इतने बड़े हिंदी समाज में सिर्फ डेढ़ यार : तेरहवीं क़िस्त
1966 में नैनीताल से इलाहाबाद के लिए रवाना हुआ तो मैं एक तरह से हवा में यात्रा कर रहा था. क्यों यात्रा कर रहा हूँ, यह तो मालूम था, मगर कहाँ जा रहा हूँ, उसकी योजना का कोई खाका दिमाग में नहीं था. नैनीताल से वाराणसी जाने के लिए यात्रा शुरू की थी, इसी बीच मटियानी जी ने लिखा कि इलाहाबाद रूककर यात्रा करूँ. जून के महीने में एक गर्म सुबह प्रयाग स्टेशन पहुंचा तो मेरे लिए यह एक अजूबा अनुभव था.
सुबह के वक़्त की ठंडी हवा का कहीं नाम नहीं था. प्रयाग स्टेशन से कर्नलगंज मोहल्ले तक, जहाँ मटियानी जी रहते थे, पूरे वातावरण में ट्रेन की चीख गूँज रही थी. थोड़ी ही देर में रिक्शे से आनंद भवन के सामने भारद्वाज आश्रम पहुंचा तो एकाएक समझ में नहीं आया कि यहाँ मैं किस जगह अपने लिए ठौर तलाशूँ!
एक बड़ा-सा हॉल था, जिसके आधे हिस्से में पर्दा डालकर सोने का कमरा बनाया गया था जिसमें वो दोनों पति-पत्नी, दो बिल्लियाँ और तीन बच्चे रहते थे. चार दिन पहले ही एक लड़का जन्मा था, जिसे एक गद्दे में सुलाकर भाभीजी उसके बगल में सोयी हुई थीं. मटियानीजी एक टोकरी लिए दरवाजे के पास ही खड़े थे. ‘आ गए!’ लगभग हड़बड़ी में वो बोले और फिर मेरा हाथ पकड़कर बाहर की ओर खींचते हुए बोले ‘चलो, सब्जीमंडी हो आते हैं.’
मटियानीजी ने कुछ दिन पहले संकेत किया था कि बनारस जाकर क्या करोगे, प्रयाग में ही सारे बड़े लेखक और नामी प्रोफ़ेसर रहते हैं. इलाहाबाद से ही रिसर्च क्यों नहीं करते? मन तो पहले से था, इलाहाबाद में अपने सबसे प्रिय कहानीकार ज्ञानरंजन से मुलाकात हुई तो झटके से निर्णय लिया कि यहीं रहकर रिसर्च करनी है. ज्ञानरंजन हिंदी लेखकों के बीच उन दिनों ‘युवा तुर्क’ समझे जाते थे, युवा लेखकों के आदर्श तो थे ही. पिछले तीन-चार वर्षों से उनके साथ लगातार पत्राचार चल रहा था, मन में स्वाभाविक मोह पैदा हुआ कि उनके साथ रहकर हिंदी कहानी की मुख्यधारा से आसानी से जुड़ सकूँगा. हुआ भी यही. मटियानीजी के साथ रहकर रहने-खाने की समस्या से तात्कालिक राहत मिली और साहित्यिक माहौल की भीतरी दुनिया के लिए ज्ञानरंजन और दूसरे युवा लेखकों के साथ अंतरंगता हुई. इस तरह उस दौर के दो चर्चित बड़े लेखकों का सहारा मिला.
रिसर्च की पढाई के दौरान अनेक विद्यार्थी और दूसरे तमाम युवा लेखकों के बीच धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाने का सिलसिला शुरू हुआ; कथित कलावादियों की संस्था ‘परिमल’ और वामपंथियों की ‘शनिवारी ग्रुप’ के साथ संवाद-परिसंवाद आरम्भ हुआ और जल्दी ही हम लोग इलाहाबाद की साहित्यिक धड़कन का हिस्सा बन गए.
यह मेरी जिन्दगी का दूसरा बड़ा मोड़ था. इलाहाबाद पहुँचने के बाद तेजी से पहली स्मृति उभरी जब मैं दस वर्ष की उम्र में अल्मोड़ा जिले के अपने गाँव से आगे की पढ़ाई के लिए नैनीताल के लिए रवाना हुआ था. गाँव के स्कूल में ज्ञान और पढ़ाई का कोई भारी-भरकम अर्थ मालूम नहीं था, सिर्फ यह अहसास था कि जिंदगी का कोई बड़ा और जरूरी काम करने जा रहा हूँ… इस बात का भी हल्का-सा अहसास था कि इस यात्रा के जरिए कोई बड़ा काम करने जा रहा हूँ. मन में उत्साह और कल्पनाओं का अम्बार था, जिसे कैसे व्यवस्थित करना है, कुछ नहीं जानता था.
नैनीताल और इलाहाबाद… बाद में जाकर ये जगहें जिन्दगी के निर्णायक मोड़ साबित हुए. नैनीताल ने भौतिक और सांस्कृतिक संस्कार दिए और इलाहाबाद ने साहित्यिक संस्कार. खास बात ये कि जीवन से जुड़े संस्कारों में मुझे गाँव और नैनीताल ने शैलेश मटियानी दिए और इलाहाबाद ने ज्ञानरंजन. शैलेश मटियानी हमारे ही गाँव के पास के रहने वाले थे. उनकी और मेरी सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक पृष्ठभूमि में कोई फर्क नहीं था. इससे भी बड़ी बात यह थी कि नैनीताल में रहते हुए ही मुझे उनका लेखन विस्तार से पढ़ने को मिला और मन में यह इच्छा जगी कि काश मैं भी ऐसा ही लिख पाता.
बाद में इंटरमीडिएट करने के बाद जब मैं अपनी हताशा और तनाव के दिनों में जब पोखरखाली, अल्मोड़ा के उनके मोहल्ले में मिला तो उनसे और उनके लेखन से जिंदगी जीने और उसे व्यवस्थित करने का हौसला मिला. मटियानी जी ने, जैसी कि उनकी आदत रही है, मुझे कोई उपदेश नहीं दिए, न आर्थिक मदद की, अलबत्ता उनका संघर्ष , उनकी कहानियों, खासकर ‘मेरी तैंतीस कहानियां’ की लम्बी भूमिका ने मानो मेरे भावी जीवन की रूपरेखा स्पष्ट कर दी. उनके जीवन का हर तार मेरी जिंदगी के साथ मिलता था, इसलिए उनके साथ रहते हुए अनेक तरह की कठिनाइयों और परेशानियों के बीच कभी ऐसा नहीं लगा कि उनसे भिन्न अधिक सुविधाओं वाले रास्ते को अपनाया जाये. चूंकि आकांक्षा उन जैसा ही रचनाकार बनने की थी, इसलिए जिन विपरीत स्थितियों में वो जीते थे, उन्हें चाहे तकलीफ देती हों, मुझे तो उन कठिनाइयों से पार पाने का दुस्साहस ही प्राप्त होता था. और यह अहसास सिर्फ मेरा नहीं था; हमारी पीढ़ी के सभी लेखकों, खासकर पहाड़ी लेखकों का उनके बारे में था. पचास से लेकर सत्तर-अस्सी के बीच उभरे कथाकारों में शायद ही कोई हो, जिस पर मटियानी जी का प्रभाव न पड़ा हो.
ठीक यही स्थिति ज्ञानरंजन जी के बारे में थी. मेरे लिए भी, हिंदी के युवा रचनाकारों के लिए भी. इलाहाबाद मेरे लिए हर रूप में एकदम नया शहर था. मटियानी जी परिचित तो थे, मगर उन पर आर्थिक आधार पर निर्भर नहीं रहा जा सकता था. ज्ञानरंजन जी से ऐसा परिचय नहीं था कि उनके सामने इस तरह के सहयोग की बात की जा सकती. मगर ज्ञान जी निश्चित रूप से इलाहाबाद के बाकी लेखकों से अलग थे. दूधनाथ सिंह उनके सहपाठी थे, मित्र भी थे, दोनों की संभावनाशील कहानीकार के रूप में चर्चा भी खूब होती थी, मगर ज्ञान दूधनाथ ही नहीं, उस वक़्त के किसी भी लेखक से अलग और खास लगते थे. धीरे-धीरे यह बात भी उजागर हो चुकी थी कि ज्ञानरंजन उस रूप में ‘लेखक-टाइप’ लेखक नहीं थे, एक सहज और ईमानदार इन्सान थे (हैं). यह बात कम बड़ी नहीं है कि ज्ञान ने अपनी सारी उम्र इस संतुलन को बनाये रखा है. अपने दौर में लेखकों की राजनीति, सेमिनार-संवाद में वो तब भी हिस्सा लेते हुए नहीं दिखाई देते थे, बाद के दिनों में भी, मुझे याद नहीं पड़ता कि वो किसी औपचारिक, पंडिताऊ चर्चा के हिस्सा रहे हों. विशाल हिंदी-विद्वत समाज का हिस्सा बनने की उनकी इच्छा रही हो, उनमें यह भाव मैंने कभी नहीं देखा. फिर भी वे ऐसे लोगों के आतंक का केंद्र ही नहीं, एक अलग तरीके से उनके प्रेरक भी रहे. ‘पहल’ के प्रकाशन के बाद उन्होंने तमाम रचनात्मक चर्चाओं का आयोजन किया और ये सभी उन औपचारिक आयोजनों और चर्चाओं के लिए एक तरह से उनका वास्तविक चेहरा दिखाने में पूरी तरह कामयाब रहे.
यह बात अलग है कि ‘नई कहानी’ के झंडावर्दारों के रूप में विगत आधी सदी में जिन लोगों ने भी मैदान फतह किया हो, हर महत्वाकांक्षी कथाकार की इच्छा रही है कि वह किसी-न-किसी आन्दोलन का नेतृत्व करे. बावजूद इसके, कोई भी कथाकार वह चर्चा नहीं अपना सका जो अकेले ज्ञानरंजन ने अपनी सीमित कहानियों के द्वारा सहज ही प्राप्त कर ली थी. यहाँ तक कि ‘आंचलिक’ और ‘व्यंग्य’ जैसी स्वतंत्र दिखाई देने वाली विधाओं को भी इतनी चर्चा नहीं प्राप्त हो सकी जो स्थानीयता और व्यंग्य के अलग तेवर के साथ चर्चा में रही ज्ञानरंजन की कहानियों को सहज ही प्राप्त हो गई. उनकी कहानियां किसी नियत ढांचे के अंतर्गत न तो समाती हैं और न उनके बिना किसी उल्लेखनीय शैली का जिक्र किया जा सकता है. यह बात हिंदी के किसी दूसरे लेखक में शायद ही दिखाई देती हो.
शैलेश मटियानी और ज्ञानरंजन का एक साथ जिक्र करना कई लोगों को अटपटा लग सकता है; यह वास्तविकता भी है कि इन दोनों के बीच समान बातें तय कर पाना कठिन है, मगर जो बात मुझे इन दोनों को आपस में जोड़ती दिखाई देती है वह भी सहित्य के तर्क की नहीं, जिंदगी से ही जुड़ी हुई हैं. मुझे लगता है, जिंदगी बनाने और विकसित करने वाले घटक जिंदगी से जुड़े ही हो सकते हैं, उसे निखारने वाले घटक नहीं. मेरा आशय कलाएं और ज्ञान-विज्ञान से जुड़े दूसरे आयामों से है. कला जिंदगी से अलग नहीं है, न उसका विन्यस्त टुकड़ा. कला एक स्वायत्त और सामानांतर जीवन है, उतना ही महत्वपूर्ण जितना स्वयं जिंदगी. शैलेश मटियानी अपने परवर्ती लेखन में जीवन के आरंभिक और अनिवार्य दबावों से भटके हुए दिखाई देते हैं, उनकी वरीयताएँ भी बाद के जीवन में न सिर्फ बदली हैं, उन्होंने अपने जीवन के मूल दबावों को ख़ारिज भी किया है. मैं उस राजनीतिक विचारधारा की बात नहीं कर रहा हूँ, जिसके कारण उनकी आलोचना होती रही है… वास्तविकता तो यह है कि राजनीतिक धाराएँ आदमी का रचनात्मक दर्शन बनाती भी नहीं हैं… मटियानी जी ने अपने लेखन के आरम्भ में जिन रचनात्मक और वैचारिक शक्तियों का चयन किया था, देखा यह गया कि बाद के जीवन में इन शक्तियों से उनका मोहभंग हो गया था. मोहभंग की प्रक्रिया स्वाभाविक है, मगर जो प्रक्रिया इस दौरान अपनाई गयी है, क्या वह उससे अधिक श्रेष्ठ है, जिसे त्यागा गया है!
अधिक साफ ढंग से कहें तो शैलेश मटियानी जिस नारकीय जीवन के भयावह चित्र अपने आरंभिक लेखन में उठाते हैं, एक सीमा के बाद वे गायब हो जाते हैं और जो नए जीवन बिम्ब उनके लेखन में उभरते है, वे कुछ-कुछ कर्मकांडी और समझौता-परस्त-से उभर कर सामने आते हैं. जिन स्थितियों ने उनके ‘लेखक’ को जन्म दिया था, मानो वे प्रेत बनकर हवा में उड़ जाते हैं और जो नया रचनाकार उभरता है, वह उन प्रेतों के साथ अन्धविश्वासी खेल खेलता हुआ दिखाई देता है. शैलेश मटियानी की आरंभिक कहानियां – ‘जिबुका’, ‘काले कव्वा’, ‘रमौती’, ‘रहमतुल्ला’, ‘इब्बू मलंग’, ‘दो दुखों का एक सुख’ आदि दर्जनों कलात्मक कहानियों का तेवर जब ‘प्यास’, ‘हारा हुआ’, ‘अहिंसा’. ‘अर्धांगिनी’, ‘नदी किनारे का गाँव’ आदि कहानियों के रूप में बदला हुआ दिखाई देता है तो ऐसा ही अहसास होता है. यह सच है कि शिल्प और भाषा की चुस्ती इन परवर्ती कहानियों में अतिरिक्त ध्यान आकर्षित करती है, मगर वहां बनावट का अतिरिक्त तेवर और बनावटी जिंदगी का तेवर भी साफ देखा जा सकता है; जो कहानी को निश्चय ही नुकसान पहुँचाता है.
शैलेश मटियानी और ज्ञानरंजन का एक साथ उल्लेख उनकी रचनाओं की कलात्मकता को ध्यान में रखकर नहीं, जीवन के प्रति उनके रवैये और प्रस्तुतीकरण को ध्यान में रखकर किया गया है. वास्तविकता यह भी है कि इन दोनों ने मात्रा में जितना लिखा है, वह भी अलग तरह की असंगति को जन्म देता है. मैंने दोनों कहानीकारों को उनकी अपने समाज और संसार की संरचना को ध्यान में रखकर एक जगह पर रखा है. मटियानी जी में तो बहुत साफ दिखाई देता है, ज्ञानरंजन में उनका संसार एक अलग मध्यवर्गीय असंगतिपूर्ण परिवेश के रूप में सामने आता है; यद्यपि पहले में वह निम्नवर्गीय समाज के रूप में और दूसरी जगह एक नवजात मध्यवर्गीय विडम्बनाओं के रूप में आता है. ज्ञानरंजन की पहली ही कहानी ‘फेंस के इधर-उधर’ उस पारिवारिक तथा सामाजिक विखंडन की वानगी है जो उनकी पीढ़ी में एकाएक उभरे विरोधाभास के रूप में समूचे भारतीय समाज में दिखाई दिया था.
वास्तविकता यह भी है कि इसी ने भारतीय समाज का मध्यवर्ग पैदा किया. निश्चय ही यह मध्यवर्ग ज्ञान से पहले अस्तित्व में नहीं था, यह कहना भी ज्यादती होगी. मोहन राकेश, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी आदि ने अपने नाटकों-कहानियों में उसे प्रस्तुत कर दिया था, मगर वह समाज के अलग वर्ग की पीड़ा थी, एक तरह से वह स्त्री-पुरुषों के बीच आये आर्थिक परिवर्तन और उससे उगे भारतीय मध्यवर्ग का ढांचा था. ज्ञानरंजन की नजर आर्थिक असमानता और उससे उगे स्त्री-पुरुष के अहम् पर नहीं है. यहाँ ज्ञान समूचा सांस्कृतिक पट-परिवर्तन और उससे निर्मित हो रहे नए समाज की ओर बहुत साफ इशारा करते है. इस रूप में वो नए मध्यवर्गीय भारतीय समाज के प्रथम अन्वेषक कहे जा सकते हैं.
ऐसा तो कतई नहीं है कि ज्ञानरंजन से पहले इस मध्यवर्ग को लेकर किसी ने लिखा ही नहीं. देखा जाये तो उनकी पीढ़ी का हर तीसरा कथाकार पीढ़ियों के इस अंतराल को लेकर लिख रहा था. रवीन्द्र कालिया, महेंद्र भल्ला, विजय मोहन सिंह, मनोहरश्याम जोशी, काशीनाथ सिंह, रामनारायण शुक्ल, ममता कालिया, शानी आदि कितने ही ऐसे लोग हैं जो नए समाज में आये परिवर्तन के आधार पर सामाजिक असंगतियों को रेखांकित कर रहे थे. इसके बावजूद ज्ञानरंजन सबसे अलग, मौलिक और विश्वसनीय अंतर्दृष्टि वाले कहानीकार हैं. उनकी कहानियों – ‘पिता’, ‘रचना प्रक्रिया’ ‘धांसू’ आदि अनेकों कहानियां इसकी गवाह हैं.
हिंदी लेखन में आलोचना-चर्चा का अपना अलग संसार है. ज्यादातर चर्चाएँ व्यक्ति केन्द्रित होती हैं और उनमें भी उनकी रचनाओं की अपनी मौलिकता तथा सामाजिक अंतर्विरोधों की उनकी पकड़ को कम ही ध्यान दिया जाता है. शायद इसी का नतीजा है कि हिंदी की चर्चा-आलोचनाओं को गंभीरता से एकदम नहीं लिया जाता. इतने खेमे और घेरे हैं और वे अपने-अपने पूर्वाग्रहों के प्रति इतने पूर्वाग्रही हैं कि एक सामान्य पाठक के लिए कोई एक राय बना पाना असंभव लगता है.
शैलेश मटियानी जिस परिवेश की उपज थे, उसे उन्होंने कलात्मक भाषा और संरचना तो दी ही, उस समाज के बदले और वास्तविक फलक को सम्पूर्ण ताजगी के साथ अपनी रचनाओं में उकेरा. जो पहाड़ अब तक औपनिवेशिक रूमान के प्रतीक समझे जाते थे, जहाँ पहाड़ का अर्थ नदी, जंगल, शिखर, विरह गीत और हरी-भरी वनस्पतियाँ समझा जाता था, मटियानी ने पहली बार उसके केंद्र में पहाड़ी आदमी और उसके कठिन जीवन की विसंगतियों को रेखांकित किया.
इसी प्रकार ज्ञानरंजन ने शुद्धतावादी, कर्मकांडी और धर्मभीरु हिंदी समाज का वास्तविक चेहरा पहली बार रेखांकित किया जो सिर्फ गुडी-गुडी, अलौकिक, शाश्वत और खुद को न्योछावर कर देने को ही प्रेम नहीं मानता, जिंदगी की वास्तविकता से जूझते, झगड़ते-गरियाते-लतियाते लोगों की जिंदगी को केंद्र में रखा; यही नहीं, नए उग रहे मध्यवर्ग को उसकी वास्तविक भाषा दी. साठ-सत्तर के दशक के बाद का कहानी लेखन इस रूप में ज्ञानरंजन का आभारी है.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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