सत्तर के दशक तक भारत में साबुन नाम की बला सामान्य व्यक्ति के जीवन में लगभग नहीं के बराबर हुआ करती थी. हाँ पानी में गुलाब के पत्तों से लेकर नीम के पत्तों का प्रयोग छुपते-छुपाते यदा-कदा विशेष अवसरों पर जरुर जाता था लेकिन शरीर में घिसने के लिये साबुन नाम की किसी वस्तु का प्रचलन नहीं था. शादी ब्याह के अवसरों पर काली मिट्टी, मुल्तानी मिट्टी, उबटन, चंदन, हल्दी आदि का लेप लगाते और फिर नहाते थे. बालों के लिये रीठा, तिल के पत्ते आदि का प्रयोग होता था.
वैसे एक दिलचस्प बात यह है कि हमारे देश में बना पहला साबुन किसी विदेशी कंपनी का नहीं बल्कि भारतीय कंपनी का है. मैसूर रियासत के रजवाड़ों की कंपनी मैसूर सैंडल सोप भारत का पहला साबुन है. युवा कैमिस्ट गरलपुरी शास्त्री ने इंग्लैंड से साबुन बनाने की तकनीक से भारत में ऐसा साबुन बनाया कि ब्रिटेन के शाही घरानों में भी यही साबुन चलने लगा. इस कंपनी के साबुन आज भी दक्षिण भारत में मिल जायेंगे.
वैसे साबुन के इतिहास संबंधित विज्ञापन में अगर आपकी यादों में कोई चित्र होगा वो शायद ऐश्वर्या राय का हो. लेकिन बादाम खाने वालों को शर्मिला टैगोर, परवीन बाबी के विज्ञापन भी याद होंगे. वैसे भारत में 1941 का लीला चिटसिन का फीचर किया विज्ञापन शायद ही किसी को याद हो. बालीवुड की मशहूर अदाकारा लीला चिटनिस पहली भारतीय महिला थी जिसने लक्स साबुन का विज्ञापन किया था. लीला चिटनिस के विज्ञापन में होने के कारण भारत में लक्स की बिक्री में बेतहासा वृध्दि हुई थी. लीला चिटनिस के बाद लक्स के विज्ञापन में शर्मिला टैगोर, परवीन बाबी, हेमा मालिनी, जैसी अनेक स्टार अभिनेत्रियाँ देखी गईं.
साबुन के विज्ञापन में आपको सबसे अधिक रोमांचित करने वाली तस्वीर लगेगी गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की. रवींद्र नाथ टैगोर ने एक बार गोदरेज वेजीटेबल सोप का विज्ञापन किया. इस विज्ञापन में टैगोर का अंग्रेजी में छपा एक वाक्य है कि मुझे गोदरेज साबुन जितने अच्छे किसी विदेशी साबुन की जानकारी नहीं है.
साबुन के विज्ञापनों को ही अगर खंगाला जाये तो पियर्स साबुन का विज्ञापन बेहद दिलचस्प है. इसके विज्ञापन में सरस्वती को कमल के फूल में बैठा दिखाया गया है. पियर्स के विज्ञापन निर्माताओं ने कलात्मकता का परिचय देते हुए पियर्स की तुलना सीधा लक्ष्मी के कमल से कर दी है.
जाहिर सी बात है जब भारत में नहीं आया तो साबुन का पहाड़ चढ़ पाना और ही मुश्किल था. पहाड़ के जीवन की कठोरता ही है कि पहाड़ चढ़ते-चढ़ते साबुन का सापुण हो गया. आम भाषा में साबुन नाम से प्रचलित हमारे यहाँ सापुण कहलाता है. सापुण के प्रयोग से पहले पहाड़ों में उबटन का प्रयोग हाथ मुंह धोने के लिये किया जाता था. शरीर रगड़ने के लिये चिकने पत्थरों का प्रयोग भी किया जाता था. कपड़े धोने के लिये रीठे और राख को पानी में उबाल कर बनाये मिश्रण को प्रयोग में लाया जाता था. सिर धोने के लिये रीठे के छिलकों का प्रयोग किया जाता था. रीठे का छिलका ही आधुनिक शैम्पू है.
पहाड़ों में दांत घिसने और नहाने दोनों के लिये चिकने पत्थरों का प्रयोग भी किया जाता था. दो चिकने पत्थरों को घिसने से बने पाउडर से पहले दांत घिसे जाते थे और फिर पहले से और अधिक चिकने हो चुके पत्थर को साबुन की तरह प्रयोग किया जाता.
दरअसल पूरे भारत की तरह पहाड़ों में भी साबुन को विलासिता का सूचक माना जाता था. सामान्य व्यक्ति के द्वारा साबुन का प्रयोग करने पर उसका मजाक उड़ाया जाता था. यहां तक कि साबुन का इस्तेमाल करने वाली लड़की को तो बिगड़ा हुआ तक माना जाता था. कमाल इस बात का है कि कभी प्रयोग में ही न आने वाली एक वस्तु आज हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुकी है. चमड़ी निखारने की प्रतियोगिता में साबुन एक ब्रह्मास्त्र है.
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घड़ी साबुन पर जो बच्चे की फ़ोटो है वो किसकी है?