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गुर्जी अगर सँभलोगे नहीं तो ऐसे गिर पड़ोगे – हलवाहे राम और लेक्चरार साब की नशीली दास्तान

दोनों में अटूट दोस्ती थी. कुछ ऐसी कि, लंबे समय तक इस दोस्ती ने खूब सुर्खियाँ बटोरी. दोनों के घर आस-पास ही थे. एकदम निकट पड़ोसी समझ लीजिए. उनमें से एक, पूरे गाँव-जवार में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे, बहुत बड़े लेक्चरार. तो दूसरे, बिल्कुल निरक्षर . ओना मासी हराम, पेशे से हलवाहे. ट्रैक रिकॉर्ड के हिसाब से, यह दोस्ती बिल्कुल बेमेल सी लगती थी. एकदम राजा भोज और गंगू तेली जैसी जोड़ी.

शाम होते ही दोनों घर से निकल पड़ते. घर पर टिकते ही नहीं थे, उनसे रहा ही नहीं जाता था. एकदम अधीर से हो उठते. लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे. कयास लगाते रहते थे. जैसे ही यह जोड़ी घर से निकलती, सब की नजर उन पर टिककर रह जाती. ज्यों ही वे सज-सँवरकर घर से निकलते, ईर्ष्यालु लोग बेचैन होकर रह जाते. तरह-तरह से भेद लेने की कोशिश करते थे. ‘किस काम के लिए जा रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं’ जैसी उत्कण्ठा. आभास उन्हें लग ही जाता था. हृदय में उत्साह और उनके चेहरे की चमक उनकी साफ-साफ चुगली सी करती थी. अपनी बाँकी चाल से दोनों एकदम पकड़ में आ जाते. मस्तानी चाल, एकदम जवाँमर्द की तरह. कोई बात, अगर व्यवहार से अलग दिख रही हो, तो उसके पीछे कोई-न-कोई कारण तो होगा ही.

खैर शाम होते ही, दोनों जिंदगी के असली मकसद की तलाश में घर से निकल पड़ते थे. दिन भर बैठे-बैठे ऊब जाते. जड़ता या एकरसता घर करने लगती थी. ‘मोनोटोनी’ से निजात पाना बेहद जरूरी जान पड़ता था. दोनों खुसर- पुसर बातें करते, निहायत संगीन और गोपनीय बातें. लेक्चरार साहब, स्कूटर स्टार्ट करते और हलवाहे राम, झट से पीछे की सीट पर कूद पड़ते. हलवाहे राम को वे स्कूटर पर लादते और निकल पड़ते, मंजिले-मकसूद की तरफ.

धीरे धीरे यह बात जगजाहिर होती चली गई कि, धुँधलका होते ही, दोनों ठेके पर जाते हैं. मूड बनाते हैं या गम गलत करते हैं. किस नीयत से जाते हैं, दोनों में से क्या करते हैं, निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता था. अनुमान इसी के आसपास रहता था. तो खबर आम हो गई कि, दोनों दोस्त साझेदारी में नशाखोरी करते हैं.

लेक्चरार साहब, आदमी तुनकमिजाज थे. स्वभाव के बेहद गरम. इसलिए हमेशा गरमागरम बहस करते थे. इंग्लिश पीने के बाद, विशुद्ध इंग्लिश बोलते थे, लहजा एकदम विक्टोरियन ऐक्सेण्ट वाली इंग्लिश का. दुनिया में कुछ ऐसे ज्ञानी लोग भी पाए जाते हैं, जिनकी प्रतिभा हमेशा उफनाती रहती है. ज्ञान बाँटे बिना उनका मन नहीं मानता, जी मचलता रहता है. देश-देशांतर के ज्वलंत मुद्दों पर बहस किए बिना हाजमा ठीक नहीं रहता. ज्ञान बाँटना शुरू करते हैं, तो फिर थामें नहीं थमते. सुनाते-सुनाते पका डालते हैं. दिमाग का दही कर देते हैं. मगज बिल्कुल ही चौपट कर डालते हैं. ऊपर से इस बात की दाद भी लेना चाहते हैं. दाद न दी तो श्रोता के प्राण लेने पर उतारू हो उठते हैं. तो इस बात से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि, लेक्चरार साहब इंग्लिश पीने के बाद क्या- क्या कहर ढाते होंगे. सोचकर ही लोग घबराने लगते थे. जब होशो हवास में रहते, तो लोग उनसे छिटका करते थे. सुरक्षित दूरी बनाकर चलते. दूर-दूर से ही दुआ-सलाम करते . नमस्कार करके यकायक फरार हो जाते . देखते-देखते एकदम अदृश्य. हरदम भय लगा रहता था कि, कहीं कुछ पूछ न बैठें. ऐसा न हो कि, पकड़कर सीधे ज्ञान बाँटने लगें. उन्हें देखते ही लोग ‘अपनी जान अपने हाथ, समझदारी में ही भलाई है.’ जैसे सिद्धांतों पर गंभीरता से अमल करने लगते थे.

हैरतअंगेज बात यह थी कि, ठेके पर बैठते ही दोनों दोस्त मीठी-मीठी बातें करते थे. अभिव्यक्ति प्रखर होते ही, लेक्चरार साहब उच्च सदन में दी जाने लायक दलीलें देने लगते थे. जोरदार तर्क देते, वो भी फर्राटेदार अंग्रेजी में. हलवाहे राम से उनकी मैत्री थी. यह संबंध काफी समय से बना हुआ था, इसलिए अबतक काफी दृढता ले चुका था. इस संबंध में कभी विकार नहीं आया. सदा मित्र बने रहे. इस मैत्री को वे खोना नहीं चाहते थे, इसलिए बहस के दौरान उनका स्वर अवश्य कुछ नीचे रहता था, किंतु भाव तनिक भी नहीं बदलता था. हलवाहे राम इत्मीनान से परिचर्चा सुनते थे. मुग्ध होकर, हाँ-हाँ करते. सिर हिला-हिलाकर हामी भरते . भरपूर दाद देते . चाहे कितने भी नशे में रहे हों, उसने उनके आदर मे कभी कमी नहीं आने दी.

सवाल उठना लाजिमी है कि, हलवाहे राम विक्टोरियन इंग्लिश कैसे समझते थे. तो इसका सीधा सा जवाब है कि, उत्तर भारतीय सिने प्रेमी, डच, स्वीडिश, फ्रेंच या उड़िया सिनेमा को कैसे समझ लेते हैं. पूरा-का-पूरा न समझें, मूल भाव तो पकड़ ही लेते हैं. तो हलवाहे राम, हाव-भाव-भंगिमा से अनुमान भर लगाते थे. मात्र आभास और अनुमान के सहारे वे मुद्दों को पकड़ने की कोशिश करते थे. कई बार असहमति भी जताते थे, कड़ा विरोध दर्ज करने लगते थे. दबते बिलकुल नहीं थे. असहमति के मुद्दों पर, कुछेक मौकों पर तो लेक्चरार साहब को झिड़क भी देते थे.

यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है कि, भीड़ में प्रभावशाली वक्ता को लोग गौर से सुनते हैं. विक्टोरियन अंग्रेजी, वो भी बहुत अच्छे लहजे में हो, तो अंग्रेजी न समझने वाले लोग भी इस प्रभाव की चपेट में आए बिना नहीं रहते. एकाध कायदे की बात भी कही गई हो, तो फिर क्या कहने. ऑडियंस की नजर में, उस वक्ता को स्टार होने से कोई नहीं रोक सकता. इस सिद्धांत के बरक्स एक प्रति-सिद्धांत भी पाया जाता है. इस सिद्धांत के अनुसार, वक्ता के विरोध में अगर कोई कुछ भी कहे. तो लोग उस दिशा में, जहाँ से आवाज बुलंद हुई हो, अचरज से देखने लगते हैं. गौर से देखते हैं कि, यह पहुँचा हुआ आदमी, आखिर है कौन. जो इतने बड़े आदमी की बात काट रहा है. जो सिरे से बात काट रहा है, तो होगा तो वो भी कम नहीं. इससे ऊँचे दिमाग वाला ही होगा. नहीं तो, इतने ज्ञानी आदमी का बयाना भला क्यों लेता. कुल मिलाकर, उसकी उत्तेजना देखकर, उसके हाथ-पाँव हिलाते हुए शोर को सुनकर, अर्थ जाने बिना ही, आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि, अगर इसकी बात में वजन न होता, तो इतने भारी डिस्कशन में, ये भला क्यों कूदता. हो-न-हो, आदमी ये ज्यादा गहरा है और बातें इसकी इससे भी ज्यादा गहरी. वो तो कमी हम लोगों की समझ की है, जो बात हमारे पल्ले नहीं पड़ रही है. तो दोस्ताना, दोनों का पक्का रहा. हमेशा एक दूसरे के काम आते थे. तीज-त्यौहार, सुख-दुःख, हारी-दुखारी में साथ-साथ देखे जाते.

उनके ठेके पर पहुँचते ही भंभड़ मच जाता. उनकी टेबल पर ‘खास वेटर’ ही सर्विस देते थे और सर्विस करते हुए ‘एक्स्ट्रा कॉशस’ रहते . आसपास मौजूदा लोग उनकी टेबल को आँख फाड़- फाड़कर देखते रहते. तो क्रमशः दोनों, ज्ञानी और गंभीर माने जाने लगे. उनके दर्शन मात्र से, बेवड़ों की आँखों में एक अलौकिक सा श्रद्धा- भाव चमकने लगता था. अच्छी संगत के कई लाभ गिनाए जाते हैं. तो इस दोस्ती में फँसकर, हलवाहे राम का लेबल, यकायक बहुत ऊपर उठ गया. ज्ञान-वृद्धि और अनुभव-संचय साथ-साथ. डबल मजा. देशाटन भी और रोमांच भी. देखते-देखते वह किसी भी मुद्दे पर राय देने के काबिल माना जाने लगा. किसी भी ‘बर्निंग टॉपिक’ पर बेबाक राय रखने के काबिल. हर जानकारी में वह ‘स्वयं घोड़े के मुख से सुनी हैं’ बोलने की स्थिति में रहता था.

बाहर निकलते तो दोनों प्राणी अक्सर ‘गुच्च’ अवस्था में रहते थे. डगमगाते हुए बाहर निकलते. गुरुजी स्कूटर स्टार्ट करते. पार्टनर को सजग और सचेत होकर बैठने को कहते. हिदायत देना न भूलते, “डोंट फॉल, सिट कॉशियसली, बी केयरफुल.” निर्देश मानकर वह सटकर बैठ जाता. अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए, गुर्जी को एकदम जकड़कर पकड़े रहता. जिस पद्धति से कुछेक नव दंपत्ति भयवश अथवा अतिरिक्त प्रेम दर्शाने के इरादे से दुपहिया पर सवार होते हैं. तो शान से सवारी, लहराते-बलखाते ऐन घर के दुआरे उतरती थी.

एक रोज गजब का वाकया हुआ. शाम ढले जब घर से निकले, तो रास्ता एकदम साफ था. कहने की जरूरत नहीं है कि, जब वापसी में थे, तो दोनों परमहंसों की अवस्था में थे. रथी-सारथी दोनों समान स्तर को प्राप्त हो चुके थे. स्कूटर पूरी स्पीड से झोंकमझोंक दौड़ा चला जा रहा था. एक स्थान पर सड़क के बीचोंबीच रोड़ी-बजरी का टीला सा बना हुआ था. भवन-निर्माता अक्सर ऐसा करते हैं. स्थापत्य-कला का शौक, अपनी जगह बहुत ऊँचा शौक है. स्थानीय स्तर के निर्माता तो गजब के चमत्कार दिखाते हैं. निर्माण-सामग्री रातोंरात सड़क को घेर लेती है. राहगीर, इनारे-किनारे से बचकर निकलते हैं. उन्हें सहज ही ज्ञान हो जाता है कि, हो-ना-हो आसपास किसी इमारत की तामीर होने जा रही है. तो अभिन्न मित्रों को इस बात की जानकारी नहीं थी. उन्होंने तो जाते हुए, बस समतल-सपाट सड़क देखी थी और उसी का अनुमान लिए चले आ रहे थे. संप्रति, अवस्था भी उच्चतर ही थी. हेडलाइट की रोशनी में कुछ-न-कुछ तो दिखाई ही दिया होगा, लेकिन उस समय वे जिस अवस्था में थे, उसमें ऐसी बातों को नजरअंदाज किए जाने का रिवाज रहता है. नतीजन, स्कूटर टीले के बीच बीचो-बीच जाकर फँस गया. फिर घर्र-घर्र करते हुए दम छोड़ गया और अविचल भाव से शांत हो गया. एकदम चक्का जाम. सवार ऊपर ही थे. काफी देर तक वे मूर्तिवत् खड़े रहे. उन्होंने हिलने-डुलने की कोशिश तक नहीं की. शायद उसी अवस्था में पूर्णानंद को प्राप्त हो रहे थे. तभी नाइट- ड्यूटी से लौटते किसी सज्जन की उन पर नजर पड़ी. दूर से उसने यह दृश्य देखा तो, उसे चौराहे पर प्रतिष्ठित मूर्ति जैसा दिखाई पड़ा. उसे आश्चर्य हुआ, कल तो ऐसा नहीं था.नजदीक जाकर देखा, तो उसका आश्चर्य बढ़ गया. वह अवाक् होकर रह गया. अभी तक उसने जो मूर्तियाँ देखी थी, उसमें घोड़ा होता था और उसके ऊपर घुड़सवार. पैटर्न यही रहता था, लेकिन यहाँ पर स्थिति बड़ी विचित्र थी. घोड़े की जगह स्कूटर था और महापुरुष के स्थान पर दो-दो सवार. वो भी अपनी ही जान पहचान के.

यह लापरवाही का नतीजा नहीं था. सवार निर्भीक थे, एकदम शेरदिल. उड़ता तीर लेने के शौकीन. फिर अपने पर भरोसा कुछ ज्यादा ही करते थे. तो आँख मूँदकर विश्वास करने का यही हश्र होना था. जैसे-तैसे वहाँ से मुक्त हुए. सीमेंट का ढेर होता और वर्षा ऋतु का संयोग मिल गया होता, तो ‘सचमुच का स्टेच्यू’ बनने में देर नहीं थी.

मध्य रात्रि में दोनों ने सौगंध उठाई कि, अब वहाँ नहीं जाएंगे. पूर्व में भी हलफ़ उठा-उठाकर, कई-कई बार इस तरह की सौगंध उठाई गई थी. कई संधियाँ की गई. नतीजा सामने था. लेक्चरार साहब, हर बात का औचित्य साबित करना जानते थे. पुराणों की एक कथा अक्सर सुनाते थे, जिसके अनुसार, “देवराज इंद्र ने भी तो सौगंध उठाई थी. उसके बावजूद उन्होंने वृत्रासुर को मारा कि नहीं. वृत्रासुर उनके कहने में आ गया और बेमौत मारा गया. अगर देवराज इंद्र ऐसा नहीं करते, तो देवताओं को भागते जगह नहीं मिलती. तो हम किस खेत की मूली है. कसमे-वादों को दरकिनार करना, हमारी सनातन संस्कृति का हिस्सा है. हम उसकी उपेक्षा कैसे कर सकते हैं.” हलवाहे राम बिल्कुल भी उज्र नहीं करते थे. झट से इस बात को मान जाते.

गुर्जी, मोरंग के ढेर पर गिरे नहीं, आश्चर्य की बात थी. उससे भी बढ़कर आश्चर्य की बात थी, उनकी स्कूटर- चालन-क्षमता. जो ड्राइवरों के बीच, ईर्ष्या का विषय बन चुकी थी. उनके बारे में प्रसिद्ध था कि, वे कितने भी नशे में हों, चाहे, परम तुरीयावस्था में हों. खटिया पे लेटने लायक हो जाएँ.अपने पैरों पर खड़ा होना, नामुमकिन की हद तक मुश्किल हो गया हो. बस एक बार, किसी तरह हैंडल तक पहुँच जाएँ, फिर उन्हें घर पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता था. एक बार कमान अपने हाथों में जो ले लेते, तो मंजिल तक पहुँचकर ही दम साधते थे. हैंडल पर लटककर, झूलते- झूमते, बड़े-बड़े मोड़ काटते, गड्डी दुआरे पर जाकर ही रुकती थी. संक्षेप में, एकबार स्टेयरिंग जो पकड़ लेते, तो स्वचालित ढ़ंग से घर पहुँच जाते थे. उनकी इस दक्षता को स्थानीय संस्करणों में, विभिन्न पाठ्यांतरों के साथ, मौके की नजाकत के हिसाब से, थोड़े बहुत रद्दोबदल के साथ, चौंकाने वाली घटनाओं, हैरतअंगेज हरकतों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था.

तो वह आमोद-स्थल उन्होंने छोड़ दिया. इस घटना के कारण नहीं, सुविधा की दृष्टि से छोड़ा था. नजदीक ही कोई ठीया खोज लिया गया . शाम ढलते ही, दोनों पाँव-पैदल निकल पड़ते. चाल-ढ़ाल से राहगीरों को ऐसा जताते, मानो ‘अब हम बिल्कुल बदल गए हैं. अब हम वहाँ नहीं जाते. हम तो बस टहल रहे हैं, जस्ट ईवनिंग वॉक.’

तो नया आमोद-स्थल नजदीक ही निकला. नया समाज जुड़ने में कितनी देर थी. खूब चहल-पहल मची रहती. वहाँ की ऑडिएंस के तो मानों भाग ही खुल गए.गुर्जी का व्याख्यान उफान पर रहता था. ज्यादा उमंग में रहते, तो ज्यादा खेंच जाते थे. कई बार ‘फुल्टू होकर’ बेंच के नीचे पहुँच जाते. चर्चा के मध्य में वे सहसा जोरदार दलीलें देने लगते और व्यक्तिगत धरातल पर, धरातल पर उतर पड़ते. व्याख्यानमाला रुकती नहीं थी, धुआँधार जारी रहती. बेंच के नीचे से तकरीर चलती रहती थी. वैसे भी, बेंच के नीचे से व्याख्यान देने पर कोई रोक-टोक तो थी नहीं. वाक्-अभिव्यक्ति उफनाकर सामने आने लगती थी. शानदार लहजे में, उनकी बातें ज्यादा ही मोहक लगने लगती थी. ‘ग्रास रूट लेवल’ की बातें, एकदम धरातल से जुड़कर आ रही हों, तो ऐसा क्यों न लगता भला. श्रोता एकदम से गदगद हो जाते, उश्-उश् कर बैठते. उनका पार्टनर, उस अवस्था में भी उनके प्रति अत्यंत सम्मान की भावना दिखाता था. तरह-तरह के हाव-भाव से उनका उत्साहवर्धन करता रहता. बड़ा दिलचस्प नजारा रहता था. शीघ्र ही, नए समाज पर उनकी धाक जमती चली गई.

सुनने में अजीब सा लग सकता है, लेकिन इस बात में काफी हद तक सच्चाई थी. तो गुर्जी जी ने, चर्चा की गंभीरता और संवेदनशीलता का स्तर कभी नहीं गिरने दिया. खुद का स्तर चाहे कितना भी ‘सरेंडर’ करना पड़ा हो, कभी समझौता नहीं किया. दरअसल, उनके मन में कोई खोट नहीं था. आदमी, वे दिल के साफ थे. नहीं तो इतनी खरी और बेलाग बातें क्यों बोलते. तो दोनों में खूब पटती थी. आए दिन बैठक जमती. उच्च धरातल से निम्न धरातल तक विभिन्न स्तरों पर बहस चलती रहती. जोरदार तस्करे के बाद वे सहसा शांत हो जाते और मौके पर ही प्रगाढ़ नींद लेने लगते थे. सोचने की बात है कि, निश्चिंत होकर कितने लोग सो पाते हैं. ऐसा तो वही कर पाएगा, जिसके मन में न कोई चिंता हो, न कोई विकार. तो गुर्जी, निर्विकार भाव से सोए रहते थे. बीच-बीच में चौंकते हुए- ‘यू डोण्ट नो मी, हू आई एम’ का जयकारा जरुर लगाते थे. पार्टनर उनके चेहरे का भोलापन, मासूमियत देख- देखकर निहाल हो उठता. उनके नीचे जाने पर, वह तनिक भी विचलित नहीं होता था. वह सच्चा दोस्त था. लोग लाख दावा करें, वादा, निभाते ही कितने हैं. सचमुच सहायता का क्षण आए, तो बहाना ढूँढने लगते हैं. कटने लगते हैं. अवाल- बवाल से साफ-साफ बचना चाहते हैं. हलवाहे राम उनमें से नहीं थे. वे उनके सहयोगी ही नहीं, सहभागी भी थे. अभिन्न मित्र थे, संकट में सदा सहायक. शास्त्रों में मित्र का महिमा- कीर्तन किया जाता है- ‘एक साथ, सात कदम चलने से मित्रता पनपने लगती है और सात वाक्य कहने से तो दोस्ती प्रगाढ़ होने लगती है.’ इनका तो लंबा याराना था. उनसे कितनी ही ज्ञान की बातें सुनी थी. बहुत धैर्य के साथ सुनी थी. ‘मोहरबंद मैत्री’ के लिए इतना काफी था. और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं थी. तो सुषुप्त गुर्जी को, पार्टनर रक्षा-पूर्वक गोद में उठाता और घर के लिए निकल पड़ता. अंधेरे रास्ते में बेखौफ होकर, वह गुर्जी को ले आता. गुर्जी, गोद में पड़े रहते थे- निश्चल निर्विकार. दरवज्जे तक पहुँचते ही, हलवाहा राम यकायक सतर्क हो जाता.

‘गुर्जी को इस हालत में देखकर, घरवाले क्या सोचेंगे. संगति-दोष का उलाहना दे सकते हैं. छवि पर, प्रश्नचिह्न लगा सकतेहैं. शक जाहिर कर सकते हैं.’ घबराहट में किस्म-किस्म के अनगिनत सवाल उठते लगते. तो वो, बिना आवाज किए, फाटक खोलता था, पैर से धक्का देकर. चोरों की तरह दबे पाँव आगे बढ़ता. कई तरह के सवालात मन में उठते. वह भलीभाँति जानता था कि, मदद करके, सेंटा क्लाज चुपचाप खिसक लेता था. मददगार को ज्यादा देर तक, मौके पर टिकना नहीं चाहिए- ‘नेकी कर दरिया में डाल.’ तो गुर्जी को धरोहर के रूप में छोड़कर चुपचाप निकल पड़ना सबसे ज्यादा निरापद था. तनिक भी खटका हुआ नहीं कि, घरवाले कोहराम मचाए बिना नहीं मानेंगे. फलस्वरूप, उनकी दोस्ती के दरमियान पहरा बिठा देंगे. दुश्मनों का क्या, वे तो पहले से ही जले-भुने बैठे हैं. बकते हैं कि, ये दोस्ती बेमेल है. सब जलते हैं. वो स्साले क्या जाने कि, दोस्ती में चालाकी और कमीनापन का सिक्का नहीं चलता. दोस्ती में दिल देखा जाता है, दिल. कलेजा बड़ा करना पड़ता है. कुर्बानी देनी होती है. मौके पर निभाना पड़ता है. साथ देना पड़ता है. बड़े आए पढ़े- लिखे.’ ऐसी हालत में रुकना उचित नहीं जान पड़ता था. गुर्जी के मौजूदा हालात के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा, जो साथ में हो. उसे ही पकड़ा जाता है, जो मौका-ए-वारदात पर मिले. ‘कारण’ बनने से अच्छा है, वहाँ से फौरन अंतर्धान हो जाओ. एकदम अदृश्य. आपका नामोनिशान तक नहीं दिखना चाहिए. किसी तरह का सोच-विचार किए बिना चुपचाप निकल जाना चाहिए. पीछे मुड़, तेज चल वाली चाल. आप मौके पर दिखे नहीं कि, कार्य-कारण संबंध बनने में देर नहीं लगेगी. आप लाख मददगार हों, कसूरवार आप ही मान लिए जाएँगे.

काफी सोच-विचार के बाद, वह चुपचाप गुर्जी को गोद से उतारकर, दरवाजे से टिका देता था. देखभाल कर, हिफाजत से खड़ा करता . इस एंगल से कि, घर में कोई भी बाहर निकले तो, उसकी नजर पहलेपहल गुर्जी पर पड़े. फिर ‘धरोहर’ छोड़कर, वहाँ से झटपट निकल पड़ता. पंजों के बल, किसी किस्म की आहट किए बिना, सेकेंडों में नदारद.

कुछ समय बाद वो ठीया भी बंद हो गया. संचालक ने निजी कारणों का हवाला दिया, लेकिन सभी जानते थे कि, कारण सार्वजनिक थे, जिसके मूल में वैधानिक अड़चनें कुछ ज्यादा ही मालूम होती थी. तो हलवाहे राम ने कोई नवीन युक्ति खोज निकाली. अब एक चक्की पर महफिल जमने लगी. चक्की थोड़ा सा कोने की तरफ पड़ती थी, लगभग निर्जन स्थान पर. जिसके नीचे की तरफ, कुछ टेरेसनुमा खेत पड़ते थे. अंधेरा होते ही, चक्की-संचालक अपना कारोबार समेट लेता था. उसका वसूल हो जाता था, ज्यादा कि उसे चाह नहीं थी. हलवाहे राम की उससे गहरी जान-पहचान निकलती थी. कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि, उनकी गहरी छनती थी. इस समीकरण के नाते, कभी- कभार, जफड़ी वहीं पर जम जाती. समाजी ही दो ही होते थे, चिर-समाजी. तो एक पहर के लिए उस बियाबान स्थल पर, बहार छा जाती थी. संचालक मुग्ध होकर वार्ता सुनता. इतने में ही गद्गद हो जाता था.

सभा-विसर्जन करके, दोनों समाजी बाहर निकलते, तो बहकी-बहकी अवस्था में पाए जाते थे. हलवाहे राम गुर्जी के सच्चे हितैषी थे. गुर्जी की बहुत चिंता करते थे. दोनों जने डगमग- डगमग मोड़ तक पहुँचते. हलवाहे राम पैदाइशी सचेतक थे. गुर्जी की सुरक्षा के प्रति हरदम सचेत. भयंकर जागरूक. संकरे रास्ते और ढ़लवाँ जमीन को लेकर हल्ला मचाए रहता. बहकती जुबान में, कोमल और मधुर स्वर में कहता, “गुर्जी, गिरना मत.. अंधेरा है..”

हर पल उन्हें सतर्क और सचेत कर जाता.”गुर्जी, संभल के… देखभाल के गुर्जी… आराम से…. धीरे- धीरे…. स्साला… नीचे की तरह बहुत तगड़ा ढ़लान है…” कहते-कहते वे स्वयं तीसरे खेत में नजर आते थे. मूलस्थान से नये स्थान पर सेकेंडो में पहुँचता था. उस पर मुस्तैदी का आलम देखिए कि, वे खुद जमीन से जुड़कर भी, गुर्जी की चिंता करना नहीं भूलता था. बयानबाजी जारी रखता- “गिरना मत गुर्जी… गिरना नहीं..” कुल मिलाकर, घनघोर जागरूकता फैलाये रखते.

सलाह तो कोई भी दे सकता है. मार्ग कोई भी दिखला सकता है, लेकिन ‘डेमो देकर’ कोई भी नहीं जता सकता कि,’ गुर्जी अगर सँभलोगे नहीं तो ऐसे गिर पड़ोगे.’

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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  • गुर्जी और हलवाहे राम की जुगलबन्दी में आनंद आ गया।

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