Featured

कैसे बताऊँ अभिनेता हूँ मैं : संजय मिश्रा का इंटरव्यू

संजय मिश्रा पटना में पैदा हुए. संजय मिश्रा फिल्म और टेलीविजन एक बेहद ख़ास एक्टर हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की इलाक़ाई विशेषताओं से लैस संजय मिश्रा अपने अनोखे अँदाज़ से दर्शकों का दिल छू लेते हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे संजय  मिश्रा ने शुरूआती दिनों में कई विज्ञापनों और फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल किए थे लेकिन अमिताभ बच्‍चन के साथ एक विज्ञापन करने के बाद वह लोगों की नज़र में आए. संजय मिश्रा को संगीत से गहरा लगाव है. अपनी पहली रिलीज़ हुई फ़िल्म ओह डार्लिंग ये है इंडिया में वो एक हारमोनियम वादक के रोल में दिखे थे. फ़िल्म सत्या और दिल से में अभिनय करने के बाद संजय मिश्रा ने ब्‍लफमास्‍टर, बंटी और बबली, गोलमाल, बॉम्‍बे टू गोवा, धमालगोलमाल रिटर्न्‍स, ऑल द बेस्‍ट, अतिथि तुम कब जाओगे, फंस गए रे ओबामा, जॉली एलएलबी, आंखो देखी, मसान जैसी फ़िल्मों में अपनी अभिनय कला की अमिट छाप छोडी है. फ़िल्म आंखों देखी में संजय मिश्रा ने जिस ख़ूबी और संवेदनशीलता के साथ एक अधेड़ व्यक्ति का किरदार निभाया है वो लम्बे समय तक एक उदाहरण बना रहेगा. संजय  मिश्रा को फ़िल्म आंखों देखी के लिये बेस्ट एक्टर के फ़िल्मफेयर क्रिटिक्स् अवार्ड् से सम्मानित किया गया है.

उनके जीवन के संघर्षों और फिल्मों को लेकर उनके विचारों पर राज्यसभा टीवी के कार्यक्रम ‘गुफ्तगू’ के लिए सैयद मोहम्मद इरफ़ान ने उनका इंटरव्यू किया था. इरफ़ान इस समय देश के सर्वश्रेष्ठ इंटरव्यूअर हैं. इरफ़ान ने इस विधा को नए आयाम बख्शे हैं. उनके द्वारा लिए गए चुनिन्दा साक्षात्कारों में आज संजय  मिश्रा का इंटरव्यू.

इरफ़ान- संजय जी बहुत-बहुत स्वागत है आपका प्रोग्राम में

संजय मिश्रा– शुक्रिया

इरफ़ान- बहुत स्केची तौर पर, जितना भी संक्षेप में आप हमें बता सकते हैं कि एक्टर बनने तक का शुरुआती सफ़र क्या है आपका?

संजय मिश्रा- सफ़र में शुरुआत… अंत में जा के ही पता चलता है कि कब शुरुआत हुआ था. एक ज़िंदा इंसान कभी भी अपना सफ़र शुरू कर सकता है. कुछ लोगों के हिसाब से मेरा सफ़र अभी-अभी शुरू हुआ है. लेकिन मैं नकार नहीं सकता वो भी एक सफ़र था लेकिन एक समय आएगा कि मैं देख के कहूंगा हां गुरु! बस अब कोई राह आगे दिखती नहीं. बैठ के सोचते है क्या था सफ़र. अभी तो ऊपर वाले के दिए पल को महसूस करो हर पल को हर लम्हे को महसूस करो, देखो, चीज़ों को जानो .

इरफ़ान- ये सवाल मैंने आपसे इसलिए भी पूछा कि  दूर-दराज जो लोग बैठे हुए हैं वो भी संजय मिश्रा की यात्रा से प्रेरणा ले सकें, इस लिहाज से भी हमें बताइये . थोड़ी पारिवारिक पृष्ठभूमि से होते हुए और अपनी रुचियों के कार्व होने के कारणों को बताइए .

संजय मिश्रा- पारिवारिक… ऐसा बिल्कुल भी परिवार नहीं था जिसमें बीस-बाईस साल का लड़का कहे कि मैं एक्टिंग को करियर बनाऊंगा. आप ही के बीच के आप ही के जेनरेशन के लोग डॉक्टरेट की तैयारी कर रहे हैं, आईएस की तैयारी कर रहे हैं . चूंकि पिताजी मेरे थोड़ा म्यूज़िकल थे काफ़ी, साहित्य और संगीत से उनका काफी वास्ता था तो वो समझ तो गए थे और उन्होने मेरा प्रोग्रेस पूरा देखा हुआ था कि भाई ऐसा है कि ये अकबर का जन्मतिथि नहीं जानता है लेकिन ये जानने की कोशिश करता है कि अकबर गर्मी में भी उतने कपड़े कैसे पहन सकता है. जिस वक्त ऐसी जैसी कोई चीज़ नहीं होती होगी और जन्मतिथि तो ठीक है मुझे वो वर्ष तो दिखा दो. अभी की बात है. वो तो इस तरह का लड़का है क्या करें, कहां करें बड़े परेशान रहते थे वो.

सबसे बड़ा बेटा था मैं. मेरे बाद एक भाई एक बहन और एक भाई. बड़ा ही नाव में गड़बड़ हो रहा है तो कभी उनको मैंने एक ऐसा एहसास नहीं दिया कि एक पिता बड़ा प्राउड फ़ील कर रहा है कि बेटा फर्स्ट आया है. जब भी कोई समाचार समाज के तरफ़ से आता था बेटे का तो सदमा लिए आता था पापाजी के पास. आजकल लोग सवाल पूछते है कि वो दौर कैसा दौर था. दिल्ली जाते थे कभी-कभी. बंबई में रहना शुरू हो गया था. हो गए दो साल, तीन साल, चार साल. दिल्ली जाते थे कभी-कभी शाहजंहा रोड़ में पापाजी का घर. तो अवार्ड-वोवार्ड आते हैं न शाम में अवार्ड फंक्शन दिखाते हैं, फ़िल्मफेयर अवार्ड, ये अवार्ड वो अवार्ड.  वो कहते थे आओ संजय देखो-देखो न! अरे अवार्ड आ रहा है भाई टी.वी पे, देखो तो सही. आओ तो सही. तब मुझे बड़ी… कि मेरे ही सामने के एक्टर्स को अवार्ड मिल रहें हैं और अपनी तो गुरु चर्चा ही नहीं है कहीं. हवा ही गायब है. क्या मुंह ले के जाऊं ? उनके लिए बुरा लगता था. क्योंकि उम्र भी हो रही थी उनकी. फ़िर सब ठीक चलने लगा ज़िंदगी…

शुरुआत में इसके पहले इसलिए बोल रहा था कि शुरुआत समझ में नहीं आता है कहां से शुरू करें अगर आप थोड़ा भी मालूम है न जीवन का सर्किल क्या है.  भाई इनके ये बेटे है ये ये हो जाएगे ये अंबानी भी हो सकते हैं उसके लिए भी तैयार रहिए मतलब मैं किसी का पर्टिकूलर नाम नहीं ले रहा हूं लेकिन आप ये भी हो सकते हैं  आप ये भी हो सकते हैं. तो आपको थोड़ा सा सर्किल ऑफ लाईफ़ थोड़ा सा जितना आपके बस में है उतना कोशिश करना चाहिए की तोड़ के देखें. शुरुआत हमेशा शुरुआत होती है. आज भी शुरुआत है कल भी शुरुआत है. हमारे तो साहित्य में कितनी जगह लिखा हुआ है हुआ सबेरा नया दिन आया. शुरुआत हमेशा करनी चाहिए. अगर आपकी ये मंशा भी है कि आप उन दर्शकों के लिए पूछ रहें हैं जो एक कलाकार बनना चाहते हैं तो उनके लिये कहूंगा ‘ज़िंदा रहिए सर’  ये मूलमंत्र बना लीजिए. ऊपर वाले ने आपके लाइफ़ में इतना दिया है,  अच्छे से अंत हो. लेकिन फील करते हुए जाइये कि ये उसी की दुनिया है. सारी कहावतें, सारी किताबें, सारा ज्ञान, सब कुछ सारा धर्म, सब कुछ… आप यहां छोड़ के. इस दुनिया में थे आप. यहीं है ज़िंदगी. आपकी किताब खत्म यही है ज़िंदगी ऐसा-ऐसा सोच है मेरा.

इरफ़ान- और इस तरह जब आप मुंबई में अपने अभिनेता के लिए चरित्रों का चुनाव जब करने लगे, तो एक एक्टर के पास कई बार सरवाइवल की वज़ह से सरवाइवल के सवाल की वज़ह से बहुत ज़्यादा चुनाव नहीं होता . कितनी बार आप मना करेंगे आख़िर में  किसी चीज़ को हां कर ही देते है लेकिन वो शायद सिर्फ सरवाइवल की वज़ह से होता है . लेकिन आप का जो अभिनेता है वो क्या तलाशता रहता है कि हमको ये करना है और ये नहीं करना.

संजय मिश्रा- सरवाइवल को प्रॉब्लम सिर्फ़ अभिनेताओं के लिए ही नहीं है. ये हरेक के लिए है. हर उस व्यक्ति के लिए है जिसके ऊपर सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारी है कुछ लोगों की ज़िम्मेदारी है उनके कुछ लोग टिके है तो आप ऐसे में… और बहुत एक गलत मुझे लगता है कभी- कभी की मैंने ऐसा सोचा कि मैं काम करूंगा तो ये वाला करूंगा तो फिर मैं ऐसा करूंगा तो ये मेरा करियर… ये बहुत कम लोगों को नसीब होता है. बाकियों को तो बॉस! आया मौका पे मारो चौका… और आपको हर सीढ़ी पर दिखाना है कि सर आपने एक  मिनट का काम  दिया, आपने मुझे काम दिया. क्योकि मैं हमेशा कहता हूं एक एक्टर साबुन बेचता है. है न. आप अगर गुड़ बेच रहे हैं तो ज़रा खाइए सर, अच्छा ठीक है अरे यार! अच्छा है लो तुम भी खरीदो. मतलब तुरंत. लेकिन साबुन के लिए तो उसको खोलवाइए फिर कहीं पानी ढुंढ़वाइए. फिर तो एसा होता है एक एक्टर को अपने आप को दिखाना कि मैं एक एक्टर हूं कही कोई ठप्पा स्टंप कुछ नहीं लगता न. कैसे बताऊं मैं एक्टर हूं? और यह एक ऐसी डिग्री है जो समाज आपको देता है बहुत नोच-निचोड़ करके समाज देता है डिग्री. एक्टर की डिग्री . मैं कम से कम कितनी फ़िल्में की है मुझे नहीं मालूम मैं दूल्हा या दुल्हन की तरह हो जाता हूं जिसका अरेंज मैरेज है. लड़का या लड़की का बाप डायरेक्टर हुआ कि भाई हम इस तरह का दामाद चाहते हैं अच्छा-अच्छा. बीच में पंडित हुआ प्रोड्यूसर, कि दामाद जी इतना दहेज देंगे आपको. अच्छा-अच्छा ठीक है. तो शादी कब की पक्की रखी है भाई आपने? तो, सर सितम्बर से अक्टूबर के बीच ये शादी चलेगी. ओके जी ओके. अब मैं दूसरे चरित्र से मिलने जा रहा हूं जिसको मुझे करना है. अब वो मैं कैसे मिलूगां चरित्र से? मैं उसके कपड़े पहनूंगा . क्योंकि मैं वैसे कपड़े नहीं पहनता हूं वो वैसे कपड़े पहनता और वो वैसे कपड़े पहनता है जो मैं पहना हूं तो मैं अब थोड़ी देर बाद वैसे ही देखने लगूंगा कि आदमी अगर ऐसा है तो ऐसा ऐसा तो नहीं करेगा.

और अब धीरे-धीरे वैसा व्यवहार करने लग जाते है अब वो चरित्र मुझे समझ में आ गया उस चरित्र को मैने ज़िंदा किया. थ्रु कपड़ा, थ्रु सेटिंग, थ्रु एवरीथिंग, लाइटिंग हर कुछ ने मदद की उसमें और आप उस चरित्र की तरफ़ गए, फ़िल्म कम्प्लीट हो गई, शादी कम्प्लीट हो गई बड़ा दर्दनाक होता है किसी शूटिंग में जाना ट्रेवल करते हुए, किसी शूटिंग को खत्म करके वहां से आना कि आपने एक कैरेक्टर को छोड़ के आ गए आप बहुत इमोशनल होता है. एक्टर के लिए कि आप उस कैरेक्टर को छोड़ के आ गए. हमारे यहां हिदुस्तान में सिनेमा समुद्र के रास्ते आया है महंगा आइटम है कोई हींग तो आया नहीं है सिनेमा आया है, जो अफोर्ड कर सकते थे अपना बनाना चालू किया भगवत राम, अध्यात्मिक, अध्यात्मिक तो नहीं कहेंगे उसको धार्मिक पिक्चरें बनने लग गई अरे वाह! हनुमान को उड़ते देखे हैं वाह! वाह! वाह! वाह क्या है ये सिनेमा है, लोगों को आकर्षित देख करके पैसा लगाने वालों का दिमाग बढ़ा धीरे-धीरे-धीरे तो सिनेमा बड़ा हा हा… ऐसा होता था बहुत धीरे-धीरे कटने लगा, कटने लगा, धीरे-धीरे रियलेस्टिक कुछ लोग खड़े हुए एक्टिंग में बलराज साहनी खड़े हुए है. न! ऐसे-ऐसे सिनेमा में लोग खड़े हुए धीरे-धीरे कट था अब एक बहुत सार्थक सिनेमा का जो बीज बोया है कहीं और से अब कुछ पोटलियां खुल रही है. अब सेटिंग पर ध्यान देना होगा कि दर्शक को लगे की ये मेरा ही घर है. लाइटिंग पे ध्यान देना होगा अरे! हाँ बे! तीन बजे तो ऐसे ही लाइटिंग में पापा बैठे रहते हैं तो आप रिलेट करवाते हैं. तो अब कला की तरफ़ आ रहा है सिनेमा आर्ट की तरफ़ आ रहा है सिनेमा एज ऐन आर्ट एंड कितना कमर्शियल है कितना वो है वो अलग बात है मैं कुछ ज़्यादा ही बोल जाता हूं.

इरफ़ान- सिनेमा एज एन आर्ट एक कला की तरफ़ आ रहा है आपका कहना है और तब इसका मतलब है कि उस तरफ़ आने से आपको कुछ संतोष मिल रहा है. कला की जगह बना रहा है और जिससे आपको शायद कुछ अच्छा लगता है आपके मन को इस बात से संतोष मिलता है क्योंकि एक लम्बा दौर ऐसा भी गुज़रा जिसमें स्क्रिप्ट को पढ़े बिना एक किरदार जो आपको दे दिया गया उसको आपने क्योंकि आप जो सोच कर गए उस इंटेसिटी से हो सकता है कि बाकी क्रू और बाकी जो उसके हिस्सेदार है वो ना सोच रहें हो और वो सारी मेहनत भी एक तरह से बर्बाद जाती है,लेकिन अब जबकि इसमें आप कला की संभावनाए देख रहें है तो क्या वो ख़ास बात है जो आपको जाती तौर पर लगती है.

संजय मिश्रा- जब बात कला की हो रही है तो एक संस्कृति मैं जीता-जागता उस वर्ष को बिलॉन्ग  करता हूं जिन वर्षों में साहित्य ख़त्म हो रहा था, उन वर्षों को. अस्सी का वक्त जो था. हिंदुस्तानियों के लिए बड़ा… कम्प्यूटर आ गया सर! अपनी दुनिया अभी जाने नहीं आप एक दम तड़ से दूसरी तरफ़ जा रहे हैं और अपनी दुनिया की चीजें आपकी, छूटती जा रही है तो उन वर्षों से मैं गुज़रा हूं. शास्त्रीय संगीत को कम होते देखा हूं, तो ऐसे में कला का कोई क्षेत्र जैसे सिनेमा है. उसमें लोगों की एक चीज की बॉस! हमने बहुत देखा है यार ये सब चीजें लेकिन ये भी चीज है ज़िंदगी में ये भी चीज़ है सिनेमा सिर्फ़ चौबीस या पच्चीस साल के लड़के की और एक तेईस साल की लड़की की लव स्टोरी और उसमें बाप कहे कि पहले कुछ कमा कर लाओ उसके बाद वो कमाता कैसे है और भी कुछ चीजें हैं उम्र के बाद एक ड्रामा शुरू. तब बनती है आंखों देखी और आंखों देखी लोगों के दिल में उतरती है. बनारस जो एक जगह है, वो सिर्फ़ बनारस ही नहीं है वहां लोग रहते हैं और जहां लोग रहते हैं वहां इमोशंस होते है, हर चीज होती है. इंटरटेनमेंट का ये मतलब नहीं कि आप चप्पल जूते उठा के हा-हा ऐसा इंटरटेनमेंट… इंटरटेनमेंट मतलब एक थोड़ा हाई लेबल का इंटरटेनमेंट, वह इंटरटेनमेंट जिसमें आप उस चीज को इंज्वाय कर रहें हैं, इसलिए आप घुसे से हुए हैं तो यार! क्या बात और आप सिनेमा देख के रात में अच्छे से सोए और अगले दिन भी वो सिनेमा आपको याद रहा तो मेरे लिए तो ये बहुत ही संतोषजनक है कि चलो आपने मसान का म्यूज़िक देख लिया. आंखों देखी का म्यूज़िक सुनिए… वरुण ग्रोवर, मैंने उनकी माता जी से पूछा भाई साब, भाई साब तो नहीं बोला अरे! माता जी क्या पैदा कर दिया आप ने? कबीर-वबीर पैदा कर दिए है क्या? उसके लिखने का तरीका, उसकी सोच और वे म्यूज़िक लोग गुनगुनाते हैं. इसका मतलब लोगों में अब भी स्वाद बचा हुआ है और वो स्वाद अब टच हो रहा है तो बड़ी खुशी हो रही है.

इरफ़ान- और इस दौर से जो कि एक ज़्यादा संभावनाओं से भरा दौर है जो आपको आश्वस्त भी करता है उससे पहले का जो दौर है जिसमें बहुत सा काम इसलिए भी किया जा रहा था क्योकि एक एक्टर को कुछ काम करना ही होता है और तब उस दौर में ही आपने अपने संगीत के प्रेम को ज़्यादा मांझा और उस पर ज़्यादा फोकस रखा.

संजय मिश्रा- संगीत से रिश्ता है. संगीत मेरा ऐसा दोस्त है जो मेरे हर पास रहता है उसमें गुम हो जाता हूं मैं कोई पंडित ज्ञानी, वैसा नहीं है. पिताजी को दहेज में मिला था सितार. तो मतलब हम जब-जब आंखें खोले तो एक कुछ चीज है, कदम करते गए टूंग- टूंग अरे क्या बज गया फ़िर घूमते हुए गए, फ़िर टींग-टींग, स्कूल से आए टींग-टींग, फ़िर धीरे- धीरे टंग- टंग सा ये होता है. रा ये होता है, टिंग-टान टिन-टिन अच्छा लग रहा है. अरे यार! उगली कट गई तड़. सितार का तार भी टूट गया. तो उससे एक रिश्ता हो गया, म्यूज़िक से. जो अभिनेता, मतलब ज़रूरी है एक इंसान के लिए. मैं बहुत कम टीवी देखता हूं. माफ़ कीजिएगा देखता ही नहीं हूं. शायद पहले न्यूज़ बहुत धीरे से आता था और वही न्यूज़ आदमी तक आता था जिसकी जरूरत होती थी. उसको आप चौबीस घंटे… कुछ लोग देखिए कपड़ा धुल गया हो गया, नहा लिए टाय… आप सोचिए आपका उस स्थिति में दिमाग क्या है? तो ऐसे तो एक्टर नहीं बन सकते. आपको थोड़ा मैं एक्टर प्रोफेसनली नहीं हूं, मैं एक्टर की लाइफ़ जीता हूं एक कलाकार की लाइफ़ जीता हूं. पूरी तरीके से. बहुत चीज़ों से आपको तोड़ना पड़ेगा आज आप मोबाइल देखिए. एक नज़र बचा के निकल जाने का तरीका भी हो गया है मोबाइल. आपकी लाइफ़ में इतना कुछ हो गया है वो, अरे! ये आ रहा है… वो देख ही नहीं रहा है कि वो भी वही कर रहा है, ओए! ये आ रहा है टन… है न? हर दो मिनट पर कुछ भी ये-वो, ये-वो…

एक समय ज़रूरत पड़ने पर नमक लाने के लिए आपको सड़क क्रॉस करके जाना पड़ता था. आज वो नमक लेने आपको सड़क क्रॉस करके नहीं जाना होता. लेकिन वो जो जाने का एक था, है न! या कुछ भी एक चीज, अब वो धीरे-धीरे… तो बड़ा अच्छा है भाई कि इसको हम लोगों को थोड़ा ज़िंदा रखना होगा, हमारी चीजों को, कल को लोग ये न भूल जायें कि ये क्या थे, बहुत शर्म की बात होगी. इतना तो दायित्व है अगर ऊपर वाले ने इंसान के उसमें भेजा है तो ये तो दायित्व है कि हां भाई. एक बड़ी अच्छी लाइन है ब्रेख्त की, उन्होंने लिखा था कि ये ज़रूरी नहीं कि तुम मरते वक्त अच्छे इंसान बनो.

इरफ़ान- जब तुम मरो तो एक अच्छे समाज से विदा लो.

संजय मिश्रा- ज़रूरी ये है मरते वक्त अच्छे समाज से विदा लीजिए. कितनी सूकून की मौत होगी ये न? कि मरे. आये बाप! कांव-कांव, किस जगह को छोड़ के जा रहे हैं? किस लिए सारी मेहनत? तो थोड़ा…

इरफ़ान- आपके बारे में संजय भाई! जो आपके दोस्त लोग हैं. जो आपको जानते हैं. वे ये कहते हैं कि अगर बहुत ज़्यादा परवाह न हो तो आप अपने सितार अपने संगीत में ही मग्न रहना ज़्यादा पसंद करते हैं. इस पर आप कैसे रियेक्ट करते हैं?

संजय मिश्रा- यार! मां के आंचल में एक हमेशा एक सूकून मिलता है. कोई बहुत बड़ा मेरा दोस्त मूर्ख ही होगा जो मुझे सूकून से नहीं रहने देता है, लेकिन उस तरह के सूकून का मैं आदी हूँ. थोड़ा पर्सनल दोस्ती का. म्यूज़िक से जो दोस्ती है, उससे है. जब मैं उससे अलग हटता हूं, शूटिंग पे जाता हूं. तो वहां मेरी कुछ और दोस्ती होती है. लोग कहते हैं सिनेमा. मैं हर वक्त थियेटर करता हूं. जब मैं म्यूज़िक से हटा, शूटिंग पे हूं, तो वो मेरे लिए थियेटर है. मेरी ऑडियंस, मेरे लाइट मैन पांच सौ के तादाद में नहीं देख रहे हैं बैठ के और मुझे वो शॉट देना है, आ के पानी पीना है और पानी पी के गिलास रखना है और किसी को बोलना है हट जा मेरी नज़र के सामने से. भले ही ये दो घंटे का पूरा एक नाटक ना हो, लेकिन अगर ये पचपन सेकेंड, एक मिनट, तीस सेकेंड का ही नाटक है तो ये नाटक मुझे परफॉर्म करना है. मुझे उसी समय अपने लोगों का रियेक्सन देख लेना है. तो मैं संगीत छोड़ के थियेटर में चल गया. लेकिन वो संपूर्ण थियेटर नहीं है, वो एक छोटा सा पोरसन है एज एन एक्टर मैं ले रहा हूं. तो उसके संपूर्ण थियेटर के लिए क्या करना है? कुछ अच्छा खाते हैं यार! तो खाते कहाँ से हैं? कुछ बनाते हैं यार शूटिंग में! क्यों नहीं, शूटिंग में प्रेस हो रहा है, शूटिंग में चाय बन रही है, शूटिंग में ये हो रहा है. तो गोभी मुसल्ल्म क्यों नहीं बन सकता, कैसे बनेगा भाई? पूरी उसकी तैयारी चल रही है, फ़िर इधर थियेटर चल रहा है तब भी संगीत से मैं थोड़ा अलग नहीं हूं, वहां भी कहीं कुछ न कुछ बज रहा होता है शूटिंग भी चल रही है, आप अपना बनाया हुआ खाना भी खा रहे है तो मैं उसी सुकून में अभी भी हूं.

इरफ़ान- ये बहुत बार सौभाग्य नहीं होता है कि बिल्कुल जैसे कला का स्वाद आप जिस की बात कर रहे हैं उस तरह की फ़िल्में बारबार मिलें ये तो बहुत कम होता है और तब आप कई बार ऐसी…

संजय मिश्रा- इरफ़ान दा! मैं एक बात बोलता हूं हमेशा, जिसका जवाब मुझे सवाल से ही मिल जाता है. कुछ फिल्में होती हैं जिसमें आप जीते हैं. होता है शूटिंग पे पहुंच के हम एक्टर लोग कमरे में बैठ के ही पूरा देख लेते हैं न पिक्चर. लेकिन पिक्चर में जब जाते हैं तब मालूम चला वो बेटा यहां कोई नदी ही नहीं है तुम तो सोचे थे कि नदी के किनारे गाऊंगा उउ… पहला धोखा समझ रहे हैं आप, दिन बाद समझ जाते हैं ये तो भाई ज़िंदा रहने वाली फ़िल्म है इसमें घुसना है. करो ये रिर्हसल वाली फ़िल्म है एक ऐसा… कभी मैं बड़ा ऐलानिया कहता हूं कि मैं प्रोड्यूसर के पैसे से रिर्हसल करता हूं भाई साहब और रिर्हसल सिर्फ़ एक्टिंग की नहीं कि आप जैसे आदमी भी मिल सकते हैं मैं इसकी भी रिर्हसल कर लेता हूं. इन जैसे कैमरामैन भी मिल सकते हैं, इसकी भी रिर्हसल हो जाती है जब एकदमें गौण केस में जो एक्टर मिला इसकी भी रिर्हसल हो जाती है, पैसे भी मिल रहे है. कुछ पता नहीं होता कि कौन से, कब मेरी एक फ़िल्म थी जिसके जिम्मे, कहां से क्यू मेरे अटैच हो गया. यार पापाजी देखेंगे तो क्या बोलेंगे? ये कौन सी पिक्चर है और आज तक लोग उसके डायलॉग बोलते हैं मुझे. मैं एक्टिंग करता हूं इसलिए आपका, आपकी अगली पिक्चर क्या है? हम कभी बैंक वाले से तो पूछते नहीं कि यार सबसे बेस्ट अकाउंट किसका है? तेरा अगला कौन सा बेस्ट अकाउंट तू डील कर रहा है? किसी पुलिस वाले से तो पूछते नहीं कि नेक्सट केस क्या है तेरा? हम एक्टर हैं, हम दिखते हैं, तो आपका नेक्सट केस क्या है? हम दस केस करते है उसमें से दो बढ़िया केस कर जाते हैं. हम दो, बहुत अच्छे दो अकाउंट डील कर रहे हैं. हम भी उसमें से अच्छी दो पिक्चरें कर रहे हैं. बाकी तो ये हम इतने ऐक्स्पीरिएन्स हो जाते हैं कि पता चल जाता है गुरु.

इरफ़ान- जिसको नसीर भाई कहते हैं अपने अलग-अलग बयानों में और इंटरव्यू में कि डायरेक्टर्स को मतलब हमेशा नहीं, कुछ डायरेक्टर्स ऐसे भी होगे जिनको ये खुद नहीं मालूम होता कि वो एक्टर से चाहते क्या है

संजय मिश्रा- कभी-कभी कोई पत्रकार मुझसे पूछता है कि देखिए पत्रकारों के पास वही दस घिसे-पिटे सवाल हैं. आपका रोल क्या है? आप क्या-क्या है? आपका ये क्या है? आपका कैरेक्टर क्या है? और आप… जब भी वो मुझसे पूछते हैं सर! इस फ़िल्म में आपका कैरेक्टर क्या है? तो मैं कहता हूं पहले मुझे तो पता चल जाए कि फ़िल्म का कैरेक्टर क्या है. नसीर भाई बिल्कुल सही कहते हैं. कोई भी फ़िल्म बना सकता है न! मैं तो ऐसे डायरेक्टर के साथ काम किया हूं, शॉट लिया, कपड़े बदल के आ गया… पता नहीं क्यों ऐसे कर रहे हैं हर… काट काट काट… सर व्हाट नेक्सट? किससे पूछे कहाँ गए…. वो… शूटिंग के लिए कपड़े सिलवाया था वो आज बीस शॉट लूंगा बीस, कुर्ता-पैजामा, धोती, भांगड़ा तो ऐसे भी डायरेक्टर्स हैं और ऐसे भी डायरेक्टर्स है जो रात में सपने में आते हैं. जो शायद ऐसे करके आपको सुला देते हैं, कहते हैं –अभी सो जा कल देंखेगे, तुम ठीक जा रहे हो. ऐसे भी डायरेक्टर है.

इरफ़ान- और तब चूंकि आप तरह-तरह की फिल्मों में काम करते हैं. ये जो सौ करोड़, हंड्रेड करोड़ क्लब वाली जो दुनिया है इसके बारे में भी आप अपने ख़ास एक व्यंगात्मक अंदाज़ में…

संजय मिश्रा- देखिये हमारे यहां एक, बहुत बचपन से सुनता आ रहा हूं कि सक्सेना साहब की बीबी सक्सेना साहब से बोली देखिए उनके यहा लाल फ्रिज़ आ गया है समझे! समझ रहे हैं कि नहीं? उनके यहां वो आ गया है. तो भाई कहा रखें अपना स्तर… फाइव हंड्रेड करोड़… अब इसके बाद कितना बोलो? या तो एके साथ बोलो कि पूरा हिदुस्ताने फ़िल्म देखने लग गया… कितना बढ़ोगे तो एक मापदंड है. तो देखिए ये समझ लीजिए ये करोल बाग का मार्केट है. किसी छोटे शहर का मार्केट है. लो भाई लो भाई बीस का लो, तीस का लो, ये मार्केट ऐसा है… पक पक फेंकते जाइए कुछ भी दे दीजिए. आजकल जी आइटम नंबर चल रहा है, आपको तो फ़िल्म में आइटम नंबर ही पड़ेगा. अब लोग कहते हैं कौन सा आइटम नंबर? हमने तो गाना ही नहीं रखा. आपने देखा उसमें कोई गाना था. ऐसा मुंह खोल के गा रहे तो अच्छा ये हटाइये, ये दीजिए डेन टेन टेन… अब ये आ गया बड़ा सौ करोड़, क्या पांच सौ करोड़, कब बोले कि भाई… आगे आप सोचें कि भाई पब्लिसिटी के लिए और क्या किया जा सकता है. और हम बड़े अनभिज्ञ हैं. देखने वालो को जो चाहिए वो चुपचाप जाके देख के आ जाता है. मुझे नहीं लगता कि कोई गाना आप टीवी पर देखे तो ये पिक्चर तो मैं देखूगा ही ना ना ना ना… जो दिखने वाला होता है वो तो अपने आप ही चुपचाप सूमड़ी में जा के लोग आंखों-आंखों में ही बात हो जाती है. तो ये सब गेम है नए जमाने का आपकी तरफ़, आपको क्यों लोग देखें? अरे भाई सौ करोड़, ओ अच्छा…

तो ये वो एक छोटा सा दौर है फिर कुछ और चीजों से जानी जाएगी भाई इस पिक्चर को देख के 17 लोग हत्या किए अ तेरी इस पिक्चर को देख के 40 किए वाह… अब तक का रिकार्ड फस्ट टाइम इंडिया में फ़िल्म देख के चालीस लोग आत्महत्या किए तो कैसे नापोगे यार आज आप शोले को हिंदी सिनेमा की बात कर रहा हूं संतोषी माता को उन बेचारों का तो कोई कलेक्शन ही नहीं था. बॉस उस समय के हिसाब से वो सौ करोड़ कमाते और अंग्रेजों के पता चल जाता कि एक ही बिज़नेस यहां सौ करोड़ दे रहा है तो नहीं जाते अग्रेज भारत छोड़ते ही नहीं रुके रहो कुछ दिन और लात जूता खाओ एक बढ़िया इंडस्ट्री डेवलप हो रही है यहा समझ रहे है की नहीं तो आप उसकी सफ़लता को छोटा नहीं कह सकते कि ये पिक्चर सौ करोड़… उस पिक्चर ने मंदिर बनवा दिए संतोषी माता के लोग चप्पल्ल खोल के जाते थे हॉल में तत्काल तुरंत औरतों ने ये शुक्रवार छूटा अगले शुक्रवार से व्रत शुरु कर दिया वो है जलवा जो आप पैसे से नहीं आंक सकते आप पैसे से पेरिस जा सकते है लेकिन पैसे से आप किसी के आंखों में आंसू नहीं डलवा सकते और हम हिदुस्तानी सिनेमा की बड़ी कद्र करते है बहुत वो हमारी छाप है और दुनिया में उसकी वजह से जाने जाते है ओ दे आर फ्राम बॉलीवुड तो आपकी छाप सोच लीजिए कैसी है मतलब गुड है वो सुधरना चाहिए.

इरफ़ान-  संजय बातों का ये सिलसिला बहुत दिलचस्प है लेकिन वक्त का भी एक तकाज़ा है मेरी तरफ से सवाल प्रोग्राम के डयूरेशन को देखते हुए  खत्म हो चूंके है कुछ आपको और भी कहना हो ऐसी कोई बात…

संजय मिश्रा- मै कहना चाहूंगा. क्योंकि ये राज्यसभा टीवी है मेरे लिए दिल के बहुत करीब है क्योंकि मेरे पिताजी भी दूरदर्शन में थे प्रेस इंफॉरमेशन ब्यूरो में थे. तो ये घर का चैनल है मेरे लिए बिल्कुल और बड़ा ही इमोशनल है. मैं जब भी इस चैनल को देखता था और स्पेशली ये प्रोग्राम हिदुस्तान के कुछ ऐसे-ऐसे लोगों को उपर लाता था जिनको हिन्दुस्तान को जानने की ज़रुरत है सो ये मेरा सौभाग्य है इरफ़ान भाई की आपने मुझे इस प्रोग्राम के लिए.

[इस पूरी बातचीत को इस लिंक पर देखा जा सकता है: संजय मिश्रा और इरफ़ान की गुफ्तगू ]

इरफ़ान बीस से भी अधिक वर्षों से ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट हैं. राज्यसभा टीवी के आरम्भ के साथी हैं और इस चैनेल के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुफ्तगू’ के होस्ट हैं. देश में उनके पाए का दूसरा इंटरव्यूअर खोज सकना मुश्किल होगा. संस्कृति. संगीत और सिनेमा में विशेष दिलचस्पी रखने वाले इरफ़ान काफल ट्री से साथ उसकी शुरुआत से ही जुड़े हुए हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

3 days ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

3 days ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

6 days ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

1 week ago

उत्तराखण्ड के मतदाताओं की इतनी निराशा के मायने

-हरीश जोशी (नई लोक सभा गठन हेतु गतिमान देशव्यापी सामान्य निर्वाचन के प्रथम चरण में…

1 week ago

नैनीताल के अजब-गजब चुनावी किरदार

आम चुनाव आते ही नैनीताल के दो चुनावजीवी अक्सर याद आ जाया करते हैं. चुनाव…

1 week ago