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साथ चलती हुई चीजें : वे तखत, जड़ें और जैकेट

ललछोंह लकड़ी की इस टीवी ट्रॉली और किताबों की इन दो छुटकी रैकों को जब भी देखता हूं तो राजपुरा, हल्द्वानी में बयालीस वर्ष पहले ठेकेदार राम सिंह मेवाड़ी जी से खरीदा वह पहाड़ी तुन का मोटा, सूखा तना याद आ जाता है जिसे आरा मशीन पर चिरवा कर मैं उसके तख्ते पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के अपने क्वार्टर में लाया था. मैंने बयालीस वर्ष पहले उसके तख्तों से छह गुणा चार फुट के दो तखत बनवाए थे यानी मिला देने पर 12 ×8 फुट का मंच जो अगले इकत्तीस वर्षों तक मेरे पूरे परिवार का पलंग बना. उसमें दिन में बच्चे खेलते, कूदते, फांदते और रात को उस पर हम सभी कतार में सो जाते. हम दोनों और चार बच्चे. किराए का घर बदलने पर पलंग नए घर में सज जाता. मेरे लिए सबसे बड़े सुकून की बात यह थी कि मैं अपने गांव, पहाड़ के सूखे तुन के पेड़ के तखत पर सो रहा हूं. मेरे बचपन में वहां तुन के बहुत बड़े, छायादार पेड़ होते थे. लगता था, जैसे मैं उन्हीं की घनी छांव में सोया हूं. लेकिन, सन् 2004 में रिटायर हुआ तो आखिरी नौकरी के पलंग घर में आ गए. अब तुन के इस पलंग का क्या हो? नहीं, मैं इसे कबाड़ी को नहीं बेच सकता था. तो, इसका क्या किया जाए? बढ़ई पृथ्वीनाथ से पूछा तो उसने कहा, “कुछ और बनवा लीजिए ना. अलमारी वगैरह.” टी वी मेज पर रखते थे, तो मैंने पूछा, “क्या टी वी ट्राली बन सकती है?”

“बिल्कुल बन सकती है,” पृथ्वीनाथ ने कहा, “ये लीजिए डिजाइन.” डिजाइन देखे और अपने पसंद की डिजाइन का सुझाव देकर तखत उसे सौंप दिए. तो, इस तरह हल्द्वानी के तुन के उस सूखे तने का मेरे घर में इस टी वी ट्राली के रूप में पुनर्जन्म हो गया, और वह तुन बयालीस साल बाद भी हमारे साथ-साथ चल रहा है.

और, मेरी ये किताबों की छुटकी रैकें. यही था मेरा शुरूआती किताबघर. ये भी तुन के उन्हीं तख्तों से बनवाईं थीं, बयालिस वर्ष पहले. ऐसा डिजाइन पंतनगर के अमेरिकी कृषि वैज्ञानिकों के निवास लैम्बर्ट स्क्वायर में देखा था. पसंद आया और बढ़ई को वैसा ही बनाने के लिए कहा. वह पंतनगर विश्वविद्यालय की वर्कशॉप में इनके नन्हे शीशम के मजबूत पाए बनवा लाया और मेरे लिए मेरी किताबों की ये आरामगाहें तैयार कर दीं. इनमें धीरे-धीरे किताबें आती गईं. शुरूआत में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (पी पी एच) की कई किताबें आईं- मैन एंड रोबोट, नोट्स फ्रॉम ट्वैंटी फस्र्ट सेंचुरी, एट कलर्स ऑफ रेनबो, दोस्तोएव्स्की की नोट्स फ्रॉम द डेड हाउस और पुअर फ्रॉक. इनके अलावा रिलेटिविटी, बेस्ट रसियन एंड अमेरिकन साइंस फिक्शन स्टोरीज. फिर और किताबें आईं- तॉलस्ताय की कहानियां (अनुवादः भीष्म साहनी), माध्यम (संपादकः बालकृष्ण राव) के कई अंक, नई कहानियां और नवनीत के कुछ अंक, शैलेश मटियानी जी के उपन्यास और कहानी संग्रह- भागे हुए लोग, आकाश कितना अनंत है, बावन नदियों का संगम, डेरे वाले, राजकमल चौधरी की मुक्ति प्रसंग, रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि, विकल्प (संपादकः शैलेश मटियानी), चारुचंद्र लेख और अनामदास का पोथा (हजारी प्रसाद द्विवेदी), आदि. किताबें बढ़ती गईं.

किताबों की रैक के ऊपर गलबहियां डाले, जनम भर साथ निभाने को तैयार ये दो जड़ें! एक पीली, दूसरी सांवली. एक-दूसरे में खोई हुईं. जब धरती ऊपर इनके पौधे कटे होंगे तब इन्होंने एक-दूसरे को कस कर जकड़ लिया होगा. सत्तर के दशक की शुरूआत में कभी गांव गया था तो आते समय ऊपर धूरे में कुंती के खेतों में ये गुंथी हुई जड़ें दिखाई दीं. तने काट दिए गए थे. उन्हें खींचने से ये जड़ें बाहर निकल आईं थीं. जड़ों ने एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ा था. जीएंगे तो साथ-साथ, मरेंगे तो साथ-साथ. पीली जड़ किलमोड़े की थी और सांवली घिंघारू की. अलग-अलग प्रजाति. मैं इनका अंतर्जातीय गठबंधन और प्रेम देख कर देखता ही रह गया था और इन्हें घर पर ले आया था. इनका अमर प्रेम आज भी बुलंद है.

और हां, इस जैकेट की भी अपनी एक अलग कथा है. सैंतीस वर्ष पहले सन् 1978 की गर्मियों में पत्नी और दो बेटियों के साथ नैनीताल गया था. परिक्रमा, शेर का डांडा में मित्र शेखर (पाठक) से मिलने गए तो उसने गौर से मुझे देखा और भीतर जाकर यह जैकेट लाकर यह कहते हुए मुझे पहना दी कि “देवेनदा, यह तुम पर ठीक लगेगी. और रुको, बालों की चुटिया भी गूंथ दूं.” चलते समय उसने मेरे लंबे बालों की चुटिया गूंथ कर उस पर रिबन भी बांध दिया और कहा, “चलो लामा देवेन दा, अब आप असली लामा लग रहे हैं.”

शेखर और हम घर से निकल कर पैदल घूमते हुए मल्लीताल तक गए. कैपीटाल में सिनेमा देखने का भी प्रोग्राम बना, लेकिन शो शुरू हो चुका था. मालरोड पर टहलते हुए घर वापस लौट आए. मन में उस दिन की यादों को संजो कर मैंने यह जैकेट बहुत सहेज कर रख ली थी. शेखर ने इस जैकेट का नाम तुंकू अब्दुल रहमान रखा था. हमने भी इसका यही नाम चलाया.

एक और याद जुड़ी है इस जैकेट से जिसे भूलना संभव नहीं है. पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में नौकरी करते समय हिंदी साहित्य में एम.ए. करने का मन हो आया. खाली समय में मन लगा कर पढ़ाई में जुट गया और रूद्रपुर के राजकीय महाविद्यालय से प्रथम वर्ष की परीक्षा भी दे दी. आज के जाने-माने टी.वी. पत्रकार मित्र ज्ञानेंद्र पांडे और फिल्मकार अनवर जमाल उस दौर में उसी कालेज में पढ़ रहे थे. मित्र ज्ञानेंद्र के दिए एम.ए. हिंदी के नोट्स आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं. प्रथम वर्ष की परीक्षा ने मेरा हौसला बढ़ा दिया था, लेकिन घटना चक्र कुछ इस तरह घूमा कि मैं पंतनगर छोड़ कर पंजाब नैशनल बैंक के लखनऊ अंचल कार्यालय में जनसंपर्क की एक नई राह पर चल पड़ा. नई नौकरी, पूरी किताबों का पता नहीं, लेकिन एम.ए. का ख्वाब तो पूरा करना ही था. इसलिए किताबें जुटाईं, 31 दिन की छुट्टियां लीं, हैवर सैक में जरूरी कपड़े (जिनमें यह जैकेट भी थी) और किताबें भरीं, पत्नी और बच्चों की शुभकामनाएं लेकर साथी-सहपाठी प्रताप के साथ नैनीताल के लिए रवाना हो गया. वहां मित्र राजीव (साह) से अशोक होटल के भूतल पर एक शांत-एकांत कमरा लिया जिसमें अहर्निंश केवल बगल में बहते बलिया नाले के पानी का कर्ण-प्रिय कल-कल, छल-छल संगीत सुनाई देता था. हमने वहां डेरा डाला और घनघोर पढ़ाई में जुट गए. लखनऊ में परिवार बिल्कुल अकेला था, बार-बार याद आता, लेकिन मैं अपने उस एकांत आश्रम में उनकी शुभकामनाओं के चरागों की रोशनी में लगन के साथ पढ़ता रहा. दोस्तों ने भी मेरे कमरे के आसपास का क्षेत्र मिलने वालों के लिए वर्जित घोषित कर दिया था ताकि मेरी पढ़ाई में कोई बाधा न पड़े.

पहले प्रश्नपत्र की परीक्षा दी तो मेरा उत्साह काफी बढ़ गया. शाम को भोजन के लिए जाते समय रानीखेत से आए प्रिंसिपल पाठक जी मिल गए. बोले, “आप तो लेखक हैं. साहित्य की इस परीक्षा में आप प्रथम श्रेणी भी ला सकते हैं.” उनके इन शब्दों ने मन में कुछ ऐसी लौ लगा दी कि मैं रात-रात भर पढ़ने लगा. अगने प्रश्नपत्र भी अच्छे रहे. और, फिर आया हिंदी साहित्य से संबंधित निबंध का प्रश्नपत्र, जिसमें विद्यार्थी तीन-तीन, चार-चार कापियां तक भर देते थे. परीक्षा हॉल में मैंने तब चार जेबों और कई बटनों वाला यही तुंकू अब्दुल रहमान जैकेट पहना हुआ था. प्रश्नपत्र मिला. उसमें रीतिकाल था, भक्तिकाल था, छायावाद भी और सूर, तुलसी, कबीर, प्रेमचंद भी. लेकिन, जिन शिक्षक महोदय ने प्रश्नपत्र बनाया होगा, वे निश्चित रूप से कुछ अलग किस्म के बल्कि खलीफा रहे होंगे क्योंकि पाठ्यपुस्तकों के इन विषयों से हट कर उन्होंने अंत में निबंध का एक अद्भुत विषय लिखा था- ‘देखा जाएगा’. मैंने पूरा प्रश्नपत्र पढ़ा. लगा, अन्य प्रश्नों पर तो सभी विद्यार्थी लिखेंगे. लेकिन, ‘देखा जाएगा’ पर भला कौन लिखेगा? जो लिखेगा, उसकी अलग पहचान बन जाएगी क्योंकि यह निबंध केवल उस विद्यार्थी के सोच पर रचा जाएगा. मन ने कहा, ‘मत चूके चौहान’ और मैंने कुछ पल आंखें मूंद कर इस विषय पर विचार किया और विषय की व्याख्या के लिए मन में शब्दों की एक लड़ी जुटा ली. फिर क़लम उठाई और एक सुर में निबंध लिखने लगा. अभी कापी का पहला पेज भरा भी नहीं था कि तभी… कि तभी दो-तीन शिक्षकों का ‘फ्लाइंग स्क्वैड’ आ धमका. डैस्कों की कतारों के बीच से परीक्षार्थियों पर पैनी नज़र डालते हुए वे आगे बढ़े. उनमें से दो मेरी सीट के पास आकर खड़े हो गए. बोले, “ये, खड़े उठो! जेबें दिखाओ.”

मैं दिमाग में शब्दों की लड़ियों को संभालते हुए खड़ा उठा और तेजी से जेबें खाली कर दिखा दीं.

वे मुझे आंखें तरेर कर देखते हुए आगे बढ़ गए. मैं शब्दों पर अपनी पकड़ बनाए रख कर लिखने में जुट गया. पता था कि अगर सोचे हुए शब्दों की लड़ी टूटी तो फिर मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा. पूरा निबंध बिखर जाएगा. कि, तभी न जाने उन्हें क्या सूझी, फ्लाइंग स्क्वैड के वे दोनों शिक्षक वापस लौटे और मुझसे बोले, “स्टैंड अप!”

मैंने हैरान-परेशान होकर उनकी ओर देखा और कहा, “सर, जेबें तो दिखा दीं. हिंदी निबंध में कोई क्या नकल करेगा. और, फिर मेरा विषय तो देखिए- ‘देखा जाएगा.’ यह तो किताबों में है ही नहीं.”

“नो आरग्यूमेंट. चुपचाप एक बार फिर जैकेट की जेबें दिखाओ!”

मेरे विचारों के शब्दों की लड़ियां टूटने लगी थीं. मैंने तेजी से जैकेट उतारा और मेज पर उनके सामने रख दिया. कहा, “सर देख लीजिए इसकी जेबें, बट प्लीज डोंट डिस्टर्ब मी. मेरा समय बर्बाद हो रहा है. निबंध पूरा करना कठिन हो जाएगा.”

उनके अहम को न जाने कहां ठेस लग गई. वे चीखे, “समझते क्या हो अपने-आप को? तुम जैसे भला कभी पास हो सकते हैं? कितने साल से परीक्षा दे रहे हो?…आ जाते हैं यहां परीक्षा देने.”

मैंने कहा, “सर, मैं नौकरी कर रहा हूं. परीक्षा देने आया हूं. प्लीज मुझे लिखने दीजिए.”

वे और भड़क गए. व्यंग्य की मुद्रा में बोले, “कर ली नौकरी! तुम जैसों को कहीं नौकरी मिल सकती है?”

निबंध की पूरी विचारधारा को चौपट करने के लिए यह काफी था. मुझे हताश छोड़ कर वे चले गए और मैं अपना माथा पकड़ कर बैठ गया. लेकिन, बाकी सभी प्रश्नपत्र अच्छे हुए थे और प्रथम श्रेणी की ललक भी जाग उठी थी, इसलिए लंबी सांसें लेकर मन को शांत किया. विचारों की बिखरी कड़ी को जोड़ कर शब्द बटोरे और निबंध आगे बढ़ाया. परीक्षा के कुल समय में मेरे लगभग दस मिनट तो बर्बाद हो ही चुके थे.

परीक्षा के बाद भी मैं सोचता रहा, और आज भी सोचता हूं कि आखिर मेरी गलती क्या थी? क्या परीक्षार्थी का बहुमूल्य समय इस तरह बर्बाद करना उचित था? क्या शांति से कापी में लिखे जा रहे उत्तर को पढ़ कर अनुमान नहीं लगाया जा सकता था कि ‘देखा जाएगा’ विषय में किसी तरह की नकल नहीं की जा सकती, उसे तो सिर्फ सोचा जा सकता है? ऐसा क्यों होता है, न तब समझ में आया था, न आज. खैर, परीक्षा भी दे दी, प्रथम श्रेणी भी पा ली, लेकिन इस जैकेट से जुड़ी वह याद मन में शिलालेख की तरह स्थाई हो गई.

शेखर की दी हुई वह जैकेट

अभी हाल ही में, यह जैकेट मिलने के सैतीस वर्ष बाद एक बार फिर इसे पहनने को मन मचला और दिल्ली में अलसुबह इसे पहन कर भोपाल से 25 किलोमीटर दूर आइसैक्ट यूनिवर्सिटी तथा राजा भोज की बसाई प्राचीन नगरी भोजपुर की यात्रा पर निकल गया. इसे पहन कर फिर नैनीताल का वह दिन और शेखर का साथ याद आया. दिल्ली लौट कर मैंने यादों की किताब में सूखे हुए फूलों की तरह फिर इसे सहेज कर रख दिया.

सूखे हुए फूलों से याद आया, किताबों की अलमारी में ये सूखी पत्तियां भी तो मैंने न जाने कब से संभाल कर, सहेज कर रखी हैं. ये मेरे घर-गांव के पेड़ों की पत्तियां हैं- बांज, बुरांश, काफल, खर्सू, काली कन्याठी… ये मुझे घर-गांव के हरे-भरे वनों की याद दिलाती हैं. मुझे याद दिलाती रहती हैं कि कभी मैं इन पेड़ों पर चढ़ा करता था. इनके तने और पत्तियों की खुशबू सूंघा करता था, काफल के पेड़ों पर चढ़ कर गर्मियों में रसीले काफल खाया करता था. इस नन्ही मुट्ठी की तरह सिकुड़ी, सूखी, काली कन्याठी की पत्तियों की छाप बचपन में मेरी दीदी मेरे हाथों में उतार देती थी और उन पत्तियों को चुपचाप अपनी दगेली (वास्कट) की जेब में संभाल लेती थी. अगली बार, दो-तीन साल बाद जब वह फिर आती थी तो सहेज कर रखी वे सूखी पत्तियां मुझे दिखाती थी.

ज़िदगी सत्तरवें दशक की ओर दिनों के कदम बढ़ा रही है. आजू-बाजू देखता हूं तो देखता हूं कि अब तक साथ रही ये चीजें अब भी साथ-साथ चलते हुए साथ निभा रही हैं. मेरी हमसफर बनी हुई हैं ये.

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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