कॉलम

आन्दोलन, सिफ़ारिश और ब्रीफकेस

अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 17
अमित श्रीवास्तव

माननीय एस पी महोदय

नमस्कार

पत्रवाहक मेरे गाँव का है और समझिये ख़ास का है. इसकी एक वाइफ़ पेट के रोग से पीड़ित है. प्रार्थी उसका इलाज कराना चाहता है अतः प्रार्थी को चिका के चकधम मकई के दाना’ पुलिस चौकी में पोस्टिंग देने का कष्ट करें.

आज्ञा से,

दिलबहार यादव, अध्यक्ष ग्राम सुधार समिति

(मंत्री दर्जा प्राप्त)

लिफ़ाफ़ा देख कर ख़त का मजमून भांप लेने वाले जोश रंगीले आज धोखा खा गए. लिफ़ाफ़े का ख़त देखने के बाद भी मजमून पल्ले नहीं पड़ रहा था. समझ नहीं आया था कि ये सिफारिश है या आदेश, प्रार्थी कौन है पत्र वाहक या प्रेषक, इसकी कितनी बीवियां हैं आदि… आदि. खा तो गए पर पचा नहीं पाए इसलिए इधर-उधर उगलने लगे जिसका नेट रिजल्ट इनके नाम के साथ एक दूसरे पत्र में निकला जो उस सांध्य दैनिक की तरह आजकल पुलिस में रोज निकलने लगा है, जो सरकारी विज्ञापनों पर ही टिका है, जिसकी खपत भी सरकारी कार्यालयों में बंटने से होती है. पत्र को टेक्नीकली स्थानान्तरण आदेश कहा जाता है.

सूचना क्रान्ति के बवंडर वाले इस युग में यानि वाट्सऐप और फेसबुक के भरपूर दख़ल वाले समय में यानि कलम और कैमरे के घालमेल वाले समय में जिन्होंने कलम गही नहीं हाथ उन्होंने सीधे मोबाइल हाथ में गह लिया है और उनकी तरफ से सिफारिशें ऐसी ही आती हैं लिखा-पढ़ी में. कहा-सुनी में जो आती हैं वो ऐसी हैं-

कहने वाला – अपना आदमी है

सुनने वाला – सर

कहने वाला – उसे अलाना से फलाना जगह कर दिया है

सुनने वाला – सर सर

कहने वाला – वापस वहीं कर दो

सुनने वाला – सर सर सर

कहने वाला – शाम तक बताओ मुझे कर के

सुनने वाला – सर सर सर सर

सुनने वाला कुछ कह नहीं सकता ये भी नहीं कि उसे प्रशासनिक आधार पर हटाया है क्योंकि खुलेआम जुआ खिलवाता था, कि शराब की भट्टियों से उगाही थी उसकी, कि संज्ञान में तो पहले ही आ गया था लेकिन दूसरे स्टेक होल्डर्स से अब तना-तनी की ख़बरें उछाल पर थीं. सुनने वाला कुछ नहीं कह सकता क्योंकि वो सुनने वाला है. इसे शब्द की माया की ठसक कहें या पदों की गरिमा का खिसकाव जो पद पहले सिफ़ारिश हेतु पर्याप्त थे अब खुद किसी और की सिफ़ारिश के प्रसाद-पर्यंत हो गए हैं. शिकारी खुद शिकार हो गया वाला मामला है.

पहले और अब में एक अंतर ये भी है कि पहले सिफ़ारिश कम आदेश हुआ करता था अब आदेश कम सिफ़ारिश होती है. ख़ुलासा करें तो पहले सिफ़ारिश होती थी, सांप भी मर जाता था और लाठी भी नहीं टूटती थी, अब सिफ़ारिश होती है, सांप भी मर जाता है, लाठी भी नहीं टूटती, सांप का केंचुल भी निकाल लिया जाता है और लोगों को डराने के काम आता है. मायावी शब्द है सिफ़ारिश. संसद सिफ़ारिश करती है राष्ट्रपति क़ानून पर मुहर लगा देता है. राष्ट्रपति ना-नुकुर करता है दुबारा हो जाती है सिफ़ारिश. इस बार तो मुहर लगानी ही पड़ती है उसे. लेकिन सिफ़ारिश किसी भी शब्दकोश में आदेश का पर्यायवाची नहीं बताया जाता. ( इसे भी पढ़ियेतीसरी कसम उर्फ मारे गये चिलबिल)

मन्दिर में भक्त और भगवान के बीच रास्ता रोक के खड़े पुजारीजी हाथ से फूल-माला-मिठाई ले लेते हैं. माला फेंक के मारते हैं भगवान की मूर्ती पर. अचूक निशाना है, भगवान से ज्यादा श्रद्धा पंडिज्जी पे उमड़ने लगती है. पैरों के पास से फूल चुनकर उठा लेते हैं. मिठाई भगवान के आसन से छुआकर बड़े से परात में डाल देते हैं. फिर उसी परात से बताशे निकालकर डब्बे में डालकर भक्त को वापस कर देते हैं. लो जी हो गई सिफ़ारिश, काम हो जाएगा. लगे हाथों फूल और बताशे का एकनॉलेजमेंट भी मिल गया.

इसी तरह का एक और मायावी शब्द है आन्दोलन. जो काम सिफ़ारिश से छूट जाते हैं वो आन्दोलन बना देता है. अगर हजार सिफारिशों के बाद भी करने वाला हाथ धरने नहीं दे रहा है आप धरने पर बैठ जाओ. घुटने के बल आ जाएगा. आपको टेंडर सेट करवाना है, अगला मिल ही नहीं रहा है न दफ़्तर में, न घर पर, न रेस्त्राँ में, न काली पहाड़ी के पीछे, आप उसके दफ़्तर के आगे प्रदर्शन कर डालो. झट दर्शन देगा. बस इतनी सावधानी चाहिए कि दबाने के लिए उसकी दुखती रग का पता हो. सरकारी अधिकारियों की दुखती रग इतनी सुलभ होती है जैसे उनके नोटिस बोर्ड पर लगा टेंडर विज्ञापन.

चमर्धन चिलबिल ने पहले खूब सिफ़ारिश की. हॉर्टिकल्चर योजना में अपना बगीचा पास करवाने की. सरकारी मदद मिल रही थी  जो इतनी मासूम होती है कि कागज़ से निकलने के बाद अगर रास्ता भटक जाए तो नादानी समझ कर माफ़ कर दिया जाता है. देने के बाद सरकार भी पूछती नहीं है कि नहीं पहुँची तो गई कहाँ. बगीचा पास नहीं हुआ. `च’ से फोन करवाया, `ब’ से मिलवाया लेकिन बात नहीं बनी. फिर उसने आन्दोलन का रास्ता पकड़ा. गैस सिलिंडर सप्लाई के रेगुलर न होने और मिलीभगत से ग्राहकों (जिन्हें बड़ी सफाई से जनता कहा गया) को चूना लगाने के ख़िलाफ़. ये सहूलियत है आन्दोलन की. आपका काम कोई भी अटका हो आप आन्दोलन कोई सा भी पकड़ सकते हैं. वैसे तो कुछ हुआ नहीं लेकिन लगा कि जैसे बहुत कुछ हो गया. इस तरह के होने और होने के बीच आजकल खी टीवी, खीखी टीवी या खीखीखी टीवी का बहुमूल्य सहयोग है. ये और बात है कि मूल्य किसने, कब, कितना और कैसे चुकाया इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं है. `धरना इन लाइम लाईट, शासन की हवा टाईट’ वाली हेडलाइन तीन दिन में स्क्रॉल से बिग डिबेट से स्क्रॉल से उड़नछू कब हो गई पता नहीं चला. गैस सिलिंडर की आपूर्ती उतनी ही रही, ग्राहकों को मुफ़्त में चूना सप्लाई का काम तो वैसा ही रहा लेकिन चिलबिल की इच्छा पूर्ती हो गई. ऐसी महिमा आन्दोलन की.

सिफ़ारिश का अपना समाजशास्त्र है, आन्दोलन का अपना. ये दोनों शास्त्र सिर और पूंछ से जुड़े हुए हैं. अपने मरीज को अस्पताल में मुफ़्त इलाज की सिफ़ारिश लगाई, नहीं मानी गई, अस्पताल में धुली चादर न होने के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर दिया. जो सिफ़ारिश के लिए साथ आए थे धरने पर भी साथ बैठ गए. अब धरना समाप्त करने के लिए अस्पताल प्रशासन आएगा, सिफ़ारिश करेगा. इस तरह एक सिफ़ारिश दूसरे धरने के लिए सिफ़ारिश है, एक धरना दूसरी सिफ़ारिश के लिए धरना है.

लगने लगा है कि दुनिया दो खेमों में बंटी हुई है. एक तरफ सिफ़ारिश वाले हैं दूसरी तरफ आन्दोलन वाले. लेकिन दुनिया इतने पर ही ख़तम नहीं होती. एक तीसरा आयाम भी है जो फिजीकली रहता है सिफ़ारिश वाले खेमे में लेकिन फंक्शनली है ऑटोनोमस. स्वतंत्र रहने और स्वछन्द कार्य प्रणाली की वजह से अब ये सबसे ताकतवर है. कर्मण्ये… वाली दुर्घटना में आजकल असल कर्म यही है, कर्ता भी यही है और फ्रैंकली स्पीकिंग धर्ता भी यही है. माता-पिता, बंधु-सखा सब यही है. यहाँ तक कि `च’ भी यही है. सिफ़ारिश बोल जाए, धरना डोल जाए मगर मजाल क्या कि ब्रीफकेस का ताला कोई व्हिसिल ब्लोवर खोल जाए. इसकी चाबी किसी सूचना अधिकार से नहीं मिलती. जनाब कोई ‘मास्टर की’ भी नहीं बनी आज तक.

बस ध्यान ब्रीफकेस की लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई का रखना पड़ता है. मेरी सिफ़ारिश ये है कि ये मामला भी अब फिक्स हो जाना चाहिए. संस्थानीकृत. कब तक हम काबलियत को बीच में घुसाते रहेंगे. जब तक लेने वाले की काबलियत देने वाले की श्रद्धा से टकराती रहेगी लोग भ्रष्टाचार-घोटाला चिल्लाते रहेंगे. ये सभ्य समाज के गुण नहीं हैं. काला-सफ़ेद का रंगभेद धन के मामले में भी नहीं होना चाहिए. सिस्टम फिक्स करने के लिए चाहें तो देसी रैंक क्लासिफिकेशन सिस्टम ले लें. रैंक और ग्रेड पे के हिसाब से बाईस इंची, चौबीस इंची ब्रीफकेस अनुमन्य हो या फिर अमरीकन पोज़ीशन क्लासिफिकेशन सिस्टम अपना लिया जाए. जैसा काम वैसा दाम. ये क्या कि काम नौकरी दिलवाने जैसा बड़ा और दाम स्कूल एडमीशन जैसा मामूली सा.

इस तरह से संस्थानीकरण करने से दो-तीन बड़े फायदे होंगे. एक तो इससे भाई-भतीजावाद समाप्त हो जाएगा. कहा भी गया है बाप बड़ा न भईया… बस उसपर अमल करने की ज़रुरत है. दूसरा लाल फीताशाही से नहीं बल्कि फीते के भीतर बंधे करेंसी से चलेगी फ़ाइल. काम में तेजी आएगी. तीसरा बिना वजह बनाए गए नियम-कानून और आड़ी-तिरछी कवायदों से छुटकारा मिलेगा. वैसे भी काम तो इनके बीच छोड़े गए लूपहोल्स से ही होता है. फिर क्यों न इन्हें ही नियम बना दिया जाए. हर्रे न फिटकरी काम चोखा. इसमें हर्रे और फिटकरी क्रमशः नियम और क़ानून हैं.

एक बार ये संस्थानीकृत हो जाए फिर उन लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जाए जो इस सिस्टम के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं. वैसे भी वो अब भी माइनॉरिटी में हैं. इस मामले में ज़ीरो टॉलरेन्स होनी चाहिए.

जोश रंगीले सोच में हैं बच्चे के एडमिशन के लिए किसी से सिफ़ारिश लगवाएं, ग्रेड सिस्टम के ख़िलाफ़ धरने पर जाएं या ब्रीफकेस का वज़न बढ़ाएं. आप ही बताएं.

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

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अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).

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Girish Lohani

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