वह समय आज की तरह हवा में जहर घोल देने वाला नहीं था. तभी तो आज से चार-पांच दशक पहले कालू चूड़ी वाला हल्द्वानी से लगे आस पास के दर्जनों गाँवों की सैकड़ों /हजारों बेटी-ब्यारियों का चलता फिरता ब्यूटी पार्लर था. कालू मुस्लिम था और हल्द्वानी के मुसलिया इलाके में रहता था. इस बात को सभी गॉव वाले जानते थे. इसके बाद भी उसके बिना इन गाँवों की बेटियों का ब्याह ही नहीं होता था. होता कैसे? ब्याह के लिए श्रंगार का पूरा सामान तो बिना कहे ही ठीक समय पर वही लाता था.
(Kalu Chudiwala Villages Near Haldwani)
चोरगलिया, गौलापार, लामाचौड़, फतेहपुर, गौरापड़ाव क्षेत्र के कई गॉव, मोतीनगर, हल्दूचौड़, मोटाहल्दू, लालकुँआ, देवलचौड़, मानपुर, बिठौरिया, चकलुआ और कभी-कभार शान्तिपुरी तक भी वह पहुँच जाता. तब वह लगभग तीस-पैंतीस साल का रहा होगा. औसत कद काठी, गठीले शरीर वाला व सांवले रंग वाला कालू इन क्षेत्र के दर्जनों गॉवों की पगडंडियों में चिलचिलाती लू, उमस भरी गर्मी, कड़कड़ाती ठंड व छप्प भिगा देने वाली बरसात में भी “चूड़ी ले लो, चूड़ी” की आवाज लगाता हुआ महीने-डेढ़ महीने में अक्सर चलता हुआ दिखाई दे जाता. सम्भवत: 1990 के दशक तक वह लगातार बिना नागा किए हल्द्वानी भाभर के गाँवों में पैदल फेरी लगाता रहा. गौलापार वह कच्ची सड़क में हिचकोले खाते हुए टाँगे में गया तो चोरगलिया का सफर उसने धूल भरी जंगलात की सड़क से ट्रक के टूल बॉक्स में बैठकर तय किया. और दूसरे गाँवों तक जाने का उसका सफर तांगे, रिक्शे, टैक्टर आदि से पूरा होता रहा.
गाँवों में उसका जाना 1990 के बाद धीरे-धीरे कम होने लगा. कारण यह था कि तब इन गाँवों में कच्चे रास्तों की जगह डामर वाली सडकें बनने लगी थी. इसके अलावा नई आर्थिक नीतियों का कुछ लाभ गाँव वालों को भी हुआ. कई तरह की नकदी फसलें उगाए जाने लगी. उससे गाँव के अधिकतर घरों में तेजी के साथ दुपहिया का चलन बड़ा और बाद में चौपहिया भी आने लगे. बाजार ने भी नई तरह की करवट ली. जिसमें कई तरह के सामान से बाजार पटने लगा तो गाँवों की लड़कियों व ब्वारियों की पसन्द भी तेजी के साथ बदलने लगी. पसन्द के बदलते व्यवहार के कारण कालू के धंधे पर भी असर पड़ा और वह गॉव के लिए “आउट डैटेड” होने लगा. इसी के साथ कालू भी धीरे-धीरे भाबर के गाँवों से गायब हो गया. जब उसकी जरूरत ही नहीं रही तो उसको याद करने वाले भी धीरे-धीरे उसे भूल गए. और वह पीढ़ी भी इस संसार से विदा होती रही, जो कालू से आत्मीयता रखते थे. जो पीढ़ी 1980 या 1990 के दशक के बाद पैदा हुई, उसमें से अधिकांश तो कालू को जानते तक नही होंगे.
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कालू की “चूड़ी ले लो, चूड़ी” की आवाज सुनते ही उन दिनों दिन की चिलचिलाती गर्मी में घर के अन्दर आराम से सो रही बेटी-ब्वारियां तुरन्त ही घर से बाहर निकल आती और “ओ कालू / ओ कालू दा” कहते हुए उसे रोक लेती और साथ में कहती “कि कि लारै छै?” जवाब में कालू अपना लकड़ी का वह बक्सा कंधे से उतार कर घर के आँगन में रख देता. बक्से के ऊपरी हिस्से में पारदर्शी शीशा लगा होता था. जिसमें से बक्से के अन्दर रखा हर सामान स्पष्ट दिखाई देता था. जिनमें कई आकार व रंग की चूड़ियां, कई तरह की कान की बालियां, नाक की फुल्लियां,चरेऊ, धमेली, लाली (नैल पॉलिस), कई रंग के रीबन, ताबीज बनाने की काली डोरी, आलपिन, सुई, काले व सफेद रंग के धागे की रील, काजल, सूरमा, कनगू (कान का मैल निकालने वाला) आदि और भी बहुत सी वस्तुएँ होती थी.
बेटियों की पहली आवश्यकता रीबन, नाक की रंगीन फुल्लियों व कान की बालियों की होती थी तो ब्यारियों की पहली आवश्यकता चूड़ियों व चरेऊ की. बाकी सामान का नम्बर उसके बाद आता या फिर वे घर में ब्या व नामकरण जैसे कामकाज होने पर ही खरीदी जाती थी. जिन परिवारों में सासू का अपनी ब्वारियों पर विशेष नियंत्रण रहता था, उनके लिए सामान सासू ही खरीदती. अपने चूड़ी-चर्यो की आवश्यकता की भूमिका भी ऐसी ब्वारियों को कालू के आने से कई दिन पहले से ही बनानी पड़ती थी, ताकि जब कालू चूड़ी वाला आए तो उसे चूड़ी-चर्यो बिना सासू की मिन्नत किए ही मिल सकें. बहुत सारी सासुएँ इस बारे में ब्वारियों के लिए बहुत उदार होती थी और वह बिना ब्वारी के कुछ कहे ही उनकी इच्छा को समझती थी और उसकी पूर्ति भी कर देती थी. ऐसी उदारमना सासुओं को उनका ब्वारियॉ किसी देवता से कम नहीं मानती थी.
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ऐसी सासु वाली ब्वारियों को उसके आस पड़ोस के दगडू “तू कदू भागिबन छै” कहते हुए उसे विशेष नजरों से देखती थी. उन नजरों में एक तरह का कातर भाव रहता कि कास! तेरी जैसी सास मेरी भी होती तो?
जिन परिवारों में कई देवरानियां व जेठानियां होती थी तो उन परिवारों में अपनी देवरानियों की आवश्यकता की मांग सास तक पहुँचाने की जिम्मेदारी जेठानी की होती थी. इनमें अगर सबसे बड़ी जेठानी कुछ ज्यादा ही सीधी हुई तो फिर इस तरह की जिम्मेदारी उसकी छोटी वाली देवरानी (अन्य की जेठानी) पर आ जाती. बड़े परिवारों में कई बार बात-व्यवहार व ल्याकत के कारण सास की विशेष अनुकम्पा किसी एक ब्वारी पर हो जाती तो अपनी जेठानी-देवरानियों में उसका रूआब और ठसका कुछ अलग ही होता.
दूसरी देवरानी-जेठानियां उससे बनाकर अवश्य रखती, लेकिन अपने मन की कभी भी उससे नहीं कहती. विशेषकर ऐसी बात जिसमें सासू की कुछ काटणी हो या फिर ऐसी बात जो सासू को अच्छी न लगती हो. भावुकता में मन की बात कह देने की गलती करने का मतलब होता कि उस बात का बिना तार के सासू के कान तक पहुँच जाना. और फिर बिना किसी भूमिका के उस ब्वारी के मायके की सात पीढ़ियों का उद्धार बिना श्राद्ध व दान-दक्षिणा के निश्चित था.
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जिन परिवारों में एक-दो ही ब्वारियां होती थी और सासू बिल्कुल सासू ही होती थी, उनके लिए परेशान होना स्वाभाविक था, क्योंकि चूड़ी-चर्यों की मांग कर देने पर उस पर मिजाति होने का ठप्पा लगते देर नहीं लगती थी. ऐसी ब्वारियां को चूड़ी-चर्यो के लिए आस-पड़ोस या नातेदारी में किसी काम काज की प्रतिक्षा करनी पड़ती थी, ताकि बिना कहे चूड़ी-चर्यो की मांग पूरी हो सके. जिन ब्वारियों के घरवाले ( पति ) थोड़ा तेज होते थे वे अपने मन से भी अपनी घरवालियों (पत्नी) को ये सब चीज दिलवा देते थे. जिन ब्वारियों के घरवाले गीजल होते, उन्हें सासू की उदारता के भरोसे ही रहना होता था. मललब ये कि कालू जब गाँव की पगडंडी या भौली में “चूड़ी ले लो, चूड़ी…” की आवाज लगाता हुआ कदम-दर-कदम बढ़ाता तो बेटी-ब्वारियों में एक उल्लास सा आ जाता था. वे भले ही कुछ खरीदना न हो, लेकिन कालू को अपने घर के ऑगन में कुछ मिनट के लिए रोक ही लेती. भले ही बाद में कुछ न कुछ बहाना कर देती.
कालू भी सारी बातों को भली भॉति समझता था. पर कभी इस तरह रोक देने पर गुस्सा नहीं होता था. वह जानता था इस बार नहीं तो अगली बार ही सही, पर वे कुछ न कुछ अवश्य लेंगी.
जाड़ों में जब बार ब्वारियां दिन के समय खेतों में काम रही होती तो वह खेत में ही अपना चूड़ियों का बक्सा खोलकर बैठ जाता. वह दिन भर “चूड़ी ले लो, चूड़ी” कहता हुआ गाँव दर गाँव चलता रहता. चोरगलिया जैसे चार ग्रामसभाओं वाले क्षेत्र का दौरा वह दो दिन में और कभी-कभी तो एक ही दिन में पूरा भी कर लेता. उसके बक्से में इतना सामान होता कि वह दो दिन तक आराम से अपनी दुकानदारी चला लेता. सामान के बदले वह पैसे /रुपए ही लेता. तब पैसे की अहमियत बहुत थी. रुपए वह कमीज के अन्दर बनी जेब में रखता तो पैसे (सिक्के) एक कपड़े की एक छोटी सी थैली के अन्दर. उस थैली को वह कुर्तेनुमा कमीज के अगल-बगल की जेब में रखता था. अगर किसी घर में रुपए न हों तो अनाज भी ले लेता. जिसमें दाल, गेहूँ व चावल शामिल होते. अगर अनाज का वजन कुछ ज्यादा हो जाता तो वह गॉव में किसी ज्यादा जान-पहचान वाले के यहॉ उसे रख देता. वहां से वह कभी भी अपनी मेहनत के अनाज के थैले को ले जाता. गॉव में चक्कर लगाते हुए किसी घर से चाय-पानी व खाना खाने का आमंत्रण मिलता तो कालू बिना किसी हिचक के उसे स्वीकार कर लेता और स्वाद लेकर भोजन करता व चाय-पानी पीता. अगर किसी दिन ऐसा अवसर नहीं आता तो वह गॉव की किसी चाय की दुकान में आलू के गुटके, चना या मटर के छोले, चाय-बन, चाय-बिस्कुट या फिर चाय-फैन खाकर काम चला लेता.
(Kalu Chudiwala Villages Near Haldwani)
जब किसी घर में ब्या या दूसरा कोई भी काम-काज हो और कालू उससे एक-डेढ़ महीने पहले ही उस गाँव में फेरी लगाने चला गया तो उसे काम-काज से दो-तीन दिन पहले आने का आमंत्रण मिल जाता. कालू भी शिद्दत के साथ उस आमंत्रण को स्वीकार ही नहीं करता,बल्कि उसे पूरा भी करता था. लड़के की शादी होती तो दुल्हैंणी के लिए श्रृंगार का सारा सामान कालू ही लाकर देता और लड़की की शादी होने पर भी श्रृंगार का सामान वही लाता. इसके अलावा ब्यॉ में शामिल होने के लिए आई हुई उस घर की बिवाईं चैली-बेटियों के लिए भी नई चूड़ी, चरेऊ, बिन्दी, धमेली, लाली, काजल आदि भी वही लाता. इसके अलावा ब्या, काम-काज में पिन (जिसे अब सेफ्टीपिन कहा जाता है) अवश्य खरीदी जाती, क्योंकि वह कई बार अचानक टूट चुके बटन की जगह काम करता था. छोटी लड़कियों के लिए कान के बुन्दे, नाक की फुल्लियां व अलग-अलग रंग की रीबन भी खरीदी जाती.
इसके अलावा कालू पूछे जाने पर अगर वह जानता तो लड़के-लड़की और उनके परिवार के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारी भी देता. उसकी जानकारी एकदम पक्की होती. इस तरह वह भाबर के कई गाँव वालों के नाते व रिश्तेदारों तक को जानता था और यह जानता था कि किसके लड़के और किसकी लड़की का ससुराल कहाँ है ? इसकी वजह से वह कई बार सुख-दुख के संदेशों को ले जाने का भी काम करता था. अगर वह आज किसी गाँव में है और दो-चार दिन या हफ्ते-दस दिन बाद उस गाँव का व्यक्ति अपनी किसी रिश्तेदारी में गया तो कालू वहां फेरी लगाते हुए टकरा सकता था. उसके इस तरह टकराने से किसी को आश्चर्य भी नहीं होता था. उल्टे कालू के प्रति एक विश्वसनीयता का भाव अलग से पैदा हो जाता था. कालू भी अगर व्यक्ति को अच्छी से जानता तो उनके परिवार की आदल-कुशल पूछना नहीं भूलता.
मुझे याद नहीं कि भाबर के गाँवों में उसका मुसलिया होना कभी आड़े आया हो या कभी किसी ने उससे इस आधार पर नफरत की हो. (Kalu Chudiwala Villages Near Haldwani)
काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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