कला साहित्य

शैलेश मटियानी की कहानी ‘कठफोड़वा’

पूरे दो वर्षों के अंतराल पर आज चंदन का तिलक माथे पर लगाया धरणीधरजी ने, तो लगा, किसी तपे तवे पर ठंडे पानी की एक बूंद लुढ़का दी है. थोड़ी देर तक उन्हें अपने माथे के इर्द-गिर्द ही नहीं, बल्कि भीतर तक चन्दन की गंध अनुभव होती रही. रात-भर के आक्रोश और जागरण से सतप्त ललाट पर रचा चंदन तिलक ऐसा लगा, जैसे गरम तवे पर पानी की बूंद थरथाराती उसे शीतल करती जा रही हो. अनिद्रा से दुखती आँखों के आगे दिशा खुलते ही नहाकर, जलाभिषिक्त फूल उनके सिर पर रख देने वाली तारा पंडितानी की आवृति कहीं पास ही उपस्थित छाया सी झिलमिला गई अर्घ्यपात्र के जल में छाये चद्रबिम्ब जैसी शात आकृति.
(Kathfodva Shailesh Matiyani Stories)

अनायास ही धरणीधरजी के दायें हाथ की अगुलियाँ सिर पर पहुँच गयी और उन्हें लगा कि शिखाहीन मस्तक पर उँगलियाँ तपे तवे पर पड़े हरे तिनको की तरह झुलसती चली जा रही हैं.

सामने बालकनी में सुप्रियामसी का ‘गोल्डन पेरेट’ भी पिंजरे की सीकों की धार में देह को धुन रहा है. उसके मुलायम मुलायम, रंगीन रेशे उनमें चिपकते चले जा रहे हैं. नीचे जल-भरा कटोरा रखा हुआ है और प्लास्टिक की छोटी-तश्तरी में सेव की फांके!

धरणीधर उप्रेतीजी की दृष्टि सामने की छोटी सी मेज पर चली जाती है. जहाँ उनके सुबह के नाश्ते के तौर पर एक तश्तरी मैं आमलेट, एक में डबलरोटी के टुकड़े रखे हुए हैं. साथ में कलई के गिलास में चाय भरी हुई है.

सुप्रियामसी आज भी काम पर एकदम सवेरे ही चली गई है. इधर फर्म के मैनेजर का काम काफी बढ़ गया है, इसलिए एक ‘सिटिंग’ शाम को और एक सवेरे देती है. रात का खाना कभी भी धरणीधरजी ख़ुद ही बना लेते हैं, कभी डबलरोटी में ही गुजारा हो जाता है. सुप्रियामसी आमलेट या अण्डों की भुजिया बना लेती है. उप्रेती जी को इधर अंडा से अरुचि सी होती चली आई है. सुप्रियामसी कांच के छोटे गिलास में थोड़ी सी व्हिस्की देती है. उप्रेतीजी आमलेट का टुकड़ा उँगलियों से ही उठाते हैं, अकारण ही कुछ-कुछ कांपते-जैसे ओठों पर कुछ पोछते हैं और व्हिस्की का गिलास मुंह से लगा लेते हैं. अंदर आत्मा के तवे पर कांपती जो स्मृतियां सुप्रियामसी को देखते ही तेजी से थरथराने लगती हैं, ह्विस्की की घूंट के अंदर पहुंचते ही, जाने कहाँ अपने आप में ही डूब जाती हैं और धरणीधरजी मसी, अपने ही भीतर कांपते धरणीधर पंडित की आग में तपे हुए ताम्र की प्रतिमा जैसी प्रतिच्छाया को सुप्रियामसी की हथेली पर रख नहीं पाते है.
(Kathfodva Shailesh Matiyani Stories)

गुड नाइट, डियर, कहते हुए सुप्रियामसी, ओंठ उनके माथे पर रखती, लम्बे-लम्बे पालिश से चमचमाते नाखूनों वाली उंगलियों को हिलाती, बिस्तर पर चली जाती है. एक अजीब सी खिसियाहट से अकुला अकुलाकर, धरणीधर पंडित अपने सिर पर हाथ फेरने लग जाते हैं. कभी कहीं एक स्थान सा था, जहाँ बहुत घनी शिखा थी, अब कर्मकांडी पंडित रहे होने का एक धुंधला अहसास भर शेष रह गया है.

कभी कभी धरणीधर जी को अपना शिखाहीन सिर किसी ऐसे चबूतरे की तरह लगने लगता है जिस पर उगा आम का वृक्ष काट दिया गया हो. ‘इग्लिश कट’ बालों के बीच उसका ठूंठ भर बाकी रह गया है. इधर बहुत दिनों से इसी ठूंठ पर उँगलियां कठफोड़वा पक्षी की तरह कुट-कुट करती हुई– कट जाने की जगह, कहीं अपने ही अंदर धंसे हुए मूल संस्कारों में वृक्ष को-टिकोरतो चली जाती है और धरणीधर जी को लगता है, पादरी शेरसिंह जानसन ने उनकी जिस शिखा को कटवाकर मिशन कम्पाउंड से बाहर फिकवा दिया था, वह धूरे के ढेर पर पड़ी आम की गुठली को तरह फिर उनकी ही आत्मा के अंदर फूट आई है.

-और अपने ही अंदर उगे हुए वृक्ष को काट पाना संभव नहीं है. कमरे के बाहर मिस्टर डी.डी. मसी की नेम प्लेट लगी हुई है, मगर कमरे के अंदर हमेशा धरणीधर उप्रेती ही बैठे हुए रहते हैं. धरणीधरजी को लगने लगा है जिन ओढे हुए संस्कारों के कारण उन्होंने तारा पंडितानी को अपने लिए अनुपयुक्त और हीन पाया था, उन्हीं के कारण अब खुद अपने को सुप्रियामसी के लिए फालतू अनुभव करने लगे हैं. पश्चाताप का आत्म वृक्ष दिन रात निरंतर बढ़ता ही चला जा रहा है. अब तो उसका फैलाव इतना बढ़ चुका है कि पसलियों से टकराता अनुभव होता है. किसी खंडहर में उगे विशाल वृक्ष के पौधे की तरह जिसकी छत ज्यों-की-त्यों बनी हुई हो, कटकर अतीत की वस्तु बन जाने की जगह, कही अपने ही अंदर डूबी शिखा ऊपर को उठती ही चली जा रही है और धरणीधर पंडित का मनस्ताप, कठफोड़वा पक्षी की चोंच की तरह, उनके शिखाहीन मस्तक की पोली सतह को कुटकुटाता चला जा रहा है.

ओंकार बिंदु संयुक्त नित्यध्यार्यात योगिनी कामद-मोक्षद-चैव

-मोक्ष? अब भी क्या मोक्ष सम्भव रह गया है?

उँगलिया शिखा की गाँठ बांधने के प्रयास में एक दूसरे से टकरा गई, तो धरणीधर जी को हुआ कि जड़ से कुटकुटाते वृक्ष के शिखर तक पहुँचने के प्रयत्न में लगे कठफोड़वा-जैसे आत्मदश को तो अब इस देह के साथ ही मुक्ति मिलेगी. देह मुक्ति की कल्पना करते ही धरणीधरजी की आँखों के आगे काठ का लम्बा ताबूत उभर आया और उसके अंदर पड़ा अपना शव उन्हें कठौती में मरे पड़े मेंढक जैसा वीभत्स दिखाई दिया. हीराडुंगरी के कब्रिस्तान की तमाम कब्रें कल्पना के कुहासे को चीरती सी उनके सामने फैलती चली गई. कब्रों के सिरहाने गड़े सलीब उनकी आँखों में उभरते चले गए और उन्होंने चंदन की सिल्ली को पथरी पर जल्दी-जल्दी घिसना शुरू कर दिया.

सुप्रियामसी वहीं से दफ्तर चली जाएगी, धरणीधरजी जानते थे. जिस फर्म में सुप्रिया लेडी-टाइपिस्ट है, उस फर्म में धरणीधरजी के सहपाठी मिस्टर सक्सेना जनरल मैनेजर हैं. कलकत्ता रहते हैं मगर दिल्ली आते है, तो धरणीधरजी के पास वे जरूर आते हैं. उन्हीं के कहने पर सुप्रिया को ‘स्टेनो’ के बराबर वेतन मिल रहा है. यदि सुप्रिया दिल्ली ब्रांच के मैनेजर मिस्टर रंधावा के आदेश पर उनकी कोठी पर जाकर काम करने से इंकार भी कर देती, तो भी उसकी नौकरी पर आंच आने का कोई अदेशा नहीं था. पिछली बार तो सक्सेना साहब ने धरणीधरजी से कहा भी था कि यदि वह दिल्ली-बम्बई के शाखा कार्यालयों या कलकत्ता के मुख्य कार्यालय मे खुद भी कोई नौकरी करना चाहते हों, तो कहें. मगर दिल्ली पहुंचने पर धरणीधरजी के सामने नौकरी की समस्या अवश्य थी अब नहीं है. इतना अब वह अच्छी तरह समझ गए हैं कि सुप्रियामसी और उनके संस्कारों के अंतर्विरोधों की वह दीवार तो दोनों ही स्थितियों में ज्यों-की-त्यो बनी ही रहेगी, जिसे सुप्रियामसी तो शायद ढहाने की कोई आवश्यकता ही अनुभव नहीं करती और वह चाहने के बावजूद ढहा नहीं पाते.

सुप्रियामसी जो कुछ पहले थी, वही अब भी है. उसके संस्कारों में प्रत्यंतर की स्थिति कभी आई ही नहीं. बचपन से ही जिस प्रकार की शिक्षा दीक्षा संस्कारों के बीच वह पलती आई, उसे कुछ भी बदलना नहीं पड़ा है. लेकिन, धरणीधरजी को अपने सस्कारों को सुप्रियामसी के सस्कारों के ही नहीं, बल्कि धरम के अनुरूप भी ढालने के प्रयत्न लगातार करने पड़े हैं. और चूंकि उनके धरम-परिवतन के मूल में किसी प्रकार की आत्मनिष्ठा नहीं सिर्फ सोनीमसी की देह और उसके उन्मुक्त आभिजात्य का आकर्षण मात्र था, सो इस आकर्षण के घटने के साथ-साथ ही ओढ़ी हुई धरमनिष्ठा छीजती चली जा रही है. पश्चाताप के तेज अंधड़ में जब ओढ़े हुए संस्कार जब एकदम दूर-दूर छितरा जाते हैं, तो फिर वही तीन वर्ष पहले के कर्मकांडी ब्राह्मण की खोखुरी शिखा कहीं शून्य में प्रश्नचिह्न बनी खाड़ी दिखाई दने लगती है. जैसे तेज आधी से, पतझड़ के पत्तों के उड़ जाने पर, उनके नीचे ढका किसी उजाड़ वन में का अद्भुत शिवलिंग एकाएक उदित हुआ दिखाई देने लगे और अपनी ही मूल झांकी को देखते ही धरणीधर पंडित एकदम बेचैन हो उठते है. ओढ़े हुए संस्कारों से उसको ठीक वैसे ही ढकने का प्रयत्न करते हैं, जैसे कुवारी मां अपने सद्य जात शिशु को ढकती हो. मगर बदतीस बरसों के प्रौढ धरणीधर पंडित को ढक पाने में चंद वर्षों का मिस्टर डी. डी. मसी असमर्थ हो जाता है.
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पिछले कुछ दिनों से धरणीधरजी को लगने लगा कि कोई भी वृक्ष अपने ही पत्तों से अपने को नहीं ढक सकता.

उन्हें लगता है बचपन में कर्मकाण्डी रह चुका कोई ब्राह्मण बाद के आरोपित आचरण से अपने मूल सस्कारों के आम्रवृक्ष को ढक नहीं पाता! अपने अंदर ही दफन किया हुआ हर संस्कार धूरे पर पड़ी आम की गुठली की तरह फूट-फूट जाता है और वृक्ष, वृक्ष के बाद वृक्ष और हरेक वृक्ष पर कठफोड़वा की कुट कुट सुनाई देने लगती है और अंदर एक बियाबान जंगल की सी अनुभूति होने लगती है. इतना बड़ा दिल्ली शहर क्षण भर में विराना हो जाता है. घर में ही कब्रिस्तान आभासित होता जाता है. सुप्रिया उनके अनुमान के प्रतिकूल, रंधावा साहब के साथ ही दफ्तर चले जाने की जगह, अचानक घर पर आई थी. कमरे में आते ही सुप्रियामसी ने ‘गोल्डन परेट’ के पिंजरे को छोटे बच्चे के पालने की तरह आर-पार झुला दिया. फिर सेब की पतली फाकों वाली नन्हीं-सी तश्तरी उसके आगे रखी. पानी का कटोरा भी पास सरका दिया. अपने पतले-पतले ओठों की चोंच-जैसी बनाते हुए ‘मिटठू, माई स्वीट स्वीट-स्वीट” कहकर, उसके माथे के बीचों-बीच चूमा. फिर, सीकों पर लगे उसके पखों के रेशों को पोछती बोली ‘क्यों, डियर, अपने ही खूबसूरत जिस्म पर इतना गुस्सा क्यों आ रहा?’

अच्छी तरह स्मरण है, इस सारे परिदृश्य से स्वयं को असलग्न करमें में इद्रियों को साधे धरणीधर जी को कि सुप्रियामसी के तोते के साथ के सारे कार्यकलाप तथा स्पर्श जैसे हवा में घुलते हुए से उन तक पहुँचते अनुभव होते रहे थे और आखिर-आखिर उन्हें घर से बाहर निकल आना पड़ा था. बड़ी देर तक सामने सड़क पर की भीड़ की जगह कल्पना में उत्तर दिशा में अल्मोड़ा के हीराडुंगरी वाले मकान से पृथिवी के अन्तिम छोर की तरह खढे भासित होने वाले हिमालय को देखते रहे थे. जहाँ उस पार का सब-कुछ ओझल रहा करता था.

चंदन की पथरी को धरणीधरजी ने धीमे से मेज के नीचे सरका दिया. जमीन से उठकर कुर्सी पर बैठ गए, मगर सुप्रिया की उपस्थिति के बावजूद आमलेट की प्लेट को अपनी ओर खींच नहीं पाए. सुप्रियामसी के ललाट पर खिंचती रेखाओं को भी वह नहीं देख पाए. एक ओर पड़ी कुर्सी लेकर, सुप्रिया, उनके सामने की ओर बैठ गई. आमलेट और स्लाइस की तश्तरियाँ उनकी ओर सरकाती बोली- ‘क्यों पंडित जी, आज भी कोई एकादशी-वेकादशी है क्या?
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धरणीधर आसानी से कोई उत्तर दे नहीं पाए. सुप्रिया जब भी उनसे खीचती है ‘पंडित जी’ कहकर सम्बोधित जरूर करती है और उन्हें लगता है, डी. डी. मसी के ताबूत के अंदर लेटा धरणीधर पंडित एकदम बेचैन होकर करवटें बदल रहा है. ऐसे में उन्हें सकोच और अनुराग में डूबी तारा पंडितानी की याद हो पाती है. आधी नासिका तब धोती के किनारी को झूलाए हुए, बिना सीधे सम्बोधित किये ही, वधू की तरह लजा-लजागर उसका बातें करना याद आता है. तीन बच्चों की मां बन जाने के बावजूद, कभी एकदम यों सामानांतर बैठते हुए उन्हें कभी पंडित जी या कुछ और कहकर सीधे सम्बोधित नहीं किया था. अब सुप्रियामसी की सामानांतर रेखाओं को काटती तिर्यक रेखा-जैसी तमतमाई आँखें नहीं झेली जाती हैं तो नीचे को झुके सूरजमुखी के फूलों जैसी तारा पंडितानी की हमेशा एक आद्रता मे डूबी सी रहने वाली आखें कितनी याद आती है.

क्या बात है, पंडितजी महाराज? अपने आप पर ही गुस्सा क्यों हो रहे है ? ब्रेकफास्ट क्यों नहीं लिया? रात देर से आई और सवेरे जल्दी चली गई, इसलिए?’ प्रश्न करते-करते सुप्रियामसी का चेहरा और भी तमतमाया- ‘तुम तो कुछ बोलोगे नहीं. न तुम नौकरी करोगे, न मुझे करने दोगे. मैं तुम्हें बहुत ‘प्रोग्रेसिव और लिबरल माइडेड’ समझती थी डी.डी. मगर लगता है तुम्हारे भीतर का पंडितपना ज्यों-का त्यों बना है. तुम मुझे अब ‘टालरेट’ नहीं कर पा रहे, डी. डी.

धरणीधर ने अनुभव किया, आवेश के कारण सुप्रियामसी की आँखें डब-डबा आई हैं. उन्हें लगा यों चुप रहकर, वास्तव में सुप्रिया के लिए कुढ़ने की स्थिति पैदा कर रहे हैं. इधर अक्सर ही एक अजीब सी ग्लानि उन्हें अपने प्रति हो आती है. सुप्रिया की ओर पूरी आँखें उठाकर देख नहीं पाते हैं. उन्हें लगता है, उनकी इस मानसिक हीनता का अर्थ सुप्रिया के लिए सिर्फ यही हो सकता है कि यह सोचे कि उन्हें यही शक है कि सुप्रिया ने अन्य पुरुषों से संबंध जोड़े हैं और उनकी स्थिति इस प्रकार से सम्बधों पर चुप्पी साधे, एक आत्म गौरव शून्य व्यक्ति की है.

कुछ क्षणों तक वो जैसे सुप्रिया को स्मृतिपटल पर ही देखते रहे. अपने ब्राह्मण वेश में निकलना और राह चलते सुप्रिया की स्कर्ट या गाउन मे हैलो, सर.” फिर लगातार भीतर किसी चिड़िया की चहक की तरह मडराती आवाज के चिह्न अभी बाकी है जरुर.

उम्र भी कितनी कठिन वस्तु ठहरी. तब सुप्रिया के हेलो सर. जैसे संक्षिप्त सम्बोधन से ही आस-पास का सारा वातावरण तक तरंगित होता जान पड़ने वाला ठहरा-और अब कुछ नहीं ठहरा. यह हवा या झोंका पाते ही शरीर का वृक्ष की तरह या सा आंदोलित होना पूरी तरह विगत हो चुका ठहरा. जिसने मोरकी प्रकृति की ताजगी और अनाविलता को देखा और अनुभव किया हो उसके सिवा कौन इस बात का अंदाज लगा सकने वाला ठहरा कि तरुणाई और प्रौढावस्था के बीच का सारा वक्त किसी पहाड़ी नदी के ऊपर का काठ का पुल हो जाने वाला हुआ. जरा सा पाँव धरो नहीं कि बोल पड़ने वाला जरूर ठहरा लेकिन जो उस पार वो वहीं हुआ- जो इस पार वो यहीं.
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अपनी एक लम्बी मनोयात्रा पूरी कर चुकने की सी थकान में, आखिर बोले- ‘सोनी, मांफ करना पंडिताऊपन के लिए. आज तुमसे कुछ भी छिपाऊँगा नहीं. “छिपाऊँगा नही” कहते कहते, धरणीधरजी का गला कुछ खुल आया. धीरे-धीरे शांत आँखों को सुप्रिया की ओर उठाते बोले- ‘उलाहना गलत नहीं, सोनी मगर सच है कि मेरे सामने तुम्हें ‘टालरेट’ करने की ‘प्राब्लम’ उतनी नहीं बल्कि असल बात है यह कि मैं खुद को ‘टालरेट’ नहीं कर पा रहा. तुम्हें नहीं सह पा रहा होता, तो या तुम्हें अपने अनुशासन में रखने की या खुद तुम्हारे अनुकूल हो रहने की कोशिश करता. मगर मैं तुम्हें अपने नहीं, बल्कि अपने को तुम्हारे लिए बोझ महसूस करने लग गया.’

‘लेकिन डी. डी., वजह तो यही है न कि तुम्हारे मन में यही यह शुबहा भर गया है कि मैं लूज करेक्टर की हो गई. रियली इट इज ए वंडर फार मी, डी. डी., कि मेरे लिए अपने हिन्दू धरम और सारी जात बिरादरी को छोड़ देनेवाले तुम अब इस कदर शक्की होते जा रहे? कभी तुमने इसी बात पर अपनी ‘वाइफ’ को छोड़ दिया कि वह निहायत बैक्वड और दकियानूसी औरत है. तुम्हें ‘डीपली लव’ नहीं करती. तुम्हें आमलेट बनाकर नहीं देती, तुम्हारे साथ घूमने फिरने नहीं जाती है और अपने हिन्दू धरम को तुम ‘हेट’ करते कि तुम्हारे विरादरी ब्राह्मण बहुत ही ज्यादा दकियानूस और ‘मीन मंटेलिटी’ वाले तुम्हारे मेरे बीच के लव एफेयर से चिढते हैं. मगर मुझे लगता है वह सब तुम्हारा दिखाया ही था. एम तो तुम्हारा जैसे-तैसे मुझे ‘कनविस’ करके, मुझसे अपनी ‘लस्ट’ को पूरा करना था बस’

सुप्रिया की आँखो से आँसू लुढ़कते जा रहे थे और मेज पर रखी हथेलियों की पीठ पर गिरते जा रहे थे. उँगलियों को मेज पर टिकाये-टिकाये वह हथेलियों को, पानी से बाहर निकलकर जोर-जोर से सांस लेती मेढकी की तरह हिलाती चली जा रही थी. धरणीधर कोई उत्तर नहीं दे पाये, तो फिर बोली- ‘मैं सीधे दफ्तर ही जाने वाली थी, मगर आज सवेरे-सवेरे जैसी आँखों से तुमने मुझे देखा, यही ‘फील’ होता रहा कि तुम मेरे पीछे लगे हो और दफ्तर तक भी पीछा करोगे. इतनी ‘जीलसी’, ऐसी ‘मीन मेटेलिटी’ और ‘इम्पेशेंस’ तो तुम में नहीं होनी चाहिए, डी. डी.? मुझे तो देखकर हैरानी होती है कि किसी जमाने में अंग्रेजी रहन-सहन और ‘सोसाइटी-लाइफ’ में हिमायती तुम आजकल कभी मेरी एब्सेंस पाते ही चुपके से पंडिताऊ धोती पहनकर खिचड़ी पकाने लगते हो. ‘डाइनिंग टेबिल’, पर खाने की जगह लकड़ी का पट्टा लेकर किचन में बैठ जाते हो और खिचड़ी परोसने के बाद उसके ऊपर हाथ घुमाते हुए, चारों तरफ पानी के छीटे छिड़कने लगते हो? मैं अंधी नहीं, डी. डी.. अक्सर देर तक बाहर छिपी तुम्हारी तमाम पंडिताऊ ‘एक्टीविटीज’ को देखती रहती हूँ. दफ्तर जाते समय किचन की खिड़की के पास खाड़ी रह जाती हूँ. ‘बाइबिल’ की जगह ‘गुटका रामायण’ पढते कई बार देख चुकी तुम्हें. और आज–आज मैं तुमसे यह पूछना चाहती हूँ डी. डी., कि जब तुमको ‘क्रिश्चनिटी पर फेथ’ ही नहीं था, तो तुमने अपनी चुटिया और जनेऊ को उतारा क्यों? मैं तो यही समझती थी कि अपनी पूरी फैमिली और हिन्दू धरम को छोड़कर तुम क्रिश्चनिटी को कबूल कर रहे हो, तो ईसा में तुम्हारा बहुत बड़ा ‘फेथ’ है. मगर, डी. डी. नाऊ आई फील दैट, आई वाज इन डार्क’
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‘नहीं सोनी, अंधेरे में तुम नहीं थी, मैं था. तुम अपने धरम अपने जिन सस्कारों के उजाले में तब थी, आज भी उसी में हो. मगर मैं निश्चित रूप से अंधेरे को ओढ़ता चला आया, इसीलिए आज भी अँधेरे में हूँ और तुम्हें भी उसी में डूबा देखता हूँ. तुम मेरी सारी हरकतें देखती रही हो सोनी, मगर तुम जिस तरह मेरा पीछा करती रही हो, मैंने कभी तुम्हारा पीछा नहीं किया. मुझे तो आज तक अपना ही पीछा करते रहने से मुक्ति नहीं मिली.’ धरणीधर बोले- सोनी, मुझे यह स्वीकार करते कोई हिचक नहीं कि वास्तव में ईसाई धरम पर मेरी कोई निष्ठा नहीं, मगर इसका मतलब यह भी नहीं कि मेरी निष्ठा हिन्दू धरम पर है. हिंदू धरम पर अगर मेरी कभी निष्ठा रही भी होगी, तो वह तुम्हारे आकर्षण से कही बहुत छोटी ही रही होगी. अब तो यही लगता है, सोनी, कि आदमी जब तक अंदर से नहीं बदले, बाहर से बदलने को कोई ‘वैल्यू’ नहीं. धरमनिष्ठा भी जब बाहर से ओढ़ी जाती, तो एक बोझ की तरह सिर पर लदी रहने वाली हुई. कभी-कभी आदमी नदी की तेज धारा में बह जाने वाला हुआ. स्त्री उसके जीवन की मुख्यधारा हुई. किसको जो पालूं, कैसी को जो पालूं की व्याकुलता में रह जाने वाला हुआ आदमी, जबकि उसके भीतर भी वैसा ही वेग उपस्थित हुआ जैसा कि धारा में. तुम्हारे अथाह प्रेम में दिनों को आज भी वहाँ भूल सकने वाला हुआ?

उन्हें लगा-जैसे कोई बाँध हट गया हो. अपने इर्द-गिर्द एक मोहक धुंध के एकत्र हो गये होने की-सी अनुभूति हुई. लगा कि जैसे कोई, एक झिलमिल आवरण में करता हुआ-सा कानों में मंत्रपाठ-जैसा पर रहा है कि यही समय है.

सुप्रिया कुछ स्तम्भित हुई-सी, पर चुचाप बैठी थी. कितने वर्षों का अन्तराल है इस पंडित की वाणी को इस तरह खुलते देखने के बीच?

वर्जित काम सबसे स्वादिष्ट समझा जाने वाला हुआ सुप्रिया. तुमको इंटर में पढ़ाया हुआ ठहरा. जमाना बीत गया, लेकिन शहर इतना संक्षिप्त हुआ हमारा कि इधर मेरा घर से निकलना, उधर नारायण तिवाड़ी देवाल में एडम्स तक के बीच में लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन तुम्हारा ‘हैलो सर’ पुकारना- पहले एक फार्मेल्टी जैसी हुई ‘हैलो, सुप्रिया’ कहते मैं आगे निकल जाता. धीरे-धीरे तुमने तितली के से पंख खोलने शुरु किये तो ‘हैलो सुप्रिया, हाउ आर यू’ कहते हुये तुम्हारे कन्धों को स्पर्श करने का सिलसिला शुरु हुआ. देवाल से घर तक के बीच में कितना एकांत दिखाई पड़ने वाला हुआ सबी. फिर धीरे-धीरे तुमने ‘जरा इन्हें पढ़िएगा सर!’ कहते हुए समाधारा को थामते हुए, मुझको अपनी ही कल्पना की दुनिया में खींचना शुरु किया- इसमें कब हिन्दू धरम के कर्मकांड छूटते गये, कब आखिर तुम्हारे साथ गिरजे की प्रार्थना में शामिल हुआ- बीच में एक संयोग जैसा घटित हो गया ठहरा!- मेरा ईसाई होना ईसा की नहीं तुम्हारी खातिर हुआ, सुप्रिया!’
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सुप्रिया कुछ बोली नहीं, सिर्फ उंगलियों से मेज थपथपाना शुरू कर दिया, जैसे अपने भीतर की उथल-पुथल के कम्पन को गिन रही हो. धरणीधर ही बोए- ‘मैं कुछ नहीं जानता, कब, कैसे शुरुआत हो गई. जैसे कोई कब्र में का मुर्दा उठ खड़ा हुआ हो- जैसे कोई पूर्व जन्म का प्रेत जागता गया और जो कर्मकांड मंत्र पाठ बाढ़ में बह गये थे, जाने कब फिर अपनी जगह वापस आने चले गये. कब प्रभु ईसा में सुभापिता की जगह दुर्गा सप्तशती की ‘या देवि सर्वभूतेषु’ में चिर शांति अनुभव करने लगा- कब तारा को त्यागने की बात ने ‘ पापोहं पाप कर्माहं’ की ग्लानि में ला पटका- कुछ नहीं जानता, सुप्रिया| तुम्हारी तरफ को एक बाढ़ में बहा था दूसरी एक बाढ़ आई, तुमसे पीछे हटना शुरू होता गया. आई एम गिल्टी पर्सन, सुप्रिया. आई हैव डिसिव्ड बोथ ऑफ़ यू सिंसियर वूमेन. क्रिश्चियेनिटी हैज आल्सो लूज्ड इटस मीनिंग फॉर मी. बात पूरी करते-करते उनका गला रूध गया.

साल भर के गुमसुमपन के बाद, आज धरणीधर जी को यों मुक्त भाव से बोलते देखकर, सुप्रिया को एक आश्चर्य में डुबो देने वाला सुख मिला रहा था. उसे लगा, जिन आरोपों को वह ख़ुद धरणीधरजी पर लगाना चाहती, इतनी शांत भाषा में खुद ही स्वीकार कर उन्होंने उसके गुस्से को कितना कम पर दिया है.

इस बार, उलाहना देते भी, सुप्रिया का स्वर जैसे अपने आप ही कोमल हो गया- ‘तो तुम अब यह कहना चाहते, हो डी.डी. कि ईसाई धरम के लिए तुम्हारे यानी कि ‘इन अदर वडस’ ईसाई धरम तुम्हारे लिए बेकार साबित हो जाने पर अब फिर से तुम हिंदु धरम के लिए काबिल पंडित बन गए हो’ यानी टु बी वैरी फक, यू वांट टु डाइवोस मी नाउ’

धरणीधरजी सिसिया गए. सुप्रिया के इस प्रश्न में वह अपने लिए जो प्रताड़ना दिखाई दी, उन्हें लगा, उसके आगे वह बहुत छोटे पड़ गए हैं. जिन्दगी भर साथ निभाने का जिसे वचन दिया था, उससे संबंध विच्छेद की बात करते आत्मा कही बहुत बौनी तो हो ही आएगी. उन्होंने अनुभव किया कि अभी तक तो उन्होंने यह भी कुछ निश्चय नहीं किया कि उन्हें संबंध विच्छेद कर लेना है. इसलिए यह भी नहीं सोचा कि सुप्रिया से संबंध विच्छेद के बाद उनके जीवन की दिशा क्या होगी. ब्राह्मण समाज तो अब उन्हें स्वीकार करने से रहा. हां, शायद तारा पंडितानी उन्हें आज भी वैसे ही स्वीकार कर सकती है जैसे कोई अपने आराध्य की निषिद्ध जल में डूबी मूर्ति को स्वीकार ले? मगर फिर बच्ची का भविष्य क्या होगा? धरणीधरजी का ओढ़ा हुआ धरम जब तक उन पर आरोपित होने लगे, तब क्या उनके सामने भी ऐसी ही स्थितियां नही आयेंगी? नहीं. किसी भी प्रकार का कोई रास्ता कहीं नहीं है. सुप्रिया के साथ यों ही जुड़े रहना ही उनके जीवन की एकमात्र नियति रही है. कहने को मन हुआ कि ‘सुप्रिया, कभी-कभी जीवन की कितनी छोटीसी भूल के कितने कठोर दण्ड भुगतने होते हैं आदमी को.’ – मगर कह कुछ नहीं सके.

सुप्रिया की उँगलियाँ कभी चलती, कभी थमी रहती. डी.डी. के लगभग साल भर के पूरे वातावरण को तनाव में रखने वाले गुमसूमपन में बांध का टूटना जैसे उसे भी वैसे ही प्रवाह में ले आया हो और वर्षों के बाद, फिर दोनों एक ही मोड़ पर आ गये हों.

पहली बार सुप्रिया को अहसास हुआ इस बात का कि जो व्यक्ति पत्नी और बच्चों को त्यागकर आया हो जब उसके प्रेम में ज्वार का बैठना और स्मृतियो का वेग शुरू होगा, तो उसके द्वन्द्व और पश्चाताप कितने प्रबल होंगे.

बैठी-बैठी ही बोली- ‘मुझे अपना बंधन मानकर नहीं चलना. जो आया हो उसे वापसी का भी हब बनता जरूर है.’

‘इस तरह की बातों का काई मतलब तभी हो सकता है, सुप्रिया-जब रास्ते बाकीं हों. वापसी इतनी आसान चीज नहीं. वापसी कू भी वक्त चाहिये डियर. काल अब वहाँ नहीं ले जायेगा, जहां से चला था. और अब तुमसे भी दूर होना चाहूं कभी, वजह यह नहीं होगी कि ईसाई धरम के प्रति वितृष्णा हुई, बल्कि वजह होगी इसकी यह कि चित्त भ्रम के कारण जीवन के सारे अर्थ नष्ट हो चुके होंगे. क्योंकि जैसे तुम्हें पाना ही ईसाई धरम को पाना नहीं था, वैसे ही तुम्हें छोड़ना मात्र भी ईसाई धरम को छोड़ना नहीं हो सकता सोनी.” कहते-कहते उनका गला भर आया.

सुप्रिपा पास आकर, कंधे से सटकर खड़ी हो गई तो आत्मालाप करते से बोले- ‘मैं जितना कृतज्ञ तारा ये प्रति हूँ, उतना ही तुम्हारे प्रति भी. दोनों में ही मैंने बहुत से सुख पाये. तुम दोनों का उतना ही अपराधी भी हूँ. तारा ने बच्चों के पिता का दायित्व भी खुद ही निबाहते हुए, मेरे अपराध क्षमा करती गई है. तुम भी मुझे क्षमा कर सक्ती हो, अपने लिए किसी अनुकूल को चुनकर. ऐसी स्थिति में भी मुझसे बड़ी ही रहोगी, सोनी, क्योंकि तुम अपनी ही दृष्टि में नहीं गिरी हो. सच पूछो तो मैं अब सन्यास से लेना चाहता हूँ, सोनी. अब अपनी व्यथता को और ज्यादा ढोया नहीं जाता.’

सुप्रिया ने हल्के से स्पर्श के साथ धरणीधर जी के आँसुओं को पोछ दिया. ललाट पर हाथ फेरने लगी, तो चंदन का तिलक दिखायी दे गया. पोछने की जगह, हल्के से उसे छू भर लिया सुप्रिया ने. धरणीधर जी के प्रति उसका मन कोमल और सवेदनशील हो आया- ‘डी. डी., छिच्छी, तुम औरतों की तरह रोते क्यों हो? मैं कल से मिस्टर रंधावा के घर नहीं जाऊँगी. मैं कल से तुम्हें कोई ऐसी वैसी शिकायत नहीं होने दूंगी, बस? कहो, तो यह नौकरी ही छोड़ दू तुमने आज तक चुप रहकर और अपनी तकलीफों को ख़ुद ही पीकर, मुझे बहुत लापरवाह बना दिया, डी. डी. ! प्लीज, एक्सक्यूज मी “

उन्होंने एकाएक ही सुप्रिया के दोनों हाथों को अपने हाथो में ले लिया और भावावेग में कई क्षणों तक ऊपर शून्य में उठाये रह गये.

उसके पूरे चेहरे पर थरथराहट थी. जैसे भीतर कोई भूकम्प हुआ हो. दोनों को एक-सी स्थिति में देखकर, या जाने क्यों इसी बीच एका-एक तोता बोलने लगा. धरणीधर जी ने एक झलक उसकी तरफ देखा, और ‘थोड़ा बाहर टहल कर, अभी लौटता हूँ. कहते हुए, बाहर की तरफ बढ़ गये.

किंकर्तव्यविमूढ़-सी सुप्रिया उन्हें रोकने का प्रयास करने की जगह, डब-डबायी आँखों से कुछ क्षण तो मेज के नीचे पड़े चंदन की पथरी को एकटक देखती रह गई. फिर ओस में भीगी-सी बाहर निकली. बारामदे में आकर, दूर तक झाँका, लेकिन भीतर की व्याकुलता के लिये ओट खोजते धरणीधर सड़क पार के झुरमुटों के बीच कहीं ओझल हो चुके थे.
(Kathfodva Shailesh Matiyani Stories)

शैलेश मटियानी

-काफल ट्री फाउंडेशन

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