पाब्लो नेरुदा (12 जुलाई 1904 – 23 सितंबर 1973) की रहस्यमय -सी मृत्यु पर हिन्दी दुनिया में विशेष चर्चा नहीं हुई‐ शायद इसलिए कि उससे कुछ ही पहले नेरुदा को नोबेल पुरस्कार मिलने पर पक्ष-विपक्ष में थोड़ा-बहुत लिखा जा चुका था और उसके कुछ संग्रह भी दूकानों पर नजर आये थे‐ लेकिन राष्ट्रपति आयेंदे की हत्या, फौजी तानाशाही की स्थापना और स्पेन की ही तरह, चीले की सड़कों पर भी ‘आग, बारूद और शिशुओं का रक्त’ बहने के उस दौर में जब एक बड़े मानवीय स्वप्न का अंत हो रहा था, चीले की जनता और पश्चिम की बौद्धिक दुनिया को नेरुदा की याद थी‐ इसीलिए जनरल पीनोशे को यह कहने का पाखंड करना पड़ा कि ‘नेरुदा अगर मरे तो उनकी स्वाभाविक मृत्यु होगी‐’ अब भी कहा नहीं जा सकता कि उनकी मृत्यु, चीले के तानाशाहों के अनुसार, कैंसर से हुई कि चीले की जनता के उस स्वप्न के समाप्त हो जाने से, नेरुदा की कविताएं जिसका एक अभिन्न अंश थी‐ आखिर, नेरुदा को दफनाते समय कब्रगाह में खड़े हजारों लोगों ने उस बर्बरता में भी फासिज्म-विरोधी नारे लगाये‐
नेरुदा से रीता लेवेत की यह बातचीत इस दृष्टि से काफी पुरानी हैः नोबेल पुरस्कार से भी पहले की, जब नेरुदा चीले के राष्ट्रपति-पद के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे‐ बाद में नेरुदा ने अपने निर्दलीय मार्क्सवादी मित्र साल्वादोर आयेंदे के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया था ; आयेंदे के राष्ट्रपति होने पर नेरुदा फ्रांस में राजदूत नियुक्त किये गये‐ इस बातचीत का रोनाल्ड क्राइस्ट द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद १९७१ में ‘पेरिस रिव्यू’ ; अंक ५१ में प्रकाशित हुआ था.
यह बातचीत कई चीजों के बारे में है और नेरुदा की कविता से अधिक उनके कविता संबंधी आग्रहों और तत्कालीन साहित्यिकता के प्रति उनके रवैयों को सामने रखती है‐ विस्तार-भय से वात्र्तालाप को कहीं-कहीं काटा भी गया है – मसलन, जासूसी उपन्यासों को पसंद करने की बात – लेकिन वे सभी बातें रहने दी गयी हैं जो आज भी किसी-न-किसी रूप में प्रासंगिक और शिक्षाप्रद लगती है
आपने अपना नाम क्यों बदला, और पाब्लो नेरुदा क्यों रखा?
नेरुदा: याद नही‐ मैं कोई तेरह या चैदह साल का रहा हूंगा‐ इतना याद है कि मेरी लेखक बनने की ख्वाहिश से मेरे पिता बहुत परेशान थे‐ अपनी पूरी नेकनीयती के साथ उन्हें लगा कि मेरा लिखना सारे परिवार को और मुझे तबाह कर देगा, और खास तौर से मेरी जिंदगी इससे पूरी तरह नाकाम हो जायेगी‐ उनकी इस आशंका के पीछे घरेलू वजह थी जिनकी गंभीरता का मुझे कोई ज्यादा अहसास नहीं था। इसके लिए जो सुरक्षात्मक कार्रवाइयां मैंने कीं, उनमें पहली थी: अपना नाम बदलना‐
आपने नेरुदा नाम चेक कवि यान नेरुदा से प्रेरित होकर अपनाया?
नेरुदा: यान नेरुदा की एक कहानी मैंने पढ़ी थी। उनका काव्य मैंने कभी नहीं पढ़ा, लेकिन ‘माला स्त्राना की कथाएं’ नाम की उनकी एक किताब है: प्राग के आसपास के शरीफ लोगों के बारे मे‐ संभव है कि मैंने उसी से अपना नया नाम लिया हो‐ जैसा मैंने बताया है, यह सब मेरी स्मृति में इतनी दूर पड़ गया है कि मुझे बिल्कुल याद नहीं आ रहा है‐ लेकिन चेकोस्लोवाकिया की जनता मुझे अपना आदमी मानती है, अपने राष्ट्र के एक अंश की तरह, और मेरी उनसे गहरी मित्रता है‐
आप अगर चीले के राष्ट्रपति चुन लिये जायें, तब भी लिखना जारी रखेंगे?
नेरुदा: लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा है। सांस लिये बिना मैं जीवित नहीं रह सकता और लिखे बिना भी मैं जीवित नहीं रह सकता‐
ऐसे कौन कवि हैं जो उच्च राजनीतिक पदों तक गये हों और सफल हुए हों?
नेरुदा: हमारा दौर कवि-शासकों का दौर है: माओ त्से तुंग और हो ची मिन्ह का‐ माओ त्से तुंग में तो दूसरी विशेषताएं भी हैं: आप जानते हैं, वह महान तैराक भी है जो कि मैं नहीं हू‐ और भी एक बड़े कवि हैं: लियोपोल्ड सेंगोर‐ वह सेनेगल के राष्ट्रपति है‐ मेरे देश में हालांकि कोई कवि राष्ट्रपति नहीं, पर यहां की राजनीति में कवियों का हमेशा दखल रहा है‐ दूसरी ओर, लातिन-अमरीका के कई लेखक राष्ट्रपति हुए हैं: रोमियो खासखोस वेनेज्वेला के राष्ट्रपति थे‐
आप अपना राष्ट्रपति-पद का चुनाव-अभियान किस तरह चला रहे हैं?
नेरुदा: एक मंच तैयार किया जाता है‐ सबसे पहले हमेशा लोकगीत गाये जाते हैं फिर कोई प्रभारी हमारे अभियान के सुनिश्चित राजनीतिक प्रयोजन को समझाता है‐ उसके बाद स्थानीय लोगों से संवाद करने के लिए मैं जो वक्तव्य देता हूं वह काफी स्वच्छन्द किस्म का होता हैः वह काव्यात्मक ज्यादा होता है‐ प्रायः हमेशा मैं अन्त में कविता-पाठ करता हूँ‐ कविता न पढ़ूं तो लोग हताश होकर लौट जाते है‐ बेशक, वे मेरे राजनीतिक विचार भी सुनना चाहते हैं, लेकिन मैं राजनीतिक या आर्थिक पहलुओं पर अधिक मेहनत नहीं करता क्योंकि जनता एक दूसरी तरह की भाषा भी चाहती है‐
आपके कविता-पाठ के दौरान लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती है?
नेरुदा: वे मुझे बहुत ही भावुक तरीके से प्यार करते हैं‐ कुछ जगहों में तो मेरा आना-जाना दूभर हो जाता है‐भीड़ से बचाने के लिए मेरे साथ एक विशेष अनुरक्षी रहता है, क्योंकि लोग मुझे घेर लेते है‐ हर जगह यही होता है‐
नोबेल पुरस्कार, जिसके लिए आपका नाम अक्सर लिया गया है और चीले का राष्ट्रपति-पद-इन दो में से अगर किसी एक का चुनाव करना हो तो आप क्या चुनेंगे?
नेरुदा: इस तरह की अवास्तविक चीजों के चुनाव का प्रश्न ही नहीं उठता‐
लेकिन अगर राष्ट्रपति-पद और नोबेल पुरस्कार दोनों को ही मेज पर लाकर रख दिया जाये तो?
नेरुदा: तो मैं उठकर दूसरी मेज पर चला जाउंगा‐
आपके विचार से, सेमुअल बेकेट को नोबेल पुरस्कार दिया जाना ठीक था?
नेरुदा: मेरे ख्याल से ठीक था‐ बेकेट संक्षिप्त लेकिन गहरी चीजें लिखते हैं‐ नोबेल पुरस्कार जिस किसी को भी मिले, वह हमेशा साहित्य का सम्मान है‐ पुरस्कार को लेकर जो लोग हमेशा इस पर बहस करते हैं कि पुरस्कार सही आदमी को मिला है कि नहीं, मैं उनमें से नहीं हूं‐ इस पुरस्कार में महत्त्व है तो यह है कि वह लेखक नाम की संस्था को सम्मान की उपाधि से अलंकृत करता है‐ यही एक चीज है जो महत्त्वपूर्ण है‐
आपकी सबसे सशक्त स्मृतियां क्या हैं?
नेरुदा: पता नही‐ सबसे उत्कट स्मृतियां शायद स्पेन में बीती जिन्दगी की हैं – कवियों की उस महान बिरादरी की‐ हमारी इस अमरीकी दुनिया में मैंने कभी ऐसी बिरादराना टोली नहीं देखी जो, ब्वेनोस आयरेस के मुहावरे में कहूं तो, इस कदर गपोडि़यों से भरी हुई हो‐ फिर बाद में, यह देखना भयावह था कि मित्रों के उस गणराज्य को गृहयुद्ध ने ध्वस्त कर दिया, जिसमें फासिस्ट दमन की भीषण सच्चाई सामने आयी‐ सारे दोस्त बिखर गयेः कुछ उसी जगह मार डाले गये – मसलन गार्सिया लोर्का और मीगेल एरनांदेस‐ कुछ की मृत्यु निर्वासन में हुई,और कुछ और अब तक निर्वासित होकर जी रहे हैं‐ मेरी जि़्न्दगी का वह समूचा दौर घटनाओं से, गहरे भावावेशों से भरपूर रहा और उसने मेरे जीवन की गति में निर्णायक परिवर्तन किया‐
क्या आपको अब स्पेन जाने की अनुमति मिल जायेगी?
नेरुदा: मेरा वहां प्रवेश सरकारी तौर पर निषिद्ध नहीं है‐ एक बार वहां चीले के दूतावास ने कविता-पाठ के लिए मुझे बुलाया भी था‐ बहुत संभव है कि वे मुझे जाने दें‐ लेकिन मैं इसे कोई सैद्धांतिक मुद्दा नहीं बनाना चाहता: इसलिए कि स्पेन की सरकार बड़ी आसानी से ऐसे लोगों को, जो कि उसके खिलाफ ज़्ाबर्दस्त ढंग से लड़े थे,अपने यहां प्रवेश करने की अनुमति देकर कुछ लोकतंत्रीय भावनाओं का प्रदर्शन कर सकती थी‐ कह नहीं सकता‐ मुझे इतने देशों में जाने से रोका गया है और इतने देशों से निकाल बाहर किया गया है कि अब इससे मुझे कतई क्षोभ नहीं होता, जैसा कि पहले-पहले होता था‐
गार्सिया लोर्का के लिए लिखे गये आपके ओड में एक तरह से उनकी दुखद मृत्यु की भविष्यवाणी है।
नेरुदा: हां, वह विचित्र कविता है‐ विचित्र इसलिए कि वह इतना सुखी व्यक्ति था, इतना प्रफुल्ल प्राणी‐ मैंने उस जैसे लोग बहुत कम देखे‐ वह सचमुच अवतार था….सफलता का न कहें, बल्कि जिन्दगी के प्यार का अवतार‐उसने अपने अस्तित्व के हरेक क्षण का उपभोग किया‐ वह प्रसन्नता के भंडार को मुक्त हस्त लुटाने वाला आदमी था‐ इस वजह से भी उसकी हत्या का अपराध फासिज़्म के सबसे अक्षम्य अपराधों में से है‐
आपकी कविताओं में अक्सर उनका उल्लेख हुआ है, और मीगेल एरनांदेस का भी‐
नेरुदा: एरनांदेस बेटे की तरह था‐ कवि के रूप में वह मेरे लिए शिष्यवत् था और वह प्रायः मेरे ही मकान में रहता था‐ वह जेल गया और वहीं मरा, क्योंकि उसने गार्सिया लोर्का की मृत्यु के सरकारी कारण को नहीं माना‐फासिस्ट सरकार के बयान में अगर सच्चाई थी तो उसने मीगेल एरनांदेस को मौत तक सींखचों में बन्द क्यों रखा? उसने चीले के दूतावास का यह सुझाव क्यों स्वीकार नहीं किया कि उसे अस्पताल में ले जाया जाये। मीगेल एरनांदेस की मृत्यु भी एक हत्या थी‐
भारत-प्रवास के समय की कौन-सी बातें आपको सबसे अधिक याद आती हैं?
नेरुदा: वहां अपने प्रवास के दिनों में मैंने जो कुछ देखा, उसके लिए मैं तैयार नहीं था‐ उस अपरिचित महाद्वीप की भावना ने हालांकि मुझे अभिभूत कर दिया लेकिन वहां मेरी जि़्न्दगी इतनी लम्बी और अकेली थी कि मैं भयंकर निराशा में रहा‐ कभी ऐसा लगता जैसे मैं किसी अन्तहीन रंगबिरंगी तस्वीर मे फंस गया हूं: एक अद्भुत फिल्म में, जहां से बाहर नहीं आया जा सकता‐ भारत में मुझे कभी उस रहस्यात्मकता का अनुभव नहीं हुआ,जिसने कितने ही दक्षिण अमरीकियों और दूसरे विदेशियों को राह दिखायी है‐ जो लोग अपनी चिंताओं के किसी धर्मिक समाधान की खोज में भारत जाते हैं वे चीजों को और ही तरह से देखते है‐ जहां तक मेरा संबंध है, मुझ पर समाजशास्त्रीय परिस्थितियों का गहरा असर हुआ – विशाल निःशस्त्र राष्ट्र, बेहद सुरक्षाहीन, अपने शाही जुए में जकड़ा हुआ‐ यहां तक कि अंग्रेजी संस्कृति भी, जिससे मुझे खासा अनुराग था, वहां घिनौनी लगी, क्योंकि उने उस समय के कितने ही हिंदुओं को बौद्धिक गुलामी के लिए विवश कर दिया था‐ मैं महाद्वीप के विद्रोही युवकों के बीच रहा: अपने कौंसुल रूप के बावजूद उस बड़े संघर्ष के सारे क्रांतिकारियों से मेरी मुलाकात थी जिसने अन्ततः आज़ादी हासिल की‐
‘धरती पर घर’ की कविताएं आपने भारत में लिखीं?
नेरुदा: हां, यद्यपि कविता पर भारत का बौद्धिक प्रभाव कम पड़ा‐
आर्खेतीना के एक्तोर एयांदी के नाम वे मार्मिक पत्र भी आपने भारत से लिखे थे?
नेरुदा: हां, वे मेरे जीवन के बड़े महत्त्वपूर्ण पत्र थे‐ पर उनसे मेरा लेखक के रूप में व्यक्तिगत परिचय नहीं था,फिर भी एक अच्छे समैरिटन की तरह उन्होंने मुझे समाचार, पत्रिकाएं भेजने और मेरे विराट अकेलेपन को कम करने का जिम्मा लिया‐ मुझे अपनी ही भाषा से संपर्क टूट जाने की आशंका हो गयी थी: वर्षों तक मुझे एक भी ऐसा आदमी नहीं मिला जिससे स्पानी में बात कर सकूं ‐ राफायल आलबेर्ती को मैंने एक पत्र में स्पेनी का शब्दकोष भेजने के लिए लिखा‐ मैं वहां कौंसुल के पद पर नियुक्त हुआ था, लेकिन वह निम्न श्रेणी का पद था और कोई वजीफा नहीं मिलता था‐ वहां मैं घोर ग़रीबी में रहा और उससे भी घोर अकेलेपन मे‐ हफ्तों तक किसी दूसरे प्राणी के दर्शन नहीं होते थे‐
वहां आपको खोसिये ब्लिस के साथ बहुत तगड़ा प्रेम था‐ आपकी अनेक कविताओं में उसका जिक्र है।
नेरुदा: हां, खोसिये ब्लिस एक ऐसी स्त्री थी जिसका मेरी कविता पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा‐ मैं उसका वरण करता रहा हूं: अपनी सबसे ताजा पुस्तकों में भी‐
तब तो आपके कृतित्व का आपकी व्यक्तिगत का आपकी व्यक्तिगत जि़्ान्दगी से घनिष्ठ से घनिष्ठ संबंध है?
नेरुदा: बिल्कुल‐ कविता में कवि के जीवन का प्रतिबिंब होगा ही‐ यह कला का नियम है और कविता का भी‐
आपके कृतित्व को विभिन्न चरणों में बांटा जा सकता है, या नहीं?
नेरुदा: इस बारे में मुझे खासी उलझन है‐ मुझे भिन्न चरणों का कोई अहसास नहीं है उन्हें आलोचक सोचते है‐अगर मैं कुछ कह सकता हूं तो यह कि मेरी सार्थकता में एक अवयवी गुण रहा है – जब मैं बच्चा था तो बाल-सुलभ थी, जवान था तो कैशोर्य से भरी थी, जब दुख में रहा तो उदास थी, सामाजिक संघर्ष में शरीक होना पड़ा तो युयुत्सु हुई‐ मेरी मौजूदा कविता में इन प्रवृतियों की मिली-जुली छाया है‐ मैंने हमेशा अपनी आंतरिक ज़्ारूरत से लिया है और मेरा ख्याल है कि हर लेखक के साथ ऐसा होता है‐ कवियों के साथ खास तौर पर‐
मैंने आपको कार में भी लिखते देखा है‐
नेरुदा: मैं जहां और जब भी लिख सकूं लिख देता हूं‐ पर लिखता हूँ‐
क्या आप हर चीज हाथ से लिखते हैं?
नेरुदा: एक दुर्घटना में जब मेरी एक अंगुली टूटी और कुछ महीने तक मैं टाइपराइटर पर नहीं लिख सका, तब से मैंने अपनी युवावस्था का तरीका अपनाया और हाथ से लिखना शुरू किया‐ अंगुली ठीक होने के बाद फिर से टाइप करने पर मुझे लगा कि जो कविताएं मैंने हाथ से लिखी थीं वे ज़्यादा संवेदनशील बन पड़ी थी‐ उनके लचीले फॉर्म अधिक आसानी से बदले जा सकते थे‐ रॉबर्ट ग्रेव्स ने किसी इंटरव्यू में कहा है कि चिंतन करने के लिए आदमी को अपने इर्द-गिर्द ऐसी चीजें कम से कम रखनी चाहिए जो हाथ से बनी न हो‐ वह इतना और जोड़ देते कि कविता हाथ से ही लिखनी चाहिए ‐ टाइपराइटर ने मुझे कविता के साथ एक अधिक गहरी आत्मीयता से काट दिया‐ हाथ से लिखने पर जैसे वह आत्मीयता लौट आयी‐
आपका लिखने का क्या समय है?
नेरुदा: कोई नियत समय नहीं है, लेकिन मैं सुबह लिखना ज़्यादा पसन्द करता हूँ‐ यानी कि आप अगर यहां मेरा समय और अपना भी ख़राब न कर रही होतीं तो मैं लिख रहा होता‐ दिन में मैं ज़्यादा नहीं पढ़ता‐ बल्कि मैं दिन-भर लिख सकता हूं, लेकिन अक्सर किसी विचार, किसी अभिव्यक्ति या भीतर से बहुत उत्तेजना के साथ आयी हुई किसी बात की पूर्णता – आप उसे ‘प्रेरणा’ जैसी पुरानी संज्ञा दे सकते हैं – मुझे पूरी तरह संतुष्ट कर जाती है या निचोड़कर रख देती है या शांत या खाली कर जाती है‐ मतलब यह कि मैं ज़्यादा नहीं चला पाता‐ इसके अलावा, दिन-भर लगातार मेज पर झुके रहना मुझे है-उस लेखक को, जिसके साथ पचास साल का सृजन है‐ वे कहते रहते हैं: ‘देखो, वह कैसे रहता है! समुद्र की तरफ खुलता हुआ मकान है और पीने के लिए बढि़या शराब है‐’ अव्वल तो चीले में कोई घटिया शराब पी ही नहीं सकता, क्योंकि यहां की लगभग सारी शराबें अच्छी होती हैं‐ यह एक ऐसा मसला है जो एक तरह से उजागर करता है कि हमारा देश अल्प विकसित है – कुल मिलाकर यह कि हमारे तरीके कितने सतही हैं‐ आप ही ने मुझे बताया है कि संयुक्त राज्य अमरीका की एक पत्रिका नॉर्मन मेलर को तीन लेखों के साथ नब्बे हजार डॉलर दिये‐ यहां किसी लातिन अमरीकी लेखक को अपनी रचना पर अगर इतना पारिश्रमिक मिल जाये तो इस पर प्रसन्न होने की बजाय कि किसी लेखक को इतना पैसा भी मिल सकता है, दूसरे लेखकों में विरोध की लहर फैल जायेगी: ‘कितनी घृणित है! कितना भयंकर! यह कहां तो जायेगा?’ खैर, जैसा कि मैंने कहा, ये ऐसे दुर्भाग्य हैं जो सांस्कृतिक पिछड़ेपन के नाम पर चलते रहते हूँ‐
क्या यह आरोप इसलिए ज़्यादा वजनदार नहीं है कि आप कम्युनिस्ट पार्टी में हैं?
नेरुदा: बिल्कुल‐ अनेक बार कहा गया है कि जिसके पास कुछ नहीं है, उसके पास खोने को सिवाय जंजीरों के कुछ नहीं होता‐ मेरा जीवन, मेरा व्यक्तित्व और मेरे पास जो कुछ है वह हर क्षण दांव पर लगा रहता है-मेरी किताबें, मेरा घर‐ मेरा घर जलाया गया, मुझ पर अभियोग लगाये गये मुझे एक नहीं कई बार हिरासत में रखा गया हजारों पुलिस वालों को मेरी तलाश रही‐ ठीक है फिर‐ मेरे पास जो कुछ है उसमें मुझे कोई आराम नहीं ह‐सो, जो कुछ मेरे पास है, उसे मैंने जनता को, उसके संघर्ष को सौंप दिया और यह मकान भी, जिसमें आप बैठी हुई हैं, मैंने बीस वर्ष पहले एक सार्वजनिक परवाने के ज़रिये पार्टी को दे दिया था‐ बीस साल तक वह पार्टी की सम्पत्ति रहा‐ मैं तो अपनी पार्टी की सदस्यता के चलते यहां रह रहा हूँ‐ ठीक है, मेरी भत्र्सना करने वाले भी ऐसा कर दिखायें: और कुछ नहीं तो ज़रा अपने जूते ही कहीं छोड़ दें ताकि वे किसी दूसरे को दिये जा सकें‐
आपने अनेक पुस्तक-भंडार दान किये है‐ क्या यह सच है कि इन दिनो आप ईस्ला नेग्रा में एक लेखक-बस्ती बसाने की योजना में लगे हैं?
नेरुदा: मैंने अपने देश के विश्वविद्यालय को एक से अधिक पुस्तक-भंडार भेंट किये है‐ मैं अपनी पुस्तकों से होने वाली आय पर गुजर करता हूं ‐ मेरे पास किसी किस्म की बचत नहीं है‐ हर महीने किताबों से मिलने वाले धन के अलावा और मेरे पास खर्चने के लिए भी कुछ नहीं होता‐ बहुत बाद में उस आय से मैंने समुद्र तट पर जमीन का एक बड़ा-सा टुकड़ा हासिल किया, ताकि भविष्य में लेखक वहां गर्मियां बिता सकें और असाधारण सौंदर्य के उस वातावरण में अपना रचनात्मक कार्य कर सकें ‐ इसका नाम कांतालास फाउंडेशन होगा और उसके निदेशकों में कैथलिक विश्वविद्यालय, चीले विश्वविद्यालय और सोसायटी ऑफ़ रायटर्स के लोग होंगे‐
आपके पहले संग्रहों में से एक ‘बीस प्रेम कविताएं और निराशा का एक गीत’ हजारों पाठकों द्वारा पढ़ा गया है और पढ़ा जा रहा है‐
नेरुदा: जिस संस्करण के साथ उस पुस्तक की दस लाख प्रतियों का प्रकाशन पूरा हुआ, उसकी भूमिका में मैंने कहा है कि मुझे सचमुच नहीं मालूम कि यह सब किस बारे में है – क्यों प्रेम की उदासी, प्रेम की पीड़ा की यह किताब इतने सारे लोगों, इतने युवकों द्वारा पढ़ी जाती है‐ सच, मुझे समझ में नहीं आता‐ शायद यह कई सारे रहस्यों का एक युवा अंदाज पेश करती है: शायद यह उन पहेलियों का समाधान पेश करती हो‐ यह एक शोकाकुल संग्रह है, लेकिन इसका आकर्षण पुराना नहीं पड़ा‐
आप उन कवियों में हैं जिनकी रचनाओं के सबसे अधिक अनुवाद हुए हैं – कोई तीस भाषाओं मे‐ सबसे अच्छा अनुवाद किन भाषाओं में हुआ है?
नेरुदा: मेरे विचार से इतालवी में ‐ शायद इसलिए कि दोनों भाषाओं में बहुत समानता है‐ इतालवी के अलावा मैं अंग्रेजी और फ्रांसीसी जानता हूं, लेकिन इन भाषाओं का स्पेनी से कोई तालमेल नहीं है: न उच्चारण में, न संयोजन में, न रंगत और शब्दों के वज़न मे‐
आप अपने को आसपास की चीजों से काट लेते हैं?
नेरुदा: काट लेता हूँ ‐ और फिर अगर अचानक शांति छा जाये तो मुझे बाधा-सी महसूस होती है‐
(अगली क़िस्त में समाप्य)
[कवि मंगलेश डबराल ने रीता लेवेत द्वारा लिए गए पाब्लो नेरुदा के इस इंटरव्यू का अनुवाद किया था. यह पोस्ट कबाड़खाना ब्लॉग से साभार]
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