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पहाड़ के पारंपरिक जड़ी-बूटी ज्ञान को झोलाछाप कहकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता

मध्य हिमालय की जंगलों में मिलने वाली वनस्पति स्वस्थ बनाये रखने, निरोग रहने व दीर्घायु प्रदान करने के लिए गुणकारी मानी गईं. इन वनस्पतियों के एकल प्रयोग या कइयों के साथ मेलजोल से  कई रोगों को जड़ से ख़तम करने के योगों का उल्लेख हुआ. प्राचीन ग्रंथों में कहा गया कि उत्तराखंड हिमालय में ही देवराज इन्द्र ने भृगु ऋषि को निरोग रहने का ज्ञान दिया.  History of Herbs in Uttarakhand

गढ़वाल हिमालय में आयुर्वेद के जनक वैद्यराज चरक द्वारा भी जड़ी बूटियों का संग्रह किया गया. उत्तराखंड में वैद्यकीय पद्धति लगातार खोजबीन और प्रयोगों से आम आदमी के जीवन का हिस्सा बनती रहीं. सामान्य जन को भी अपने आसपास उगने वाली वनस्पति और पायी जाने वाली जड़ीबूटी की इतनी जानकारी होती जिससे वह रोजमर्रा के स्वास्थ्य सम्बन्धी विकारों को दूर कर सके.

आसपास उगने वाली कई वनस्पतियां व बीज ऐसे गुण रखते जिनसे शरीर सबल रहता तो कई व्याधियों का निदान परहेज और आहार के संतुलन के साथ इनके उपयोग पर टिका होता. हर इलाके में कई ऐसे जानकार होते जो भेषज एवं जड़ीबूटी की प्रामाणिक जानकारी रखते. कई परिवार ही वैद्यकी में निपुण होते.पहले वैद्यों को राजकीय संरक्षण भी मिला .

1830 ई. से ऐलोपेथी का चलन बढ़ा. पहाड़ों में भी अंग्रेज़ों के आने व मिशनरी गतिविधियों के बढ़ने से परंपरागत वैद्यिकी पद्धति के जानकारों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति खराब  होते गई. 
ब्रिटिश राज में पहाड़ की ठण्डी जलवायु के आकर्षण से नैनीताल, अल्मोड़ा, द्वाराहाट, रानीखेत, लोहाघाट, मसूरी व देहरादून में अंग्रेजों के द्वारा काफ़ी बसाव किया गया. शिक्षा और चिकित्सा जैसे बुनियादी कामों पर मिशनरी प्रभाव काफ़ी अधिक रहा. History of Herbs in Uttarakhand

1835 में ही मेडिकल कॉलेज की स्थापना कलकत्ता में की जा चुकी थी. एलोपैथी का चलन बढ़ता गया. कई असाध्य रोग दूर करने में यह सफल रही थी और कम समय में ही बिना अधिक परहेज के इलाज करने से इसकी लोकप्रियता भी बढ़ती चली गई. मसूरी दस्तावेज में जयप्रकाश उत्तराखंडी लिखते हैं

19 वीं  शताब्दी में मसूरी, देहरादून में जौनपुर , जौनसार तथा रवा इं के जोगटों, तांत्रिकों और वैद्यों ने गोरे डॉक्टरों के  होश उड़ा रखे थे और अँग्रेजी चिकित्सा पद्धति को टक्कर दे रखी थी. अंग्रेज भी गढ़वाल की  परंपरागत रोग निवारण पद्धति के फायदे देख आश्चर्य में पड़ जाते थे पर उन्होंने इसे सामाजिक स्वीकृति नहीं दी . 1860 में जौनपुर सकलाना के एक दलित जाति के तुमड़ी चलाने वाले  जोगटे ने एक अंग्रेज रोगी को अपनी मंन्त्र विद्या से ठीक कर दिया जिसका इलाज काफ़ी समय से प्रसिद्ध डॉक्टर केंनी  कर रहे थे. अंग्रेज मरीज ने ठीक हो यह स्वीकार भी किया कि वह चाहे कितना भी ज्ञान क्यों न बटोर लें, इन फटेहाल लोगों की प्राकृतिक विद्या से नहीं जीत सकते. 1860 व 1870 के दशक में मसूरी में पहाड़ी तांत्रिकों का रुतबा था और वह अंग्रेज डॉक्टरों की मज़ाक यह कह उड़ाते कि मंत्र वाले चावल के दाने से निरोग रहते हैं पर जहां डॉक्टर केंनी होगा वहां तो शमशान होगा. “चौणु  की  दाणी -निरोग प्राणी. मरघट कु वास -जख होलू डाकदर केणी “.

1868 में मसूरी पालिका के अध्यक्ष डब्ल्यू. हॉब्सन ने सभी तांत्रिकों व जोगियों के मंसूरी में घुसने पर कड़ी रोक भी लगा दी. दिनेश प्रसाद सकलानी (2008) ने गढ़वाल में आयुर्वेदिक परम्पराओं में स्पष्ट किया कि उन्नीसवीं शताब्दी में लोक पारम्परिक चिकित्सा में वैद्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा. इनका ज्ञान पीढ़ी-दर पीढ़ी परिवार में दिया जाता तथा गुरू-शिष्य परंपरा भी फलती-फूलती रही. 
जैसे-जैसे पश्चिमी चिकित्सा प्रणाली फैली परंपरागत वैद्यकीय पद्धति उचित संरक्षण के अभाव में फलफूल नहीं पायी. इसके सिद्ध जानकारों के द्वारा जड़ी बूटियों के संयोग या फॉर्मूले या तो गुप्त रखे जाते थे या पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते थे. परंपरागत ज्ञान का उचित दस्तावेजीकरण भी बहुत कम हुआ.

एलोपैथी के तुरंत फायदों के आगे धीमी गति से इलाज व आहार-विहार में कई परहेज होने के कारण जड़ीबूटी व भेषज पर आधारित परंपरागत पद्धति ह्रासोन्मुख होती गई. वैद्यों की आय सीमित होते गई और कई पुश्तैनी व्यवसायों की तरह उन्होंने भी यह नहीं चाहा कि उनकी अगली पीढ़ी इस विरासत में प्राप्त धंधे में संलग्न रहे. सरकार ने भी विरासत के ऐसे ज्ञान की कोई परवाह नहीं की और ऐसे वैद्यों को नीमहकीम व झोलाछाप कह नकारा. 

उत्तराखंड में भी जैसे-जैसे शहरों का विकास हुआ एलोपेथिक अस्पताल खुले. आयुर्वेद सीमित होता गया. परंपरा से चली आ रहे कई रोगों के इलाज की सामान्य जड़ी-बूटियों का उपयोग भी होता रहा. अब प्राथमिकता एलोपैथी को दी जाने लागी. इससे सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि पहले जहां वैद्य की सलाह और परिवार के बड़े-बूढ़ों की निगरानी में हर सदस्य अपने आस-पास की भेषजों व वनस्पति की काफ़ी जानकारी जुटाए रखते थे उसका उपयोग व चलन धीरे-धीरे कम होता गया. रोजगार और कामधंधो की लिए शहर जाने और वहीं बस जाने की प्रक्रिया में परंपरागत ज्ञान लगातार खोता ही चला गया. History of Herbs in Uttarakhand

दूसरी तरफ एलोपैथी की दवाइयों में कई वनस्पतियों का प्रयोग बढ़ने लगा था. धीरे-धीरे इनका दोहन बढ़ने लगा. ऋषिकेश, हरिद्वार, टनकपुर और रामनगर की मंडियां बाद में जड़ी-बूटी के थोक  व्यवसाय का केंद्र बनने लगीं. पहाड़ में दिहाड़ी पर जड़ी-बूटी कटती और मैदानों से फैक्ट्रियों की ओर सरकती. ब्रिटिश काल से ही यह सिलसिला चालू हो गया था और स्थानीय वैद्य उन्हीं दूर दराज के इलाकों में सिमटते जा रहे थे जहां न तो आवागमन के साधन विकसित थे और न ही अँग्रेजी राज वहां अधिक सुविधाएं दे रहा था. 

पहाड़ के कई गाँव और उनमें रहने वाले कई परिवार पुश्तैनी रूप से भेषजों की जानकारी और आयुर्वेदिक इलाज में माहिर थे. एलोपैथी की बढ़त के बावजूद उन्होंने अपने व्यवसाय को बनाये रखा. कई परिवार ऐसे भी रहे जो सहायक धंधे की भांति इस व्यवसाय को जारी रख रहे थे. कुमाऊं और गढ़वाल में अंग्रेजों के आने से पहले अलग-अलग रूपों में राजशाही थी जहां ज्योतिषी व वैद्यों को राजा का संरक्षण भी मिलता रहा था. इनमें से अधिकांश ब्राह्मण थे जो पूजा पद्धति, कर्मकांड, ज्योतिष, औषधि के बारे में वंशानुगत योग्यता भी रखते थे. 

वैद्यकी  में यजमानी प्रथा भी रही. प्रायः अधिकांश गावों व गाँव समूह या पट्टी स्तर पर वैद्य परिवार होते जो पीढ़ी दर पीढ़ी जड़ीबूटी, भेषज व इलाज के ज्ञान से आम लोगों को सेवा देते. आयुर्वेदिक ज्ञान बहुमुखी था जिसमें नाड़ी ज्ञान के साथ ज्योतिष की भी महत्ता रहती. वनस्पतियो को तोड़ने, उनके संधान और उपयोग के दिन, वार, पक्ष नियत होते. मरीज को देते हुए उसकी राशि व कुंडली के योगों के फल को भी ध्यान में रखा जाता. उत्तराखंड में ऐसी पांडुलिपियां पायीं गईं जिनमें आयुर्वेद व ज्योतिष से सम्बंधित रोग निदान के सूत्र रहे. यह प्रायः हस्त लिखित थीं. 

पारम्परिक चिकित्सा में प्राकृतिक तरीके भी शामिल थे जिसमें वायु, धूप, जल, मिट्टी, राख या भस्म की सहायता से विकार दूर किये जाते रहे. दूसरा, जड़ी-बूटी की पहचान कर उनको सुखा कूट चूर्ण, रस, गुटिका, अवलेह, आसव, अरिष्ट, काढ़ा इत्यादि विविध तरीकों से उपयोग में लाया जाता. वन से वनस्पति एकत्र करने, उसके संधान और उपयोग के भी दिन वार तय होते. हर जगह की वनस्पति भी उपयोग में नहीं लाई जाती. कई धातुओं का भी प्रयोग होता जिन्हें घिस या भस्म बना या अन्य द्रव्यों में सिझा कर चूर्ण या द्रव्य रूप दिया जाता. धूम्र चिकित्सा भी चलन में थी. यह सब ज्ञान मौखिक रूप से एक पीढ़ी दूसरे को हस्तांतरित करती. जड़ी बूटी और भेषज के उपयोग के साथ की जानवरों और पक्षियों के साथ कीटों का भी प्रयोग होता था. History of Herbs in Uttarakhand

इसी के साथ आध्यात्मिक चिकित्सा का भी चलन था. इसके अंतर्गत कर्मकांड, ज्योतिष, जप-तप, रखवाली, पूजा-प्रवचन का विधान रहा. गंभीर संकट से बचने को महा मृत्युंजय का पाठ इसका एक उदाहरण है. कई देव स्थलों में इसके मंदिर भी हैं तो घर में भी इसके आयोजन तिथि वार नक्षत्र, पैट-अपैट देख कर पूरे विधि विधान से की जाती रही. इसमें विभिन्न धातुओं और रत्न तथा रुद्राक्ष के धारण की भी सलाह दी जाती थी. गृह क्लेश से बचने, घाटा होने, परिवार में किसी सदस्य के लापता हो जाने, पितर  के कोप, नजर झसक से मुक्ति के लिए भी अलग-अलग पूजा होती. इनका निर्धारण पंडित जू कुनला या कुंडली देख करते.

इसके साथ ही तांत्रिक चिकित्सा भी होती जिसमें तंत्र -मंत्र-यंत्र का विधान होता. तंत्र कहा जाता तन  का शास्त्र तो मंत्र मन का. यन्त्र में त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण, वृत्त इत्यादि का आलेखन कई तरीकों से भूमि पर या काष्ठ, धातु पर किया जाता. कई मंदिरों में तो यन्त्र ही स्थापित होते. प्रायः यह उग्र पीठ होते. इन में पूजा पाठ अलग अलग धार्मिक आयोजनों में भी होते और रोग निवारण, प्रेत बाधा, पितर मुक्ति और गाँव या परिवार की समस्याओं को दूर करने के लिए भी. विधि-विधान जटिल होते और प्रकांड व दक्ष पंडित की इन्हें सम्पन्न कराने  की योग्यता रखते. प्रयुक्त सामग्री भी बहुल होती. विधान सम्पन्न करने में ग्रह, नक्षत्र, तिथि, वार, पैट-अपैट, शुभ लक्षण का बहुत ध्यान रखा जाता.

देवीय चिकित्सा में देवताओं का आवाहन होता. कई विधान से इनकी प्रशस्ति होती. इन्हें प्रसन्न करने के लिए कई कर्मकांड होते. कई तरह के जतन होते. इनके साथ ही स्थानीय स्तर पर जागर, जागो,  घड़ियाली, मसाण, परी  पूजन भी होते. पारम्परिक पद्धति इस प्रकार जड़ी बूटी रस बटी गुटिका अर्क आसव से ही सम्बंधित ना हो काफ़ी फैलाव लिए हुऐ थी. 

छठी से आठवीं सदी से ही कुमाऊँ में पूर्व भारत और दक्षिण से ब्राह्मण आ कर बसे. पंजाब, हिमांचल, नेपाल और गढ़वाल से भी आए. कत्यूरी और चंद राजाओं के समय ठुल धोती ब्राह्मण राज दरबार में राजाओं के गुरू, मंत्री, पुरोहित के साथ पंडित, ज्योतिषी और वैद्य भी रहे. कुछ ब्राह्मण केवल कर्मकांड, पूजा पाठ से आजीविका कमाते थे. खस राजपूतों के गुरू पुरोहित भी थे जो अपने गाँव और विशिष्ट पेशे से नाम कमाए. भारद्वाज गोत्र के पंडित जयदेव पंत कोंकण से पहाड़ आए. इन्हें गंगोली के मनकोटी राजाओं ने रिखाड़ी और उपराड़ा गाँव जागीर में दिये. इनमें पंत लोगों की तीन राठ में शर्म राज्यवैद्य के, श्रीनाथ राजगुरु व नाथू पौराणिक पद पर आसीन हुऐ. 1565 ईसवी में कुमाऊं का राजदरबार अल्मोड़ा आने और मणकोटी  राजाओं के चंद राज्य में शामिल होने के बाद पंत राठ की प्रतिष्ठा बढ़ती रहो. History of Herbs in Uttarakhand

वैद्यकी के निपुण होने के साथ वह शास्त्रों के जानकार, कवि और बहुमुखी प्रतिभा के धनी भी  रहे. बी. डी. पांडे ‘कुमाऊं के इतिहास’ में लिखते हैं कि उत्तम वैद्यों में ‘शर्मवंश’ के पंत अल्मोड़ा, उपराड़ा, कुनलता, बरसायत, बड़ाउँ, जजूट, मलेरा, अधार, छकाता, मालोज में बसे. वहीं श्रीनाथ पंत तिलाड़ी, पांडेखोला और अग्रौन में, नाथूपंत डुमालखेत, खूंट ज्योली और सिलौटी में तो भौदासपंत पाली, स्यूनराकोट, गरों, भटगांव, धनौली व खंताली में बसे. ऐसे ही वत्स भार्गव गोत्री पांडे के श्री ब्रह्म पांडे काँगड़ा हिमाचल से राजा संसारचंद के समय आये और प्रमुख वैद्य हुए.

इनकी चार संतानों में कालधर की संतानें सीरा में वैद्य रहीं।तो दशरथ पांडे की सन्तानों ने अनूपशहर में आयुर्वेद की परंपरा को आगे बढ़ाया. चौदहवीं शताब्दी में राजा थोहरचंद के समय काली कुमाऊं में उपमन्यु गोत्री श्रीनिवास द्विवेदी को राजा ने पांडे का पद दे चौथानी ब्राह्मणों में नियुक्त किया. ये  प्रयाग से आये थे आयुर्वेद में सिद्ध होने से वैद्य या मिश्रा कहलाये इनके वंशज दिवदिया, कुञ्ज, छकाता व अल्मोड़ा में बसे. जजूट के चिंतामणि वैद्य सोर घाटी में खूब नाम कमाए.

गढ़वाल में राजा सुदर्शन शाह और भवानी शाह के काल में चिकित्सालयों को संरक्षण न था. परिवार में रोग होने पर समीपस्थ वैद्य बुलाये जाते. शिवप्रसाद डबराल उत्तराखंड के इतिहास भाग 6 में लिखते हैं कि 

लोगों को यह विश्वास होता कि रोग -शोक देवी -देवताओं के घड़याला राख विधिवत पूजा-प्रार्थना से ठीक हो जाते हैं. फिर हर गाँव में वैद्य होते जो औषधि देते व आहार-विहार संयम बताते. वालटन  और एटकिंसन ने हिमालय इलाके में पायी बिमारियों के निदान के लिए देवी-देवता पूजन, स्थानीय परम्पराओं और तरीकों और जड़ी-बूटियों के प्रयोग का उल्लेख किया है. 

उत्तराखंड में योग और तांत्रिक परम्परायें में डिमरी के अनुसार उत्तराखंड हिमालय में अलग-अलग जिलों में आयुर्वेद के प्रकांड विद्वान हुए. परम्परा से चले आ रहे नाड़ी शास्त्र तथा हस्तलिखित पांडुलिपियों के आधार पर उन्होंने आयुर्वेद की कई विधाओं से इलाज जारी रखा. अपने वंशजों के साथ शिष्यों को भी पारंगत बनाया. गढ़वाल में निम्न वैद्य आयुर्वेद को समुन्नत करने में प्रमुख रहे : 

चमोली जिले में पंडित रमेश चंद्र गौड़, बिशन दत्त सती, लोकानंद लखेड़ा.
डिम्मर गाँव के पंडित ईश्वरी दत्त डिमरी.
पौड़ी गढ़वाल, श्रीनगर के पंडित दिगंबर बहुगुणा, श्री विद्यादत्त थपलियाल, श्री मंगल देव ध्यानी, गाँव निम्बूचौरा. सर भरोसा राम कपटियाल, गाँव घंडियाल. 
रुद्रप्रयाग जिले के पंडित पीताम्बर दत्त थपलियाल. गाँव चमसारी, पट्टी लस्या. पंडित पाती राम काला, गाँव मयाली श्री चैतराम, गाँव तुनेटा, पट्टी भरदार. श्री राधा कृष्ण किमोठी, गाँव किमोठा. श्री भगवती प्रसाद सेमवाल, गाँव जखवाड़ी बांगर.
ऋषिकेश के पंडित दिनेश चंद्र शर्मा.जौनसार बाबर, चकराता, गाँव लखवाड़ के वैद्य मिलकीराम अग्रवाल.
टिहरी गढ़वाल के पंडित मुंशी राम बडोनी, गाँव भटवाड़ा.
श्री धर्मानंद, गाँव डुंगरा, पट्टी ढुङ्गसिर. पंडित सत्यप्रसाद, मुसमोला, बडियारगढ़.
श्री भगवती प्रसाद, गाँव पुंडाल, देवप्रयाग. श्री गड़वानी दत्त सेमल्टी, सर तुगेस्वर दत्त सेमल्टी, गाँव पुजार गाँव, चन्द्रबदनी. 
जौनपुर के श्री पतिदत्त वैद्य, विद्यादत्त वैद्य, गाँव मुंगलोड़ी. श्री बालमुकुंद सेमवाल, गाँव थान. 
चम्बा के पंडित दयानन्द शर्मा, सुरसिंगधार. आयुर्वेदाचार्य जगदीश मैठाणी व आयुर्वेदाचार्य मोहनलाल उनियाल

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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