उत्तराखण्ड के तीन जिलों – पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी – की सीमाएं चीन से लगती हैं. अस्सी के दशक तक इन तीनों जिलों में रहने वाली आबादी का नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा ग्रामीण था. ग्रामीण समाज की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि हुआ करता था और यहाँ के पूरे समाज का जंगलों से विशेष जुड़ाव रहता था. 1962 में हुए भारत-चीन साथ युद्ध से पहले इन सीमावर्ती गाँवों की आजीविका का एक अन्य आधार तिब्बत व्यापार भी हुआ करता था. तिब्बत से ऊन, हथकरघा, जड़ी-बूटी आदि का व्यापार सीमावर्ती जिलों के लोग पूरे देश भर में करते थे. यह व्यापार 1962 के युद्ध के बाद प्रतिबंधित कर दिया गया. इसके बाद इस क्षेत्र के लोग पूरी तरह कृषि और जंगलों पर ही निर्भर होने को विवश गये.
1962 के युद्ध का एक दूसरा प्रभाव यह पड़ा कि इन जिलों में अब सुरक्षा के लिहाज से सीमावर्ती गाँवों तक सड़कों का निर्माण होने लगा. 1960 से 1970 के बीच ठेकेदारी प्रथा की मदद से हिमालय के इस पूरे हिस्से में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई शुरू हो गयी. असुरक्षित विकास कार्यों का पहला प्रभाव 1970 में आई भयंकर बाढ़ के रूप में इस क्षेत्र में दिखने लगा.
साठ के इसी दशक में ठेकेदारों की नज़र हिमालय के इन जंगलों के अमूल्य वृक्षों पर भी पड़ी जिनकी औद्योगिक बाजार में बहुत अधिक मांग थी. उदाहरण के लिये चमोली में पाया जाने वाले अंगू के वृक्ष की लकड़ी से हॉकी स्टिक, क्रिकेट के बल्ले और स्टम्प, बेडमिन्टन और टेनिस के रैकेट आदि बनते थे. इसी अंगू के वृक्ष से गांव का किसान गांव का किसान अपना हल, कुदाल, खुरपी, जुआ आदि कृषि उपकरण बनाता था. किसान अंगू की पत्तियों का उपयोग मवेशियों के लिए चारे के रूप में करता था. स्थानीय किसानों से तो जंगल में अंगू के पेड़ की पत्तियाँ जमा करने पर दण्ड वसूल लिया जाता जबकि बाहरी कंपनियों को अंगू के पेड़ के जंगल काटने के ठेके मिलने लगे. स्थानीय कुटीर उद्योग के लिये अंगू की लकड़ी मिलाना एक नामुमकिन सी बात थी जबकि बड़े उद्योगों को पूरे जंगल के जंगल मिल रहे थे.
चंडीप्रसाद भट्ट ने इस बीच 1964 में ग्रामीण उद्योगों का बढ़ावा देने के लिये दशोली ग्राम स्वराज मंडल की स्थापना की. इस संस्था ने खेल के सामान, कृषि औजार स्थानीय लोगों द्वारा बनवाने का एक प्रयास किया. लेकिन वन विभाग इन्हें लकड़ी ऊँचे दामों पर उपलब्ध कराता था जबकि बाहरी कंपनियों के लिए इसके दाम बहुत सस्ते होते. परिणामतः दशोली ग्राम स्वराज मंडल का प्रयास विफल रहा. एक प्राइवेट बस कंपनी में बुकिंग क्लर्क के पद से इस्तीफ़ा देकर चंडीप्रसाद भट्ट ने इस पूरे क्षेत्र में सबसे पहले जंगलों पर स्थानीय जनता के हक़-हकूकों की लड़ाई लड़ी थी.
उत्तर प्रदेश राज्य में साठ और सत्तर का पूरा दशक राजनैतिक अस्थिरता का दशक था. अकेले 1970 से 1980 के बीच उत्तर प्रदेश में लगभग चार बार राष्ट्रपति शासन लगा था. दो दशकों तक उत्तर प्रदेश में कोई मुख्यमंत्री ऐसा नहीं रहा जिसने अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया हो. इस राजनैतिक अव्यस्था का कुप्रभाव उत्तराखण्ड में हुई जंगलों की लूट पर स्पष्ट देखने को मिलता है. इस तरह 1970 तक हिमालय इस पूरे भू-भाग में सरकार की जंगलात सम्बन्धी नीतियों को लेकर बहुत अधिक असंतोष व्याप्त था.
1971 में यह असंतोष सड़कों पर आता दिखाई देने लगा. चंडीप्रसाद भट्ट के नेतृत्व में गोपेश्वर की सड़कों पर एक विशाल विरोध-प्रदर्शन आयोजित हुआ. स्थानीय जनता की मांगों को उचित प्लेटफार्म उपलब्ध कराने के मंतव्य से जहाँ चंडीप्रसाद भट्ट दल-बल के साथ दिल्ली और लखनऊ की ओर बढ़े वहीं सुंदरलाल बहुगुणा ने हिमालय के गांवों की यात्रा शुरू की. 1972 में पुरोला क्षेत्र में सुन्दरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट और लोगायक घनश्याम रतूड़ी ‘शैलानी’ एक साथ गोपेश्वर पहुंचे. तभी से घनश्याम रतूड़ी ‘शैलानी’ के लोकगीत उत्तराखण्ड के वन आन्दोलनों के लोकगीत बन गये.
प्रोफ़ेसर खड़क सिंह वल्दिया अपनी किताब ‘हिमालय में महात्मा गांधी के सिपाही सुन्दरलाल बहुगुणा’ में लिखते हैं कि मार्च 1973 में अधिकारियों ने स्थानीय जनता के आंदोलनों की परवाह किये बगैर वनों की नीलामी कर दी. दशोली ग्राम स्वराज मंडल ने केवल पांच पेड़ मांगे थे जो उन्हें नहीं दिये गये जबकि इलाहबाद की एक कंपनी साइमंड को हजारों वृक्षों का ठेका दे दिया गया. अपनी किताब में प्रोफ़ेसर खड़क सिंह वल्दिया ने बताया है कि केदारनाथ घाटी के रामपुर-फाटा वनों से पेड़ काटने का ठेका भी साइमंड कंपनी को ही मिला. तेज बारिश के बावजूद सारे गाड़ गधेरों के पेड़ों पर स्थानीय लोग चिपके हुये थे. कंपनी के ठेकेदार ने साजिश रचते हुये देहरादून की एक कंपनी के साथ मिलकर उसके कर्मचारी और कुछ भाड़े के लोगों के साथ एक फर्जी जुलूस निकाला. ये लोग जनता को सुना-सुनाकर कहा करते – “हम तो घूस खा चुके हैं अब केदार घाटी के लोग भी घूस मांग रहे हैं!” जब बात इससे से भी न बनी तो दूसरी चाल चली गई और मनोरंजन से नितांत वंचित जनता से कहा गया कि गुप्तकाशी में मुफ्त में फिल्म दिखायी जा रही है जब जनता वहां गयी तो ठेकेदार ने अपने आदमियों को जंगल में प्रविष्ट करा दिया. यह प्रयास भी विफल रहा.
सुन्दरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट के इन प्रयासों की सरकारी महकमों में खिल्ली उड़ाई जाती. बड़े-बड़े अफ़सर उनके द्वारा आन्दोलन में अपनी बात रखने के नये-नए तरीकों पर तो लखनऊ के आफिसों में रोज ठहाके लगाते थे. जब गोपेश्वर में सुन्दरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट के साथ घनश्याम रतूड़ी ‘शैलानी’ ने बस की छत पर बैठकर हारमोनियम के साथ बस अड्डे पर वन लोकगीत गाया तो लखनऊ में खूब ठहाके लगे. जबकि घनश्याम रतूड़ी ‘शैलानी’ का जनगीत ‘खड़ा उठा भैं बंधु सब कठा होला’ गोपेश्वर जनता की जुबान पर चढ़ गया. अब आन्दोलन पहाड़ों के घर घर तक पहुंच गया था.
इस बीच चंडीप्रसाद भट्ट ने गांवों में जागृति हेतु मंगल दलों के गठन की शुरुआत कर दी. 1972 में गौरा देवी को रैणी गांव के महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया. चमोली जिले के लाता गांव के मारछा जनजाति के एक परिवार में नारायण सिंह के घर में 1925 में गौरा देवी का जन्म हुआ था. मात्र 12 साल की उम्र में गौरा का विवाह रैणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ. रैणी वहां बसने वाली तोलछा जनजाति का स्थायी आवासीय गांव था. इस गांव के लोग अपनी गुजर-बसर के लिये पशुपालन, ऊनी कारोबार और खेती-बाड़ी किया करते थे. 22 साल को उम्र में गौरा देवी पति की मृत्यु हो गयी. तब उनका बेटा चन्द्र सिंह ढाई साल का था. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी शुरू की. मंगल दल की अध्यक्ष बनने पर वह इसी दौरान चण्डी प्रसाद भट्ट, गोबिन्द सिंह रावत, वासवानन्द नौटियाल और हयात सिंह जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आईं.
जनवरी 1974 में काटने की नीयत से रैणी गांव के 2451 पेड़ों का छपान हुआ. जब ठेकेदार कुल्हाड़ों को साथ लेकर गांव पहुंचा तो गांव के सभी लोग जिनमें औरतें और बच्चे शामिल थे, इस अमानवीय हरकत को रोकने के लिए पेड़ों से चिपक गये. 23 मार्च को रैणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ. इस रैली में रैणी गांव का नेतृत्व गौरा देवी ने किया.
इसके बाद पेड़ काटने वाले सभी स्थानीय कुल्हाड़ों ने रैणी गांव जाने से इनकार कर दिया. रैणी गांव में कटान को लेकर ठेकेदार और अधिकारियों ने एक साजिश रची. रैणी गांव और इसके आस-पास के सभी गांवों के लोगों को प्रशासन ने सूचना दी कि नीलामी स्थगित कर गयी है क्योंकि सरकार 1962 के चीन युद्ध के दौरान सेना द्वारा अधिकृत जमीन और उसके बाद बनी सड़कों का हर्जाना दे रही है इसलिये परिवार के मुखिया गोपेश्वर आकर अपना हर्जाना ले जायें. क्योंकि गांव में परिवार का मुखिया पुरुष होता है इस लिहाज से एक निश्चित तारीख को गांव के सभी पुरुष गांव से बाहर हो गये.
इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने वाले ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि 26 मार्च को वे अपने मजदूरों को लाकर चुपचाप रैणी जंगल के पेड़ों को काट ले. ठेकेदार बाहरी कुल्हाड़ों के साथ चुपचाप रैणी जंगल की ओर निकल पड़े. रैणी से पहले ही नीचे उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुए गाँव की तरफ जाते ठेकेदार के आदमियों द्वारा गुप्त रूप से की जा रही इस हलचल को एक छोटी लड़की ने देख लिया. इस बात को उसने तुरंत गाँव जाकर गौरा देवी को बता दिया. उस समय गांव में केवल 21 महिलायें और कुछ बच्चे थे. गौरा देवी इन सभी को लेकर जंगल की ओर चल पडीं. इनमें तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, पासा देवी, रुक्का देवी और रुपसा देवी शामिल थीं. गौरा देवी इन का नेतृत्व कर रही थी.
ठेकेदार के कुछ आदमी इस समय जंगल में बैठकर खाना खा रहे थे जबकि कुछ आदमी अपने औजारों की धार तेज कर रहे थे. खाना बना रहे मजदूरों से गौरा देवी ने कहा “भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है. इससे हमें जड़ी-बूटी, फल- सब्जी और लकड़ी मिलती है. जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी. हमारे बगड़ बह जायेंगे. आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो. जब हमारे मर्द आ जायें तब फैसला कर लेंगे.” इस पर ठेकेदार और जंगलात के आदमियों ने उन्हें डराना-धमकाना शुरू कर दिया और काम में बाधा डालने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार करने तक की भी धमकी भी दे डाली. जब डराने-धमकाने से बात न बनी तो ठेकेदार ने बंदूक निकाल ली. गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा “पहले मुझे गोली मारो फिर काट लो हमारा मायका!”
इस पर मजदूर और सहम गये. इसके बाद गौरा देवी और अन्य महिलायें पेड़ों से चिपक गई और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो. घंटों इंतजार के बाद ठेकेदार और उसके आदमियों ने हार मान ली और जंगल से चले गये. उनके रात के अँधेरे में दुबारा न आ जाने के डर से गौरा देवी और अन्य महिलाओं ने रात भर जंगलों की चौकीदारी की. जब यह खबर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर फैली तो रैणी गांव की गौरा देवी से चिपको वूमेन ऑफ़ इण्डिया कहा गया.
चिपको आंदोलन पर मशहूर विद्वान और इतिहासविद रामचंद्र गुहा की एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘द अनक्वायट वुड्स’ (The Unquiet Woods ) है. गुहा ने अपने अध्ययन में बताया है कि उत्तराखंड में विशिष्ट समाजशास्त्रीय प्रणाली और आन्दोलन के इतिहास ने कैसे चिपको जैसे समकालीन सामाजिक आन्दोलन को प्रभावित किया है.
इस वर्ष गूगल ने चिपको आन्दोलन के 45 साल पूरे होने पर डूडल बनाकर लिखा कि यह एक ‘ईको-फेमिनिस्ट’ आंदोलन था जिसका पूरा ताना-बाना महिलाओं ने ही बुना था. सामाजिक कार्यकर्ता वंदना शिवा ने अपनी चर्चित किताब ‘स्टेइंग अलाइव: वीमेन इकोलॉजी एंड सर्वाइवल इन इंडिया’ में चिपको आंदोलन के इस पहलू पर विचार किया है कि हालिया चिपको आंदोलन को प्रमुखतः महिलाओं का आंदोलन कहा जाता है इसके बावजूद इसकी चर्चा में सिर्फ पुरुष कार्यकर्ताओं के नाम ही सामने आते हैं. इस आंदोलन में महिलाओं के योगदान को नज़रंदाज़ किया गया और इस पर कम ही चर्चा हुई. जबकि चिपको का इतिहास असल में बेहद साहसी महिलाओं के संकल्प और प्रयासों का इतिहास है.
चिपको आन्दोलन की परोक्ष शुरुआत भारत में उत्तराखण्ड के बजाय तीन सौ साल पहले राजस्थान में हुये खेजड़ली आन्दोलन से भी मानी जा सकती है. सन् 1730 में जोधपुर के राजा अभयसिंह ने महल बनवाने का निश्चय किया. नया महल बनाने के कार्य में सबसे पहले चूने की आवश्यकता हुई तो चूना जलाने के लिये चूने का भट्टा बनाया गया जिसमें ईंधन के रूप में लकड़ी का प्रयोग किया जाना था. राजा ने अपने मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को लकड़ियों की व्यवस्था करने का आदेश दिया. मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने महल से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित खेजड़ली गांव से लकड़ी की व्यवस्था का निश्चय किया. उसने राजा को सलाह दी कि पड़ोस के गांव खेजड़ली में खेजड़ी के बहुत पेड़ है, वहां से लकड़ी मंगवाने पर चूना पकाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. इसपर राजा ने भी सहमति व्यक्त कर दी.
खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे. बिश्नोई समाज पर्यवारण से अपने लगाव के लिये जाना जाता था. इस समय वहां कृषि और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करने वाली 42 वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां आसु, रतनी, भागु बाई और पति रामू खोड़ भी रहते थे. अमृता देवी ने मंत्री गिरधारी दास भण्डारी का कड़ा विरोध करते हुये कहा कि खेजड़ी का पेड़ उनके परिवार का सदस्य है और उनका भाई है क्योंकि हर साल वह उसे राखी बांधती हैं. पहले तो मंत्री और कर्मचारी चले गये लेकिन बाद में मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने वापस लौट कर अमृता के परिवार को रिश्वत देने की कोशिश की. जब रिश्वत की बात आई तो अमृता देवी ने खेजड़ी के पेड़ को दोनों हाथों से थामकर कहा “सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण”. अगले ही पल मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने पूरे परिवार का धड़ जमीन में गिरा दिया.
इसके विरोध में 84 गांव के लोगों ने खेजड़ी के पेड़ों का आलिंगन कर लिया. मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने एक के बाद एक 363 लोगों के धड़ उनके शरीर से अलग कर दिये. इसमें 71 महिलायें और 292 पुरुष शामिल थे. 21 सितम्बर 1730 का यह दिन आज भी विश्व में पहले पर्यावरण आन्दोलन के रूप में जाना जाता है.
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बहुत शानदार लेख। आज हम जाे वन देख रहे एेसे ही प्रकृतिप्रेमियाें की वदाैलत हैं , जाे प्राणाें की परवाह किए बिना वनाें काे बचाने की मुहिम में जुटे रहे। जंगलाें की आग एक भीषण समस्या वन चुकी है। वन विभाग का काेई वास्ता नही। लाखाें पेड़, पाैधे, पशु, पक्षी आग की भेंट चढ़ रहे है पर सरकार के कानाें में जू नही रैगती है।
बहुत शानदार व प्रेरणा दायक। आज वन जितने भी बचे हैं । ऐसे ही कर्म याेगियाें की बदाैलत है। खेजड़ी गांव की गाथा ह्रदय विदारक है। आज जंगल की आग लाखाें नन्हे पेड़ पाैधाें, पशु पक्षियाें की जान लील रही है। एक पीड़ी ही खत्म हाे जा रही है। वन विभाग, अपने आप काे वनाें का संरक्षक मानता है उसी के सामने जंगलाें का अस्तित्व मिट रहा वह है कि आंख मूदे खड़ा है। बर्षात आरंभ हाेते ही वृक्षाराेपण का नाटक आरंभ हाे जायेगा। वृक्षाराेपण की आड़ में कराेड़ाे का वारा-न्यारा हाेगा। उनका क्या जिनकी एक पीड़ी ही आग में समा गई। अच्छा हुआ आप वन विभाग में नही गये।