कुंदन शाह निर्देशित और एनएफडीसी निर्मित, यह फिल्म भ्रष्टाचार पर सीधी चोट करती है. सिस्टम, बिजनेसमैन और मीडिया के गठजोड़ पर तीखा व्यंग्य होने के बावजूद, यह फिल्म सरकारी मदद से बन सकी. एनएफडीसी ने फिल्म-निर्माण के लिए सात लाख रुपए जारी किए.
उस दौर में कमर्शियल और आर्ट सिनेमा की बहस जोरों पर थी. ‘जाने भी दो यारो’ ने इन दोनों के बीच के अंतर को बखूबी पाटने का काम किया. यह इतनी प्रशंसित फिल्म साबित हुई कि, इसने वैकल्पिक सिनेमा को पंख लगाने जैसा काम किया. प्रकारांतर से यह फिल्म दर्शकों को सार्थक सिनेमा की ओर ले जाती है. कुछ फिल्में अनायास ही बन जाती है, जो बाद में मील का पत्थर साबित होती हैं. ऐसी कृतियों को दोबारा बनाना असंभव सा हो जाता है. यह अपनी तरह की क्लासिक फिल्म थी.
‘जाने भी दो यारो’ (Jaane Bhi Do Yaaro) का नाम आते ही, दो दृश्य खास तरह से जेहन में उभरकर सामने आते हैं: आहूजा (ओम पुरी) का ताबूत ड्राइवर (सतीश शाह) से संवाद और अंत में द्रौपदी के चीरहरण वाला दृश्य.
सबसे बड़े लोकतंत्र के वास्तविक लोकतंत्र होने का सच्चा प्रमाण यही हो सकता है कि, व्यवस्था सार्थक सिनेमा को सहारा दे, कला को सराहे, विचारोत्तेजक कला को पहचाने.
बिल्डर-कांट्रेक्टर, म्युनिसिपल कमिश्नर और मीडिया के गठजोड़ को फिल्म में बखूबी दर्शाया गया है. डार्क ह्यूमर श्रेणी की इस फिल्म का केंद्रीय बिंदु है: पावर ब्रोकर्स, पावर सेंटर्स का गठजोड़ और मीडिया से उनकी मिलीभगत. यह फिल्म इसलिए भी खास मानी जाती है कि, यह सिस्टम को परत-दर-परत खोलती चली जाती है. फिल्म को जमकर तारीफ मिली और अगले बरस इसके निर्देशक को बेस्ट डेब्यू फिल्म का इंदिरा गांधी अवॉर्ड मिला.
यह फिल्म एंटोनियो की ‘ब्लोअप’ (1966) से प्रेरित बताई जाती है. एंटोनियो को इसका श्रेय देते हुए जिस पार्क में अपराध हुआ, फिल्म में उसे ‘एंटोनियो पार्क’ का नाम दिया गया है. ऋषिकेश मुखर्जी की कालजयी फिल्म: किसी से न कहना
इस फिल्म का विचार कुंदन शाह के निजी अनुभव से उपजा था. उनका कटु अनुभव फिल्म का प्रस्थान बिंदु बना. सीवर लाइन और पीने के पानी की लाइन के इंटरकनेक्ट हो जाने को लेकर, किसी दौर में उन्होंने लोकल अथॉरिटीज से शिकायत की, जिसका उन्हें जो जवाब मिला, वह काफी हद तक गैर-संवेदनशील सा था. यह बात उनके अंतर्मन में गहरे से बैठ गई. वहीं से फिल्म की कथा ने आकार लेना शुरू किया.
विनोद (नसीरुद्दीन शाह) और सुधीर (रवि वासवानी) मुंबई में हाजी अली क्षेत्र में एक फोटो स्टूडियो खोलते हैं. ‘ब्यूटी स्टूडियो’ के उद्घाटन के मौके पर, जब कोई भी नहीं पहुँचता, तो फिफ्टी-फिफ्टी परसेंट के पार्टनर गजब की प्रतिक्रिया देते हैं. विनोद अपने दोस्त को ढाढस बँधाता है, “धीरज रखो, मेहमान आएंगे. सब्र का फल मिलता है.”
इस पर सुधीर झल्लाकर कहता है, “लेकिन कब मिलता है.”
विनोद की पतलून ढीली है. इसके लिए वह सुधीर को जिम्मेदार ठहराते हुए वह कहता है, “ये तंबू कहाँ से उठा लाए.” सुधीर इस पर त्वरित प्रतिक्रिया देता है,
“जिंदगी में बंबू और तंबू तो मिलता ही रहता है. एडजस्ट करना पड़ता है.”
किराए के पहने कपड़ों को एडजस्ट करते हुए वह कहता है, “हम भी तो कर ही रहे हैं.”
जब कोई भी नहीं आता, तो भी विनोद को आस लगी रहती है. वह कहता है, “आ गया. आ गया.”
तभी एक पिल्ला आते हुए दिखाई देता है.
खबरदार अखबार का सहायक संपादक कामदार (राजेश पुरी) जिस तरह की प्रतिक्रिया देता है, दर्शक हंस- हंसकर लोटपोट हो जाते हैं. भीड़भाड़ का मौका देखकर एक नौजवान उन की स्वागत-सामग्री को तहस-नहस कर जाता है.
तालियों की गड़गड़ाहट सुनकर, वे उस दिशा में जाते हैं. वहाँ पर ‘सुपर फोटो स्टूडियो’ का उद्घाटन चल रहा होता है.
अपने धन्यवाद भाषण में अशोक (सतीश कौशिक) कहता है, “खबरदार अखबार भ्रष्टाचारियों का पर्दाफाश करता है. इसकी वजह से फोटोग्राफी का काम हमें ही मिलता रहेगा.”
तभी वह लड़का आयोजकों से कहता है कि, हुकुम के मुताबिक सारा काम कर दिया है. भीड़ में विनोद और सुधीर भी खड़े हैं. अपने आयोजन के विघ्नकर्ता को पहचान कर वह कहता है, सबाटोज.
वे स्टिल कैमरे से आगंतुक की अलग-अलग पोज में फोटोग्राफी करते हैं. वह लाख मना करने की कोशिश करता है, लेकिन वे जबरदस्ती उससे तरह-तरह के पोज बनवाते हैं. बाद में उन्हें मालूम चलता है कि, वह कोई कस्टमर नहीं है, वरन् दुकान का किराया वसूल करने आया मुलाजिम है. इस पर वे निराश होकर उससे कहते हैं, ‘पहले क्यों नहीं बताया.” तो वह भोलेपन से कहता है, “आपने मौका ही कब दिया.”
कामदार उनके स्टूडियो में हाजिर होता है, “आप लोगों के लिए काम लेकर आया हूँ. बड़ी मुश्किल से एडिटर को राजी किया है, लेकिन ये ट्रायल असाइनमेंट है.”
दोनों उसे आश्वस्त करते हैं, “वी विल डू अवर बेस्ट.”
कामदार, राजदाराना अंदाज में कहता है, “हमारे यहाँ हरेक काम बड़ा सीक्रेट होता है. शहर के बड़े- बड़े लोगों की पोल खोली जाती है. तरनेजा शहर का सबसे बड़ा बगुला भगत, भ्रष्टाचारी.”
इस प्रकाशन का काम, धनी-मानी लोगों के रहस्य को उजागर करना है. शोभा (भक्ति बर्वे) इस अखबार की संपादक है. वह भ्रष्ट बिल्डर तरनेजा (पंकज कपूर) और नगर आयुक्त डिमेलो (सतीश शाह) के बीच चल रही स्टोरी पर काम कर रही होती है.
सीमेंट के रेशियो को लेकर तरनेजा , अपने स्टाफ से कहता है, “ऐसी बातें दबी आवाज में कही जाती हैं. कच्छ के रेगिस्तान का नाम सुना है? उसे बढ़ने मत दो.”
”दूसरे का नुकसान और अपना फायदा” बिजनेस का मूल मंत्र उसे सिखाता है.
तरनेजा और डिमेलो के संबंधों का दृश्य है. डिमेलो, बहुमंजिली इमारत पर ऑब्जेक्शन करता है, ‘टावर की चौबीसवीं मंजिल नहीं बना सकते.‘
तरनेजा इस बात को यह कहते हुए खारिज कर देता है, “कानून आम आदमी के लिए होता है, तरनेजा के लिए नहीं.”
उनमें गुफ्तगू होती है, जिसके नतीजे में म्युनिसिपल कमिश्नर कहता है, “चौबीसवीं क्या पच्चीसवीं मंजिल भी बनाओ.”
तनेजा, राउंड फिगर में यकीन रखता है. यह उसका उसूल है, उसका प्रिंसिपल है. जब डिमेलो, पच्चीसवीं मंजिल में आ रही अड़चन की बात कहना चाहता है, तो तरनेजा उसके सामने एक सिचुएशन रखता है; “माना कि आज आपका जन्मदिन है और हम आपको निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे का चेक देते हैं, तो यह फिगर आपको अटपटी सी लगेगी.” डार्क ह्यूमर का शानदार नमूना पेश करती फिल्म : नरम गरम
राउंड फिगर का गेम बताकर वह डिमेलो को चमत्कृत कर देता है. इस पर डिमेलो कहता है, ‘लॉजिक में आपसे जीतना मुश्किल है.‘
‘स्विट्जरलैंड का केक अच्छा होता है.‘
वह बिल्डर को बांद्रा के कब्रिस्तान में भी प्रोजेक्ट खड़ा करने की सलाह देता है.
मृतकों के रिहायशी इलाके पर अवैधानिक कब्जे को वे यह कहते हुए जस्टिफाई करते हैं ‘बेसमेंट में तो वही रहेंगे.‘ ऐसा कहकर वे बात को हल्की करने की कोशिश करते हैं.
खबरदार मैगजीन की संपादक दोनों फोटोग्राफर्स को चेक करती है, कि वे काम के भरोसे के लायक हैं कि नहीं. वह अनुमान लगा लेती है कि, वे फोटोग्राफी का काम अच्छा कर लेते हैं. वह उन्हें सीक्रेट मीटिंग की बातें रिकॉर्ड करने और फोटोग्राफ्स लेने का जिम्मा सौंपती है.
रिवाइज्ड टेंडर्स और ओरिजिनल टेंडर्स की दरों पर तरनेजा और म्यूनिसिपल कमिश्नर के बीच गोपनीय बातचीत चलती है. रेट्स डबल कर देने पर डिमेलो नौकरी पर खतरा जाहिर करता है, “मरवाने का है क्या.”
तो बिल्डर इसका औचित्य साबित करते हुए कहता है, “महंगाई कितनी बढ़ गई है. स्टील, ट्रांसपोर्ट, लेबर, सीमेंट सब के दाम डबल हो गए हैं.”
वह तंज कसते हुए कहता है, “यहाँ तक कि तुम्हारे भी.”
तभी विनोद और शोभा, टाइम मैगजीन के प्रतिनिधि बनकर म्यूनिसिपल कमिश्नर का इंटरव्यू लेने आते हैं. डिमेलो ओवरएक्साइटिड सा दिखता है. वह छपास का रोगी दिखाई देता है. वह आनन-फानन में तरनेजा एंड पार्टी को बाथरूम में बंद कर देता है. डिमेलो, टाइम मैगजीन के संवाददाताओं को स्विट्जरलैंड का केक खिलाता है. तभी खिड़की पर सुधीर भौंकने की आवाज करता है. विनोद, केक बाहर फेंकता है. सुधीर और कामदार टुकड़े को लपकते हैं. उसके डिफरेंट पोज में फोटो लेने के बहाने सुधीर, टेंडर के फोटोग्राफ्स ले लेता है. टाइम के छद्म कॉरेस्पोंडेंट्स के जाते ही, एक अन्य बिल्डर आहूजा(ओम पुरी) म्यूनिसिपल कमिश्नर से मिलने आ टपकता है. वह ठेठ पंजाबी लहजे वाली बोली बोलता है, “हैल्लो मिस्टर डिम्मैल्लो. हेल्लो, हाउ आर यू.”
तरनेजा रोशनदान से झाँक लेता है. वह उसका कड़ा व्यापारिक प्रतिद्वंदी है, क्रुशियल राइवल. डिमेलो जब उसकी आम शोहरत पर सवाल खड़ा करता है, तो आहूजा बड़ी बेफिक्री वाले अंदाज में कहता है, “कम्मौन डिम्मेल्लो! इस धंधे में घपला कौन नी करता.”
डिमेलो कहता है, “तुम पीता बहुत है. पिएगा तो हमारा बात कैसे सुनेगा.”
आहूजा बात स्पष्ट करते हुए कहता है, “कमॉन मिस्टर डिम्मेल्लो, डू नोट बी फन्नी. मैं मूँ से पित्ता हूँ. कान से नी पित्ता.”
”मैं तरणेज्जा से दुगुनी कीमत दे सकता हूँ.” कहकर वह चार फ्लाईओवर का प्रोजेक्ट हथिया लेता है.
“मेरा केक, मेरे दुश्मन को खिला रहा है” कहकर तरनेजा जल-भुनकर रह जाता है.
खबरदार की एडिटर ओरिजिनल टेंडर और रिवाइज्ड टेंडर की डिटेल्स को कंपेयर करके घालमेल को पकड़ लेती है. वह विनोद को आगे की जानकारियाँ हासिल करने भेजना चाहती है. “जज्बाती लगाव तो है नहीं. वो तो हमें ही है” कहकर विनोद वास्तविकता व्यक्त करता है. जब वह धमकी देती है कि ‘भूखों मरोगे’, तो विनोद असलियत जाहिर करते हुए कहता है, “भूखे तो वैसे ही मर रहे हैं. अभी थोड़ी देर पहले गिर पड़ा था. कमजोरी की वजह से.”
फिर वह ईमानदार, बहादुर, जांबाज़ कहकर उसकी भावनाएँ उभारने की कोशिश करती है और प्रायः उसमें कामयाब हो जाती है. वह उसे सपनों का साथी घोषित करती है. विनोद इस झाँसे में आ जाता है. वह जब उससे दिल की धड़कन सुनने को कहती है, तो विनोद, तरनेजा और फोटोग्राफ्स की बातें दोहराता है. तत्पश्चात् वह ऐन मुद्दे पर आते हुए कहती है, “तो फिर तुम तरनेजा के बंगले में जाओगे ना.”
तरनेजा -आहूजा के बीच कोई समझौता होने वाला है. तरनेजा को खबर है कि, चारों पुलों के कांट्रेक्ट आहूजा को मिलने वाले हैं. वह पासा फेंकते हुए कहता है, “हम लोग एक ही धंधे में है. क्यों न मिलकर काम करें. अच्छा भाईचारा निभेगा.”
इस पर आहूजा पुरानी बातों को याद करते हुए उस पर तोहमत मढ़ता है, “अच्छा पाईचारा निभाया तूने. ब्लैक लिस्ट करवा दिया था मुझे. तब कहाँ गया था, तेरा पाईचारा. तेरे तोते उड़ गए हैं, इसलिए इस तरह की बात कर रहा है.”
बातचीत में जाहिर होता है कि, वह इस बार भी उसे ब्लैकलिस्ट करवाने का इरादा रखता है. वह उसे किसी और प्रोजेक्ट का लालच देता है.
विनोद आहूजा को लेकर अशोक के मार्फत तरनेजा के मन में भ्रम पैदा कर देता है. वह अशोक को एक टॉप सीक्रेट बताता है कि, आहूजा नकली बालों की विग पहनता है और उसने बालों में टेंडर के फोटोग्राफ छुपाए हुए हैं. दोनों उसके बाल खींचने को लेकर अच्छी- खासी रस्साकशी करते हैं. कमरे में गहमागहमी मच जाती है. आखिर में असिस्टेंट कमिश्नर श्रीवास्तव के मार्फत दोनों कॉन्ट्रेक्टर्स को पता चलता है कि, डीमेलो ने रिश्वत लेकर कॉन्ट्रैक्ट्स किसी तीसरे आदमी को दे दिये हैं.
दोनों पार्क में टहल रहे होते हैं. विनोद के यह कहने पर कि, शोभा कितना बड़ा सामाजिक कार्य कर रही है. सुधीर उसे केला खिलाने की पेशकश करता है. उसके मना करने पर सुधीर कहता है, “ये पहली कमाई का केला है. खा लो.”
इसी बीच वे किसी फोटोग्राफी कंटेस्ट का विज्ञापन देखते हैं. विनोद इसके लिए अनिच्छा सी जताता है– “इनाम-विनाम कुछ मिलता तो नहीं, टी-सेट पकड़ा देंगे.”
जब सुधीर फाइव थाउजेंड इन कैश बताता है, तो वह इस काम के लिए राजी हो जाता है. वे शहर भर के फोटो खींचते हैं. वह कहता है, ‘मिल गया पाँच हजार का शॉट.’
बंदर मदारी के इशारे पर प्रस्तुतियाँ दे रहा होता है.
दोनों फोटो डिवेलप कर रहे होते हैं. वे प्राइज विनिंग फोटो की संभावना तलाश रहे होते हैं. तभी विनोद कहता है, “मेरी तस्वीर देखिए ह्यूमन फीलिंग्स के हिसाब से..”
तभी वह कहता है, “ये चेककोट पहने कौन खड़ा है. हाथ में कैमरा है कि, पिस्तौल है. गड़बड़ लगता है.”
सुधीर गौर से देखता है, “विनोद, ये तो वाकई पिस्तौल है.”
वे फोटो को एनलार्ज करते हैं. सुधीर यह देखकर हैरत में पड़ जाता है कि, संदिग्ध व्यक्ति कोई नहीं और नहीं, बल्कि तरनेजा है.
वे रात में उसी पार्क में जा पहुँचते हैं. कुत्तों-सियारों के रोने की आवाज सुनकर सुधीर कहता है, “विनोद, चल वापस घर चलते हैं.”
विनोद के प्रोत्साहन पर दोनों पार्क के अंदर चले जाते हैं.
विनोद कहता है, “ये वही डाली है, जिस डाली से तूने फोटो खींची थी.”
मजे की बात यह है कि, सुधीर के आनाकानी करने पर, वह हमेशा उस पर ‘मैं बड़ा हूँ कि, नहीं’ का रोब जमाता है. वे सिचुएशन के हिसाब से, उसी स्थान पर खड़े होते हैं. वे याद करते हैं, “बंदर के हाथ में आईना था. फोटो इधर से खींची थी. मतलब खून हमारे पीछे हुआ है. इसका मतलब, लाश हमारे पीछे है.”
सुधीर, भय के मारे उसे हतोत्साहित करता हुआ नजर आता है. विनोद कहता है, “लाश, हमारा क्या बिगाड़ लेगी.”
किसी तरह कह- सुनकर विनोद, सुधीर को राजी कर देता है. तभी सुधीर को पत्ते पर खून दिखाई देता है. मौका-ए- वारदात पर उन्हें एक कफलिंक मिलता है.
ब्रिज डेडीकेटेड टू डिमेलो. डिमेलो पुल का उद्घाटन नया कमिश्नर श्रीवास्तव करता है. वह भाव भीना भाषण देता है, “गरीब लोग पुल के नीचे घर बसायेंगे..”
“मिस्टर डिमेलो इलाज कराने स्विट्जरलैंड गए थे, बीमारी से उनका देहांत हो गया..”
“वे कहा करते थे, किसी देश की पहचान अगर कोई चीज है, तो वो है गटर.. वे गटर के लिए जिए, गटर के लिए मरे. उनकी याद में एक दिन के लिए शहर के सारे गटर बंद कर देंगे. आप लोग एक दिन पहले पानी भर के रखें.”
यह वही स्पीच है, जो कुंदन शाह के निजी अनुभव से प्रेरित बताई जाती है.
वहीं पर एक मीडियापर्सन तरनेजा से सवाल पूछता है, “हर कामयाबी के पीछे कोई-न-कोई अपराध होता है.” इस पर तनेजा कहता है, “आप तो किताबी बातें करते हैं.”
वह फिर से सवाल खड़े करता है, “अस्सी करोड़ की भाग्यरेखा हजार लोगों के हाथ में क्यों है. मिस्टर तरनेजा , यह नरक आपका ही बनाया गया है.”
वह नशाबंदी पर भी सवाल खड़ा करता है, तो तरनेजा , “मैं ऐसे फजूल सवालों के जवाब नहीं देता” कहकर हाथ झाड़ लेता है. “मैं ऐसे क्रॉस एग्जामिनेशन का जवाब नहीं देता.”
पुल के उद्घाटन के इस मौके पर सुधीर-विनोद को दूसरा कफलिंक मिलता है. कार्य-कारण संबंध के हिसाब से स्टोरी डिवेलप करने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती. वे रात में उस स्थान पर खोदते हैं. ताबूत में शव बरामद होता है. वे डिमेलो के शव की पहचान कर लेते हैं और कई फोटोग्राफ लेते हैं, ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए. वे ताबूत को अपने कब्जे में ले लेते हैं, ताकि तरनेजा को एक्सपोज किया जा सके. दोनों पुल के नीचे बैठकर फुर्सत की सांस लेते हैं. उत्साह से लैस होकर जुमले बोलते हैं, “जेल जाएंगे, सब-के-सब. इनाम मिलेगा. सच्चाई की जीत होगी और बुराई की हार.”
तभी बगल से ट्रेन गुजरती है और ताबूत सरकते हुए सड़क के दूसरे कोने की तरफ की चला जाता है.
लाश गायब हो जाती है. तभी हवलदार, “क्या कर रहा है, यहाँ” कहकर उनसे कैफियत तलब करता है.
“आधी रात को कुछ नहीं करने का मतलब मालूम, आवारागर्दी होता है.” वह मराठी लहजे में उनसे सवाल करता है, लगभग इंटेरोगेशन करता है. उनके पास होने को तो कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन वह उनसे टिकट के पैसे तक झटक लेता है.
विनोद कहता है कि, विदाउट टिकट नहीं जा सकते क्योंकि यह गैर कानूनी है, तो इस पर विमर्श उठ खड़ा होता है. विनोद अपना आक्रोश जताते हुए कहता है, “जी चाहता है मशीनगन लेकर..”
शोभा, तनेजा को ब्लैकमेल करना चाहती है. उसे विश्वास है कि, एक बहुत बड़ा हथियार उसके हाथ लग गया है.
ट्रेन गुजरने के बाद, ताबूत वापस सड़क के बीचो-बीच आ जाता है.
यह हिंदी सिनेमा का अद्वितीय दृश्य है. आहूजा, शराब के नशे में चूर होता है. वह गाड़ी से हॉर्न देता है. चिल्लाता है, “ओह्हो! किसने बीच में गड्डी लगा दी.”
लड़खड़ाते कदमों से ताबूत के पास जाकर कहता है, “ओ पाई, गुड आफ्टरनून, पहलवान! क्या प्रॉब्लम है.”
वह दरियाफ्त करता है, “कौन सा मॉडल है? स्पोर्ट! मेरे पास ऑस्टिन है.”
“ओल्ड इज गोल्ड. नया मॉडल है, फिर भी गाड़ी खराब कर दी.”
गड्डी चेक करने के बहाने कहता है, “कार्बोरेटर तो ठीक है, इंजन भी ठीक है.”
फिर इस अंदाज में कहता है, मानों उसने असली रहस्य पकड़ लिया हो, “गाड़ी पंचर कर दी.”
उसके रिऐक्ट न करने पर वह उसे टोकता है, “ओए, पाईसाब! मौनव्रत रक्खा है क्या. लो सिग्रेट पिओ.”
वह डेडबॉडी के मुँह पर सिगरेट लगाकर सुलगा लेता है.
“यार, तू तो बिलकुल थका-मरा लग रहा है.”
इतना ही नहीं, वह उसे मदद की पेशकश भी करता है, “मैं अभी स्टेपनी लेके आता हूँ.”
वह इंसानियत दिखाते हुए कहता है, “सात्थी तो सात्थी की मदद क्रेगा.”
वह ताबूत का पहिया बदलने की कोशिश करता है, “मैंने जिंदगी में बहुत स्टेपनियाँ बदली हैं.”
पहिया चढ़ाने के बाद एडजज करते हुए कहता है, “ये तो थोड़ा बड़ा है. पहिया बोनट तक पहुँच ग्या.”
इसमें विफल होने पर वह विकल्प प्रस्तुत करता है, “अपने पास और भी तरीक्के हैं, ये स्पोर्ट कार है. इसमें और कोई पहिया कैसे फिट हो सकता है.”
फिर उससे नाराजगी सी जाहिर करते हुए कहता है, “क्यों कहा था, मुझे पहिया लाने के लिए.”
फिर दरियादिली भी दिखाता है, “मैं तेरे को घर ले चलता हूँ.”
वह अपनी गाड़ी से टू-चेन करके ताबूत को सड़क पर खींचता हुआ ले जाता है. साथ ही शिष्टाचारवश मजबूरी भी जताता है, “मैं तेरे को आगे बिठा लेता, लेकिन पीछे कोई स्टेरिंग संभालने वाला होना चाहिए. देखो रस्सी टूट जाए, तो हौरन दे देना.”
वह उसे डायरेक्शन बताते हुए चलता चला जाता है.
दोनों फोटोग्राफर, संपादक को लाश के बारे में जानकारी देते हैं. एडिटर फौरन तरनेजा को फोन करती है. “मेरे पास तस्वीर है. लाश मेरे कब्जे में है.” ऐसी बातें सुनकर तरनेजा उससे समझौता कर लेता है.
“हम सबका मकसद एक ही तो है, मि.तरनेजा .”
सौदेबाजी तय हो जाती है. वह उन्हें डिनर पर बुलाता है.
इधर वह अपने असिस्टेंट अशोक से कहता है, “उनकी इतनी खातिर करो कि, उन्हें कोई परेशानी ना हो.”
अशोक तीनों की कुर्सियों के नीचे टाइम बम फिक्स कर देता है.
सुधीर, नादानी में टाइम बम को मेज के ऊपर रख देता है. अशोक चिल्लाता है, “टाइम बम में टाइम बहुत कम है.”
वे काउंटडाउन गिनते हैं. उससे पहले ही मौका ए वारदात पर श्रीवास्तव हाजिर हो जाता है. टाइम बम, संयोग से उन्हीं के ऊपर फट जाता है.
अखबार के दफ्तर में पहुँचकर शोभा के मुँह से निकल जाता है, ‘मेरा तो दस लाख का नुकसान हो गया.’
तभी उसे आहूजा का फोन आता है. दोनों में सौदेबाजी होती है, “हम दोनों को एक-दूसरे की जरूरत पड़ेगी.”
आहूजा उसे लेटेस्ट खबर सुनाता है. वह टेलीविजन पर खबर सुनती है, ‘तेरह करोड़ के खर्चे से बना डिमिलो पुल टूटकर गिर गया.’
संवाददाता के सवाल के जवाब में तरनेजा कहते हुए दिखाई पड़ता है, “गिरने की वजह तो इंक्वायरी कमेटी बताएगी.”
अब बात यहाँ तक आ पहुँचती है कि, जीत उसकी होगी जिसके पास लाश होगी.
दोनों फोटोग्राफर, संपादक की बुराई के खिलाफ लड़ने में मदद कर रहे होते हैं, लेकिन शोभा उनसे कहती है, “अपनी मदद की कीमत बताओ.”
उसका समाज सेविका का बाना उतर जाता है. वे खिन्न होकर कहते हैं, “आपमें और तरनेजा में कोई फर्क नहीं.”
वे दुःखी मन से बाहर निकल जाते हैं. “हम निकम्मे हैं. हमारी जगह सड़कों पर है.”
उस दौर के व्हिसल ब्लोअर्स पर आने वाले खतरों को फिल्म में बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है.
दोनों, हम होंगे कामयाब गीत को गाते हैं. खास बात यह है कि, जब भी वे निराशा में डूबते हैं, तो उस भाव से उबरने के लिए वे इसी गीत का सहारा लेते हैं. फिल्म में कम-से-कम चार बार, वे इस गीत को गाते हैं.
दोनों अपना हिसाब लेने खबरदार दफ्तर में जाते हैं, तभी वहाँ पर आहूजा भी आ पहुँचता है. आहूजा, शोभा को बताता है कि पुल गिरने में कोई सबैटोज नहीं हुआ है. वह अपने खास पंजाबी लहजे वाली हिंदी में बताता है, “रेत में सीमेंट मिलात्ता है, पुल तो टुट्टेगाई.”
वह उस रात की घटना को याद करते हुए कहता है, “मैंने तो एक बंदे को लिफ्ट भी दी थी. बोलताई नहीं था.”
बातचीत में उन्हें मालूम हो जाता है कि, वह डिमेलो की लाश थी. आहूजा चौंकते हुए कहता है, “इसीलिए वो आदमी बात नहीं कर रहा था.”
चोरी से उनकी बातें सुनकर सुधीर- विनोद, उसके गेस्ट हाउस में पहुँचकर ताबूत से शव निकाल लेते हैं. वे उसे लट्ठेवाली नाईट ड्रेस पहनाते हैं.
सबको लाश पर कब्जा चाहिए. सभी स्टेकहोल्डर्स ताबूत के पीछे मेन रोड पर दौड़ लगाते हैं. वे दोनों उसे स्केट्स पहनाकर, दूसरी दिशा में लेकर भागते हैं. वे उसे पर्दानशीन बना लेते हैं और आखिर में थिएटर में ले जाते हैं, जहाँ महाभारत के सभा-पर्व का मंचन चल रहा होता है. धृतराष्ट्र अपनी रट लगाए रहते हैं,
“ये क्या हो रहा है, बेटा दुर्योधन.”
दुःशासन (विधु विनोद चोपड़ा) दुर्योधन को खबर देता है, ‘द्रौपदी ने भरी सभा में आने से इनकार कर दिया है.‘
उधर भीम सो रहा होता है. सुधीर– विनोद, डिमेलो की लाश का मेकअप करते हैं, तभी दुःशासन उसे हाथ खींचते हुए मंच पर ले जाता है. लाश उसके ऊपर ढुलकने लगती है. नाटक, स्क्रिप्ट से भटककर, कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाता है.
विनोद, दुर्योधन का मेकअप करके मंच पर कूद पड़ता है. वह द्रौपदी के चीर-हरण का सख्त विरोध करता है, “ठहरो दुःशासन, ऐसी सती की जय हो..”
सभी स्टेकहोल्डर्स अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से कोई-न- कोई रुप धरकर नाटक में सक्रिय होकर भाग लेते हैं और स्वतः स्फूर्त संवाद बोलते चले जाते हैं. नाटक का निर्देशक परेशान होकर रह जाता है, ‘दुर्योधन, यार क्या कर रहे हो. व्हाट डू यू मीन आई ड्रॉप दिस आइडिया.‘
दुःशासन, दुर्योधन के पास आकर फुसफुसाकर कहता है, “अबे कौन है तू.”
तो दुर्योधन गदा लहराते हुए कहता है, “मुझे हर हाल में द्रौपदी की लाज रखनी है.”
धृतराष्ट्र फिर से चिल्लाते हैं, “ये क्या हो रहा है.”
तभी आहूजा, भीम बनकर कौरवों को कड़ी फटकार लगाता है, “ओए धृतराष्ट्र के पुत्तर, द्रौपदी को वापस कर.”
वह अर्जुन के धनुष-बाण तोड़ देता है, तो अर्जुन रोते हुए कहता है, “मेरे तीस रुपए का नुकसान कर दिया.”
यहाँ तक की भीम (आहूजा) युधिष्ठिर के उसे नैतिक मर्यादा में रोकने की कोशिश को लेकर उसका सिर फोड़ देता है.
क्लाइमेक्स में तरनेजा , द्रुपद बनकर आता है और यह प्रस्ताव रखता है, ‘द्रौपदी मेरे साथ अपने मायके जाएगी.‘
तभी परदा गिरता है. कामदार(राजेश पुरी) चोबदार के वेश में जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के दरबार लगने की घोषणा करता है. सलीम-अनारकली का मंचन शुरू हो जाता है. जब नाटक गड्डमड्ड होकर रह जाता है, तो नाट्य मंडली पुलिस को बुलाती है.
कमिश्नर श्रीवास्तव, सभी स्टेकहोल्डर्स में समझौता करा देता है. “आपसी डिफरेंसेज को भूलकर, इस झगड़े को यहीं खत्म करते हैं.” कहकर वह सौदेबाजी तय करा लेता है. वे कहते हैं, “छह महीने में लोग सब भूल जाएंगे.” हल्के-फुल्के मिजाज की फिल्म चश्मेबद्दूर
सारे अपराधों का दोष, सत्यान्वेषी फोटोग्राफरों के सिर पर मढ़ दिया जाता है. वहीं पर पर्दे पर सत्यमेव जयते उकेरा हुआ दिखाई पड़ता है.
बॉलीवुड की कॉमेडी फिल्मों के नाम पर दर्शकों को अगर सहसा कोई फिल्म याद आती है, तो उसमें ‘जाने भी दो यारो’ का नाम जरूर शुमार होगा. खासकर महाभारत का द्रौपदी चीर-हरण वाला दृश्य. इस दृश्य को लिखने में लेखकों को मात्र दस दिन लगे.
इस फिल्म का आकर्षण कभी फीका नहीं पड़ा. इसके किरदार, घटनाएँ, दर्शकों के जेहन में आज भी बने हुए हैं. भ्रष्टाचार एक सामाजिक बुराई है, जिसकी जड़ें व्यापक रूप से गहरी हैं. कई सफेदपोशों को बेनकाब होते देखकर, दर्शक हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते हैं.
नसीर के किरदार का नाम था-विनोद (विधु विनोद चोपड़ा से प्रेरित) और रवि वासवानी के किरदार का नाम सुधीर (सुधीर मिश्रा फिल्म के लेखक से प्रेरित). दरअसल यह राइटर्स के बीच का एक मजाक था.
‘ऐसी फिल्म दोबारा नहीं बनाई जा सकती. बना भी ली गई, तो रिलीज के साथ ही परेशानियों से घिर जाएगी.‘ यह फिल्म लिखने वाले सतीश कौशिक की राय थी.
डिमेलो की हत्या से दर्शकों को किसी तरह का दुख नहीं होता. वह भ्रष्ट है, पतित है, भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबा हुआ है. यह एक विचारोत्तेजक किस्म की फिल्म थी. पब्लिक कंस्ट्रक्शन में जो घालमेल सुनने को मिलता है, लो क्वालिटी, सीमेंट और रेत का बेमेल अनुपात, रिश्वतखोरी सबकुछ बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में बयां किया गया है.
फिल्म मँझे हुए कलाकारों से भरी पड़ी थी, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, सतीश कौशिक, सतीश शाह, नीना गुप्ता राजेश पुरी. कोई किसी से कमतर नहीं. सतीश शाह के लिए लाश की भूमिका करना अवश्य चुनौती रहा होगा. चाहे ड्राइविंग पोज में ताबूत पर बैठी लाश रही हो, या स्केटिंग पर दौड़ लगाती लाश अथवा द्रौपदी के परिधानों में लिपटी लाश. उनकी बॉडी लैंग्वेज, चेहरे के हाव-भाव, मुखमुद्रा ने दर्शकों का सबसे ज्यादा मनोरंजन किया. रवि वासवानी को इस फिल्म के लिए बेस्ट कॉमेडियन का फिल्मफेयर अवार्ड मिला.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…