सुधीर कुमार

उत्तराखण्ड के बीहड़ गाँव से दुनिया की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटी तक ज्योति का सफ़र

उत्तराखण्ड के सीमांत जिले चमोली का एक छोटा सा कस्बा है देवाल. देवाल आसपास के गाँवों का ब्लॉक मुख्यालय तो है ही, यह सबसे लम्बी दूरी की हिमालयी यात्रा ‘नंदा राजजात’ का अहम् पड़ाव भी है. यही देवाल हाल के दिनों में चर्चा में आया विज्ञान की होनहार छात्रा ज्योति बिष्ट की वजह से. ज्योति बिष्ट देवाल के एक छोटे से गाँव देवसारी की हैं और दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक फ्रेडरिक शिलर यूनिवर्सिटी, जर्मनी में शोध छात्रा के रूप में चुनी गयी हैं. उन्हें विश्वविद्यालय में शोध के के लिए फेलोशिप मिली है. अगले कुछ साल ज्योति यहां रसायन विज्ञान की बारीकियों को समझने का प्रयास करेंगी. (Jyoti Bisht Friedrich Schiller University)

फरवरी 1558 में बनी फ्रेडरिक शिलर यूनिवर्सिटी जर्मनी के दस सबसे पुराने विश्व विद्यालयों में एक है. इस विश्वविद्यालय का नाम जर्मनी के नाटककार और कवि फ्रेडरिक शिलर के नाम पर रखा गया है. अब तक इस विश्वविद्यालय से जुड़े 6 शोधार्थी विभिन्न क्षेत्रों में नोबल पुरस्कार से नवाजे जा चुके हैं. दुनिया के 200 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में गिनी जाने वाली फ्रेडरिक शिलर यूनिवर्सिटी उच्च शिक्षा के लिए दुनिया भर में अपनी अलग पहचान रखती है.

ज्योति बिष्ट की यह उपलब्धि इसलिए ज्यादा ख़ास है कि उनकी स्कूली पढ़ाई देवाल के ही मामूली संसाधनों वाले सरकारी विद्यालयों में हुई है. ज्योति ने 10वीं तक की पढ़ाई राजकीय कन्या जूनियर हाईस्कूल, देवाल और बारहवीं तक की पढ़ाई राजकीय इंटर कॉलेज, देवाल से की है. बीएससी और एमएससी की डिग्री गढ़वाल विश्वविद्यालय से लेने के बाद पीजी कॉलेज गोपेश्वर से बीएड किया.

ज्योति बताती हैं कि ‘मेरे पिता स्वयं एक सरकारी अध्यापक रह चुके हैं, इसलिए हम सभी ने अपनी शिक्षा सरकारी स्कूलों से ही की है. घर से स्कूल आने-जाने के लिए हम तकरीबन छह-सात किमी की दूरी रोजाना पैदल टी किया करते थे. सभी भाई-बहन पिता के साथ ही स्कूल के लिए निकलते और लौटते थे. हम लोग थक जरूर जाते थे लेकिन मैं परेशानी नहीं कहूंगी, इतना चलना हमारी सेहत के लिए जरूरी ही है.’ हाँ! बरसात के मौसम में जरूर परेशानी होती थी. क्योंकि हमारा गांव पिंडर नदी के किनारे बसा है और स्कूल के रास्ते में एक गधेरा भी पड़ता है. बरसात के दिनों में इस गधेरे में अचानक पानी बढ़ जाता है. इस गधेरे को हमें पार करना ही पड़ता था और पिताजी हम सबको बारी-बारी इसे पार करवाते थे. मुझे आज भी याद है कि एक बार स्कूल से लौटते वक्त मैं उफनते पानी में पैर ठीक से नहीं जमा पाई और पानी के साथ बहती चली गई. मुझे बचाने के लिए मेरे पिता भी बहाव की चपेट में आ गए, आखिरकार हम बच निकलने में कामयाब हुए. बरसात के मौसम में अक्सर पहाड़ी रास्ते भी टूट जाया करते हैं उस वजह से भी काफी दिक्कत हुआ करती थी और आज भी बच्चे उन परेशानियों का सामना करते हैं.’

ज्योति के माता-पिता ने खुद के लिए और अपने परिवार के लिए भी कठिनाइयों भरा रास्ता चुना. वे चाहते तो परिवार को बेहतर सुविधाओं के बहाने किसी मैदानी शहर-क़स्बे में रख सकते थे. लेकिन वे पहाड़ में जमे रहे. उन्होंने अपने बच्चों को हर तरह की कठिनाई से जूझना सिखाया.

ज्योति के माता-पिता

बेहतर शिक्षा हासिल करने की लगन ज्योति के भीतर अपने परिवार से ही आई. पिता मोहन सिंह बिष्ट तो शिक्षक थे ही, माँ दमयंती बिष्ट भी राजकीय इंटर कॉलेज, देवाल की टॉपर रह चुकी है. इसके बाद उन्होंने डी-फार्मा भी किया लेकिन जैसा की ज्यादातर महिलाओं की नियति है, उन्हें भी घर-परिवार की खातिर एक गृहणी बन जाना पड़ा. इस तरह ज्योति के परिवार ने दुर्गम गाँव में बने रहकर भी अपने चारों बच्चों को बढ़िया शिक्षा दी. उनकी बड़ी बहन आरती बिष्ट वर्तमान में राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला में पीएचडी अंतिम वर्ष की छात्र हैं तो भाई दीपक ने श्रीनगर, गढ़वाल से पॉलीटेक्निककरने के बाद हाल ही में जेई का इम्तहान पास किया है. सबसे छोटा भाई मयंक फिलहाल स्नातक प्रथम वर्ष का छात्र है.

ज्योति बताती है कि ‘स्कूल में मैंने बहुत कुछ सीखा. हमारे स्कूल में बेहतरीन अध्यापकों की भी कोई कमी नहीं थी. सभी विषय पूरी तन्मयता के साथ पढ़ाए जाते थे और आज भी उस स्कूल में कुछ बदला नहीं है.’

कॉलेज के दौरान छात्र संगठन एसएफआई से भी जुड़ी रहीं. जिसका खुद की पढ़ाई और एक बेहतर और संवेदनशील इंसान बनने को प्रेरित करने में वह बड़ा योगदान मानती हैं.

ज्योति बचपन से ही अपने पिता की तरह शिक्षण के क्षेत्र में जाना चाहती थीं. बेहतर अध्यापिका बनने के लिए आवश्यकता ज्ञान की तलाश में ही वे अब तक पढ़ती रही हैं और जर्मनी में किये जाने वाले शोध को वे इसी सफ़र का एक अहम् पड़ाव मानती हैं. ग्रेजुएशन के दिनों से ही वे बच्चों को पढ़ाने का काम भी करती आ रही हैं.

बीएड करने के बाद ज्योति ‘राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला’ में लैब नॉनपेड ट्रेनी के रूप में काम करना शुरू किया. अपनी बड़ी बहन के निर्देशन में उन्होंने यहां ट्रेनिंग लेना तय किया. जहां उनके सुपरवाइजर सीनियर प्रिंसीपल साइंटिस्ट डॉ असित पात्रा ने उनका मार्गदर्शन किया.

आरती-ज्योति

अपनी यात्रा में बड़ी बहन आरती को ज्योति अपना मेरा पथ प्रदर्शक मानती हैं. वे कहती हैं कि ‘उन्होंने तब मुझ पर भरोसा किया जब शायद मैं भी खुद पर भरोसा खो चुकी थी. बड़ी बहन की सलाह पर ही मैंने रिसर्च में आगे जाने का फैसला लिया. बीएड होने के बाद से ही मैं बस केवल टीचिंग एग्जाम्स के ही इंतजार में थी.

लेकिन बहन ने मुझे अपने पास दिल्ली बुला लिया, इस दौरान में मानसिक तनाव से भी गुजर रही थी. बड़ी बहन ने न सिर्फ मुझे अवसाद से बाहर निकाला बल्कि पढ़ने और आगे बढ़ने का हौसला भी दिया.

राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला में काम करने के दौरान ही ज्योति की मुलाक़ात निकिता वशिष्ठ से भी हुई, जो वहाँ उनकी सीनियर थीं. वे भी राष्ट्रीय भौतिक विज्ञान प्रयोगशाला से पीएचडी करने के बाद इस समय जर्मनी में ही पोस्ट डॉक्टरेट  कर रही हैं. ज्योति खुद को मोटिवेट और गाइड करने में निकिता दीदी का बड़ा योगदान मानती हैं वे कहती हैं ‘मैं उनसे बहुत प्रभावित हूँ और उन्हीं की तरह आगे बढ़ना चाहती हूँ.’ 

निकिता वशिष्ठ, ज्योति और आरती

अपनी कामयाबी में ज्योति अपने परिवार का बहुत बदा योगदान मानती हैं. वे कहती हैं ‘हमारे घर वालों ने हमारी पढ़ाई के लिए अपना जीवन कुर्बान किया है. माता-पिता को हमने कहीं घूमने जाते नहीं देखा, न कभी अपनी जिंदगी को एंजॉय करते ही देखा. मुझे एक बेहतर महिला के रूप में विकसित करने में सबसे बड़ा हाथ मेरे परिवार का है. हमारे परिवार ने हमें कभी बंदिशें नहीं दीं, खासकर मुझे और मेरे बड़ी बहन को.’ वे कहती हैं कि हम सभी को अपने परिवार की कुर्बानियों का मोल समझना चाहिए.

पहाड़ की महिलाओं को वे मेहनत करने में अपनी प्रेरणा मानती हैं.  वे मानती हैं कि जिस तरह पहाड़ी महिलाएं गांव-घरों-जंगलों में अथक मेहनत करती हैं उसी तरह मुझे भी पढ़ाई में बेतहाशा मेहनत करनी है.

ज्योति की सरकार से अपेक्षा है कि सरकारी स्कूलों को तोड़ने के बजाय उन्हें मजबूत बनाने का काम करे. बीते सालों में कई प्राइमरी स्कूलों को बच्चों की कम संख्या का हवाला देते हुए बंद किया जाना बेहद गलत है. उनका माना है अगर सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या नहीं बढ़ रही है तो सरकार लोगों में जागरूकता लाने का काम करें और उन्हें बताए कि क्यूं सरकारी स्कूल बेहतर हैं. सरकारी स्कूलों की बेहतर सुविधा के लिए सरकार को शिक्षा पर खर्च भी बढ़ाना चाहिए. सरकार को  जीडीपी का 6% शिक्षा पर खर्च करना चाहिए तभी हालात और अच्छे हो सकते हैं.
-सुधीर कुमार

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