पहाड़ में पढ़ाई में बहुत बहुत पहले से आस पास मिलने वाली वनस्पतियों का प्रयोग किया गया. इन्हीं से पाटी कलम दवात का रिश्ता जुड़ा. स्याही बनी. भोज पत्र, ताड़ वृक्ष, बड़ वृक्ष से आगे कॉपी किताब का कागज सभी प्रकृति ने दिया. इन्हीं पेड़ों की लकड़ी को काट छील पैमाना या स्केल बनी तो श्यामपट भी और उसे पोंछने वाला डस्टर भी. विद्यार्थियों के बैठने वाली चटाई हो या मास्साब वाली कुर्सी और सामने वाली मेज़ भी. पिटाई कर ज्ञान सँवारने वाले बेंत हों या संकेत जताने वाले रूलर, कॉपी किताब के साथ क्या कुछ चिपकाने वाला गोंद हो या लेई और फिर, या हो लाख जिससे लगती है मोहर. धीरे धीरे ही सही सब खोजा बीना गया.
(History of Ink & Paper Uttarakhand)
कागज पर लिखने का क्रम हिमालय की ऊंचाइयों में पाए जाने वाले भोज पत्रों से शुरू हुआ माना जाता है. इसके अलावा बड़ और ताड़ के पत्रों को अनेक विधियों से सँस्कारित कर इसे एकसार पत्र का रूप दिया गया. जानकार बताते हैं कि सिद्ध बड़वा और सींक के वृक्षों की छाल व तनों को नाना तरीकों से उपचारित कर लिखने के लिए कागज बनाया जाता था.
बड़ के पेड़ से कागज बनाने के लिए पहले इसके बड़े पातों को तोड़ कर जमा कर लेते. फिर इन्हें क्रम से एकबट्या के इनको सपाट पाथरों से दबा दिया जाता जिससे हर पत्र सीधा सपाट हो जाए. अब हर पत्र को मुलायम और चिकना बनाने के लिए इसकी घुटाई की जाती. घुटाई के लिए बेल के गोल दाने जो मुट्ठी के आकार के हों या नदी तट पर पर मिलने वाले गंगलोड़े जिनकी एक सतह सपाट हो गई हो, का प्रयोग किया जाता. हर पत्र की सतह की घुटाई कर ये मुलायम और चिकने हो जाते. प्रायः बड़ पत्र का आकार छोटा होने से कागज के रूप में इनका उपयोग सन्देश भेजने, पाती लिखने में होता रहा.इनमें श्लोक भी लिखे जाते.
ताड़ के पेड़ से कागज बनाने के लिए इसकी पत्तियों का प्रयोग किया जाता. इन्हें पेड़ से अलग कर सुखाने व साफ करने के बाद लकड़ी की सिल्लियों से या चपटे पत्थरों से दबा दिया जाता. फिर इनकी घुटाई भी गंगलोड़े, बेल या शंख से की जाती. इस तरीके से प्राप्त कागज का उपयोग पत्र लिखने, कुनला या जनमपत्र में होता. चिट्ठियां भी लिखी जातीं.
सबसे अच्छा कागज भोजपत्र से बनता था. भोज पत्र भोज के पेड़ की छाल होती जो सफेदी लिए हुए हल्की बादामी रंगत लेती. भोज पत्र की छाल को भी पहले सुखा-दबा कर समतल सपाट करते फिर इनकी घुटाई होती. भोज वृक्ष की छाल से बना कागज सबसे अधिक मुलायम चिकना व पतला होता. इसी कारण भोज पत्र पर ही ग्रन्थ लिखे गये. पुस्तकें लिखी गईं. जन्मपत्रियां एवं विस्तृत फलादेशों वाली कुंडलियां भोजपत्र पर ही लिखी गईं. सोलह संस्कार के साथ अन्य ग्रन्थ, श्लोक एवं इनकी टीकाओं वाली पुस्तकें भोज पत्रों एवं इनमें प्रयुक्त सियाही से लम्बे समय तक विनिष्ट भी नहीं होती थीं.
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अब आती है सियाही, जिसका चमत्कार आपने पुरानी हस्तलिखित पांडुलिपियों, पंचांगों व रह बच गये ग्रंथों में देखा होगा. आप आश्चर्य भी करते होंगे कि इनकी रोशनाई में अभी भी वही चमक, सुर्खी और ताजगी है कि लगे कि अभी बस कुछ देर पहले ही काले मोती की लड़ियाँ गूँथ के रख दी गईं हों इसीलिए कि ये स्याही ये रोशनाई बड़े जतन बड़े हिसाब और भांति भांति के प्रयोग यानि कि खुराफ़ात के बाद तैयार की जाती रही. इसे अमिट बनाने के फॉर्मूले को तैयार होने में एक लम्बा समय लगा होगा. तभी ये स्याही ना तो धूमिल पड़ती, ना मिटती और ना ही कुछ समय बाद फीकी ही होती. इस पर पानी भी पड़ जाए तो यह फैलती भी ना थी.
स्याही बनाने के लिए विविध फल फूल पत्ती तना, खाल बक्कल जड़ या पूरे पौंधे का पंचांग काम में आता. इनमें अनार, दाड़िम, और अखरोट के छिलके और इनके पेड़ों की छाल या बक्खल का प्रयोग होता. साथ ही काफल, खैर व ढाक के पेड़ के तनों से निकाली गई छाल भी मिश्रण में मिलायी जातीं. डेहलिया और बुरांश के फूलों का रस निकाला जाता तो रतन गाल के दाने का सत भी प्रयोग होता. इन सब के साथ केले के पेड़ के तने के भीतरी भाग जिसे ‘गाब’ कहते को भी इकट्ठा किया जाता.
स्याही बनाने के वनस्पतियों के विभिन्न भागों से प्राप्त कच्चे माल को अलग अलग मिट्टी के बर्तनों में भिगा कर फिर पका लिया जाता. इनका सत निकलने के लिए इन्हें छन्नी और कपड़े में निचोड़ लिया जाता. अब इस तरीके से प्राप्त रस को पक्का करने के लिए इसमें कुछ रसायन जैसे फिटकरी और टार्टरी की निश्चित मात्रा डाली जाती थी. इनसे दो किस्म के रंग उभरते थे. जिसमें पहला ‘सियाह -भूरा ‘होता जिसमें लोहे व सलफेट की अधिकता होती. काले रंग के अलग अलग कायेपन और भूरे रंग को और अधिक भूरा बनाने के लिए जिसे ‘अगरइ -खाकी’ कहा जाता. इसके लिए अलग अलग रसायन निश्चित मात्रा में मिलाये जाते. भूरा पन लाने के लिए फिटकरी सहायक होती. स्याही सूख जाने पर पानी पड़ने पर फीकी न पड़े इसके लिए लाख व गोंद मिलाया जाता. गोंद भी विविध पेड़ों से निकाली जाती. पीपल, साल, बेर, ढाक, पलाश, रवीड़, खैर व अंजीर के वृक्षों से लाख निकलती. इसे मिलाने पर स्याही जलाभेद्य बन जाती.
पेड़ों के तनों पर लगी गोंद को पानी में घोल उबाल गाढ़ा बना कागज चिपकाने के काम में लाया जाता रहा. आसपास उगने वाले कई फलदार पेड़ों जैसे आड़ू, पुलम, खुमानी, सेव, नासपाती के साथ पय्याँ या पदम के साथ स्वऊ में लगी गोंद काम में लाई जाती. फिर आटे को उबाल के बनी लेई भी बनी जिसे टिकाऊ बनाने के लिए नीलाथोथा भी मिलाया जाता. भात के मांड को गाढ़ा कर भी कागज चिपकाये जाते. अन्य भारी चीज बस्त को जोड़ने के लिए लाख के साथ चीड़ का बिरोजा, चटकुरिया की पत्तियां और बेडू के रस का इस्तेमाल किया जाता.
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कई फलों के गुटठल या गुठली बच्चों को जोड़ घटाना सिखाने के काम आते जिनमें रीठा और पांगड़ के बीज मुख्य होते इनके अलावा लिखुमाव व आड़ू की गुठलियां भी होतीं. बाल बालिकाओं का लिखाई -पढ़ाई, रटाई -घुटाई में चित्त लगा रहे इसके लिए प्रयुक्त संटी, डंडी, बेंत भी स्थानीय रूप से उपलब्ध झाड़ी पेड़ की मजबूत डंडियां प्रदान कर देतीं. फिर पाठशाला में बैठने के लिए गुरूजी जहां कुश के आसन पर विराजते तो बाल -बच्चों के लिए पिरूल, पुवाल, बांज की पत्तियों के साथ अन्य मुलायम घास पात बिछाया जाता जो बुडे -चुभे नहीं.
फिर निंगाल, रिंगाल, बांस, भांग, भीमल, रामबांस के रेशों की चटाई बनी, बोरियां भी आयीं,फीणे भी बिछे. तख्ती कलम से आरम्भ कर बाल गोपालों ने कागज कलम स्याही दवात पकड़ी. कागज पट्टिकाओं में चित्र बने. चित्र कला, ‘ऐपण व वर बूंद ‘ तथा ‘लिख थाप’ के रूप में हुई. कागज की पट्टियों में जो चित्र आकृतियां बनीं उन्हें लिख थापा कहा गया. चित्र कला में मापने नापने के लिए अंगुल बालिस्त व सूत का प्रयोग बढ़ा. अलग तरीके के ज्यामितीय चित्रों को ‘बर’ कहा गया जिनको बूंदों द्वारा बनाया जाता. अलग अलग संख्याओं और अलग अलग बरों से यह बनतीं. इस तरह बनीं थापों व वर बूंदों को चारों ओर से घेरती अलग अलग किस्म की एकहरी व दोहरी बेलें बनीं. जिनमें वनस्पतियों व फूलों की आकृति बनती. जैसे अँगूर बेल, गुलाब, बेल, चमेली, पदम, पान, सूरजमुखी, स्यूंत, बरगद, बलडिया, लड़िया, पिरुडि, धनेली, करेला मुख्य रहीं.
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पाटी, कलम दवात की शुरुवात से कला शिल्प व संस्कृति की अभिनव परम्पराओं का साक्षी रहा है पहाड़. नाथूराम उप्रेती, बटरोही, कौशल किशोर सक्सेना, पी सी पांडे, जी सी जोशी, एम एम कांडपाल, एस डी भट्ट, जी एस नयाल, शांति नयाल, बी आर पंत, यशवंत सिंह कठोच, प्रमिला जोशी, कृष्णा बैराठी, कुश सत्येंद्र, शेखर चंद्र जोशी, महेश्वर प्रसाद जोशी, गुणाकर मुले, बद्रीदत्त पांडे, ओकले व गैरोला ने इस विधा पर तथ्य सहित लेखन किया. एटकिंसन तो हैं ही.
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लकड़ी की पाटी, निंगाल की कलम और कमेट की स्याही : पहाड़ियों के बचपन की सुनहरी याद
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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