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हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने: 57

यूसुफ साहब बताते हैं कि उन्होंने बचपन में अपने बुजुर्गों से रामगढ़, नथुवाखान, बागेश्वर इत्यादि नाम सुने थे. इन जगहों में वह जाया करते थे. वह फख्र से कहते हैं कि बंजारा बिरादरी पर पहाड़ को पूरा भरोसा है. पहाड़ के काश्तकार के साथ उनके जो सम्बन्ध रहे हैं वह चूल्हे तक हैं. वह बताते हैं कि पुराने बनिये आज भी पुराने सम्बन्धों को मानते हैं. तब आज के वनभूलपुरा क्षेत्र में मढ़ैय्या (झोपड़ियां) हुआ करती थीं.उस समय रामपुर के लोग पहाड़ के फलों का ठेका लिया करते थे लेकिन बंजारों के आने के बाद से लोगों ने इनपर ज्यादा भरोसा करते हुए बंजारों को खेतों में हिस्सा देना शुरू किया.

हल्द्वानी शहर के इतिहास का जिक्र करते हुए यूसुफ बताते हैं कि हकीम अब्दुल रशीद भी बिजनौर से आकर हल्द्वानी में बसे. इनके पिता एजाज हुसैन मौलवी और हकीम थे. हल्द्वानी के पहले चैयरमैन बने अब्दुल कय्यूम खां भी बिजनौर के थे. मोहम्मद इरफान शम्सी साहब की कसेरा लाइन वाली जगह हुआ करती थी, जो उन्हेांने बेच डाली. शेरकोट, बिजनौर से मौलवी हकीम, मो. हनीफ भी यहां आये, उनके परिवार में मौलाना अब्दुल अजीज़ थे, जो धार्मिक शिक्षा में अग्रणी थे. इनके साथी अब्दुल हमीद खां थे. अब्दुल हकीम रशीद साहब ने अपने साथियों के साथ मिलकर 1942 में ‘अंजुमन मुहाफिज्जुल इस्लाम’ नामक संस्था बनाई, जिसका बाद में पंजीकरण भी करवाया गया. इस संस्था में मौलवी सुलेमान भी थे. तब उर्दू जुबान में वकील को मौलवी और हिन्दी में बाबू कह दिया जाता था. इस संस्था का कार्य शिक्षा व सामाजिक कार्यों को बढ़ाना था. इसी संस्था ने मदरसा निस्वा (महिला) खोला, जो वर्तमान में अंजुमन इस्लामिया गल्र्स जूनियर हाईस्कूल के नाम से किदवई नगर चोरगलिया रोड पर स्थित है. इसके प्रबन्धक युसूफ साहब बताते हैं कि लाइन नम्बर पांच में मदरसा अरबिया सिराजुलउलूम बंजाराना भी खोला गया. (अरबिया को कुराने के अध्ययन के लिए कहा जाता है.) इसी प्रकार लाइन नं. 1 में मदरसा सिराजुल उलूम भी स्थापित किया गया. पीलीभीत के खानकाह परिवार के सदस्य काजी गुलाम मुहिउद्दीन ने भी हल्द्वानी में बसते हुए किदवई नगर में मदरसा इस्तुल्लहक स्थापित किया. काजी गुलाम साहब एमबी इण्टर कालेज में भी अध्यापक थे.

एडवोकेट यूसुफ हल्द्वानी के चैयरमैन रहे डी के पाण्डे को इस शहर का गौरव बताते हुए कहते हैं कि उन्हीं के प्रेरणा से देश विभाजन के बाद भी हल्द्वानी से कोई मुसलमान पाकिस्तान नहीं गया.सौहार्द के इस शहर में हिन्दू-मुस्लिम झगड़े की तो कोई सोच भी नहीं सकता है. भरोसे पर चलने वाले समाज और व्यापार की चर्चा करते हुए वर्तमान में फैल रही अराजकता से दुखी श्री युसूफ कहते हैं कि पीढ़ियों से चले आ रहे भरोसे को आजकल का ग्लोबलाइजेशन तोड़ रहा है. नये किस्म के युवाओं की हरकतों ने समाज में तकरार बढ़ा दी है लेकिन अपनी बुनियाद से जुड़े परिवारों में आज भी तमीज बरकरार है. इसी तमीज को हमेशा बनाये रखना होगा ताकि माहौल को गड़बड़ाने वाले शोले बुझ जाएं.

हाजी मुहम्मद अब्दुल्ला साहब के चार पुत्र हुए – इश्तियाक अहमद, इरशाद हुसैन, अशफाक हुसैन और अशरफ हुसैन, स्व. इश्तियाक अहमद के तीन पुत्र – मुख्तार अहमद, इकबाल अहमद और सुहेल अहमद हैं. रिटा. जस्टिस इरसाद हुसैन साहब के दो पुत्र – एहतशाम हुसैन, अरशद हुसैन, (अल्मोड़ा कैम्पस के लॉ विभाग में प्रोफेसर) हैं. अशफाक हुसैन साहब के दो पुत्र अराफात अब्दुल्ला, अम्मार अब्दुला और असरफ हुसैन साहब के पुत्र सैफ अब्दुल्ला हैं. नैनीताल के नामी स्कूलों में पढ़ने के बाद भी इस पूरे परिवार ने अपनी घरेलू तालीम को कभी नहीं भुलाया.

अशफाक हुसैन साहब अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि पिता जी (अब्दुल्ला साहब) ने हमेशा ईमानदारी पर चलने और किसी को छोटा न समझने का पाठ पढ़ाया था. उन्होंने व्यापार के दौरान कई बार नुकसान भी उठाया लेकिन कभी विचलित नहीं हुए. वह नफा-नुकसान सब कुछ ऊपर वाले की देन मानते थे. अशफाक साहब बताते हैं कि उनके दादा हाजी अल्लाबख्श और पिता हाजी मो. अब्दुला ने नल बाजार में तम्बाकू की दुकान से अपना कारोबार शुरू किया था. बदायूं से तम्बाकू आती थी. पिता जी तम्बाकू को हाथ से मलते-मलते पिण्डी तैयार करते थे. इस काम में उनके हाथों में जख्म हो गये थे, ऐसे में वह अपने हाथों से खाना भी नहीं खा पाते थे. माता जी उन्हें खाना खिलाती थीं. बाद में यही कारोबार बढ़ते हुए आढ़त, गल्ला, मिल, आरामशीन और ठेकेदारी तक चला गया लेकिन ईमानदारी का पैसा ही अपना था. देश बंटवारे के समय भी उन्होंने साफ कहा हिन्दुस्तान मेरी जन्मभूमि है, यहां से पाकिस्तान नहीं जायेंगे. उन्हें देखते हुए हल्द्वानी से कोई भी मुसलमान पाकिस्तान नहीं गया. सन 62 में चीन युद्ध के समय भी उन्होंने मदद का ऐलान करते हुए कहा कि संकट की स्थिति में पूरे पहाड़ को वह एक माह तक अपनी ओर से राशन दे सकते हैं. अधिकांश समय अपने पिता के साथ रहे अशफाक साहब बताते हैं कि अब्दुल्ला साहब प्रातः 5 बजे से रात्रि तक कामकाज में जुटे रहते थे. वह कभी भी बीमार नहीं पड़े. 10 नवम्बर 1983 करे 85 वर्ष की आयु में अब्दुल्ला साहब का निधन हो गया. नगरपालिका के एक ईमानदार चैयरमैन के रूप में उन्हें आज भी याद किया जाता है.

मूल रूप से मथुरा के राया पवसेरा गांव के रहने वाले लाला टेनीमल जी 1910 में हल्द्वानी में आकर रहने लगे. तब संयुक्त परिवारों की परम्परा थी.लाला जी सात भाई थे जिसमें भूपतराम, जवाहर लाल, जगन्नाथ प्रसाद, रोशनलाल, रामचन्द्र मल थे. उस जमाने में ‘टेनीमल-भूपतराम’ नाम से मशहूर फर्म हुआ करती थी. इनका आढ़त और गल्ले का कारोबार था. बाद में इन्होंने हिल्स पेट्रोल पम्प खोला. इसकी फर्म अल्मोड़ा में भी है. लाला टेनीमल जी के सबसे बड़े पुत्र डा. लालता प्रसाद अग्रवाल हुए. उस जमाने हल्द्वानी में पठन-पाठन के ज्यादा संसाधन न होने से लालता प्रसाद जी को हाथरस में पढ़ाया गया और लखनऊ से उन्हेांने एमबीबीएस किया. सीएमओ से सेवानिवृत डा. लालता भी हल्द्वानी के पुराने चिकित्सकों में थे. इस परिवार का बरेली में प्रकाश बोन हास्पिटल नाम से चिकित्सा व्यवसाय है. लालाजी के दूसरे पुत्र लाला हरप्रसाद गर्ग की अल्मोड़ा में फर्म है जबकि तीसरे पुत्र जगदीश प्रसाद अग्रवाल का शहर में कारोबार है. जगदीश प्रसाद जी के पुत्र स्व. अमरकांत अग्रवाल दो बार हल्द्वानी नगरपालिका के सभासद रहे.

टेनीमल जी के बड़े परिवार में से एक अरविन्द कुमार अग्रवाल अपने बचपन की देखी और परिवार के बुजुर्गों से सुनी बातों के आधार पर बताते हैं कि उनके बाबा (दादा) लोग सात भाई थे. पुराने समय में बीमारी अथवा सुविधाएं न होने से अल्पायु में अधिकांश लोगों की मृत्यु हो जाया करती थी. उनके बड़े दादा टेनीमल व दादा भूपतराम की अल्पायु में मृत्यु के बाद दादा रोशन लाल जी ने संयुक्त परिवार की देखभाल की.बाबा भूपतराम जी अविवाहित थे. अम्मा (रोशनलाल जी की पत्नी) श्रीमती लक्ष्मी देवी ने अल्पायु में विधवा होने के बावजूद परिवार को एकजुट करने व संस्कारित करने में बहुत योगदान दिया था. उन्हेांने ही पियर्सनगंज (मीरा मार्ग) में शिवमन्दिर स्थापित किया, जिसका वार्षिकोत्सव आज तक धूमधाम से मनाया जाता है.

(जारी)

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर

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Sudhir Kumar

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