जागर (Jagar) उत्तराखण्ड (Uttarakhand) के गढ़वाल और कुमाऊँ मंडलों में प्रचलित पूजा पद्धतियों (Worship System) में से एक है. पूजा का यह रूप नेपाल के पहाड़ी भागों में भी बहुप्रचलित है. इससे मिलती-जुलती परम्पराएं भारत के कई आदिवासी इलाकों में भी चलन में हैं. जागर शब्द जगाने, जागने से बना है. इन जागरों में उत्तराखण्ड के स्थानीय देवताओं गोल्ज्यू, सैम, कलबिष्ट, हरु, भूमिया, चौमू, महासू, नंदा, भूमिया, लाटू आदि का आह्वान किया जाता है. गोलू देवता की कहानी
जागर के मध्यम से उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में अपने कुल देवता, ग्राम देवता, इष्ट देवता और लोक देवता का आह्वान किया जाता है. यह आह्वान एक मानव शरीर में देवता के अवतरण के लिए किया जाता है. उम्मीद की जाती है कि देवता अवतरित होकर व्यक्ति, परिवार, गाँव या समुदायों के कष्ट, परेशानियों का कारण बताएगा. देवता अवतरित होकर दुःख-परेशानियों का कारण बताता है और उनके कारण व निवारण के लिए तय विधि भी बताता है. देवता से न्याय की अपेक्षा भी की जाती है. परिवार, गाँव, समुदाय के छोटे-मोटे झगड़े एवं विवाद भी अवतरित देवता के सामने रखे जाते हैं.
जागर के कई रूप होते हैं जैसे कि जगौ, जागा, नौर्त, बैसी, ढ्वाला, धपेली, रमौल, ख्याला आदि. विभिन्न जागरों की अवधि एक रात्रि से लेकर पांच, ग्यारह, बाईस दिन और छः महीने तक की भी होती है. इस अवधि से भी इनके नाम लिए जाते हैं. जैसे बाईस दिन की जागर बैसी तथा छः माह की छमासी कहलाती है.
जागर में ढोल-दमाऊ, डौंर-थाली और हुड़का पर विशेष धुन व ताल बजायी जाती है. इस धुन के साथ देवगाथा भी गाई जाती है. इस गाथा में आहूत किये जाने वाले देवता की उत्पत्ति, गुणों, और चमत्कारों का बखान किया जाता है. उसके द्वारा जीवन में किये गए कल्याणकारी कार्यों को गीत के मध्यम से गाकर मानव शरीर में उसका अवतरण कराने की कोशिश की जाती है.
इन साजिंदों और देवगाथा के गायक को जगरिया या गडीयाल्या कहा जाता है. ऐसा करने वाले प्रायः दलित जाति, दास या औजी, से होते हैं. जिन वाद्यों में चमड़े का इस्तेमाल किया जाता है उन्हें अनिवार्य तौर पर दलित ही बजाते हैं. यह लोग विभिन्न देवताओं के अवतरण के लिए उपयुक्त धुनों, तालों के ज्ञाता होते हैं. साथ में यह लोग लोक देवताओं के आह्वान के लिए गयी जाने वाली देवगाथाओं के कुशल गायक भी होते हैं. इन्हें कई देवगाथाए कंठस्थ होती हैं. ये ही डंगरिया के शरीर में देवता के अवतरण की प्रक्रिया संपन्न करते हैं. वे घर में ही नहीं धूनी में जाकर भी जागर लगाया करते हैं. जागर की प्रक्रिया में इन्हें गुरु कहकर संबोधित किया जाता है.
देवता का अवतरण करने वाले व्यक्तियों को डंगरिया, धामी या पश्वा कहा जाता है. देवता का वाहन शेर, बैल और हाथी अदि पशुओं (डंगरों) के होने की वजह से जागर में इस आह्वान का जरिया (पशु) बनने वाले को डंगरिया कहा जाता है.
जगरिया द्वारा आह्वान करने के बाद एक स्थिति में देवता डंगरिया के शरीर में अवतरित हो जाता है. माना जाता है कि अब डंगरिया उस देवता की शक्ति से संपन्न हो गया है जिसने कि उसके शरीर में अवतरण लिया है. इस स्थिति में डंगरिया का हाव-भाव, शारीरिक हरकतें एवं बोलचाल का ढंग सामान्य नहीं रह जाता है. वह आत्मचेतना विहीन दिखाई देता है. अब यह व्यक्ति सभी के दुःख, कष्ट आदि सुनकर उनका कारण व निवारण बताता है. भभूत, भस्म लगाकर आशीष देता है और रोगों का निवारण भी करता है. यह व्यक्ति देवता की एवज में अक्षत-पिठियाँ और भेंट स्वीकार करता है. यही देवता के साथ लोगों का ‘करार’ करवाता है. कष्ट निवारण और काज सुफल होने की स्थिति में यही व्यक्ति देवता को पूजा अर्पित करने का भी संकल्प देता है. घोड़ाखाल: धार्मिक आस्था और सैन्य शिक्षा का केंद्र
देव के मानव शरीर में अवतरित होकर उक्त व्यक्ति के डंगरिया बनने की भी एक लम्बी एवं जटिल प्रक्रिया है. इस प्रक्रिया में कई धार्मिक विधानों को अंजाम देना पड़ता है. एक बार डंगरिया हो जाने के बाद उस व्यक्ति को सात्विक भोजन एवं शुद्ध जीवन शैली का पालन करना होता है. उससे उम्मीद की जाती है कि वह अपने आचरण की पवित्रता बनाये रखे.
आज उत्तराखण्ड के शहरी इलाकों में जागर के मध्यम से देवताओं के आह्वान की यह प्रक्रिया एक विलुप्त होती प्रक्रिया है. उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में आज भी व्यक्तिगत एवं सामूहिक जागरों के आयोजन भारी तादाद में किये जाते हैं. पहाड़ों में स्वास्थ्य व अन्य बुनियादी ढाँचे के अभाव में यह स्वाभाविक भी लगता है कि लोग अपने रोगों के निवारण और अन्य समस्याओं के लिए जागर की शरण में जायें.
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कुमाऊं इस प्रमुख देवता जो सभी लोक देवताओं के राजा है श्री ऐड़ी ब्यानधुरा बाबा के बारे में कोई information nhi h aapke page m .kripya daalne ki kripa kre