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पुस्तक मेले से लौटे कविराज नूर बहोड़ापुरी भारी अवसाद में हैं

कविराज नूर बहोड़ापुरी के बारे में ख़बर मिली कि पुस्तक मेले से लौट कर वे भारी अवसाद (डिप्रेशन) में चले गए हैं. इतना कि उनको मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती कराना पड़ा. मैं उनको देखने के लिए अस्पताल पहुँचा. (Satire Priy Abhishek)

प्राइवेट वार्ड के कमरे में वे पलँग पर लेटे हुए पँखे को टकटकी बांधे देख रहे थे. उनकी पलकें कोई पंद्रह मिनट से नहीं झपकी थीं. जब मुझे बैठे हुए पंद्रह मिनट हो गए, तो मैंने कहा,”अब कुछ बोलोगे भी कि क्या हुआ है, या यूँ ही पंखे की पंखुड़ियां गिनते रहोगे?”

उन्होंने पँखे को देखते हुए कहा,”तुम मेरा एक काम करोगे?”

“बिल्कुल करूँगा. क्या काम है?”

“मैं उधर करवट लेता हूँ….”

“हाँ, हाँ!”

“तुम मेरे चार-पाँच लातें जमा दो.”

“क्या? ये क्या बकवास कर रहे हो? तुम होश में तो हो?”

“देखो मना मत करना. लातें जमाओ, उसके बाद मुझे जूते से मारो. मेरे पापों की यही सजा है.”

“अरे नहीं यार ऐसा मत बोलो!”

उन्होंने एक क्षण के लिये पँखे से नज़र हटा कर मेरी ओर देखा- “घण्टा मत बोलो! साले झूठे, तुम्हारे चेहरे पर लिखा दिख रहा है – ये तो मेरा सौभाग्य होगा. कित्ती लातें जमाऊं?”

“अच्छा, बड़े फेसरीडर हो! सच-सच बताओ हुआ क्या?”

“तुम तो जानते हो मेले में अपने काव्य संग्रह ‘अब और नहीं’ का अनावरण था. उसके साथ में आठ और पुस्तकों का अनावरण भी था. मुख्यातिथि आए तो सबसे पहले हमारी किताब का ही नम्बर था. सब मंच पर खड़े हो गए. खूब तालियां बज रहीं थीं, खचाखच फोटू खिंच रहीं थी. उन्होंने किताब हाथ में ली और बोलना शुरू कर दिया. नूर बहोड़ापुरी की किताब ‘अब बहुत हुआ’ अपने आप में एक अनूठी किताब है. उनकी कविताओं में भावनाओं की सघन अभिव्यक्ति है. उनमें एक विद्रोह है, यथास्थिति के विरुद्ध बेचैनी है.”

“अब बहुत हुआ? तुम्हारी क़िताब तो -अब और नहीं थी.”

“हाँ! ‘अब बहुत हुआ’ पप्पन मुरारी की थी. हमने कहा- ये किताब मेरी नहीं है. वो बोले – ‘ये किताब मेरी नहीं है कविता में नूर अपनी कविता के स्वामित्व का त्याग कर देते हैं. स्ट्रॉसन के अस्वामित्व के सिद्धांत की तर्ज पर वे कहते हैं कि सर्वहारा की कविता किसी एक कवि की नहीं होती, वह सबकी, मेरी-आपकी सबकी होती है.’ मैंने फ़िर धीरे से कोहनी मारते हुए कहा- मेरी दूसरी मोमिया में है, दूसरी मोमिया. ‘उनकी दूसरी कविता मोमिया का यहाँ विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा. यहाँ वे कहते है कि पूंजीवादी लोकतंत्र का यह ओलिगार्क ऐसी मोमिया है जिसमें सबका दम घुट रहा है. परन्तु साथ ही वे कहते हैं कि ये आयरन लॉ नहीं है, मोमिया ही है जो क्रांति के ताप से पिघल जाएगी.’ मैंने फिर कहा- अबे रायता फैल रहा है. ‘रायता फैल रहा है उनके द्वारा लिखी गई हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण कविता है. जिसमें वे कहते हैं कि इस व्यवस्था की दरारें स्पष्ट दिख रही हैं, जिनसे गरीबी, बेरीज़गारी और शोषण का मवाद बह रहा है.’ अब मुझे झल्लाहट छूट रही थी. मैंने गुस्से से कहा- अबे चूतिया हो क्या? वो बोले- अबे चूतिया हो क्या उनकी सबसे विध्वंसक कविता है. यह कविता लम्बे समय तक याद रखी जाएगी. इस कविता में वे सत्ता की आँखों में आँखें डाल कर बात करते हैं. एक कवि को इतना ही साहसी होना चाहिये कि वह स्टेट की पावर से बिना डरे कहे- अबे चूतिया हो क्या. मैं नूर की कविताओं से बहुत प्रभावित हूँ और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ.’ इतना बोल कर वो धीरे से मेरे कान में बोले –  ‘अच्छा हुआ जो तुमने क्लू दे दिये. इतने लोकार्पण, अनावरण करने पड़ते हैं, कितनी किताबें पढ़ें.’ भाषण के बाद लोग दनादन तालियां बजाने लगे.” (Satire Priy Abhishek)

“अरे तो तुमने प्रकाशक से नहीं कहा?”

“प्रकाशक? वहाँ इतनी भसड़ मची हुई थी, साला बीस हजार धरवाने के बाद, प्रकाशक ने ही धक्का मारते हुए कहा- आगे बढ़ो, पीछे लाइन लगी है. जल्दी करो!”

“ओह! ये तो बुरा हुआ. फिर ?”

“फिर क्या? तीन बजे की गोवा एक्सप्रेस थी, ढाई बज गए थे…. पर जब से आया हूँ पलकें नहीं झपक रहीं हैं.  कभी लगता है मैंने कुछ नहीं देखा, कभी लगता है अब देखने को कुछ बचा ही नहीं.”

“बुरा हुआ.” मैंने कहा. फिर अचानक मुझे कुछ याद आया- “पर पप्पन मुरारी का क्या हुआ, जिसकी कविता का उन्होंने गलती से अनावरण कर दिया.”

उन्होंने पँखे पर लगी अपनी टकटकी को हटाया, बिना पलक झपकाए मेरी ओर घूर कर देखा और बोले- “वो बगल वाले कमरे में भर्ती है.” (Satire Priy Abhishek)

प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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Girish Lohani

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