाया. सींग आगे को किए और पैंतरा बदला. वह भेड़िये से लड़ गई. लड़ती रही. कोई न समझे कि चाँदनी भेड़िये की ताकत को नहीं जानती थी. वह खूब समझती थी कि बकरियाँ भेड़िये को नहीं मार सकती. लेकिन मुकाबला जरूरी है. बिना लड़े हार मानना कायरता है.

चाँदनी ने भेड़िये पर एक के बाद एक हमला किया. भेड़िया भी चकरा गया. लेकिन भेड़िया था. सारी रात गुजार गई. धीरे-धीरे चाँदनी की ताकत ने जवाब दे दिया, फिर भी उसने दुगना जोर लगाकर हमला किया. लेकिन भेड़िये के सामने उसका कोई बस नहीं चला. वह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़ी. पास ही पेड़ पर बैठी चिड़ियाँ इस लड़ाई को देख रही थीं. उनमें बहस हो रही थी कि कौन जीता. बहुत सी चिड़ियों ने कहा, ‘भेड़िया जीता.’ पर एक बूढ़ी चिड़िया बोली, ‘चाँदनी जीती’.
(Abbu Khan ki Bakri Story)

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